रिक्शा चालक अमीर व्यापारी को अस्पताल लेकर गया, जब व्यापारी ने किराए के बारे में पूछा…

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हरी की नेकी: एक रिक्शेवाले की अनमोल कहानी

कभी-कभी जिंदगी के सबसे अंधेरे रास्तों पर हमें एक ऐसी रोशनी मिलती है, जो न सिर्फ हमारा रास्ता रोशन करती है, बल्कि हमारी पूरी मंजिल ही बदल देती है। यह कहानी है हरी की, एक ऐसे रिक्शेवाले की, जिसके हाथ मेहनत से कठोर हो चुके थे, पर दिल मोम से भी नरम था। जिसने एक तूफानी रात में एक अमीर सेठ की जान बचाई। और जब उस सेठ ने उसे उसकी नेकी की कीमत अदा करनी चाही, तो हरी ने किराए में कुछ ऐसा मांग लिया, जिसे सुनकर उस अमीर सेठ के होश उड़ गए। उसने दौलत नहीं मांगी, घर नहीं मांगा। उसने एक ऐसा सौदा किया, जिसने दो टूटे हुए दिलों को एक ऐसे मकसद से जोड़ दिया, जो दौलत से कहीं ज्यादा कीमती था।

चलिए उस तूफानी रात में हरी के रिक्शे पर सवार होकर उस सफर पर चलते हैं, जिसने न सिर्फ एक जान बचाई, बल्कि हजारों जिंदगियों को बचाने की बुनियाद रखी।

लखनऊ: नवाबों का शहर और हरी की जिंदगी

लखनऊ, नवाबों का शहर, जहां की सुबह चाय की चुस्कियों और अजान की आवाजों से शुरू होती है और रातें पुराने किस्सों की गहराइयों में खो जाती हैं। इसी शहर की तंग और पुरानी गलियों में हरी अपनी जिंदगी का बोझ अपने तीन पहियों वाले रिक्शे पर खींच रहा था। 50 साल के हरी के चेहरे की झुर्रियों में मेहनत और गम की अनगिनत कहानियां लिखी थीं। पिछले तीस वर्षों से वह इसी शहर की सड़कों पर रिक्शा चला रहा था।

हरी का रिक्शा पुराना था, सीट फटी हुई थी, पर हरी का दिल सोने का था। हर सवारी उसके लिए सिर्फ किराया नहीं, बल्कि एक इंसान थी, जिससे वह दो बातें करके अपनी दुनिया का अकेलापन बांट लेता था। हरी का घर गोमती नदी के किनारे एक छोटी सी बस्ती में था। एक कमरे का कच्चा मकान, जहां वह अपनी पत्नी शांति के साथ रहता था। उनकी दुनिया बहुत छोटी और सादी थी, पर उसमें एक बहुत बड़ा खालीपन था। एक ऐसा दर्द, जिसे समय की कोई भी धूल ढक नहीं पाई थी।

करीब दस साल पहले उनका इकलौता बेटा मोहन, जो आठ साल का था, एक ऐसी बीमारी का शिकार हो गया था, जिसका इलाज शहर के बड़े अस्पतालों में ही मुमकिन था। हरी ने अपना सब कुछ बेच दिया, दिन-रात रिक्शा चलाया, कर्ज लिया, पर वह अपने बेटे के इलाज के लिए जरूरी पैसे जमा नहीं कर पाया। एक दिन मोहन अपने पिता की गोद में ही इलाज के अभाव में हमेशा के लिए सो गया। उस दिन के बाद हरी और शांति जैसे जीना ही भूल गए थे।

पर उन्होंने अपने गम को अपनी कमजोरी नहीं बनाया। उन्होंने फैसला किया कि वे अपनी बची हुई जिंदगी दूसरों के काम आने में गुजारेंगे। हरी अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा निकालकर बस्ती के गरीब बच्चों के लिए किताबें और भूखों के लिए रोटी का इंतजाम करता। उसका एक सपना था, एक बहुत बड़ा सपना। वह अपनी बस्ती में अपने बेटे मोहन के नाम पर एक छोटा सा दवाखाना खोलना चाहता था, ताकि जो उसके बेटे के साथ हुआ, वह किसी और गरीब के बच्चे के साथ न हो।

हरी अपने रिक्शे में एक छोटा सा डिब्बा रखता था, जिस पर लिखा था “मोहन का दवाखाना”। दिन भर की कमाई के बाद जो भी चिल्लर बचती, वह उसमें डाल देता। दस सालों में उस डिब्बे में कुछ ₹1000 ही जमा हो पाए थे, पर हरी की उम्मीद जिंदा थी।

तूफानी रात और एक अनजान सेठ की जिंदगी

उस रात लखनऊ पर आसमान जैसे टूट पड़ा था। घनघोर बारिश, तेज हवाएं और कड़कती बिजली। सड़कें तालाब बन चुकी थीं और लोग अपने घरों में दुबके हुए थे। रात के 11 बजे थे। हरी दिन भर की थकान के बाद भीगता हुआ अपने घर की ओर लौट रहा था। उसका मन आज भारी था क्योंकि बारिश की वजह से कमाई कुछ खास नहीं हुई थी। वह हजरतगंज के पास से गुजर रहा था, तभी उसकी नजर सड़क के किनारे खड़े एक बुजुर्ग पर पड़ी। वह एक बड़ी पुरानी हवेली के गेट के बाहर खड़े थे, पूरी तरह भीगे हुए और अपने सीने को कसकर पकड़े हुए थे। उनके चेहरे पर असहनीय पीड़ा के भाव थे और वह मुश्किल से सांस ले पा रहे थे। कोई गाड़ी उनके पास नहीं रुक रही थी। शायद उन्हें कोई आम भिखारी समझकर लोग नजरअंदाज कर रहे थे।

हरी ने अपना रिक्शा फौरन उनके पास रोका। “साहब, क्या हुआ? आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है।”

बुजुर्ग ने मुश्किल से आंखें खोलीं, “मुझे अस्पताल ले चलो। मेरा दिल…” उनकी आवाज दर्द में डूबी थी। हरी को अपने बेटे मोहन की याद आ गई, जिसे भी सांस लेने में दिक्कत होती थी। उसने एक पल भी गवाए बिना बुजुर्ग को सहारा दिया और रिक्शे में बिठाया। उसने अपनी फटी हुई गमछी से उनका चेहरा पोंछा। “आप चिंता मत कीजिए, सेठ जी, मैं हूं ना। मैं आपको कुछ नहीं होने दूंगा।”

बुजुर्ग के कपड़े कीमती थे और उनकी कलाई पर बंधी घड़ी बताती थी कि वह कोई अमीर इंसान थे। हरी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर उस पानी भरी सड़क पर रिक्शा दौड़ा दिया। बारिश और तेज हो गई थी। हरी के फेफड़ों में सांस फूल रही थी, पर वह रुका नहीं। वह लगातार बुजुर्ग से बातें करता रहा ताकि वह होश में रहे। “सेठ जी, आंखें खुली रखिए। बस हम पहुंचने वाले हैं। देखिए, वह सामने अस्पताल की रोशनी दिख रही है। आप अपने बच्चों के बारे में सोचिए, सब ठीक हो जाएगा।”

सेठ दामोदर दास, जो शहर के सबसे बड़े और पुराने उद्योगपतियों में से एक थे, दर्द में थे, पर हरी की आवाज़ ने उन्हें अजीब सा सुकून दिया। उन्हें लगा जैसे कोई फरिश्ता उन्हें बचाने आया है। करीब आधे घंटे की जद्दोजहद के बाद हरी सेठ दामोदर दास को शहर के सबसे बड़े प्राइवेट अस्पताल के इमरजेंसी दरवाजे पर लेकर पहुंचा। उसने जोर-जोर से आवाज लगाकर डॉक्टरों और नर्सों को बुलाया। सेठ जी को तुरंत अंदर ले जाया गया। हरी वहीं बाहर एक बेंच पर बैठ गया, पूरी तरह भीग चुका और कांप रहा था, लेकिन वहां से नहीं गया। वह इंतजार करने लगा, उस अनजान सेठ की सलामती की दुआ मांगने लगा।

करीब दो घंटे बाद एक डॉक्टर बाहर आए और बोले, “आपने इन्हें सही समय पर पहुंचा दिया। कुछ मिनट की और देरी होती तो कुछ भी हो सकता था। अब वह खतरे से बाहर हैं।” यह सुनकर हरी के दिल में जान आई। उसने ऊपर वाले का शुक्र अदा किया और चुपचाप अपना रिक्शा लेकर घर की ओर चल दिया। उसने किसी को कुछ नहीं बताया, न पैसों की मांग की, न अपना नाम बताया।

सेठ का एहसान और हरी का जवाब

कुछ दिन बाद सेठ दामोदर दास अस्पताल से ठीक होकर घर लौटे। उन्होंने अपने मैनेजर को बुलाया और उस रिक्शेवाले को खोजने का आदेश दिया जिसने उनकी जान बचाई थी। मैनेजर ने शहर के सारे रिक्शा स्टैंड पर पूछताछ की, लेकिन हरी का पता नहीं चला। सेठ को लगने लगा कि शायद वह फरिश्ते से दोबारा नहीं मिल पाएंगे।

पर किस्मत ने कुछ और ही लिखा था। एक हफ्ते बाद जब हरी उसी अस्पताल के बाहर सवारी का इंतजार कर रहा था, तो सेठ के मैनेजर ने उसे पहचान लिया। वह हरी को लेकर सेठ दामोदर दास के आलीशान प्राइवेट रूम में पहुंचा। हरी इतना बड़ा और साफ-सुथरा कमरा देखकर घबरा गया, पर सेठ के चेहरे पर गहरा आभार था। उन्होंने हरी को बैठने के लिए कहा। हरी झिझकते हुए एक कोने में खड़ा हो गया।

“आओ, मेरे पास बैठो,” सेठ ने नरम आवाज़ में कहा। “उस दिन तुमने मेरी जान बचाई। मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं चुका सकता।”

हरी ने हाथ जोड़कर कहा, “सेठ जी, मैंने कोई एहसान नहीं किया। मैंने तो बस अपना फर्ज निभाया।”

“नहीं,” सेठ बोले, “तुमने फर्ज से बढ़कर काम किया। बताओ, तुम्हें क्या चाहिए? मैं तुम्हारी ईमानदारी और नेकी की कीमत अदा करना चाहता हूं।” उन्होंने अपनी चेक बुक निकाली और हरी की ओर बढ़ा दी। “इस पर अपनी मनचाही रकम भर लो। एक नया घर, अपनी पत्नी के लिए गहने, बच्चों की पढ़ाई, जो मांगोगे मिलेगा। मैं तुम्हें इतना पैसा दूंगा कि तुम्हारी सात पीढ़ियों को रिक्शा चलाने की जरूरत न पड़े।”

हरी ने खाली चेक को देखा। एक पल के लिए उसकी आंखों के सामने अपनी गरीबी, अपनी जरूरतें और अपनी पत्नी का चेहरा घूम गया। वह चाहता तो उस पर लाखों रुपये भरकर अपनी सारी मुश्किलें खत्म कर सकता था। पर फिर उसे अपने बेटे मोहन का मासूम चेहरा याद आया और वह सपना जो उसने मोहन के लिए देखा था। उसने विनम्रता से चेक वापस सेठ की ओर बढ़ाया।

“सेठ जी, मुझे आपकी दौलत नहीं चाहिए।”

सेठ दामोदर दास हैरान रह गए। “क्या पैसा नहीं चाहिए? तो फिर क्या चाहिए तुम्हें?”

हरी की आंखों में आंसू थे। उसने कहा, “सेठ जी, अगर आप सच में मुझे कुछ देना चाहते हैं तो एक गरीब बाप का सपना पूरा कर दीजिए।”

“कैसा सपना?” सेठ ने उत्सुकता से पूछा।

हरी ने अपनी कांपती आवाज़ में अपने बेटे मोहन की पूरी कहानी सुनाई। कैसे वह एक छोटी सी बीमारी से इलाज के पैसे न होने के कारण उसकी गोद में ही दम तोड़ गया था। उसने अपने छोटे से डिब्बे और दवाखाने के सपने के बारे में बताया। “सेठ जी, दौलत का मैं क्या करूंगा? वह मेरे बेटे को वापस नहीं ला सकती। पर अगर आपकी मदद से मेरी बस्ती में एक छोटा सा दवाखाना खुल जाए, जहां गरीब बच्चों का मुफ्त इलाज हो, तो शायद मोहन जैसे और बच्चे मरने से बच जाएंगे। अगर आप यह कर सकें तो यही मेरे लिए आपकी सबसे बड़ी कीमत होगी। यही मेरा किराया होगा।”

सेठ दामोदर दास के होश उड़ गए। उन्होंने बड़े-बड़े सौदे देखे थे, पर आज एक गरीब रिक्शेवाला उनसे हजारों बच्चों की जिंदगी का सौदा कर रहा था। उसकी मांग में उसके लिए कुछ नहीं था, सिर्फ दूसरों के लिए एक दर्द, एक तड़प। सेठ की कठोर आंखें नम हो गईं। वह उठे और हरी के पास आए।

“आज तक मैं सोचता था कि मेरे पास बहुत दौलत है, मैं कुछ भी खरीद सकता हूं। पर आज तुमने मुझे एहसास दिलाया है कि असली दौलत क्या होती है। असली अमीर तुम हो, हरी। मैं तुम्हारे सामने बहुत गरीब हूं।”

सेठ ने एक ऐसा सच बताया जिसने हरी को भी चौंका दिया। “हरी, मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकता हूं क्योंकि मैं भी अभागा हूं जिसने अपनी दौलत के बावजूद अपने इकलौते पोते को खो दिया है। उसे भी ऐसी बीमारी थी, और मेरे सारे पैसे बड़े डॉक्टर भी बचा नहीं सके। उस दिन के बाद मैंने जीना ही छोड़ दिया था। पर आज तुमने मुझे फिर से जीने का मकसद दे दिया है।”

सेठ ने फैसला किया। “तुम एक छोटे से दवाखाने की बात करते हो। मैं तुम्हारे बेटे मोहन के नाम पर इस शहर का सबसे बड़ा बच्चों का चैरिटेबल अस्पताल बनवाऊंगा। ऐसा अस्पताल जहां किसी भी बच्चे का इलाज पैसे की कमी की वजह से नहीं रुकेगा। और इस अस्पताल को तुम चलाओगे। तुम इसके मुख्य ट्रस्टी होगे। क्योंकि इस काम के लिए डॉक्टर या मैनेजर की नहीं, बल्कि तुम्हारे जैसे नेक और संवेदनशील दिल वाले इंसान की जरूरत है।”

नई शुरुआत और एक उम्मीद की किरण

कुछ सालों में गोमती नदी के किनारे मोहन चिल्ड्रंस हॉस्पिटल खड़ा हो गया। हरी अब रिक्शा नहीं चलाता था। वह उस अस्पताल का संचालक था। वह हर दिन उन बच्चों की सेवा करता जिनके चेहरों में उसे अपने मोहन की मुस्कान दिखती थी। सेठ दामोदर दास भी अपना सारा वक्त उसी अस्पताल में बिताते, दो पिता जो अपने बच्चों को खो चुके थे, अब हजारों बच्चों के पिता बन गए थे।

हरी और सेठ दामोदर दास की यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का कोई मोल नहीं होता। जब आप दूसरों के दर्द को अपना बना लेते हैं, तो किस्मत आपके कदमों में वह सब कुछ रख देती है जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होती।