IPS मैडम निरीक्षण के लिए जा रही थी 10 साल पहले खोया बेटा रास्ते में भीख मांगता हुआ मिला फिर,,,
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सौम्या शुक्ला: एक माँ और अफसर की अनकही कहानी
सुबह की पहली किरणें आसमान को छू रही थीं, और शहर की हलचल धीरे-धीरे जाग रही थी। लेकिन सौम्या शुक्ला के लिए यह सुबह किसी भी अन्य दिन से अलग थी। वह एसपी मैडम थीं, जिन्होंने अपने कर्तव्य और मातृत्व के बीच एक कठिन संतुलन बनाए रखा था। आज उनकी सादगी ही उनकी पहचान थी—नीली सूती साड़ी, बिना किसी पुलिस की गाड़ी या सुरक्षा गार्ड्स के। एक ऐसी महिला, जो दस सालों से देश की सेवा कर रही थी, लेकिन अपने दिल के सबसे गहरे दर्द को छुपाए हुए।
आज सौम्या किसी केस की फाइल देखने नहीं जा रही थीं, न किसी मीटिंग में शामिल होने। आज उनका मन कुछ और तलाश रहा था—शांति, सुकून, और शायद एक खोए हुए हिस्से की वापसी।
सौम्या अपनी गाड़ी खुद चला रही थीं, ड्राइवर को छुट्टी दे दी थी। उनका रास्ता शहर के उस हिस्से की ओर था जहाँ गरीबों की झुग्गियाँ थीं, जहाँ की गलियों से दुर्गंध आती थी, लेकिन इंसानियत अब भी कहीं न कहीं सांस ले रही थी।
गाड़ी की खिड़की से बाहर झांकते हुए उन्होंने देखा बच्चे प्लास्टिक के टुकड़े उठाकर खेल रहे थे, एक बूढ़ी औरत नाली के पास सब्जी काट रही थी, और एक नन्हा बच्चा बिना चप्पलों के मिट्टी में कुछ बना रहा था। सौम्या की नजर उस बच्चे पर टिक गई। उसका चेहरा मिट्टी से लिपटा हुआ था, लेकिन उसकी आंखें—वो आंखें—जैसे बरसों से उनके सपनों में आती रही हों।
सौम्या का दिल कांप उठा। वह गाड़ी रोककर बच्चे के पास गईं। बच्चा लगभग दस-ग्यारह साल का था, बदन पर ढीले-ढाले कपड़े और चेहरे पर धूल। फिर भी उसकी मुस्कान में एक जानी-पहचानी मासूमियत थी।
धीरे से सौम्या ने पूछा, “बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?”
बच्चा डरकर थोड़ा पीछे हट गया, कुछ नहीं बोला। सौम्या ने नरमी से कहा, “डरो मत, भूख लगी है? कुछ खिलाऊं?”
बच्चा खामोश रहा, लेकिन उसकी आंखों में आंसू थे। सौम्या की ममता छलक पड़ी। वह यादों में खो गई—दो साल का उनका खोया हुआ बेटा, जो रेलवे स्टेशन की भीड़ में कहीं गुम हो गया था। पुलिस अफसर होने के बावजूद वह उसे नहीं ढूंढ पाई थीं। न जाने कितनी रातें जागती रहीं, लेकिन हर बार हार मान ली गई कि बच्चा अब इस दुनिया में नहीं है।
लेकिन आज, उस बच्चे की आंखों में वह मासूमियत देख कर सौम्या को लगा कि शायद यह वही उनका खोया हुआ बेटा हो।
बच्चे ने धीरे-धीरे बिस्किट लिया और खाने लगा। सौम्या ने उससे पूछा, “तुम्हारे साथ कौन है?”
बच्चा बोला, “कोई नहीं है। मैं बस यहीं हूँ। कभी अम्मा आती थी, वो भीख मांगती थी, अब नहीं आती।”
सौम्या के रोंगटे खड़े हो गए। कहीं यह वही गैंग तो नहीं जो बच्चों को किडनैप कर उनकी पहचान मिटा देता है?
उन्होंने मन ही मन सोचा, “क्या यह मेरा बेटा हो सकता है?”
बच्चा उठकर जाने लगा, लेकिन सौम्या ने उसका हाथ पकड़ लिया। “रुको, क्या तुम्हें कुछ याद है? कोई गाना, कोई लोरी, कोई नाम?”
बच्चा ठिठका, सिर झुकाया, और फिर फुसफुसाते हुए वही लोरी गुनगुनाने लगा जो सौम्या अपने बेटे को सुनाया करती थीं—
“निंदिया रानी आई रे, मां की गोदी लाई रे…”
सौम्या की आंखों से आंसू बह निकले। वह लड़के को गले लगाना चाहती थीं, लेकिन खुद को रोका। अगर यह गलत साबित हो गया, तो बच्चे के लिए यह भारी पड़ सकता था।
उन्होंने बच्चे को अपने साथ ढाबे पर ले जाकर खाना खिलाया। हर हावभाव, हर आदत उन्होंने नोट की—कैसे वह रोटी तोड़ता है, पानी पीता है, कैसे एक बात पर उंगली दबाता है—सब कुछ वैसा ही था जैसा उनका बेटा करता था।
सौम्या ने ठाना कि वह इस बच्चे की पहचान ज़रूर पता लगाएंगी। लेकिन अब वह अफसर नहीं, सिर्फ एक मां बनकर यह लड़ाई लड़ेंगी।
रात को जब बच्चा सोया, सौम्या देर तक उसकी पुरानी तस्वीरें देखती रहीं। शक और यकीन के बीच झूलती रहीं।
अगली सुबह उन्होंने बिना बताए डीएनए टेस्ट के लिए सैंपल लिया।
रात को जब पूरा शहर सोया हुआ था, सौम्या बिस्तर के किनारे बैठी थीं, हाथ में बच्चे की बचपन की तस्वीरें। हर मुस्कान, हर लकीरें उनके दिल में बज रही थीं मानो कोई भूला हुआ संगीत।
मां का दिल कोई लॉजिक नहीं समझता, वह सिर्फ धड़कनों को पहचानता है।
सौम्या के भीतर दो लोग जूझ रहे थे—एक अफसर जो सबूत के बिना फैसला नहीं करती, और एक मां जो बिना सबूत के भी यकीन करती है।
बच्चा अब साफ चादर पर सो रहा था, बालों में तेल लगाया गया था, नाखून कटे थे। सोते वक्त भी वह हल्का कांप रहा था, एक हाथ पेट पर रखा था—शायद भूख की आदत।
कभी-कभी वह नींद में बड़बड़ाता था—”मम्मा, पानी।”
सौम्या ने धीरे से उसका सिर सहलाया। वह पहली बार महसूस कर रही थीं कि यह स्पर्श किसी खोए हुए मंदिर के द्वार को छू रहा है।
सुबह डीएनए रिपोर्ट आई। सौम्या ने लिफाफा खोला तो उनकी आंखें भर आईं—मिलान हो गया था। वह बच्चा वही था जो दस साल पहले लापता हुआ था।
सौम्या ने बच्चे को बाहों में भर लिया। वह घबरा गया, लेकिन उनकी आंखों के आंसू उसे शांत कर गए।
“मैं तुम्हारी मम्मा हूं बेटा,” उन्होंने फुसफुसाया। “मैंने कभी तुझे छोड़ा नहीं।”
बच्चा सुबकता रहा, शायद अभी सब समझ नहीं पा रहा था।
सौम्या ने उसे अपने पास बैठाया और वादा किया कि वह उसे उस दुनिया से दूर रखेंगी जिसने उसे इस हाल में पहुंचाया।
उस दिन उनके ऑफिस के सारे केस रुके। सौम्या ने पहली बार अपने बेटे की आंखों में सीधे देखा और अपराधियों को पकड़ने से ज़्यादा संतोष महसूस किया।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।
सौम्या ने तय किया कि अब वह अपनी मां की भूमिका निभाते हुए इस लड़ाई को आगे बढ़ाएंगी।
उन्होंने अपने भरोसेमंद अधिकारियों की टीम बनाई, जो बच्चों की तस्करी के खिलाफ काम करने लगी।
सौम्या ने रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर नजर रखनी शुरू की, जहां से सबसे ज्यादा बच्चे गायब होते थे।
एक दिन उन्हें पता चला कि एक चाइल्ड होम में एक बच्चा लगातार “सोनू मम्मा” कह रहा था। होम के रजिस्टर से पता चला कि उसे वहीं छोड़ा गया था, और छोड़े वाले का हुलिया उसी रैकेट का था जो उन्होंने पकड़ा था।
यह लड़ाई अब सिर्फ एक मां की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के खिलाफ थी।
सौम्या ने राज्य सरकार को इस मामले से अवगत कराया, एक विशेष जांच टीम गठित हुई, और सौम्या को उसका प्रमुख बनाया गया।
अर्जुन अब स्कूल जाने लगा था। पहली बार स्कूल यूनिफॉर्म में, वह सौम्या के लिए फिर से एक सपना बन गया।
अर्जुन स्कूल से लौटते वक्त अपनी छोटी-छोटी खुशियां सौम्या से साझा करता।
एक दिन उसने कहा, “मां, क्या मैं बड़ा होकर पुलिस बन सकता हूं?”
सौम्या ने मुस्कुराते हुए कहा, “तू जो चाहे बन सकता है बेटा, लेकिन कभी किसी मासूम की आवाज मत दबने देना।”
सौम्या ने राज्य के पुलिस विभागों को आदेश दिया कि बाल अपराध से जुड़े किसी भी केस की निगरानी वे स्वयं करेंगी।
उनकी पहल पर राज्य में बाल पुनर्वास इकाइयां बनीं, हर गुमशुदा बच्चे की फाइल फिर से खोली गई, और परिवारों से संपर्क किया गया।
मीडिया ने सौम्या और अर्जुन की कहानी को देश भर में फैलाया।
लेकिन सौम्या कैमरों से दूर रहना पसंद करती थीं, क्योंकि यह कहानी सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि हजारों मां-बाप की उम्मीद थी।
अर्जुन अब स्कूल जाता, पढ़ता, बोलता, और अपनी कहानी दूसरों को सुनाता।
एक दिन कॉलेज में भाषण देते हुए उसने कहा, “मैं वह बच्चा हूं जिसे दुनिया ने खो दिया था, लेकिन मेरी मां ने मुझे ढूंढ लिया।”
सौम्या की आंखों में अब आंसू नहीं, बल्कि एक नई सुबह की चमक थी।
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