बाबा कैलाशनाथ की जंग: डीएम विवेक शर्मा का स्टिंग ऑपरेशन

लखनऊ की सर्द सुबह थी। शहर में हल्की धुंध फैली हुई थी और लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। सरकारी दफ्तरों की इमारतें हमेशा की तरह गंभीर और भारी लग रही थीं। इन्हीं दफ्तरों में एक नाम था—डीएम विवेक शर्मा। अपनी न्यायप्रियता, तेजतर्रार फैसलों और बेदाग छवि के लिए मशहूर विवेक शर्मा को लोग सम्मान से देखते थे। लेकिन उस दिन उनकी आंखों में चिंता थी। उनके सामने एक ऐसी चुनौती थी, जिसे पार करना आसान नहीं था।

सुबह-सुबह उनके मोबाइल पर एक गुप्त कॉल आया। दूसरी ओर से धीमी, घबराई आवाज थी—
“साहब, तहसील कार्यालय में बड़ा घोटाला चल रहा है। कुछ अधिकारी और कर्मचारी एक नेता के इशारे पर रिश्वत का खेल खेल रहे हैं। सब कुछ बहुत गुप्त है। कोई पकड़ नहीं सकता।”

विवेक शर्मा की धड़कनें तेज हो गईं। वह जानते थे कि यह सूचना मामूली नहीं है। उन्होंने कुछ देर सोचा और फिर मन ही मन फैसला किया—अगर भ्रष्टाचार को खत्म करना है, तो सिस्टम के भीतर घुसना पड़ेगा। उन्होंने अपनी सरकारी वर्दी उतारी, नेमप्लेट हटाई और साधु का भेष धारण कर लिया। अब वह बाबा कैलाशनाथ बन चुके थे—गेरुआ वस्त्र, लंबी दाढ़ी, सिर पर चोटी और हाथ में कमंडल। उनका मिशन था—सच को उजागर करना, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी पहचान ही क्यों न खोनी पड़े।

शहर की गलियों में बाबा कैलाशनाथ भिक्षा मांगते घूमने लगे। सड़क किनारे पेड़ के नीचे बैठकर भीख मांगना, टूटे कमंडल में चावल और सिक्के जमा करना—सब कुछ योजना का हिस्सा था। तभी वहां दो पुलिसकर्मी आए—एक युवा सिपाही और एक दरोगा सुरेश। दरोगा ने बाबा को देखा, व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ बोला—
“ए बाबा, क्या कर रहे हो यहां? ईश्वर की खोज में हो या पैसा कमाने आए हो?”

बाबा कैलाशनाथ ने शांत स्वर में जवाब दिया—
“बेटा, ईश्वर की खोज में हूं। जो मिला, दान में मिला है।”

दरोगा ने तंज कसते हुए कहा—
“यहां तो पैसा चलता है, ईश्वर नहीं। कुछ चढ़ावा दो, तभी आगे का रास्ता मिलेगा।”
बाबा ने मना किया, तो दरोगा ने सिपाही से कहा—
“इसे सबक सिखाओ।”
सिपाही ने बाबा को धक्का दिया, दरोगा ने थप्पड़ जड़ दिया।
“चल हट यहां से, भिक्षा मांगने नहीं लात खाने आए हो क्या?”
भीड़ हंस रही थी, लेकिन किसी को पता नहीं था कि साधु के वेश में वही अधिकारी है, जो कल तक इन सबकी गर्दन तक पहुंच सकता है।

अगले दिन बाबा कैलाशनाथ तहसील कार्यालय के दरवाजे पर पहुंचे। उनकी आंखों में योजना का जोश था। फाटक पर खड़े बाबू ने ऊपर से नीचे तक देखा और गुर्राया—
“कहां चले आए हो बाबा? मंदिर समझ रखा है क्या? यहां कानून चलता है, भजन-कीर्तन नहीं।”

बाबा कैलाशनाथ ने विनम्रता से कहा—
“बेटा, तुम्हारे दरबार में फरियाद लेकर आया हूं। मेरी मदद करो।”

बाबू ने ठहाका लगाया—
“फरियाद तू करेगा? भगवान खुद इंसाफ मांगने आया है!”
अंदर से कर्मचारी हबीब आया, उसकी आंखों में व्यंग्य था।
“बाबा, तुम्हारे जैसे बहुत आते हैं। भूख लगती है तो साधु बन जाते हैं। चलो आगे बढ़ो।”

बाबा कैलाशनाथ वहीं खड़े रहे—
“मैं तब तक नहीं जाऊंगा जब तक मेरी बात नहीं सुनी जाती।”
हबीब को गुस्सा आ गया। उसने कमर से डंडा निकाला और बाबा के कमंडल पर मारा—
“यहां ड्रामा नहीं चलता। भाग यहां से वरना हड्डियां तोड़ दूंगा।”

एक और कर्मचारी वर्मा आया, उसने बाबा का हाथ पकड़कर अंदर खींचा और फर्श पर धक्का दे दिया। अब बाबा सिर्फ एक संदिग्ध भिखारी थे, जिनके साथ कुछ भी किया जा सकता था। सच का पर्दाफाश करने उतरे डीएम विवेक शर्मा को पहली बार अपनी योजना की गंभीरता का एहसास हुआ। शेर की मांद में कदम रखा था। अभी सिर्फ धक्कामुक्की हुई थी, लाठी चलना बाकी था।

तहसील के धूल भरे फर्श पर बाबा कैलाशनाथ गिरे पड़े थे। कुछ ही पल पहले जिन पैरों में हुकूमत की ताकत थी, अब वे पैरों से कुचले जा रहे थे। कर्मचारी वर्मा ने उनके गेरुआ कपड़े को खींचते हुए कहा—
“यह तो कोई ड्रामेबाज है। पता नहीं कौन सा पागल साधु बनकर आया है। आजकल अपराधी भी भेष बदल लेते हैं।”

हबीब ने लाठी उठाई और पहला वार बाबा की पीठ पर किया—
“सच बताएगा कौन है तू? किसलिए आया है?”
बाबा कैलाशनाथ दर्द से कराह उठे, लेकिन चुप रहे। योजना का सबसे अहम हिस्सा था—सहनशीलता। बोलते ही मिशन खत्म हो जाता। उन्हें सिर्फ रिश्वत नहीं, पूरे षड्यंत्र को उजागर करना था।

लाठी की आवाज तहसील की दीवारों में गूंज रही थी, लेकिन किसी ने उन्हें रोका नहीं। एक कर्मचारी मोबाइल में गेम खेलता रहा, दूसरा हंसता हुआ बोला—
“अब यह बाबागिरी नहीं करेगा।”

हर प्रहार के साथ विवेक शर्मा की आंखों में सच्चाई और स्पष्ट होती जा रही थी—यहां कानून नहीं, लाठी का कानून चलता है। उन्होंने अंदर के एक कमरे में नजर दौड़ाई, वहां एक मेज थी जिस पर मोटा रजिस्टर खुला पड़ा था। उस रजिस्टर में दर्ज थे—नाम, केस और रिश्वत की राशि। खेल सिर्फ बाहर नहीं, कागजों में भी खेला जा रहा था।

तभी एक युवक घबराया हुआ आया—
“साहब, मेरे खेत पर अवैध कब्जा हो गया है। शिकायत लिखवानी है।”

कर्मचारी हबीब ने उसकी ओर देखा—
“5000 लाओ, तभी कलम चलेगी। वरना यहां से चले जाओ।”

बाबा कैलाशनाथ ने सब सुन लिया। अब कोई शक नहीं था—यहां के रखवाले ही भक्षक बन चुके थे। उनकी योजना ने नया मोड़ लिया—अब वे सिर्फ गवाह नहीं, गवाही देने वाले तूफान बनना चाहते थे।

रात होने लगी थी, बाबा कैलाशनाथ को एक कोने की कोठरी में डाल दिया गया। शरीर पर लाठी के निशान जल रहे थे, लेकिन आंखों में आग थी। वे हार मानने नहीं, इतिहास लिखने आए थे। धीरे-धीरे तहसील कार्यालय में हलचल कम होने लगी। विवेक शर्मा ने चुपचाप अपने कमंडल से माइक्रो कैमरा निकाला—वही कैमरा जिसे गेरुआ कपड़े के भीतर छिपा रखा था। अब तक हर वार, गाली, सौदे रिकॉर्ड हो चुके थे।

दीवार के पार से आवाजें आने लगीं—
“विधायक जी का फोन आया है। उस जमीन वाले केस को दबा दो। दो लाख दिए हैं, आधा ऊपर जाएगा, बाकी बांट लेंगे।”

इन आवाजों ने विवेक शर्मा की नसों में आग भर दी। उन्होंने कैमरे को दीवार की दरार में टिकाया और पूरा संवाद रिकॉर्ड कर लिया। अब उनके पास सबूत था।

अगली सुबह तहसील कार्यालय के गेट पर अचानक सफेद सरकारी गाड़ियों की कतार लग गई—एक Fortuner, एक एंबेसडर, दो जीपें। सभी कर्मचारी हैरान थे। भीड़ में से साधु की तरह कपड़े पहने आदमी ने कदम आगे बढ़ाया। लाठी की मार से झुकी कमर अब सीधी हो रही थी। चेहरे का भाव अधिकार में बदल चुका था। गेरुआ चोला उतारते ही सब सन्न रह गए—
“मैं डीएम विवेक शर्मा हूं। कल रात जो हुआ, उसकी एक-एक तस्वीर, एक-एक शब्द अब सबके सामने आएगा।”

सबके चेहरे का रंग उड़ गया। हबीब, वर्मा और अन्य कर्मचारी मूर्तिवत खड़े थे। विवेक शर्मा ने जेब से कैमरा निकाला और पुलिस कप्तान को सौंपा। रिकॉर्डिंग चालू की गई। तहसील में सन्नाटा छा गया। स्पीकर से गूंजने लगी वह बातचीत जिसमें रिश्वत की रकम तय हो रही थी।

एसपी तिवारी ने वहीं खड़े-खड़े तीन कर्मचारियों को निलंबित कर दिया और आदेश दिया—पूरे तहसील की स्वतंत्र जांच होगी। किसी को बख्शा नहीं जाएगा। बाबा कैलाशनाथ की चुप्पी अब गूंज बन चुकी थी। उस दिन गेरुए चोले ने सरकारी वर्दी पहनकर नहीं, उसे उतारकर न्याय दिलाया।

पूरे जिले में यह खबर आग की तरह फैल गई। डीएम साहब साधु बनकर तहसील पहुंचे, लाठी खाकर सच्चाई उजागर कर दी। स्थानीय समाचार चैनलों ने सुर्खियां चलाई—
“बाबा नहीं, बहादुर निकला। डीएम विवेक शर्मा का स्टिंग ऑपरेशन।”

विवेक शर्मा अपनी असली वर्दी में थे—छाती पर चमकता बैज, माथे पर पट्टी, आत्मसम्मान से भरे। जब उनसे पूछा गया—”साहब, आपने जान जोखिम में डालकर यह सब क्यों किया?”
उन्होंने मुस्कुराकर जवाब दिया—
“अगर व्यवस्था खुद गूंगी-बहरी बन जाए तो न्याय सिर्फ किताबों में रह जाता है। मैं किताबों का नहीं, जमीन का आदमी हूं।”

इस घटना के बाद पूरे प्रशासन में एक लहर सी चल गई। मीडिया में खबर ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई। सोशल मीडिया पर #शटगविवेकशर्मा ट्रेंड करने लगा। जनता उनके समर्थन में जुट गई। राज्य सरकार ने विवेक शर्मा को वीरता सम्मान से नवाजा। लेकिन सबसे बड़ी जीत थी—जनता का विश्वास।

गांव वाले जो पहले सरकारी दफ्तरों के नाम से डरते थे, अब कहते थे—जहां विवेक शर्मा जैसा अफसर हो, वहां इंसाफ खुद चलकर आता है।

कुछ महीनों बाद एक स्कूल में बच्चों से पूछा गया—”तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?”
एक नन्हे बच्चे ने जवाब दिया—
“बाबा बनकर बुरे लोगों को पकड़ने वाला पुलिसवाला!”

कक्षा में सब हंसे, लेकिन शिक्षक की आंखें नम थीं। क्योंकि वह जानता था कि इस देश को वर्दी वाले नहीं, भीतर से जलने वाले धधकते दिल वाले अफसर बदलेंगे। और उन दिलों में सबसे ऊपर नाम लिखा गया था—डीएम विवेक शर्मा उर्फ बाबा कैलाशनाथ।

कहानी खत्म नहीं हुई, बस एक मिशन पूरा हुआ। क्योंकि जब व्यवस्था सो जाए तो उसे जगाने के लिए कभी-कभी साधु बनना पड़ता है और लाठी खानी पड़ती है।

कहानी का संदेश:
सच्चाई के लिए लड़ना आसान नहीं, लेकिन जब एक ईमानदार अफसर व्यवस्था के भीतर जाकर खुद को खोकर लड़ता है, तो समाज में बदलाव आता है। भ्रष्टाचार की दीवारें गिरती हैं और इंसाफ की जीत होती है।