परदेस की आंधी: दूरी, विश्वासघात और एक नई शुरुआत की कहानी

मुंबई जैसे सपनों के शहर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर, एक छोटे से गाँव श्यामगढ़ में अंकित का घर था। गरीब मगर इज़्ज़तदार परिवार, जिसमें मां-बाप, छोटी-सी जमीन और सपनों से भरी आंखें थीं। अंकित बचपन से ही अपने मां-बाप के लिए कुछ बड़ा करना चाहता था। जब उसके भैया मनोज और भाभी रीमा की साजिशें, गांव की सीमित दुनिया, और तंगी ने उसे घेर लिया, अंकित ने ठान लिया कि वह विदेशी कुवैत जाकर मजदूरी करेगा — कुछ साल की कड़ी मेहनत, और फिर घर खुशियों से भर जाएगा।

विदेश में शुरुआत आसान नहीं थी। भीड़-भाड़ वाले फॉरेन कैम्प में, छोटी सी झुग्गी, रोज 12 घंटे का काम, गर्मी, दर्द, और अपने लोगों की कमी… पर मां-बाप और पत्नी सुषमा की मुस्कान उसकी थकान मिटा देती थी। हर महीने तनख्वाह का बड़ा हिस्सा वह इंडिया भेजता। सोचता, “मां-बाप को तकलीफ न हो, सुषमा को कभी रोटी-कपड़े की सोच न करनी पड़े।”

दो साल की कड़ी तपस्या के बाद, अंकित वापस लौट रहा था। उसके दिल में बेशुमार बेताबी, आँखों में परिजनों से मिलने की ललक और किस्मत की चमक की उम्मीद थी। दिल्ली से अपने गांव की ट्रेन पकड़ी। सफर में वो यही सोचते गया—कैसा स्वागत होगा, मां की रोटी, बाबूजी की हंसी, पत्नी की झुकी नजर… लेकिन स्टेशन पर वो जो देखेगा, उसका उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।

प्लेटफार्म की वो सुबह और टूटा सपना

सोनपुर रेलवे स्टेशन के कोने में, दो सफेद बालों वाले बुजुर्ग और एक औरत फटे पुराने कपड़ों में, ज़मीन पर कटोरा फैलाए बैठे थे। आंखों में बेचैनी, शरीर पर भूख और बेबसी की छाया। अंकित की नजर जैसे ही उन पर पड़ी, उसके पैर वहीँ रुक गए। यकीन करना मुश्किल था! यह उसके अपने मां-बाप और उसकी पत्नी सुषमा थी।

हवा में प्लेटफॉर्म का शोर गुम सा हो गया, आंखों में धुंध छा गई। सुषमा अंकित को देखते ही भरभराकर रो पड़ी—”अंकित!” अंकित पत्थर सा हो गया, जुबान नहीं खुली। मां-बाप उसे बड़ी उम्मीद से देख रहे थे।

सच्चाई का कड़वा घूंट

अंकित कांपती आवाज में बोला, “सुषमा, ये सब कैसे हुआ? मैं हर महीने पैसे भेज रहा था, मनोज भैया और रीमा भाभी पर भरोसा किया था!” सुषमा ने हाथ पकड़ कर एक सुनसान कोने में बिठाया। मां-बाप थके हुए से बेंच पर बैठ गए। फिर, जैसे गले में अटक गये सारे आंसू और शिकवे एक साथ बह निकले।

“जिस दिन तुम विदेश गए थे, भैया और भाभी ठीक थे। फिर रीमा ने मनोज से बार-बार कहा, ‘भैय्या, जितनी जल्दी हो सके घर, जमीन-जायदाद अपने नाम कर लो, वरना सब अंकित ले जाएगा!’ लालच कुछ ऐसा था कि एक दिन मां-बाप को झांसा देकर पेंशन के नाम पर कागज़ों पर साइन करा लिए। वो कोई साधारण दस्तावेज नहीं, बल्कि सब संपत्ति अपने नाम करने का जाल था। अगले ही दिन भैया-भाभी ने मां-बाप को घर से बेदखल कर दिया। ‘अब ये घर हमारा है, तुम्हारा कुछ नहीं’, यही सुनाया।”

सुषमा की आंखों में खुद भी कई जख्म थे—”मेरे लिए घर में जगह नहीं बची थी, ताने, तिरस्कार, रसोई में ताले, अपमान… मैं मायके गई तो वहां भी बोझ समझा गया। लौटकर देखा, मां-बाप भूखे प्लेटफार्म पर… उस दिन मैंने ठान लिया, इन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूँगी, भीख मांग लूँगी, मगर इनका सहारा बनूँगी।”

अंकित के कानों में यह हर शब्द कील सा चुभ रहा था। जिन अपने पर भरोसा किया, उन्हीं ने सब कुछ छीन लिया! शर्म, दुःख और पछतावे में उसकी आंखें भर आईं।

नई शुरुआत की जिद

जो कमाया था, सब मनोज और रीमा के ट्रैप में चला गया। घर, बैंक, खेत—कुछ भी ना बचा। लेकिन सच्चे इंसान हमेशा उठ खड़े होते हैं। अंकित ने मां, बाप और सुषमा को लेकर पास के शहर संतनगर में किराए का एक कमरा लिया। छोटी सी जगह, दीवारों में सीलन, फटे गद्दे, लेकिन पहली बार अपनापन था।

अगली सुबह बिना समय गंवाए मार्केट में गया। मंडी से पल्लेदारी का काम पकड़ा, बोरियां उठाई, सब्जियां ढोई। दिन थक कर लौटता, लेकिन सुकून से सोता—”कम से कम अब ईमानदारी से पेट पाल रहा हूं।”

धीरे-धीरे सुषमा ने सुझाव दिया—”मंडी के बाहर सब्जी की दुकान खोल लेते हैं, मैं और मां-बाप साथ देंगे।” अंकित के लिए यह उम्मीद की किरण थी। जो पैसा जमा किया, उससे दुकान शुरू की। सुबह-सुबह ताज़ी सब्जियां लाता, दिन भर सुषमा और मां-बाप संभालते।

समय के साथ दुकान चल पड़ी। लोगों को परिवार का अपनापन खींचने लगा। थोडा-थोडा बचत करके कुछ महीने में प्लाट खरीद लिया, फिर पक्का घर भी बन गया। टिकापुर मंडी में अपनी छोटी आढ़त खोल ली। मेहनत, भरोसा, साथ—यही धीरे-धीरे दुनिया बदलने लगा।

मेहनत का फल और गुनहगारों की वापसी

धीरे-धीरे अंकित की मुश्किलें कम हो गईं, सम्मान और खुशियां लौटने लगीं। कुछ साल बाद वही मनोज और रीमा दरदर की ठोकरें खाते उस मंडी में पहुंचे—व्यथा, लालच और धोखेबाज़ी का फल खाने। माँ के पैरों में गिर पड़े—”माँ, माफ कर दो! हमने लालच में आकर गलती की।”

भीड़ में अंकित का गुस्सा फटा, “याद है, घर से निकाला था? अब जब सब छीन गया, तो माफी माँगने आए हो?” लेकिन माँ की ममता पिघल गई, “बेटा, क्षमा में ही सच्ची जीत है। घर तो तब बनेगा जब कुटुंब एक हो।” सुषमा ने भी अंकित से कहा, “अगर हम नफरत करेंगे, तो आज की जीत कल का बोझ बन जाएगी।”

अंकित का दिल नरम पड़ गया। अपने ही खून को सड़कों पर भटकता देखने की पीड़ा उससे सहन नहीं हुई। उसने उन्हें छोटी दुकान लगवा दी, रहने को कमरा दिया—शर्त यही थी: आगे से मेहनत करो, ईमानदारी से जियो।

कहानी की सीख

यही होती है अच्छाई की सच्ची जीत। ज़िंदगी आपको जितना गिरा दे, अगर दिल सच्चा है और अपनों का साथ है तो कोई भी मुसीबत टिक नहीं सकती। रिश्तों की बुनियाद माफ़ी, विश्वास और मेहनत पर है; पैसा, जमीन-जायदाद तोआनी-फानी है।

अगर आप अंकित के स्थान पर होते, तो क्या इतना बड़ा दिल दिखाते? क्या आपके लिए इंसानियत, परिवार, और क्षमा सबसे बड़ी शिक्षा है? जरूर बताइए, और इस कहानी को साझा कीजिए। याद रखिए—हिम्मत, भरोसा और माफ़ी—जिस परिवार में ये हैं, वहाँ कड़ी से कड़ी आंधी भी टिक नहीं सकती।

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