जालिम बेटे ने बहू के बहकावे में माँ को थप्पड़ मारा… फिर माँ ने जो किया… पूरी दुनिया रो पड़ी

थप्पड़ की आवाज – एक मां का सबक

भाग 1: सुबह की खामोशी

शारदा देवी का आंगन हर सुबह तुलसी के पास रखे दीपक की लौ से जगता था। उस दिन भी, जैसे ही सुबह की पहली किरण आई, मिट्टी का दिया बुझ चुका था। हल्की ठंडी हवा में रात की खुशबू तैर रही थी। घर के भीतर बर्तनों की आवाजें आ रही थीं। यह घर शारदा देवी का था – सादा, पर संस्कारों से भरा।

शारदा देवी की उम्र लगभग साठ हो चुकी थी। चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, पर आंखों में वही ममता, वही स्नेह जो बरसों पहले था। पति के गुजरने के बाद यही घर, यही बेटा राघव और बहू नैना उनकी दुनिया थे।

राघव कभी ऐसा नहीं था। बचपन में मां की उंगली पकड़कर स्कूल जाता था। आज वही राघव मां की आंखों में आंखें डालकर बात तक नहीं करता। नौकरी, शहर की भागदौड़ और शादी ने उसे बदल दिया था। बहू नैना पढ़ी-लिखी थी, तेज थी, अपने मायके के सुख-सुविधाओं में पली थी। शादी के बाद जब वह इस घर में आई, तो घर की हवा बदलने लगी।

शुरुआत में शारदा देवी ने हर बात चुपचाप सह ली। उन्हें लगा, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। पर समय ने चीजें ठीक नहीं की, बल्कि और बिगाड़ दी।

भाग 2: रिश्तों की दरार

उस सुबह शारदा देवी रसोई में काम कर रही थीं। उन्होंने राघव के पसंद की सब्जी बनाई थी, दाल में घी डाला था, रोटियाँ भी नरम थीं। जैसे ही उन्होंने थाली परोसी, नैना रसोई में आ खड़ी हुई। “इतना तेल?” नैना ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, “डॉक्टर ने मना किया है!”

शारदा देवी ने धीरे से कहा, “राघव को पसंद है बेटा, इसलिए थोड़ा डाल दिया।”

नैना की आवाज ऊंची हो गई, “आपको अपनी आदतें बदलनी चाहिए। यह घर अब सिर्फ आपका नहीं है।”

शारदा देवी चुप रहीं। उनकी चुप्पी में शिकायत नहीं थी, बस थकान थी। नाश्ते की मेज पर राघव बैठा था, मोबाइल में आंखें गड़ाए। नैना ने थाली उसके सामने रखी और बोली, “देख लो, तुम्हारी मां को मेरी कोई बात समझ नहीं आती।”

राघव ने बिना ऊपर देखे कहा, “मां, नैना सही कह रही है। आपको थोड़ा समझना चाहिए।”

शारदा देवी ने उसकी ओर देखा – वही बेटा, जिसकी हर चोट पर उनकी आंखें रोई थीं, आज बिना देखे उन्हें समझा रहा था। उन्होंने कुछ कहना चाहा, पर शब्द गले में अटक गए।

दिन बीतते गए, ताने बढ़ते गए – कभी खाने पर, कभी कपड़ों पर, कभी पूजा पर। शारदा देवी सब सहती रहीं। उन्हें लगा, मां का धर्म ही सहना होता है।

भाग 3: सीमा का टूटना

एक दिन दोपहर को घर में नैना के मायके से मेहमान आने वाले थे। शारदा देवी सुबह से ही काम में लगी थीं। नैना बार-बार रसोई में आकर टोक रही थी – “यह सब्जी ऐसे नहीं बनती”, “यह मिठाई बाजार से ले आनी चाहिए थी”, “आपको कुछ आता ही नहीं।”

अंत में शारदा देवी से एक गलती हो गई – दाल में नमक थोड़ा ज्यादा हो गया। नैना ने चखते ही थाली रख दी, “यह क्या बना दिया है? मेरे मायके वाले आएंगे और आप हमें शर्मिंदा करवाएंगी!”

शारदा देवी ने कांपती आवाज में कहा, “गलती हो गई बेटा, अभी ठीक कर देती हूं।”

“हर बार गलती!” नैना गुस्से से बोली, “राघव, देख रहे हो अपनी मां को?”

राघव वहां आ गया। उसने दाल चखी, चेहरा बिगाड़ा, “मां, आपको कितनी बार कहा है ध्यान रखा करो।”

शारदा देवी की आंखें भर आईं, “बेटा, उम्र हो गई है, कभी-कभी…”

इतना सुनते ही नैना ने कहा, “तो फिर किचन छोड़ दीजिए। हर बात में उम्र का बहाना!”

राघव का गुस्सा भड़क गया, “बस मां, हर बात में रोना-धोना!”

शारदा देवी ने पहली बार आवाज उठाई, “मैं रो नहीं रही बेटा, बस समझाने की कोशिश कर रही हूं।”

और तभी राघव ने गुस्से में हाथ उठा दिया – एक जोरदार थप्पड़! पूरा घर सन्न रह गया। शारदा देवी का सिर घूम गया। कानों में सीटी बजने लगी। वो वही खड़ी रह गई, जैसे जमीन ने पकड़ लिया हो।

थप्पड़ की आवाज दीवारों से टकरा कर लौट आई। नैना चुप थी। उसकी आंखों में ना पछतावा था, ना डर – बस एक अजीब सी संतुष्टि। राघव भी कुछ पल के लिए स्तब्ध हो गया। उसने कभी सोचा नहीं था कि उसका हाथ मां पर उठेगा।

शारदा देवी ने धीरे-धीरे अपना सिर उठाया। उनकी आंखों में आंसू नहीं थे – बस एक गहरी शांति थी। उन्होंने बिना कुछ कहे अपना आंचल ठीक किया, रसोई से बाहर आ गईं। ना कोई शिकायत, ना कोई चीख।

भाग 4: मां की चुप्पी – एक निर्णय

उस शाम मेहमान आए। खाना खाया, हंसे-बोले। किसी को पता नहीं चला कि इस घर में क्या टूटा है। रात को शारदा देवी अपने कमरे में बैठी रहीं। दीवार पर टंगी राघव की बचपन की तस्वीर को देखती रहीं। उन्होंने मन ही मन कहा, “आज मां मरी नहीं है, पर आज मां जाग गई है।”

राघव को लगा, सब सामान्य हो जाएगा, जैसे हर बार होता आया था। पर उसे नहीं पता था – मां की चुप्पी अब कमजोरी नहीं थी। यह एक निर्णय था और यही निर्णय आने वाले दिनों में हर बेटे के लिए सबक बनने वाला था।

अगली सुबह घर में अजीब सी खामोशी थी। शारदा देवी रोज की तरह सुबह चार बजे नहीं उठीं। ना तुलसी को पानी मिला, ना रसोई से बर्तनों की आवाज आई। नैना की नींद खुली तो घड़ी ने सात बजा रखे थे। वह झुंझला कर उठी, “आज मां ने चाय तक नहीं बनाई।”

राघव भी हैरान था, “अभी आती होंगी।” लेकिन समय बीतता गया – आठ बजे भी कोई आवाज नहीं। नाश्ता नहीं, चाय नहीं।

नैना झल्लाकर शारदा देवी के कमरे की ओर बढ़ी। दरवाजा आधा खुला था। अंदर झांकते ही वो ठिटक गई – कमरा सलीके से सजा था, बिस्तर ठीक किया हुआ, अलमारी बंद, दीवार पर टंगी तस्वीरें अपनी जगह, लेकिन शारदा देवी वहां नहीं थीं।

टेबल पर एक कागज रखा था। राघव ने कांपते हाथों से वो कागज उठाया – “मैं कहीं जा रही हूं। ढूंढने की कोशिश मत करना। जब सही समय आएगा, खुद लौट आऊंगी। – मां”

राघव के हाथ से कागज गिरते-गिरते बचा। “यह क्या है?” उसने घबरा कर कहा। नैना ने कागज पढ़ा और बोली, “नाटक है। थोड़े दिन में लौट आएंगी।” लेकिन राघव का मन बेचैन हो उठा। उसके कानों में कल का थप्पड़ गूंज रहा था। उसकी आंखों के सामने मां का शांत चेहरा घूम रहा था। “नहीं, मां ऐसे नहीं जाती।”

उसने जल्दी-जल्दी फोन मिलाया। फोन बंद। पड़ोसियों से पूछा, किसी ने नहीं देखा। राघव के सीने में अजीब सी कसक होने लगी।

भाग 5: मां के बिना घर

शाम को वह जल्दी घर लौट आया। घर पहले जैसा ही था, पर कुछ गायब था – वह आत्मा जो घर को घर बनाती है। राघव ने पहली बार खुद रसोई में कदम रखा। वहां ठंडापन था। उसने फ्रिज खोला – सब्जियां कटी हुई नहीं थीं, दाल भिगोई नहीं थी।

उसे अचानक एहसास हुआ – मां सिर्फ खाना नहीं बनाती थी, वो जिंदगी को आसान बनाती थी।

नैना सोफे पर बैठी टीवी देख रही थी। “खाना?” राघव ने पूछा।

नैना ने रिमोट घुमाते हुए कहा, “बाहर से मंगा लो।”

राघव कुछ पल खड़ा रहा, “मां कहां जाएंगी?” उसने धीमे से पूछा।

नैना ने कंधे उचकाए, “कई रिश्तेदारों के यहां। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हो?”

राघव को उसका यह लहजा चुभ गया, “वो मेरी मां है।” उसने पहली बार सख्ती से कहा।

रात को राघव को नींद नहीं आई। वह बार-बार उठकर मां के कमरे में जाता, खाली कुर्सी को देखता।

अगले दिन उसने छुट्टी ले ली। वो मां की पुरानी अलमारी खोलने लगा। उसमें कपड़ों के नीचे एक पुरानी डायरी मिली। डायरी के पन्ने पीले पड़ चुके थे। उसने पहला पन्ना खोला – “आज राघव स्कूल गया। नया बैग लिया है। पैसे कम थे, पर उसके चेहरे की खुशी बहुत थी।”

अगला पन्ना – “आज राघव को बुखार है। रात भर जागी हूं। भगवान इसे ठीक कर देना।”

एक-एक पन्ना मां के त्याग की कहानी कह रहा था। आखिरी पन्ने पर लिखा था – “आज मेरे बेटे ने मुझे मारा। शायद मैंने कहीं कमी छोड़ दी। लेकिन अब मुझे कुछ सिखाना होगा – अपने बेटे को भी और खुद को भी।”

राघव का सिर झुक गया। उसे समझ आ गया – मां भागी नहीं है, मां ने एक रास्ता चुना है।

भाग 6: आश्रम की शांति

शहर से दूर एक छोटे से आश्रम में शारदा देवी बैठी थीं। आश्रम का नाम था ‘मातृछाया’। यह वही जगह थी जहां कभी वह अनाथ बच्चों के लिए चावल देने आया करती थीं। आज वह खुद वहां शरण लेने आई थीं।

आश्रम की संचालिका वृद्धा सावित्री देवी उन्हें देख मुस्कुराई, “आ गई बेटी?” उन्होंने स्नेह से पूछा।

शारदा देवी की आंखें भर आईं, “अब मां बनने आई हूं – पहली बार अपने लिए।”

सावित्री देवी ने उनका हाथ थाम लिया, “यहां तुम्हें कोई थप्पड़ नहीं मारेगा।”

उस रात शारदा देवी ने चैन की नींद ली।

उधर राघव करवट बदलता रहा। उसे पहली बार लगा, मां के बिना वो कितना अकेला है – और यह एहसास धीरे-धीरे उसके भीतर कुछ तोड़ रहा था, कुछ बदल रहा था।

आश्रम की सुबह बिल्कुल अलग होती है – ना हॉर्न की आवाज, ना टीवी का शोर, ना किसी के ताने। सूरज की पहली किरण जैसे ही पेड़ों के बीच से झांकती, मातृछाया आश्रम जाग उठता।

शारदा देवी आज बहुत दिनों बाद बिना किसी डर के जागी थीं। ना यह चिंता कि नाश्ता देर हो जाएगा, ना यह डर कि किसी को पसंद आएगा या नहीं। उन्होंने चुपचाप आंखें खोली, छत की ओर देखा। मन में एक अजीब सी शांति थी।

पास ही एक छोटी सी बच्ची बैठी थी। “गुड़िया दादी, आप जाग गई?” उसने मुस्कुरा कर पूछा।

शारदा देवी के होठों पर भी हल्की मुस्कान आ गई, “हां बेटा।”

गुड़िया अनाथ थी – मां-बाप दोनों एक हादसे में चले गए थे। आश्रम ही अब उसका घर था। गुड़िया ने उनका हाथ पकड़ लिया, “आप आज मेरे बाल बना दोगी?”

शारदा देवी की आंखें नम हो गईं – कितने समय बाद किसी ने उनसे प्यार से कुछ मांगा था। “जरूर।” उन्होंने कहा।

उस दिन शारदा देवी ने गुड़िया के बाल गूंथे, उसे खाना खिलाया, कहानियां सुनाई – और उन्हें महसूस हुआ उनके भीतर की मां अभी जिंदा है। बस गलत जगह कैद थी।

भाग 7: आत्मबोध का समय

शहर में राघव की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। ऑफिस में बैठा होता, पर ध्यान घर में लगा रहता। ना काम में मन, ना दोस्तों में दिल। रात को जब वह थका-हारा घर लौटता, तो घर उसे काटने दौड़ता। ना कोई आवाज, ना कोई पूछने वाला।

नैना पहले जैसी ही थी। उसे लगता था, सब कुछ सामान्य है। “आप बेवजह परेशान हो रहे हो,” वो अक्सर कहती, “मां को आदत है नाटक करने की।”

लेकिन राघव जानता था – यह नाटक नहीं है।

एक दिन ऑफिस में उसका बॉस अचानक बोला, “राघव, तुम ठीक तो हो? पिछले कुछ दिनों से बहुत बिखरे हुए लग रहे हो।”

राघव चुप रहा।

बॉस ने गहरी सांस ली, “घर की परेशानी?”

राघव की आंखें भर आईं। पहली बार उसने किसी से सच कहा – “मैंने अपनी मां को मारा था, सर।”

कमरे में सन्नाटा छा गया। बॉस ने कुछ पल बाद कहा, “गलती सबसे होती है। पर असली सवाल यह है – क्या तुम उसे सुधारना चाहते हो?”

यह सवाल राघव के दिल में उतर गया।

शाम को वह सीधा मां के कमरे में गया। वहां रखी छोटी सी मंदिर की घंटी को छुआ। उसे याद आया – हर सुबह मां सबसे पहले यही माथा टेकती थी।

और उसी पल राघव के भीतर कुछ टूट गया। वह फूट-फूट कर रो पड़ा।

नैना ने पहली बार उसे इस हालत में देखा, “इतना क्यों रो रहे हो?” उसने असहज होकर पूछा।

राघव ने उसकी ओर देखा – उस नजर में दर्द था, पर साथ ही सवाल भी। “तुम्हें सच में फर्क नहीं पड़ता?” उसने पूछा।

नैना चुप हो गई।

“अगर कल तुम्हारे पापा तुम्हारी मां को मार दें?” राघव की आवाज कांप गई, “तो क्या तुम उसे नाटक कहोगी?”

नैना का चेहरा पीला पड़ गया। पहली बार उसे अपनी सोच पर चोट लगी। वह कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द नहीं मिले।

भाग 8: बदलाव की शुरुआत

आश्रम में शारदा देवी अब रोज की दिनचर्या में ढल चुकी थीं। वो बच्चों को पढ़ाने लगीं, कपड़े सिलने लगीं, रसोई में मदद करने लगीं। हर कोई उन्हें ‘शारदा मां’ कहने लगा।

एक दिन सावित्री देवी ने उनसे कहा, “तुम यहां सिर्फ शरण लेने नहीं आए हो। तुम्हें यहां भेजा गया है।”

शारदा देवी समझ गईं – भगवान ने उन्हें कमजोर नहीं बनाया था, बस उन्हें उनकी कीमत याद दिलानी थी।

उसी शाम आश्रम में एक कार्यक्रम रखा गया – ‘मां का सम्मान’। बच्चों ने नाटक किया, गीत गाए। एक बच्चे ने मंच से कहा, “मां वो होती है जो खुद रोकर हमें हंसाती है।”

शारदा देवी की आंखों से आंसू बह निकले।

उधर राघव ने आखिरकार निर्णय ले लिया – वह मां को ढूंढेगा। उसने पुराने कागज निकाले, उन जगहों की लिस्ट बनाई जहां मां कभी जाया करती थीं – मंदिर, पुराना स्कूल, मातृछाया आश्रम।

नाम पढ़ते ही उसका दिल जोर से धड़का। अगले दिन वह अकेला ही वहां पहुंचा।

भाग 9: मां का सबक

आश्रम के गेट पर लिखा था – “यहां मां सुरक्षित है।”

राघव की आंखें भर आईं। वो अंदर गया। दूर से उसने मां को देखा – वो बच्चों के बीच बैठी थीं, हंस रही थीं। वही मां, जिसे उसने थप्पड़ मारा था।

उसका कदम वही रुक गया – क्या वो हकदार है मां के सामने जाने का? उसने छुप कर देखा। मां खुश थी। पहली बार उसे यह समझ आया – उसकी मां को उसकी जरूरत नहीं थी, उसे मां की जरूरत थी।

राघव चुपचाप वहां से लौट आया। लेकिन उसका मन बदल चुका था। अब सवाल यह नहीं था कि मां कब लौटेंगी, सवाल यह था कि क्या वह खुद बेटा बनने लायक बन पाया है?

घर लौटते ही सब कुछ बदला-बदला लगा। दीवारें वही थीं, फर्नीचर वही, पर घर-घर नहीं लग रहा था।

नैना खामोश बैठी थी। टीवी बंद था। पहली बार घर में सन्नाटा था।

राघव ने चुपचाप जूते उतारे। नैना ने उसकी ओर देखा, “मां मिल गई?” उसने धीमे स्वर में पूछा।

राघव ने सिर हिलाया, “हां, लेकिन अभी नहीं आना चाहती।”

नैना कुछ देर चुप रही, फिर पहली बार उसकी आवाज कांपी, “वह ठीक तो है ना?”

राघव ने उसे देखा, “हां, ठीक है – शायद हमसे ज्यादा।”

नैना की आंखें भर आईं। वह सोफे से उठी और धीरे-धीरे राघव के पास आई, “राघव, शायद गलती मेरी भी थी।”

यह पहला मौका था जब नैना ने ‘शायद’ कहा था। “मैंने कभी नहीं सोचा था कि आपकी मां भी टूट सकती है। मुझे लगा वह हमेशा सह लेंगी।”

राघव ने गहरी सांस ली, “यही हमारी सबसे बड़ी गलती थी।”

उस रात राघव और नैना दोनों को नींद नहीं आई। दोनों पहली बार अपने भीतर झांक रहे थे।

भाग 10: माफी और परिवर्तन

अगले दिन नैना पहली बार मंदिर गई। उसने सिर झुकाया, कोई मांग नहीं रखी – बस एक बात कही, “अगर मुझे मौका मिले तो मैं खुद को बदलना चाहती हूं।”

आश्रम में शारदा देवी का जीवन अब नई दिशा ले चुका था। वह बच्चों के लिए सिर्फ दादी नहीं थीं, वो उनकी मां थीं। एक बच्चा बीमार होता तो शारदा देवी रात भर जागतीं, किसी को बुखार आता तो वही माथा सहलातीं।

सावित्री देवी एक दिन बोलीं, “तुम्हें पता है यहां आने के बाद कितने बच्चों की जिंदगी बदली है?”

शारदा देवी मुस्कुराईं, “मैंने तो बस प्यार दिया है – और वही सबसे बड़ी दवा है।”

पर दिल के किसी कोने में एक कसक अब भी थी – बेटे की मां चाहे कितनी भी मजबूत क्यों ना हो, दिल का एक हिस्सा हमेशा बच्चों के नाम रहता है।

समाज की नजर में शारदा देवी के जाने की बात मोहल्ले में फैल गई। लोग बातें करने लगे – “आजकल मां-बाप की कदर ही कहां है?”, “बेटे-बहू के गुलाम हो जाते हैं”, “मां को मारना – यह तो कलयुग है।”

यह बातें धीरे-धीरे राघव तक भी पहुंचीं। हर शब्द उसे अंदर से चीरता।

एक दिन ऑफिस में उसके ही जूनियर ने कहा, “सर, मां तो भगवान होती है।”

राघव ने चुपचाप सिर झुका लिया। उसे समझ आ गया – यह सजा उसे समाज नहीं दे रहा, यह सजा उसका जमीर दे रहा है।

भाग 11: बड़ा फैसला

एक रात राघव ने नैना से कहा, “मैं मां को वापस लाने नहीं जाऊंगा।”

नैना चौंक गई, “तो फिर?”

“मैं उन्हें यह दिखाने जाऊंगा कि मैं बदल गया हूं। और अगर वह ना लौटना चाहें तो मैं उनकी इज्जत करूंगा।”

अगले दिन दोनों आश्रम पहुंचे। इस बार नैना भी साथ थी।

आश्रम के गेट पर वही शब्द लिखे थे – “यहां मां सुरक्षित है।” नैना की आंखों से आंसू बह निकले।

अंदर जाते ही शारदा देवी की नजर राघव और नैना पर पड़ी। कुछ पल सब थम गया – ना कोई आवाज, ना कोई कदम।

राघव आगे बढ़ा। उसके पैर कांप रहे थे। और फिर वो मां के सामने घुटनों के बल बैठ गया, “मां…” उसकी आवाज टूट गई, “मुझे माफ कर दो।”

नैना भी रोते हुए बोली, “मां, मैंने आपको कभी मां नहीं समझा। आज समझ आई है।”

शारदा देवी ने कुछ नहीं कहा। उन्होंने बस दोनों को देखा। उन आंखों में गुस्सा नहीं था, पर जल्दी माफी भी नहीं।

“माफी शब्दों से नहीं होती,” उन्होंने शांत स्वर में कहा, “माफी बदलने से होती है।”

राघव ने सिर झुकाया, “मैं बदल गया हूं, मां – और बदलता रहूंगा।”

भाग 12: मां का निर्णय

शारदा देवी ने गहरी सांस ली, “मैं अभी वापस नहीं आऊंगी।”

नैना रो पड़ी, लेकिन शारदा देवी आगे बोलीं, “मैं तुमसे रिश्ता तोड़ भी नहीं रही। मैं यहां इसलिए हूं ताकि हर मां यह सीखे कि सहना ही धर्म नहीं है, और हर बेटा यह सीखे कि मां की चुप्पी कमजोरी नहीं होती।”

राघव की आंखों से आंसू बहते रहे। उसने सिर हिलाया, “जब तुम सच में बेटा बन जाओगे,” शारदा देवी बोलीं, “तब मैं खुद लौट आऊंगी।”

महीने बीतने लगे। राघव हर हफ्ते आश्रम आता – बिना जिद, बिना शिकायत। नैना बच्चों के लिए कपड़े लाती, खुद खाना बनाती, शारदा देवी से सीखती। धीरे-धीरे नैना बदलने लगी। अब वह आदेश नहीं देती थी, वह मदद करती थी।

एक दिन आश्रम के बच्चों ने नाटक किया – कहानी थी एक बेटे की, जो मां की कीमत बहुत देर से समझता है। राघव और नैना दर्शकों में बैठे रो रहे थे। शारदा देवी मंच के पीछे खड़ी थीं – उनके चेहरे पर संतोष था।

भाग 13: अंतिम दृश्य

एक सुबह शारदा देवी ने अपना बैग उठाया। सावित्री देवी मुस्कुराई, “समय आ गया?”

शारदा देवी ने सिर हिलाया, “अब वह बेटा मां के लायक बन गया है।”

जब वह घर लौटीं, दरवाजे पर नैना ने उनके पैर छुए। राघव ने बस मां को गले लगा लिया। कोई शब्द नहीं, बस आंसू।

भाग 14: कहानी की सीख

इस कहानी का अंत घर लौटने से नहीं हुआ। इसका अंत सोच बदलने से हुआ। मां को मारना सिर्फ हाथ उठाना नहीं होता – मां को नजरअंदाज करना भी उतना ही बड़ा अपराध है। और जब मां चुप हो जाए तो समझ लेना – वो हार नहीं मानती, वो खुद को बचा रही होती है।

जिस मां ने अपने बेटे के लिए पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी, उसी मां पर जब हाथ उठा तो उसने बदला नहीं लिया – उसने सबक दिया। एक ऐसा सबक, जो हर बेटे को याद रखना चाहिए।

मां की इज्जत करना कोई एहसान नहीं – यह हमारा फर्ज है।

अगर इस कहानी ने आपकी आंखें नम कर दी हों, अगर आपने अपनी मां की तस्वीर अपने सामने देखी हो तो आज ही अपनी मां को एक कॉल जरूर करना और उनसे कहना – “मां, मैं आपसे बहुत प्यार करता हूं।”

समाप्त