“अनाथ लड़के ने दोस्त के लिए बेच दिया गोल्ड मेडल, अगले दिन सामने आया उसका अरबपति पिता!”

अनाथ अर्जुन की दोस्ती, त्याग और किस्मत बदलने वाली कहानी

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दिल्ली के एक सरकारी बाल आश्रम की दीवारों के पीछे, जहां बच्चों की हंसी के नीचे अकेलापन और बिछड़ने का दर्द छुपा था, वहीं रहता था 17 साल का अर्जुन। दस साल पहले अपने माता-पिता को खो चुका अर्जुन, शांत स्वभाव का, मगर भीतर से ज्वालामुखी की तरह जलता हुआ, कुछ कर दिखाने की आग लिए हुए। उसकी पहचान थी—दौड़। मैदान में उसके कदम सपनों की ओर बढ़ते थे। कोच शुक्ला जी ने उसमें आत्मविश्वास बोया था, और उसी का सबसे सुनहरा फल था—नेशनल अंडर-18 एथलेटिक्स चैंपियनशिप का गोल्ड मेडल, जो उसकी चारपाई के पास दीवार पर टंगा हुआ था।

अर्जुन के जीवन में सबसे खास था उसका छोटा दोस्त, 14 साल का रोहन—कमजोर, बातूनी, किताबों का दीवाना। दोनों एक-दूसरे की परछाईं थे, एक-दूसरे का सहारा। अर्जुन रोहन का बड़ा भाई था, उसके लिए अपनी रोटी तक छोड़ देता, और रोहन अर्जुन की तन्हाई का साथी था।

एक दिन अचानक रोहन बेहोश होकर गिर पड़ा। डॉक्टर ने बताया—रोहन के दिल में छेद है, तुरंत ओपन हार्ट सर्जरी जरूरी है, वरना उसकी जान जा सकती है। खर्चा—तीन लाख रुपये। आश्रम के पास इतने पैसे नहीं थे। अर्जुन के पास भी नहीं। दो दिन में मुश्किल से 25,000 रुपये जुटे। अर्जुन की आंखों के सामने उसका दोस्त मरता नजर आ रहा था। उस रात अर्जुन ने दीवार पर टंगे अपने गोल्ड मेडल को देखा—उसकी पहचान, उसकी मेहनत, उसका सपना। मगर दोस्त की जान बचाने के लिए उसने अपने सपने को कुर्बान करने का फैसला किया।

सुबह होते ही अर्जुन चांदनी चौक के दरीबा कलां पहुंचा। सेठ गिरधारी लाल की दुकान पर उसने कांपते हाथों से मेडल बेच डाला—सिर्फ 65,000 रुपये में। अर्जुन ने झूठ बोलकर पैसे शर्मा जी को दे दिए। अब भी ऑपरेशन के लिए पैसे पूरे नहीं थे, मगर अर्जुन ने अपनी सबसे कीमती चीज़ खो दी थी। दीवार की कील खाली थी, दिल भी।

अगली सुबह आश्रम के गेट पर चार-चार काली महंगी गाड़ियां आकर रुकीं। उनमें से उतरे भारत के मशहूर उद्योगपति—विक्रम सिंह राठौड़। उन्होंने एक पुरानी तस्वीर दिखाई—अपने किडनैप हुए बेटे की। शर्मा जी चौंक गए—यह तो वही रोहन है! राठौड़ साहब का बेटा, जो सालों पहले मंदिर की सीढ़ियों पर मिला था, अब जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था।

राठौड़ साहब ने फौरन देश के सबसे बड़े अस्पताल में रोहन का इलाज करवाया। ऑपरेशन सफल रहा। इसी दौरान उन्हें पता चला कि अर्जुन ने अपने गोल्ड मेडल की कुर्बानी देकर अपने दोस्त की जान बचाई थी। राठौड़ साहब ने अर्जुन को गले लगाया, उसका गोल्ड मेडल लौटाया और कहा—”आज से तुम भी मेरे बेटे हो, अर्जुन सिंह राठौड़!”

अर्जुन को परिवार, पहचान और सपनों के नए पंख मिल गए। आश्रम में उसके नाम पर नया स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स और मेडिकल विंग बना। उसकी एक कुर्बानी ने न सिर्फ दोस्त की, बल्कि सैकड़ों अनाथ बच्चों की किस्मत बदल दी।

यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची दोस्ती और त्याग से बड़ा कोई धन नहीं। जब आप निस्वार्थ भाव से किसी के लिए कुछ करते हैं, तो किस्मत आपको उससे कहीं ज्यादा लौटाती है।

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