हीरो पापा
मैं राघव, भीमरपुर जैसे छोटे गाँव से आया था। गाँव में खुशियाँ कम, उम्मीदें कम, मुश्किलें ज्यादा थीं। माँ-बाप ने कभी सपने नहीं देखे, लेकिन मैं हमेशा सोचता था कि कुछ कर दिखाऊँ, अपने परिवार की हालत बदलूँ। यही सोच मुझे पहाड़ों से शहर ले आई, जहाँ पहली बार मैंने भुट्टे बेचने का ठेला थामा—मजबूरी थी।
शहर की तपती धूप में, जलते हुए पैरों और पसीने से भीगे कपड़ों के साथ मैंने हर दिन संघर्ष किया। लेकिन इस मुस्कुराहट के पीछे थी “उम्मीद”—कि कभी बहनों को नए कपड़े दिला सकूंगा, भाइयों को पढ़ा पाऊंगा, और माँ-बाप का चेहरा रोशन कर सकूंगा।
हर दिन, मेरा ठेला एक काली गाड़ी के सामने लगता था। उसमें कोई महिला बैठती, मगर शीशे इतने गहरे कि चेहरा दिखता नहीं। एक दिन, जब तंग आकर पूछ बैठा, तो जवाब नहीं मिला। वक्त बीता, एक दिन पार्क के किनारे अकेली खेल रही एक छोटी बच्ची—सिया—को एक तेज गाड़ी से बचा लिया। उस बच्ची की मासूम आँखें मेरे दिल में उतर गईं।
कुछ दिन बाद, वही काली गाड़ी मेरे ठेले के सामने रुकी। इस बार शीशा उतरा और एक महिला—अनामिका—ने मुझसे सीधे एक प्रस्ताव रखा: “ठेला छोड़ दो, मेरे साथ चलो। काम बाद में बताऊँगी, ज़िंदगी बदल जाएगी।” मैं चौंका, लेकिन घर की जरूरतों की याद आई, और हामी भर दी।
बंगले में पहुँचा तो वही बच्ची दौड़ कर मुझसे लिपट गई, “मेरे हीरो पापा!” मैं सन्न रह गया—जिसने बचाया, वही अब मेरी दुनिया थी। अनामिका ने बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है, सिया बीमार है, उसे एक भरोसेमंद सहारे की जरूरत है। वह रिश्ते का सौदा नहीं, एक जीवनसाथी चाहती थी—जो सिया को पिता का प्यार दे सके।
मैंने कहा—“मैं बिना रिश्ते के इस घर में नहीं रह सकता। अगर मैं तुम्हारी बेटी का पिता कहलाऊँगा, तो नाम से भी पिता बनना चाहूँगा।” अनामिका उसकी आँखों में आंसू लिए मुस्कुरा पड़ी, “मंजूर है”, और इस तरह हमारी नई जिंदगी की शुरुआत हुई।
धीरे-धीरे, सिया के इलाज, स्कूल, घर-गृहस्थी, सब जिम्मेदारियाँ मैंने संभाली। हमारे घर में हँसी, कहानियाँ, झूला, किताबें, और प्रेम था। सिया ठीक भी होने लगी। अब वह मेरी असली बेटी बन गई। गाँव ले गया तो माँ-बाप ने भी अनामिका और सिया को अपने दिल से स्वीकारा।
समय बीता, अनामिका फिर माँ बनने वाली थी। हमारा घर एक खूबसूरत, सच्चा परिवार बन गया—जहाँ मेहनत और आत्मसम्मान से रिश्तों की दीवारें मजबूत थीं।
शाम को सिया मेरी बाहों में झूलती, अनामिका मुस्कुराती, मैं मन-ही-मन ईश्वर का शुक्रिया करता—कि ठेले का धुआँ, तपती धूप, और संघर्ष की वो पगडंडियाँ आज एक नए खुले आँगन, रूटीन रेस्ट और रिदम में बदल गई हैं।
सबसे बड़ी कमाई यही थी—हँसी, अपनापन, और सच्चे रिश्ते। अब मेरा हर दिन, हर थकान परिवार की हँसी में उतर जाती है।
यही मेरी कहानी है। यही मेरी असली पहचान, यही मेरी जीत।
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