गांव से दिल्ली तक – एक सफर इंसानियत का

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के एक छोटे से गांव में, मिट्टी की खुशबू, गेहूं की बालियां और चौपाल की शामें शिवम त्यागी की दुनिया थीं। उसकी उम्र 21 साल थी, रंग गेहुआ, शरीर दुबला-पतला, लेकिन आंखों में जिम्मेदारियों की गहराई थी। पिता हरनाम त्यागी के पास बस दो बीघा जमीन थी, जो अब बंजर हो रही थी। मां सरस्वती देवी और तीन बहनों के साथ शिवम का परिवार किसी तरह अपना गुजारा कर रहा था। दो बहनों की शादी कर्ज लेकर हो चुकी थी, तीसरी अभी पढ़ रही थी। पिता की तबीयत बिगड़ रही थी, कमर में दर्द, खांसी और उम्र ने उन्हें कमजोर बना दिया था। ऐसे में घर की सारी जिम्मेदारी शिवम के कंधों पर आ गई थी।

शिवम पढ़ाई में ठीक-ठाक था, उसका सपना था आगे पढ़ना, कॉलेज जाना और सरकारी नौकरी पाना। लेकिन हालात ने उसके सपनों के आगे दीवार खड़ी कर दी। एक शाम पिता ने चौपाल पर बुलाया, आंखों में नमी थी, बोले – “बेटा, अब तू ही घर का सहारा है। मेरी तबीयत साथ नहीं दे रही, जमीन कुछ दे नहीं रही। तुझे अब बाहर जाकर कुछ करना होगा।” शिवम ने पिता के पैर छुए, बोला – “ठीक है बापू, जब तक हालात नहीं सुधरते, चैन से नहीं बैठूंगा।”

दिल्ली की ओर – नए संघर्ष की शुरुआत

अगले हफ्ते गांव के एक जानकार की मदद से उसे दिल्ली के कनॉट प्लेस के एक होटल में सफाई और सर्विस का काम मिल गया। तनख्वाह थी ₹14,000 महीना, रहने-खाने की व्यवस्था के साथ। मां ने आंसुओं के साथ बेटे को विदा किया, पिता ने कंधे पर हाथ रखकर कहा, “हम गरीब हैं, पर मेहनत से बड़ा कोई हथियार नहीं। तू हमारे लिए गर्व बनना।”

दिल्ली पहुंचना शिवम के लिए किसी और दुनिया में कदम रखने जैसा था – ऊंची इमारतें, ट्रैफिक, भीड़, रात को भी जलती लाइटें। होटल का काम कठिन था – सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक, लेकिन शिवम बिना शिकायत किए करता। हर महीने पैसे गांव भेजता, बाकी से दिल्ली में अपना छोटा सा कमरा और खाना चलाता। दिल्ली ने उसे जिम्मेदारी, अनुशासन और संघर्ष सिखाया।

नेहरू पार्क – एक नई कहानी की शुरुआत

शिवम रोज सुबह काम पर जाने से पहले नेहरू पार्क में टहलता। हरी घास, ओस की बूंदें, पेड़ों के बीच ठंडी हवा, दौड़ते लोग – उसे गांव की ताजगी की याद दिलाते थे। एक दिन, पार्क की एक बेंच पर उसकी नजर एक महिला पर पड़ी – 27-28 साल की, सादी सूती साड़ी में, चेहरे पर दर्द और आंखों में गहरी थकान। बगल में एक बुजुर्ग व्यक्ति, लगभग 65 साल के, सफेद कुर्ता-पायजामा, गोल चश्मा, गरिमा से भरे चेहरे के साथ खड़े थे।

महिला धीरे-धीरे उठने की कोशिश कर रही थी, तभी उसका संतुलन बिगड़ा और वह जमीन पर गिर पड़ी। बुजुर्ग घबरा गए। शिवम सबसे पहले वहां पहुंचा, महिला को संभाला, सिर को अपनी गोद में रखा, पानी की बोतल से मुंह पर छींटे मारे। वह धीरे-धीरे होश में आई। बुजुर्ग ने कांपती आवाज में कहा, “बेटा, जल्दी एंबुलेंस बुलाओ। मेरी बेटी को अस्पताल ले जाना होगा।” शिवम ने तुरंत 108 पर कॉल किया, कुछ ही मिनटों में एंबुलेंस आ गई। वह खुद बुजुर्ग और महिला के साथ एम्स अस्पताल गया।

अस्पताल की जद्दोजहद – इंसानियत की परीक्षा

अस्पताल में डॉक्टरों ने बताया – “संध्या की हालत नाजुक है। उसकी दोनों किडनियां तेजी से फेल हो रही हैं। जल्द ट्रांसप्लांट नहीं हुआ तो मुश्किलें बढ़ सकती हैं।” बुजुर्ग बोले – “पैसे कोई मसला नहीं है, बस जल्दी इलाज शुरू कीजिए।” डॉक्टर ने कहा – “पैसों से ज्यादा जरूरत है मैचिंग डोनर की। फैमिली में कोई नहीं है तो रजिस्टर में लगना होगा। वेटिंग लिस्ट लंबी है।”

शिवम चुपचाप यह सब देख रहा था। कुछ घंटों बाद बुजुर्ग ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “बेटा, आज तूने जो किया उसके लिए तेरा एहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा।” शिवम बोला, “अंकल, यह तो इंसानियत का फर्ज था।” बुजुर्ग ने बताया – “मैं गोविंद शर्मा हूं, दिल्ली में मेरा अपना कंस्ट्रक्शन और रियल एस्टेट बिजनेस है। पैसे की कभी कमी नहीं रही, लेकिन बेटी संध्या की बीमारी के सामने बेबस हूं।”

संध्या की कहानी – दर्द और हिम्मत

संध्या की शादी 25 की उम्र में हुई थी, दो साल बाद सड़क हादसे में पति चला गया। उसके बाद उसने घर की जिम्मेदारी संभाली, पिता के साथ कंपनी के काम में हाथ बंटाया। लेकिन पिछले साल से तबीयत बिगड़ती चली गई। लाखों रुपए खर्च करके देश के बड़े-बड़े अस्पतालों में टेस्ट करवाए, लेकिन हर जगह वही जवाब – डोनर नहीं मिल रहा। रजिस्ट्री में नाम डलवा दिया गया था, लेकिन वेटिंग लिस्ट इतनी लंबी थी कि महीनों का समय लग सकता था।

पार्क की सैर – रिश्तों की गर्माहट

अब संध्या को नियमित डायलिसिस शुरू हुआ। एक दिन नेहरू पार्क में गोविंद शर्मा बोले, “बेटा, आज से तुम अगर चाहो तो सुबह-सुबह संध्या को थोड़ा पार्क में घुमा दिया करो। उसे थोड़ा मन बदल जाता है।” शिवम ने हामी भर दी। वह धीरे-धीरे व्हीलचेयर धकेलने लगा। संध्या ने पहली बार उसे गौर से देखा – “तुम्हारा नाम क्या है?” शिवम बोला, “शिवम बिजनौर से। गांव से हो? गांव के लोग कितने सच्चे होते हैं।” वह हल्की सी मुस्कुराई।

धीरे-धीरे यह पार्क की सैर रोज की आदत बन गई। शिवम उसे फूलों की क्यारियों के पास ले जाता, तालाब के किनारे रुकते, कभी बच्चों को खेलते देखते। इन सैरों में संध्या ने अपनी जिंदगी की बातें खोलनी शुरू की – पति की दुर्घटना, अकेलापन, पिता का सहारा और बीमारी का डर। “मुझे पता है मेरा वक्त अब ज्यादा नहीं है। डॉक्टरों ने साफ कहा है। कभी-कभी लगता है जैसे मेरी जिंदगी के पन्ने अचानक आखिरी लाइन पर आकर रुक गए हैं।” शिवम उसे दिलासा देता – “भगवान बड़ा है, चमत्कार होते हैं।”

त्याग का फैसला – इंसानियत की ऊंचाई

एक दिन अस्पताल में डॉक्टर ने गोविंद शर्मा को बुलाकर कहा – “अगर अगले तीन महीने में डोनर नहीं मिला तो मरीज की हालत और बिगड़ सकती है।” शिवम भी वहीं था। रात को अपने छोटे से कमरे में मां-पिता की तस्वीर देखता रहा। सोचने लगा – “अगर मेरी बहन या मां की जगह संध्या दीदी होती तो क्या मैं चुप बैठता? नहीं। तो अब क्यों बैठा हूं?”

अगली सुबह बिना किसी को बताए उसने अपना किडनी मैचिंग टेस्ट करवाया। तीन दिन बाद रिपोर्ट आई – “तुम्हारी एक किडनी का मैच संध्या जी से पूरी तरह है।” शिवम के शरीर में हल्की सी झुरझुरी दौड़ गई। शाम को पार्क में गया, संध्या व्हीलचेयर पर थी, गोविंद शर्मा पास में बैठे थे। शिवम बोला – “अंकल दीदी, अगर मैं कुछ कहूं तो नाराज तो नहीं होंगे?” गोविंद शर्मा बोले – “बोलो बेटा।” शिवम ने कहा – “डॉक्टर ने कहा है कि मेरी एक किडनी संध्या दीदी से मैच करती है। अगर आप लोग इजाजत दें तो मैं अपनी एक किडनी दान करना चाहता हूं।”

संध्या की आंखों में आंसू छलक पड़े – “शिवम, तुम पागल हो गए हो क्या? तुम्हारी भी जिंदगी है। किसी अजनबी के लिए अपनी किडनी दोगे?” शिवम बोला – “आप अजनबी नहीं हैं। पिछले आठ महीनों में आप और अंकल मेरे लिए परिवार जैसे बन गए हैं। मेरी मां ने हमेशा कहा था – बेटा, अगर भगवान ने तुझ में कुछ अच्छा बनाया है तो उसे किसी की जिंदगी में रोशनी लाने में लगा देना।”

गोविंद शर्मा की आंखें नम हो गईं – “बेटा, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं लेकिन सोच समझ कर फैसला लेना। हम तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं डालना चाहते।” शिवम बोला – “मैंने सोच लिया है। यह मेरा फैसला है, किसी मजबूरी का नहीं।”

ऑपरेशन – जिंदगी की जंग

ऑपरेशन से पहले डॉक्टरों ने कहा – “डोनर को अपने परिवार से लिखित अनुमति लेनी होगी।” शिवम ने गांव में मां को फोन किया, पूरी सच्चाई बताई। मां बोली – “बेटा, तू मेरी जान है। अपनी किडनी देगा, अगर कुछ हो गया तो?” शिवम ने कहा – “मां, डॉक्टर ने कहा है कि एक किडनी में भी इंसान पूरा जीवन जी सकता है। अगर मेरी वजह से किसी की जिंदगी बचती है तो यही मेरी सबसे बड़ी पूजा होगी।” पिता बोले – “तूने हमारा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है।”

दिल्ली के बड़े अस्पताल में ऑपरेशन की तारीख तय हुई। गोविंद शर्मा ने हर तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऑपरेशन 9 घंटे तक चला। परिवार, दोस्त और स्टाफ टकटकी लगाए बैठे थे। डॉक्टर बाहर आए – “ऑपरेशन सफल रहा है, दोनों मरीजों को अब आईसीयू में शिफ्ट किया जा रहा है। अगले 72 घंटे अहम होंगे।”

नई सुबह – इंसानियत की जीत

कई दिनों की निगरानी के बाद दोनों की हालत में सुधार आने लगा। संध्या का चेहरा फिर से रंगत पकड़ने लगा, शिवम भी धीरे-धीरे सामान्य हो रहा था। उसके शरीर पर ऑपरेशन का निशान था, लेकिन चेहरे पर गहरी शांति थी – उसने किसी की जिंदगी बचाई थी।

एक दिन आईसीयू में संध्या ने पहली बार होश में आकर उसे देखा – “शिवम, तुम्हारी वजह से आज मैं जिंदा हूं।” शिवम मुस्कुराया – “दीदी, अब आप जल्दी ठीक हो जाइए। बस यही मेरी दुआ है।”

गांव की वापसी – अफवाहें और सच्चाई

सर्जरी के दो महीने बाद शिवम पूरी तरह ठीक हो चुका था। उसने तय किया कि कुछ दिनों के लिए गांव जाएगा। मां-बाप से मिलने की तड़प बढ़ गई थी। स्टेशन पर संध्या, गोविंद शर्मा और करीबी लोग उसे छोड़ने आए। संध्या ने गले लगाकर कहा – “शिवम, वहां जाकर हमें भूल मत जाना।” शिवम हंस पड़ा – “दीदी, भूलना तो गांव की मिट्टी को भी नहीं आता। आप तो फिर इंसान हैं।”

गांव पहुंचते ही मां ने गले लगा लिया, पिता ने सिर पर हाथ रखा – “तूने हमारा सिर ऊंचा कर दिया।” लेकिन गांव में अफवाहें फैल गईं – “शिवम ने दिल्ली में अपनी किडनी बेच दी है। अब कोई इससे शादी नहीं करेगा। अधूरा आदमी है।” मां ने एक दिन रात को उसके ऑपरेशन का निशान देखा और फूट-फूट कर रो पड़ी। शिवम ने पूरी सच्चाई बताई – “मैंने किसी को बेचा नहीं, मैंने किसी की जिंदगी बचाई है।”

सच्चाई का सम्मान – समाज का बदलता नजरिया

एक दिन गांव में अचानक एक बड़ा काफिला पहुंचा – गोविंद शर्मा, संध्या और रिश्तेदार। चौपाल पर सब इकट्ठा हुए। गोविंद शर्मा ने शिवम के मां-बाप के पैर पकड़ लिए – “आपका बेटा हमारे लिए भगवान बनकर आया। अगर वह नहीं होता तो आज मेरी बेटी जिंदा नहीं होती।”

संध्या आगे बढ़ी – “गांव वालों, आज मैं सच्चाई सबके सामने रखना चाहती हूं। इस लड़के शिवम ने मेरी किडनी नहीं खरीदी, उसने मुझे अपनी किडनी दान दी। उसने मुझे मौत के मुंह से निकाला।” फिर उसने शिवम की ओर देखकर कहा – “और आज मैं आप सबके सामने एक और बात कहना चाहती हूं। जिस इंसान ने मुझे जिंदगी दी, मैं उसे अपनी जिंदगी देना चाहती हूं। मैं शिवम से शादी करूंगी।”

गांव वाले हैरान रह गए। तालियां गूंजने लगीं – “वाह, क्या लड़की है। इसने तो इतिहास रच दिया।” शिवम की आंखों में आंसू थे, उसने कभी सोचा भी नहीं था कि जिंदगी ऐसा मोड़ लेगी। गोविंद शर्मा बोले – “शिवम सिर्फ आपका बेटा नहीं, अब वह हमारा बेटा भी है।”

नया जीवन – इंसानियत की मिसाल

25 की गर्मियों में बिजनौर के उसी गांव में धूमधाम से शिवम और संध्या की शादी हुई। वही लोग जो कभी ताने मारते थे, अब फूल बरसा रहे थे। शादी में दिल्ली के बिजनेस जगत के कई लोग आए। गांव में पहली बार इतना बड़ा आयोजन हुआ। संध्या ने लाल जोड़ा पहना, शिवम ने शेरवानी। दोनों ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई – “तुमने मुझे जिंदगी दी और अब मैं तुम्हारी जिंदगी बनूंगी।”

शादी के बाद शिवम और संध्या दिल्ली लौट आए। गोविंद शर्मा ने शिवम को अपने बिजनेस में साथ लेना शुरू किया। शिवम ने मेहनत और ईमानदारी से सबका दिल जीत लिया। धीरे-धीरे वह कंपनी का अहम हिस्सा बन गया। संध्या पूरी तरह स्वस्थ है। दोनों साथ में ऑफिस संभालते हैं, शाम को पार्क में टहलते हैं – वही नेहरू पार्क जहां उनकी पहली मुलाकात हुई थी।

गांव में लोग अब गर्व से कहते हैं – “वो देखो शिवम त्यागी, हमारे गांव का बेटा जिसने अपनी इंसानियत से इतिहास लिख दिया।”

कहानी का संदेश

पैसा बहुत कुछ कर सकता है, लेकिन इंसानियत और हिम्मत वह कर जाती है जो करोड़ों रुपए भी नहीं कर पाते। दूसरों की जिंदगी में रोशनी भरने वाला इंसान खुद एक दिन चमकता है। समाज की बातें सिर्फ तब तक चलती हैं जब तक सच्चाई सामने ना आ जाए। इंसानियत, त्याग और हिम्मत – यही असली पहचान है।