बैंक ने इस असहाय आदमी को इसलिए निकाल दिया क्योंकि उसने सोचा कि वह गरीब है | जब उसने अपना बैंक बैलेंस देखा तो वह हैरान रह गया | हिंदी कहानी
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बैंक ने मजदूर आदमी को गरीब समझ कर निकाला | बैंक बैलेंस देखकर हैरान रह गया
सुबह की नरम सुनहरी धूप मुंबई की गलियों पर फैल रही थी। शहर की चहल-पहल हर रोज की तरह आज भी पूरी तवानाई से जारी थी। सड़कों पर ऑटो रिक्शे हॉर्न बजाते दौड़ रहे थे, सब्जी वाले ऊंची आवाज़ों में अपनी-अपनी सब्ज़ियाँ बेच रहे थे, और लोग काम पर जाने की जल्दी में कदम बढ़ा रहे थे। इसी भीड़ में एक शख्स धीरे-धीरे बढ़ रहा था। उसके कदम हल्के नहीं थे, बल्कि हर कदम के साथ लकड़ी की बैसाखी जमीन से टकरा रही थी। वह शख्स राजेश वर्मा था, जिसकी उम्र करीब 40 साल थी। उसका शरीर दुबला-पतला था, और वह एक हादसे में अपनी एक टांग खो चुका था।
राजेश मुंबई की एक फैक्ट्री में वर्षों मेहनत कर चुका था, लेकिन अब वह शारीरिक रूप से कमजोर हो चुका था। उसके चेहरे पर वक्त और मेहनत की गहरी लकीरें थीं, और पसीने की बूंदें उसकी झुलसी हुई पेशानी पर चमक रही थीं। उसने आज एक पुराना, मगर साफ-सुथरा कुर्ता पहना था, जो वक्त के साथ पीला पड़ चुका था। नीचे उसका पायजामा कई जगह से सिलाई किया हुआ था, और उसके पैरों में जो चप्पल थी, उसकी पट्टियां टूटी हुई थीं जिन्हें रस्सी से बांधा गया था। फिर भी, उसने खुद को काबिल-ए-इज्जत दिखाने की पूरी कोशिश की थी।
राजेश का सपना था कि उसकी बेटी सोनाली वर्मा पढ़-लिखकर एक दिन मास्टर जी बनेगी, यानी एक स्कूल टीचर जो दूसरों के बच्चों को पढ़ाएगी और इज्जत की जिंदगी गुजारेगी। यही सपना उसे बैंक की ओर ले जा रहा था। नर्मदा बैंक में उसकी मेहनत की कमाई जमा थी, जो उसने मजदूरी करके बचाई थी। आज उसे उस पैसे की जरूरत थी, क्योंकि स्कूल ने बेटी की फीस न जमा होने पर वार्निंग दे दी थी कि यदि फीस नहीं भरी गई तो दाखिला रद्द कर दिया जाएगा।
राजेश ने बैंक के बाहर खड़े होकर गहरी सांस ली। उसके हाथ खुरदरे और जख्मों से भरे थे, लेकिन उनमें अब भी एक वकार झलकता था। उसने अपने बिखरे बालों को सहलाया और मन ही मन कहा, “आज मुझे कमजोर नहीं दिखना। मैं अपनी बेटी के ख्वाब के लिए मजबूत बनना है।”
बैंक के बाहर कुछ लोग फोन पर ऊंची आवाज़ में कारोबार की बातें कर रहे थे, कुछ जल्दी-जल्दी अंदर जा रहे थे। एक नौजवान लड़का राजेश को देखकर बोला, “ओह, देखो बाबा जी को, लगता है भीख मांगने बैंक तक आ गए।” साथ खड़ी लड़की हंसते हुए बोली, “अरे पागल, छोड़ो इसे, शहर में तो रोज नया ड्रामा देखने को मिलता है।”
राजेश ने उनकी बातें सुनी, लेकिन जवाब नहीं दिया। उसने अपने कदम और बढ़ाए। तभी एक मध्यम उम्र की महिला, जो साड़ी पहने थी, बैंक से बाहर निकल रही थी, उसने राजेश को तरस भरी नजरों से देखा। उसने अपनी साड़ी के पल्लू से बटुआ निकाला और नरम आवाज़ में बोली, “बाबा जी, यह लो ₹5, कुछ खा लेना। धूप बहुत तेज है, कमजोर लग रहे हो।”
राजेश के कदम थम गए। उसने महिला की तरफ देखा, उसकी मुस्कान में शर्मिंदगी थी, जैसे वह जानती हो कि ये अल्फाज़ जख्म भी दे सकते हैं। राजेश ने धीरे लेकिन मजबूती से कहा, “बेटी, मुझे भीख नहीं चाहिए। मैं भिखारी नहीं हूं। यह बैंक मेरा भी है, मेरी मेहनत की कमाई यहाँ रखी है। मैं अपनी कमाई निकालने आया हूं ताकि अपनी बेटी की फीस भर सकूं।”
महिला शर्मिंदा होकर आगे बढ़ गई। आसपास खड़े कई लोग इस मंजर को देख रहे थे। कुछ ने हल्की हंसी छुपाई, कुछ ने तरस भरी नजर डाली, और कुछ ने बेनियाजी का मुजारा किया जैसे यह उनके लिए कोई नई बात न हो। शहर की भागदौड़ में अक्सर लोग दूसरों की मजबूरी को तमाशा समझते हैं, और यही मंजर भी एक तमाशे की तरह गुजर गया।
राजेश ने सिर झुकाया और बैसाखी पर जोर देते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसका दिल जरूर जख्मी था, लेकिन उसके अंदर का वकार अभी भी जिंदा था। वह जानता था कि अगर आज हार गया तो बेटी के सपने चकनाचूर हो जाएंगे। उसने खुद से कहा, “बेटी की पढ़ाई मेरा कर्ज है। इस कर्ज को पूरा करने के लिए मुझे सब कुछ बर्दाश्त करना होगा।”
बैंक की चौखट के पास पहुंचकर उसने ऊपर देखा। ऊंची इमारत की शीशे की दीवारें सूरज की रोशनी में चमक रही थीं, जैसे ताकत और दौलत का प्रतीक हों। लेकिन राजेश के दिल में एहसास था कि इस इमारत के अंदर उसकी इज्जत, उसका हक और उसकी मेहनत का सिलसिला बंद है। उसके कदम लड़खड़ाए, लेकिन उसने खुद को संभाला। आसपास की निगाहें उस पर थीं। कोई हंस रहा था, कोई हैरानी से देख रहा था। लेकिन राजेश ने सब कुछ अनसुना कर दिया। उसके जहन में सिर्फ एक बात थी — “यह वक्त कमजोरी दिखाने का नहीं है। मुझे साबित करना है कि गरीबी के बावजूद मेरा सर झुका नहीं है।”
राजेश बैंक के दरवाजे की तरफ बढ़ा। जैसे ही वह अंदर गया, सिक्योरिटी गार्ड ने उसे देखा और तंजिया मुस्कुराहट के साथ ऊपर-नीचे देखा। उसकी नीली वर्दी, चमकते जूते और कंधे पर डंडा उसके अधिकार को जाहिर कर रहे थे। गार्ड ने राजेश की बैसाखी, पुराने कुर्ते और फटी चप्पल पर नजरें जमाई और तंजिया कहा, “ए बाबा जी, यहाँ क्या करने आए हो? यह बैंक है, भीख मांगने की जगह नहीं।”
राजेश के कदम रुक गए, लेकिन उसने धीरे कहा, “भाई, मैं भिखारी नहीं हूं। मेरे अकाउंट में पैसे हैं। बेटी की फीस भरनी है, अपनी कमाई निकालने आया हूं।” उसकी आवाज़ कमजोर थी लेकिन पुकार थी। गार्ड ने हँसी उड़ाई, “वाह, तुम्हारे जैसे के भी अकाउंट होते हैं, लगता है कोई ड्रामा है।”
आसपास खड़े लोग चौंके। एक बोला, “यह तो भिखारी लग रहा है।” दूसरा बोला, “आजकल बड़े लोग भीगी बिल्ली बन जाते हैं।” राजेश ने सोचा अगर गुस्सा किया तो बदनाम होगा। उसने कहा, “मैं मजदूर हूं, पसीने की कमाई जमा है। सिर्फ 1 लाख चाहिए ताकि बेटी स्कूल से ना निकाली जाए।”
गार्ड ने तंजिया कहा, “लगता है बेटी की फीस और तुम ऐसे कपड़ों में कौन मानेगा कि तुम्हारे पास 1 लाख है।” यह सुनकर राजेश का दिल छलनी हो गया, लेकिन बेटी के ख्वाब याद करके वह चुप रहा। आखिरकार गार्ड ने बेज़ार होकर टोकन दिया और कहा, “यह ले, अंदर बैठ जा। ज्यादा तमाशा मत करना, वरना बाहर फेंक दूंगा।”
राजेश ने लरजते हाथों से टोकन लिया और धीरे से बोला, “शुक्रिया भाई।” वह बैसाखी टेकता हुआ अंदर बढ़ गया। कुछ नौजवान हँसे, “देखो, भिखारी भी अब टोकन लेकर बैठता है।” एक बुजुर्ग ने अफ़सोस से कहा, “काश लोग समझें कि इज्जत कपड़ों से नहीं होती।”
राजेश के कानों में सिर्फ बेटी की मुस्कुराती शक्ल गूंज रही थी। दिल में दुआ थी, “हे परमात्मा, आज रुसवा न करना।” बैंक के अंदर ठंडी हवा का झोंका आया। एयर कंडीशनर चल रहे थे, दीवारों पर शीशे की तस्वीरें लगी थीं, और हॉल में सोफे थे। जूतों की चरचराहट के बीच राजेश की बैसाखी की खटखट सुनाई दे रही थी। वह एक कोने में बैठ गया। टोकन पर नंबर 104 लिखा था। उसकी उंगलियां लरज़ रही थीं, लेकिन दिल में उम्मीद थी कि जल्द ही नंबर आएगा और वह पैसे लेकर बेटी की फीस भर देगा।
हॉल में लोग अलग-अलग नजर आ रहे थे। कोई बिजनेस सूट में था, कोई सैलरी लेने आया था, और कुछ महिलाएं साड़ियों में ज्वेलरी पर बातें कर रही थीं। राजेश अपने पुराने कुर्ते और मैली धोती में अलग था। करीब बैठे नौजवान उसे घूरने लगे। एक ने कहा, “यह तो भिखारी होगा, मुफ्त मांगने आया है।” दूसरा हँसा, “ड्रामा है पूरा, देखना अभी शोर मचाएगा।”
राजेश ने सिर झुका लिया, दिल पर बोझ बढ़ गया। उसकी आंखों के सामने बेटी का चेहरा आया, जो कहती थी, “बाबा, इस बार फीस भर देना।” एक बुजुर्ग ने पूछा, “बेटा, कहाँ से आए हो? ठीक तो हो?” राजेश ने आदब से जवाब दिया, “जी बाबा, अपनी मेहनत की कमाई लेने आया हूं। बेटी की पढ़ाई का सवाल है।” बुजुर्ग ने दुआ दी, “बेटा, आज कोई रुकावट न आए।”
लेकिन आसपास की सरगोशियां जारी थीं। एक महिला ने कहा, “यह लोग बैंक में क्यों आते हैं? यह जगह अमीरों के लिए है, मजदूरों के लिए नहीं।” यह अल्फाज़ राजेश के दिल में तीर की तरह लगे। उसने बैसाखी जमीन पर जोर से टकाया और कहा, “मैं मजदूर जरूर हूं, लेकिन मेरा पैसा भी खून-पसीने से कम नहीं। यह बैंक सिर्फ अमीरों का नहीं, मेरा भी है।”
समय बीतता गया। नंबर पुकारे जा रहे थे। कुछ लोग खुशी से, कुछ खफा होकर वापस लौट रहे थे। राजेश बार-बार टोकन देखता और दुआ करता रहा कि जल्दी उसका नंबर आए। एक नौजवान बोला, “लगता है पहली बार आया है।” दूसरा हँसा, “यह नया ड्रामा है, पैसे लेने का। देखना अभी रोना शुरू करेगा।”
राजेश ने नजरें झुका लीं, लेकिन सोचा कि आज की बेइज्जती कल की कामयाबी बन सकती है। अचानक मशीन में बीप हुआ, डिस्प्ले पर नंबर 104 चमका। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। वह धीरे-धीरे खड़ा हुआ, घुटनों में दर्द उठा, लेकिन सहन किया। बेटी का चेहरा सामने था। वह कदम-ब-कदम काउंटर की ओर बढ़ा।
काउंटर के पीछे मोहन लाल था, ब्रांच का सीनियर टेलर। घनी मूंछें और रबदार चेहरा। जैसे ही उसने राजेश को लड़खड़ाते देखा, उसकी नाराजगी झलकने लगी। राजेश ने सलाम किया, “भाई, मेरा नंबर है। अपनी बचत में से कुछ निकालना चाहता हूं।”
मोहन लाल ने बिना सिर उठाए कहा, “हाँ हाँ, बोलो बाबा जी, लगते हो जैसे बाहर भीख मांगते हो। यहाँ क्यों आए? भीख नहीं मिलेगी।” यह बात पूरे हॉल में गूंज गई। कुछ चौक गए, कुछ हँस दिए। राजेश ने सब्र से कहा, “मैं भिखारी नहीं हूं। मेरे अकाउंट में ₹1 लाख हैं। बेटी की फीस भरनी है।”
मोहन लाल हँसते हुए बोला, “क्या 1 लाख? तुम्हारी शक्ल तो ऐसी है कि कभी हजार भी नहीं देखे होंगे। कहानी लेकर आए हो। ड्रामा मत करो।” हाल सन्नाटे में डूब गया। कुछ तरस खा रहे थे, कुछ हँस रहे थे। राजेश ने कपड़ों की गर्द साफ की और कहा, “मुझे शक्ल पर मत जाओ। यह पैसे पसीने के हैं। सालों मेहनत से जमा किए। यह मेरी बेटी के भविष्य के लिए हैं।”
एक लड़की ने दोस्त से कहा, “कितनी हिम्मत है इस आदमी में।” दोस्त बोली, “हिम्मत नहीं, ड्रामा है। देखना तमाशा करेगा।” मोहन लाल ने गुस्से में फाइल बंद की और कहा, “तुम जैसे लोग रोज आते हैं। कोई कहता बेटी बीमार है, कोई कहता फीस चाहिए। आखिर झूठ निकलता है। पैसे चाहिए तो जाओ मंदिर में।” यह बैंक तमाशे के लिए नहीं है।
राजेश ने बैसाखी टकाई और कहा, “मैंने हमेशा इज्जत से खाया है। कभी हाथ नहीं फैलाया। आज भी मांगने नहीं आया, अपना हक लेने आया हूं। अगर यकीन नहीं तो अकाउंट देख लो।” मोहन लाल ने तंजिया हँसा, “सुन लिया सबने? बाबा जी के पास अकाउंट है।” कुछ मुलाजिम भी हँसने लगे। माहौल तमाशा बन गया।
राजेश ने आंखें बंद कीं। बेटी की आवाज गूँजी, “बाबा, इस बार फीस भर देना।” उसने मजबूत लहजे में कहा, “इज्जत कपड़ों से नहीं, मेहनत और नियत से है। आज मैं सिर्फ अपनी बेटी के भविष्य के लिए खड़ा हूं। हँसो या तमाशा बनाओ, मुझे फर्क नहीं पड़ता।” हाल खामोश हो गया। लेकिन मोहन लाल के गरूर में कमी नहीं आई। वह फैसला कर चुका था कि आसानी से पैसे नहीं देगा।
राजेश ने आंखों में अजम लिए कहा, “यह पैसे मेरे खून-पसीने की कमाई हैं। मेरा हक है।” हाल में सब ग्राहक और मुलाजिम यह मंजर देख रहे थे। कुछ के दिल नरम पड़े, ज्यादातर तंजिया तासुरात लिए बैठे थे जैसे वे एक ड्रामा देख रहे हों। राजेश का इम्तिहान खत्म नहीं हुआ था।
मोहन लाल कुर्सी से उठा, काउंटर का दरवाजा खोला और गुस्से से बाहर आया। उसके कदमों की आवाज़ पूरे हाल में गूँजी। वह तेज कदमों से राजेश के सामने पहुंचा। मूंछें तनी हुई थीं। उसने ऊंची आवाज़ में कहा, “इतनी बकवास कर रहा है। झूठ बोलता है और ऊपर से इज्जत की बातें सुनाता है। निकल जा, वरना गार्ड को बुलाऊंगा।”
राजेश ने कांपते हाथों से बैसाखी थामी और धीरे कहा, “मैं झूठ नहीं बोल रहा। बस अपना पैसा चाहता हूं। यकीन न हो तो मेरा अकाउंट देख लें।” मोहन लाल का गुस्सा बढ़ गया। उसने राजेश के कंधे पर हाथ मारा और धक्का दिया। राजेश लड़खड़ा गया, बैसाखी गिरने लगी, लेकिन वह गिरते-गिरते बचा।
यह आवाज़ पूरे हाल में फैल गई। कुछ लोग चौंक गए। एक औरत ने कहा, “यह तो गिरते-गिरते बचा, मगर कोई सहारा देने नहीं आया।” राजेश की आंखों में आंसू आ गए। यह कमजोरी के नहीं, अंदर के जख्मों के थे। उसने सोचा कि अगर शोर मचाया तो लोग कहेंगे भिखारी हंगामा कर रहा है। उसे अपनी इज्जत खुद संभालनी थी।
मोहन लाल फिर चिल्लाया, “निकल जा, वरना गार्ड को बुलाऊंगा और घसीट कर बाहर निकाल दूंगा।” राजेश ने बैसाखी थामकर कमर सीधी की, नजरें झुकाईं और कहा, “बस इतना पूछना चाहता हूं, अगर मैं गरीब हूं तो क्या मुझे इज्जत से जीने का हक नहीं?”
यह जुमला सुनकर कुछ देर के लिए खामोशी छा गई। लोग एक-दूसरे को देखने लगे, लेकिन किसी ने हिमायत नहीं की। राजेश धीरे-धीरे काउंटर से हट गया। उसके कदम भारी थे, आंसू उसकी आस्तीन में जजब हो गए। वह बैसाखी के साथ दरवाजे की तरफ बढ़ा। दिल में एक सवाल था, “बेटी को क्या जवाब दूं? वह सोच रही होगी बाबा फीस के पैसे लेकर आएंगे, मैं खाली हाथ कैसे जाऊं?”
दरवाजे पर उसने इमारत को आखिरी बार देखा। शीशे की ऊंची इमारत अब कखिला नहीं, बल्कि दीवार लग रही थी जिसने उसकी इज्जत और ख्वाब छीन लिए थे। बाहर धूप में खड़ा होकर उसने सांस संभाली। बेटी की मुस्कुराहट और ख्वाब याद आए। दिल के जख्म गहरे थे, कदम कांप रहे थे। लेकिन उसने सोचा, “अभी हारना नहीं है।”
राजेश सड़क पर निकला। कंधों पर बोझ गरबत का नहीं, जिल्लत का था। धूप झुलसा रही थी, और वह सोच रहा था कि बेटी को क्या कहूँगा। वह खुशी से बैग तैयार कर रही होगी, उसे यकीन है बाबा फीस के पैसे लेकर आएंगे। वह धीरे-धीरे बैसाखी टकाता हुआ आगे बढ़ा। रिक्शे, बसें, शोर—सबके बीच वह पैदल चलता रहा ताकि दिल का बोझ हल्का हो सके। लोग देखते, कोई तरस खाता, कोई तंज करता, लेकिन अब उसे परवाह नहीं थी। उसके कदम सीधे भाई दीनाना के घर की तरफ बढ़ रहे थे।
दीनाना शहर के बाहर एक खुशहाल इलाके में रहता था। सफेद दीवारों वाला साफ-सुथरा घर, आँगन में आम और नीम के पेड़, और बाहर खड़ी नई कार उसकी कामयाबी की गवाही दे रही थी। राजेश दरवाजे पर पहुंचा, दस्तक दी। दिल जोर से धड़क रहा था। कुछ लम्हों बाद दरवाजा खुला। दीनाना हल्की नीली शर्ट और सफेद पायजामे में, चेहरे पर खुशी लिए निकला।
“अरे राजू, मेरा छोटा भाई!” उसने कहा और गले लगा लिया। राजेश की आंखों से आंसू बह निकले। हिचकिचाते हुए बोला, “भाई, आज मजबूर होकर आया हूं। दिल पर पत्थर रखकर तुम्हारे सामने हाथ फैलाने आया हूं।”
दीनाना संजीदा हो गया, उसे अंदर बुलाया। दोनों सहन से गुजरकर कमरे में गए। लकड़ी का फर्नीचर, परिवार की तस्वीरें, और महक भरा माहौल था। राजेश बैठते ही बोला, “भाई, बेटी की फीस भरनी है, 1 लाख चाहिए। सुबह बैंक गया था अपनी पूंजी निकालने, मगर उन्होंने बेइज्जती की और धक्के देकर निकाल दिया।”
उसकी आवाज टूट गई। आंखें साफ करते हुए बोला, “मैंने हमेशा मेहनत की है, कभी किसी के आगे नहीं झुका। आज मजबूर होकर तुम्हारे पास आया हूं।”
दीनाना की मुस्कुराहट गायब हो गई। सख्ती से बोला, “क्या कहा? बैंक ने निकाल दिया? कौन था वो?”
राजेश ने धीरे कहा, “एक टेलर था मोहन लाल। कहता था तुम्हारे जैसे का अकाउंट नहीं हो सकता। उसने सबके सामने जलील किया।”
दीनाना का चेहरा लाल हो गया। आंखों में गुस्सा आ गया। मेज पर हाथ मारकर कहा, “राजू, तुम्हें पता है वो बैंक नर्मदा जिसने तुम्हें जलील किया, वो मेरा भी है। मैं उसका सबसे बड़ा शेयरहोल्डर हूं।”
राजेश हैरान रह गया, “क्या सच है भाई?”
दीनाना ने कहा, “हाँ, आज जिसने जलील किया, वह मेरा भाई है। यह मेरी भी बेइज्जती है। कल सुबह मैं खुद बैंक जाऊंगा और बताऊंगा कि इज्जत कपड़ों से नहीं, दिल और नियत से होती है।”
राजेश की आंखों में फिर आंसू आ गए, लेकिन अब उम्मीद के। उसने भाई के कदम छूने चाहा, लेकिन दीनाना ने रोककर कहा, “राजू, यह भाई-भाई का रिश्ता है। तुमने हमेशा मेहनत से जिया है। अब मेरा फर्ज है तुम्हारा सहारा बनना।”
राजेश ने महसूस किया कि जिल्लत के बाद भी उम्मीद का दरवाजा खुल सकता है। उसके दिल में बेटी का ख्वाब फिर से रोशन हो गया।
अगली सुबह मुंबई का आसमान साफ था। नर्मदा बैंक की शाखा में अजीब सुकून था। ग्राहक कतारों में थे, मशीन से पर्चियां निकल रही थीं, और टेलर अपने काउंटर पर काम कर रहे थे। सब कुछ मामूली लग रहा था, लेकिन किसी को पता नहीं था कि आज का दिन खास होगा।
तभी बैंक के शीशे के दरवाजे से दीनाना वर्मा अंदर आया। नेवी ब्लू सूट, चमकते जूते, संजीदा चेहरा। जैसे ही उसके कदम बैंक में पड़े, सबकी नजरें उस पर टिक गईं। “यह तो मिस्टर वर्मा हैं, बड़े शेयरहोल्डर। आज खुद क्यों आए हैं?”
मैनेजर फौरन खड़ा हुआ और दीनाना के पास गया। झुककर बोला, “सर, आपने बताया नहीं कि आ रहे हैं। हम सब हैरान हैं। कोई खास हुक्म?”
दीनाना ने सर्द लहजे में कहा, “हाँ, आज मुझे खास बात करनी है। तुरंत सभी स्टाफ को जमा करो।”
मुलाजिम घबराकर काउंटर बंद कर कॉन्फ्रेंस रूम की ओर बढ़े। ग्राहक हैरान थे कि क्या हो रहा है। कुछ मिनटों में रूम भर गया। सबकी नजरें झुकी थीं। दीनाना ने मेज के सिर पर जगह ली, हाथ मेज पर रखकर कहा, “कल क्या हुआ था? कोई जानता है?”
मुलाजिम चुप थे। दीनाना ने कहा, “कल एक शख्स आया था। उसका कुर्ता पुराना था, चप्पल टूटी हुई थी, और वह बैसाखी पर चल रहा था। वह भीख मांगने नहीं, अपनी मेहनत की कमाई निकालने आया था। जिसने इस बैंक को मजबूत किया है।”
सबके चेहरे झुके। दीनाना ने आवाज बुलंद की, “लेकिन तुम लोगों ने क्या किया? उसे धुतकारा, हँसे, धक्के दिए और बाहर निकाल दिया। और यह सब किसके साथ? मेरा सगा भाई राजेश वर्मा।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। कुछ के मुंह खुले, कुछ ने कानों पर हाथ रखे। मैनेजर कांपते हुए बोला, “सर, हमें नहीं पता था कि वह आपके भाई हैं।”
दीनाना ने हाथ उठाकर उसे चुप कर दिया। “यह तुम्हारी सबसे बड़ी गलती है। इंसान की इज्जत उसके रिश्ते या लिबास से नहीं पहचानी जाती। वह मेरा भाई हो या नहीं, वह एक इंसान था, इज्जत का हकदार था, और तुमने उसका दिल तोड़ दिया।”
कमरे में भारी सन्नाटा था। सबके चेहरे शर्मिंदगी से लाल थे। दीनाना ने सख्त लहजे में कहा, “अब मुझे जानना है, कल किसने सबसे ज्यादा बदतमीजी की? आगे आओ।”
सभी की नजरें मोहन लाल पर टिक गईं। वह पसीने में भीग चुका था। हिचकिचाते हुए आगे बढ़ा। दीनाना ने पूछा, “कल तुमने क्या किया? एक मजदूर जो बैसाखी पर चल रहा था, सिर्फ अपना पैसा लेने आया था। उसने किसके आगे हाथ नहीं फैलाया? तुमने उसकी बेइज्जती की, हँसे, झिड़का, धक्का दिया।”
मोहन लाल के होंठ कांपने लगे। उसने हाथ जोड़ लिए। “सर, मुझसे गलती हो गई। मुझे नहीं पता था कि वह आपके भाई हैं।”
दीनाना ने बात काटते हुए कहा, “यह नहीं सोचना चाहिए था कि वह मेरा भाई है या नहीं। तुम्हें सिर्फ यह सोचना चाहिए था कि वह एक इंसान है, हर इंसान इज्जत का हकदार है। चाहे लाखों रुपए लेकर आए या खाली जेब, साड़ी में आए या मैली धोती में।”
मोहन लाल खामोश हो गया। उसके हाथ कांप रहे थे, आंखों से आंसू बह निकले। दीनाना ने कहा, “यह बैंक सिर्फ कागजों और पैसों का लेनदेन नहीं है। यह लोगों के ख्वाब संभालने का जिम्मा है। तुमने ये जिम्मेदारी तोड़ी है, इसकी सजा है।”
कमरे में सबकी धड़कन तेज हो गई। दीनाना ने मोहन लाल की आंखों में देखते हुए कहा, “आज के बाद तुम इस बैंक के हिस्से नहीं रहे। अभी अपनी पहचान का बैज उतारो और बाहर निकल जाओ।”
मोहन लाल के हाथ कांपने लगे। उसने बैज मेज पर रखा। उसकी आंखों में पछतावा था। धीरे बोला, “जी सर, यह मेरी सजा है।”
पूरा कमरा खामोश था। कोई हँस नहीं रहा था। सबने पहली बार देखा कि एक मगरूर मुलाजिम अपनी गलती पर झुका है। दीनाना ने बाकी कर्मचारियों की तरफ देखा और कहा, “याद रखो, नौकरियां आती-जाती रहती हैं, लेकिन अगर तुमने किसी की इज्जत तोड़ी, तो वह दाग जिंदगी भर रहेगा। बैंक का मकसद पैसा संभालना नहीं, इंसानियत संभालना है।”
यह बात सबके दिलों में बिजली की तरह उतर गई। मोहन लाल धीरे-धीरे बाहर निकला। उसके कदम बोझिल थे, लेकिन दिल में एहसास था कि उसने सिर्फ नौकरी नहीं, अपनी इंसानियत भी खो दी थी।
मुलाकात खत्म हुई, लेकिन कमरे में भारी सन्नाटा था। सब दिलों में पछतावे की आग महसूस कर रहे थे। दीनाना ने फैसला किया कि मामला सिर्फ कर्मचारी निकालने से खत्म नहीं होगा। अगर यह कहानी अधूरी रह गई, तो शायद राजेश के जख्म कभी नहीं भरेंगे। उसने सोचा कि मोहन लाल को खुद जाकर माफी मांगनी चाहिए।
दीनाना ने मोहन लाल को बुलाया। वह घबराते हुए पलटा। दीनाना ने कहा, “तुम मेरे साथ चलोगे मेरे भाई के घर, और उससे माफी मांगोगे।”
मोहन लाल ने सिर झुकाकर कहा, “जी सर, अगर यही आपका हुक्म है, तो मैं तैयार हूं।”
कुछ घंटों बाद एक काली कार मुंबई के एक साफ-सुथरे मोहल्ले में रुकी। कार में दीनाना और मोहन लाल थे। रास्ते भर मोहन लाल खामोश रहा, सोच रहा था कि जिसे उसने जलील किया, आज उसके दरवाजे पर जाकर माफी मांगनी है। दिल खौफ से लरज़ रहा था।
कार रुकी। सामने एक छोटा सा मकान था, सफेद चूने से रंगा, बाहर नीम का पेड़ और आँगन में धूप फैली थी। दरवाजे पर राजेश झाड़ू लगा रहा था। उसने कार आते देख मुस्कुराहट दिखाई। बैसाखी थामकर धीरे-धीरे दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीनाना बाहर निकला और बोला, “राजू, आज मैं तेरे पास एक अहम काम के लिए आया हूं।”
राजेश ने हैरानी से भाई को देखा। कार में मोहन लाल को पहचानते ही उसके चेहरे पर साया छा गया। वह चुप रहा।
दीनाना ने संजीदगी से कहा, “यह वही शख्स है जिसने कल तुम्हें बेइज्जत किया था। आज यह खुद तुम्हारे पास माफी मांगने आया है।”
मोहन लाल लरजते हुए आगे बढ़ा, दोनों हाथ जोड़े, आंखों में नमी थी। बोला, “बाबा जी, कल मैंने आपके साथ बहुत बुरा किया। आपको भिखारी समझा, हँसा, धक्का दिया। मुझे शर्म आनी चाहिए थी। लेकिन मैंने गौरूर में आकर आपके जख्म बढ़ा दिए। आज मैं सर झुकाकर माफी मांगता हूं।”
राजेश ने उसे देखा। उसकी आंखों में गुस्सा नहीं, बल्कि दुःख और अनुभव की रोशनी थी। धीरे कहा, “बेटा, मैंने जिंदगी में बहुत जख्म खाए हैं, गरीबी, मेहनत और लोगों की नजरों के, लेकिन मैंने सब्र किया है। मैं तुम्हें माफ करता हूं।”
मोहन लाल ने हैरत से पूछा, “सर, सच में माफ करते हैं?”
राजेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, लेकिन याद रखना, इज्जत सबकी करनी चाहिए। चाहे कोई साड़ी में आए या मैली धोती में, चाहे जूते हो या टूटी चप्पल। अगर इंसानियत भूल गए, तो अमीरी भी कुछ नहीं।”
यह बात सुनकर माहौल भारी हो गया। दीनाना की आंखों में गर्व और सुकून था। उसने सोचा कि आज उसके भाई ने सभी को इंसानियत का सबसे बड़ा सबक दिया है।
मोहन लाल ने आंसू पोंछे और कहा, “बाबा जी, आज से मैं किसी को कपड़ों या हालत से नहीं परखूंगा। मैं वादा करता हूं।”
राजेश ने आसमान की तरफ देखा और बेटी का चेहरा याद किया। उसे लगा जैसे उसकी इज्जत वापस लौट आई है। वह सिर्फ पैसे लेने नहीं आया था, बल्कि सब्र से सबको इंसानियत का असली चेहरा दिखा दिया था।
नीम के पेड़ की छांव में हल्की हवा चल रही थी। माहौल में सुकून था। सबने दिल ही दिल में यह सच मान लिया कि इंसान की असली पहचान उसकी इज्जत है, ना कि उसका हुलिया।
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एक युवती नंगे पैर जूते की दुकान में घुस गई, दुकान मालिक ने जो किया उसे देखकर हर कोई अवाक रह गया…
एक युवती नंगे पैर जूते की दुकान में घुस गई, दुकान मालिक ने जो किया उसे देखकर हर कोई अवाक…
मासूम बच्चे ने सिर्फ खाना मांगा था,पति–पत्नी ने उसे घर बुलाकर जो किया… पूरी इंसानियत रो पड़ी
मासूम बच्चे ने सिर्फ खाना मांगा था,पति–पत्नी ने उसे घर बुलाकर जो किया… पूरी इंसानियत रो पड़ी अहमदाबाद के एक…
KAPICI OĞLUNU KUCAĞINDA TAŞIYARAK BİNAYA GİRDİ… VE BİNA SAHİBİ İNANILMAZ BİR ŞEY YAPTI
KAPICI OĞLUNU KUCAĞINDA TAŞIYARAK BİNAYA GİRDİ… VE BİNA SAHİBİ İNANILMAZ BİR ŞEY YAPTI . . Kapıcı Oğlunu Kucağında Taşıyarak Binaya…
MİLYONERİN OĞLU ÇALIŞANINI ISIRDI… AMA SONRA YAPTIĞI ŞEY HERKESİ ŞAŞIRTTI!
MİLYONERİN OĞLU ÇALIŞANINI ISIRDI… AMA SONRA YAPTIĞI ŞEY HERKESİ ŞAŞIRTTI! . . Milyonerin Oğlu Çalışanını Isırdı… Ama Sonra Yaptığı Şey…
Üvey Baba HASTANEDE küçük KIZI Ziyaret Etti — HEMŞİRE bir GARİPLİK fark ETTİ ve hemen 113’ü ARADI
Üvey Baba HASTANEDE küçük KIZI Ziyaret Etti — HEMŞİRE bir GARİPLİK fark ETTİ ve hemen 113’ü ARADI . . Üvey…
FAKİR GENÇ YAŞLI KADINA YARDIM EDER, İŞİNİ KAYBEDER… KADIN TEKLİFLE GELİR
FAKİR GENÇ YAŞLI KADINA YARDIM EDER, İŞİNİ KAYBEDER… KADIN TEKLİFLE GELİR . . Fakir Genç Yaşlı Kadına Yardım Eder, İşini…
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