बेटे ने अपने ही पिता को घर से निकाल दिया — एक खामोशी की कहानी

हरिनारायण मिश्रा सुबह 4 बजे उठते, तुलसी के पौधे में पानी डालते और अपनी पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठ जाते। अब घर में उन्हें बस उसी कुर्सी पर टिकने की इजाजत थी — आवाज़ उठाने की नहीं। उनके हाथ में चाय का प्याला होता, जो उन्होंने खुद बनाया था, क्योंकि बहू की नींद अगर कोई तोड़ दे तो पूरे दिन घर में तनाव रहता।

उनका बेटा अविनाश, जो अब जिला समाज कल्याण अधिकारी बन चुका था, अपने रुतबे में इतना घुल चुका था कि बाप की खांसी भी उसे सस्ती लगती थी। जिस पिता ने बेटे को इंटर तक साइकिल से कोचिंग पहुँचाया, खुद भूखा रहकर कॉलेज की फीस जमा की, वही अब बेटे के घर में “पेंशन वाला बाप” कहलाता था।

बहू के मुंह से पहली बार यह शब्द सुना — “पापा जी हैं ना, उन्हें तो पेंशन आती है। घर के राशन का आधा खर्चा तो वैसे भी उनकी पेंशन से निकल जाता है।”
हरिनारायण को पहली बार लगा कि उनकी कमाई अब उनका सम्मान नहीं रही, बस उपयोग है।

हर महीने की पहली तारीख उनके लिए दोहरी होती थी — एक तरफ पेंशन का मैसेज, दूसरी तरफ बहू का अचानक बदल जाता व्यवहार।
पापा जी, चाय लीजिए, थोड़ा आराम कर लीजिए।
यह बदलाव इतना बनावटी होता कि उन्हें खुद शर्म आने लगती थी।

डाकिया मिश्रा जी जब लिफाफा लाते, दरवाजा बहू खोलती, मुस्कुराकर कहती — “अरे भैया, इस बार जल्दी आ गए आप।”
फिर आवाज़ लगाती — “पापा जी, आपकी चिट्ठी आई है, आइए लीजिए।”

लेकिन अगले ही दिन जब वह पोते चीकू से कुछ कहने जाते तो पोता फोन से सिर उठाए बिना बोलता — “दादू, आप बात मत किया करो, आपके मुंह से बदबू आती है।”

हरिनारायण की उम्र अब 72 हो चुकी थी, लेकिन नजरें अब भी धुंधली नहीं थीं।
घर में बदलते रंग वह सबसे पहले पहचानते थे — बहू की हल्की सी नाक सिकोड़ने की आदत, बेटे का “अभी काम है पापा” कहने का अंदाज, सबसे ज्यादा चोट देती थी वह खामोशी जब सबके साथ बैठने की चाहत को नजरअंदाज कर दिया जाता था।
मेज पर चार थालियां रखी जातीं, उनकी थाली रसोई में ही बची रह जाती थी — जैसे किसी मेहमान की।

फिर एक दिन सब कुछ पलट गया।
उस महीने पेंशन नहीं आई।
बैंक जाकर पता किया तो बताया गया — आधार से पेंशन लिंक में दिक्कत है, नए वेरिफिकेशन के बाद ही मिलेगा।

घर की हवा बदल गई।
बहू के चेहरे पर चिंता नहीं, झुंझलाहट थी — अब महीने भर राशन कैसे आएगा, बिजली का बिल तो आपके नाम पर है, वो भी कटेगा क्या?

बेटा कुछ नहीं बोला, बस एक बार गहरी नजर से देखा — जैसे सोच रहा हो, अब क्या करना है इस बेकार हो चुके आदमी का?

हरिनारायण चुपचाप उस रात अपनी पुरानी संदूक में से डायरी निकाले।
एक पन्ने पर लिखा — “आज पहली बार इस घर में मेरी कीमत शून्य हुई क्योंकि मुझे 1 महीने की पेंशन नहीं मिली।”
पर उसी डायरी के आखिरी पन्ने पर पहले से लिखा था — “मैंने कभी रिश्वत नहीं ली। इसलिए मेरी पेंशन आज भी रुक सकती है लेकिन मेरा जमीर नहीं।”

अगले दिन डाकिया आए तो बहू ने दरवाजा नहीं खोला।
हरिनारायण ने खुद खोला और कहा — “अभी कुछ नहीं आया होगा भैया, लेकिन आप चाहे तो चाय पी सकते हैं।”
डाकिया मुस्कुराया — “अब भी वैसी ही चाय बनती है जैसी 30 साल पहले बनती थी।”

उस दिन बहू ने रसोई की खिड़की बंद कर दी ताकि आवाजें अंदर न जाएं, लेकिन कुछ आवाजें दीवारों से टकराकर भी झुकती नहीं।

पोता चीकू स्कूल से लौटा तो उसके बैग में स्कूल की फॉर्म भरने का नोटिस था — 850 रुपए जमा कराने थे।
बहू ने वह नोटिस थमा दिया — “आप ही देख लो पापा जी, इस बार आप ही संभाल लो। अविनाश के पास अभी बहुत टाइट बजट चल रहा है।”

हरिनारायण ने कुछ नहीं कहा, बस अपनी जेब टटोली, संदूक खोला — उसमें एक पुराना चांदी का सिक्का पड़ा था, जो उनकी मां ने बचपन में दिया था।
उन्होंने उसे उठाया, लपेटा और कहा — “यह चीकू की पढ़ाई के नाम।”
बहू बोली — “इससे क्या होगा पापा जी? स्कूल चांदी नहीं लेता।”
हरिनारायण मुस्कुराए — “शायद अब इंसान भी नहीं लेता।”

रात को अकेले छत पर बैठे थे।
आसमान में चांद था, लेकिन उनकी आंखों में नहीं।
चेहरे पर संतोष नहीं था, शिकायत भी नहीं थी।
बस शांत थे — जैसे जीवन भर चलने के बाद एक स्टेशन पर खुद उतर गया हो।

अगली सुबह बहू ने देखा — दरवाजे पर पेंशन का लिफाफा रखा था, उसी में 2000 नकद भी रखे थे, और एक पर्ची —
“मैं एक बार फिर पेंशन वाला हो गया, लेकिन अब घर में मेरी जगह नहीं रही। मैं कुछ दिन अपने पुराने साथी श्रीराम बाबू के पास रहूंगा। चीकू की पढ़ाई मत रुकने देना।”

रेणू ने लिफाफा और पर्ची देखी, चेहरा स्थिर हो गया।
दरवाजा बंद किया ताकि मोहल्ले वालों की नजर न पड़े।
अविनाश के सिरहाने लिफाफा फेंका — “देखिए, आपके पापा ने क्या किया है? बिना कुछ कहे निकल गए और यह चिट्ठी छोड़ गए हैं। अब लोगों को क्या जवाब दूंगी?”

अविनाश ने लिफाफा उठाया, चुपचाप पढ़ने लगा।
चेहरा बदल रहा था, लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहा था।
वह उठा, बाथरूम गया और नहाने से पहले देर तक आईने में अपनी शक्ल देखता रहा।

नीचे चीकू ट्यूशन की तैयारी कर रहा था, उसकी नजरें बार-बार उस कुर्सी की तरफ उठ रही थीं, जहां दादाजी रोज बैठते थे।
दादाजी का जाना — जैसे घर की छत का एक खंभा उखड़ जाना था।

दोपहर को मोहल्ले के शर्मा जी मिलने आए — रेणू ने दरवाजा आधा ही खोला, “पापा जी गांव गए हैं कुछ दिनों के लिए।”
शर्मा जी बोले — “हम तो आजाद चौक में श्रीराम बाबू के घर गए थे, वहीं बैठे मिले, कह रहे थे अब वहीं रहूंगा, बहुत शांति है।”

रेणू का चेहरा और सख्त हो गया — अब पड़ोसी भी जान गए थे कि बूढ़ा अपने घर से खुद चला गया है।
यह बात मोहल्ले में फैली तो इज्जत की मिट्टी हो जाएगी, क्योंकि समाज भले बूढ़े को न पूछे लेकिन उसकी बद्दुआ से डरता जरूर है।

शाम को अविनाश बाइक उठाकर श्रीराम बाबू के घर पहुंचा।
अंदर से आवाज आई — “बाबूजी ने कह दिया है कि अब वह घर लौट कर कोई सफाई नहीं चाहते और अगर मिलने आओ तो सिर्फ बेटे नहीं, इंसान बनकर आना।”

अविनाश कुछ पल वहीं खड़ा रहा, फिर लौट आया।
यह पहली बार था जब उसके रुतबे ने कोई दरवाजा नहीं खोला।

हरिनारायण अब श्रीराम बाबू के पुराने पुस्तकालय में रहते थे — दीवारें किताबों से भरी, खिड़की से धूप सीधी उस कुर्सी पर पड़ती थी, जहां वह अब बिना किसी डर के अखबार पढ़ते थे।

वहां न बहू की कटाक्ष भरी चाय थी, न बेटे की खामोशी — वहां सिर्फ उनका होना था, बिना शर्त, बिना तौल।

दो दिन बाद उन्होंने अपनी डायरी का एक पन्ना चीकू के नाम लिखा, पोस्ट कर दिया।
उसमें कोई शिकवा नहीं था, बस कुछ कहानियां थीं, और आखिर में लिखा —
“अगर कभी दादाजी की कमी महसूस हो तो मुझे मत ढूंढना, उस खाली कुर्सी पर बैठ जाना, मैं वहीं रहूंगा।”

चीकू ने जब वह चिट्ठी पढ़ी, पहली बार उसकी आंखों में पानी आया — उसमें कोई शिकायत नहीं थी, बस एक स्नेह था।

रेणू ने जब देखा कि बेटे की आंखें भीग रही हैं, तो पहली बार चुप हो गई — अब उसकी सांस नहीं रही थी जो उसे आईना दिखाती, अब उसका अपना बेटा उसकी परछाई में कुछ और देखने लगा था।

अविनाश ने ऑफिस में पिता का सर्विस रिकॉर्ड देखा — राज्य सरकार द्वारा ईमानदारी के लिए सम्मानित अधिकारी।
कागज पढ़ते हुए अविनाश की उंगलियां कांप रही थीं — उसे याद आया, जब वह छोटा था, उसके पिता उसे कंधे पर बैठाकर स्कूल छोड़ते थे, बारिश में कीचड़ साफ कर उसके जूते बचाते थे।

तीसरे दिन रेणू ने सुबह पहली बार तुलसी में पानी डाला, दादा जी की कुर्सी के पास खाली चाय का प्याला रखा।
कोई चाय नहीं बनाई, बस प्याला रखा — जैसे प्रतीक्षा हो किसी वापसी की।

शाम को घर में बिजली चली गई, इन्वर्टर भी जवाब दे गया, पहली बार चीकू भागा दादाजी की टॉर्च लेने — लेकिन संदूक बंद था और चाबी उनके साथ चली गई थी।

हरिनारायण अब भी रोज सुबह 4 बजे उठते थे, चाय खुद बनाते थे — लेकिन अब वह चाय तानों की नहीं, अपनी आज़ादी की महक लिए होती थी।

श्रीराम बाबू के साथ गांव के बच्चों को पढ़ाते, रामायण के दोहे समझाते, और कभी-कभी खुद भी पूछते —
अगर किसी के पास सब कुछ हो, फिर भी वह प्यार को तरसे तो दोष किसका है?

बच्चे चुप रहते, उनकी आंखों में जवाब होता — हरिनारायण को यही चाहिए था, कुछ ना कहा जाए, बस महसूस किया जाए।

अविनाश ने बैंक में जाकर पिता की पेंशन वेरिफिकेशन करवाया, आधार जोड़ा, फॉर्म अपडेट किया — मैनेजर से कहा,
“मेरे पिता अब इस पेंशन के मोहताज नहीं हैं, लेकिन हम शायद उनके एहसानों के मोहताज रहेंगे जिंदगी भर।”
मैनेजर मुस्कुराया — “ऐसे पिता की पेंशन मत जोड़िए, उन्हें सम्मान जोड़िए, वह कहीं और मिलती है।”

पांचवें दिन अविनाश, रेणू और चीकू तीनों श्रीराम बाबू के घर पहुंचे — हाथ में मिठाई का डिब्बा, एक चिट्ठी।
लेकिन दरवाजा खोला तो अंदर से आवाज आई — “हरिनारायण जी तो सुबह ही निकल गए, बोले एक नई जगह जाना है, जहां रिश्तों की रसीद नहीं, बस आत्मा की सुकून मिले।”

चिट्ठी में जो लिखा था, वह अब पढ़ा नहीं गया।
सिर झुका कर बस वापस लौट आए।
घर आकर रेणू ने कुर्सी के पास फिर एक प्याला रखा — इस बार उसमें चाय भी थी।
शायद वह लौट आए, शायद कभी बैठ जाएं, और शायद फिर कुछ ना कहें, बस मुस्कुराएं जैसे पहले किया करते थे।

घर के आंगन में उस दिन धूप कुछ ज्यादा देर तक ठहरी रही — शायद इस उम्मीद में कि कोई बूढ़ी छाया लौटे और फिर उसी कुर्सी पर आकर बैठ जाए, जहां अब चाय ठंडी हो चुकी थी।
लेकिन प्याले की पकड़ अब भी गर्म थी — जैसे जाने वाला अपना वजूद छोड़ गया हो।

चीकू ने स्कूल से आकर सबसे पहले दादाजी की संदूक की चाबी ढूंढी — रसोई, बैठक, बाथरूम की खिड़की तक देखा, लेकिन चाबी नहीं मिली।
क्योंकि चाबी वहां नहीं थी, चाबी अब उसके दिल में थी — जो पहली बार धड़कन से कुछ ज्यादा महसूस कर रहा था।

रेणू अब रसोई में काम करते हुए अक्सर पीछे मुड़कर देखती थी — जैसे कोई आकर पूछे, “बहू, गर्म रोटी मिलेगी?”
लेकिन अब पीछे कोई नहीं था, न कोई आवाज़।

अविनाश हर रात ऑफिस से लौटते वक्त उस गली के सामने स्कूटर धीमा करता — जहां श्रीराम बाबू का घर था, लेकिन वहां अब हर शाम ताला ही लटका मिलता।

उधर हरिनारायण मिश्रा अब शहर छोड़ चुके थे।
वह उस गांव में जा पहुंचे थे, जहां सेवाकाल की पहली नियुक्ति पाई थी — टूटा स्कूल, अधपके खेत, अधूरी पगडंडी, कुछ बूढ़े चेहरे जो अब भी उन्हें हरिबाबू कहते थे।

वहीं स्कूल के एक कोने में ठिकाना बनाया — पुरानी टेबल, लकड़ी की खाट, वही डायरी।
रोज उसमें कुछ लिखते, बच्चों को पढ़ाते, कागज फाड़कर किसी बच्चे को पकड़ा देते —
“तुम्हारा लिखा शब्द तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है। दुनिया भले भूले तुम्हें, लेकिन तुम्हारा सच किसी ना किसी किताब में दर्ज हो जाएगा।”

गांव के बच्चों को नहीं पता था कि वह कौन हैं, लेकिन इतना जान गए थे कि जो बाबा उन्हें पढ़ाता है, वह सिर्फ किताब नहीं, जिंदगी सिखाता है।

एक दिन गांव में अफसर की गाड़ी आई — नीली बत्ती वाली।
स्कूल के बाहर खड़ा अफसर कोई और नहीं, अविनाश था।
सरकारी दौरे के तहत गांव पहुंचा था, किसी ने बताया — बाबूजी यहीं हैं।

स्कूल में उसकी सांस अटक गई।
अंदर गया, देखा — एक झुकी पीठ वाला आदमी लकड़ी की पट्टी पर बैठा है, सामने पांच बच्चों का झुंड, हाथ में वही चांदी का सिक्का।

अविनाश कुछ पल देखता रहा, फिर भीतर आया — पहली बार झुकी नजर से बोला, “पापा…”
स्कूल में सन्नाटा छा गया।
हरिनारायण ने सिर उठाया — “सरकारी दौरे पर आए हैं?”
अविनाश की आंखें भर आईं — “आपके बिना घर अधूरा है पापा, सब कुछ अधूरा है।”

हरिनारायण उठे, धीरे से उसकी ओर आए —
“घर वह नहीं होता जहां तुम्हें कुर्सी मिले, घर वह होता है जहां तुम्हारा मौन भी समझा जाए।”

फिर बच्चों की तरफ मुड़कर बोले —
“बच्चों, यह मेरे बेटे हैं, जिनके लिए मैंने ईमानदारी की कमाई से पूरी उम्र लगाई। आज वह मुझे ढूंढने आए हैं, यानी अभी उम्मीद बाकी है।”

अविनाश ने पिता का हाथ पकड़ा, पहली बार उनके साथ पैदल चला।
गाड़ी वहीं खड़ी रही, अफसर की कुर्सी भी और मोबाइल भी।

रास्ते भर दोनों चुप थे — लेकिन वह चुप्पी अब बोझ नहीं थी, वह एक पुल थी जो टूटे रिश्तों के बीच बन रही थी।

गांव के लोग देखते रहे — एक अफसर और उसका बूढ़ा बाप, जो अब भी किसी गांव के स्कूल में बच्चों को जिंदगी पढ़ा रहा था।

शाम को दोनों बैठे गांव के पोखरे के किनारे चाय के साथ — खामोशी थी।
अविनाश ने जेब से कागज निकाला — “पापा, आपकी पेंशन वापस चालू हो गई है, अब सीधा गांव के पोस्ट ऑफिस में पहुंचेगी।”

हरिनारायण मुस्कुराए —
“अब पेंशन की जरूरत नहीं बेटा, अब इज्जत मिल गई है। बाकी जीवन भर मैं खुद ही अपने शब्दों से गुजारा कर लूंगा।”

फिर वही चांदी का सिक्का जेब से निकाला, चीकू के नाम एक चिट्ठी के साथ लिफाफे में रख दिया —
“जब तुम्हारे पास पैसा हो तब बुजुर्ग को मत देखना। जब तुम्हारे पास रिश्ते हो तब बुजुर्ग को समझना।”

चिट्ठी जब चीकू के हाथ लगी, पहली बार उसने वह सिक्का अपने स्कूल बैग में नहीं, अपनी जेब में रखा।
हर सुबह वह उस खाली कुर्सी पर कुछ मिनट जरूर बैठता था — जहां अब कोई नहीं था, लेकिन सांसे अब भी महसूस होती थीं।