भिखारी समझकर बच्चे को बैंक से निकाला, निकला अरबपति बिज़नेसमैन का बेटा। फिर आगे जो हुआ..

लखनऊ शहर की तंग गलियों में एक छोटा सा मकान था। दीवारों पर सीलन जमी थी, छत से पंखा लटक तो रहा था पर आवाज़ उसकी कराहती साँसों जैसी थी। उस घर में रह रहे 12 साल के दुबले-पतले लड़के रोहन की दुनिया छोटी थी—उसकी सात महीने की बहन सिमरन और उसके पापा संजय शर्मा।

उस दिन दोपहर का वक्त था। तपती धूप से पूरा कमरा और भी तप रहा था। रोहन अपनी बहन सिमरन को गोद में लिए चुप कराने की कोशिश कर रहा था। बच्ची भूख से बिलख रही थी। उसकी मासूम चीखें कमरे की चारों दीवारों से टकराकर गूंज रही थीं। तभी दरवाज़ा खुला और भीतर आए उसके पापा—संजय शर्मा।

संजय बाहर की दुनिया में शहर के नामी व्यापारी थे। करोड़ों का कारोबार था, पर घर में उनका रूप साधारण था। वह हमेशा यही मानते थे कि असली अमीरी कपड़ों या गाड़ियों से नहीं, बल्कि सोच और इज्ज़त से होती है।

उन्होंने अलमारी खोली और उसमें से एक पुरानी सी कमीज़ और घिसा-पिटा पायजामा निकाला। मुस्कुराते हुए रोहन की ओर बढ़ाया और बोले—
“बेटा, यह पहन लो।”

रोहन ने हैरानी से कपड़ों को देखा।
“पापा, यह तो बहुत पुराने हैं। अगर स्कूल में ऐसे पहन कर जाऊंगा तो सब मज़ाक उड़ाएंगे।”

संजय की आँखों में हल्की मुस्कान थी पर चेहरे पर गंभीरता भी थी। उन्होंने धीरे से कहा—
“आज तुम स्कूल नहीं जा रहे। आज तुम्हें एक अलग क्लास मिलेगी। ऐसी क्लास जो कोई किताब नहीं पढ़ा सकती। यह कपड़े पहनकर बैंक जाना है और वहां से ₹1000 निकालना है। फिर अपनी बहन के लिए दूध और घर के लिए राशन ले आना।”

रोहन सकपका गया।
“पापा, आप खुद क्यों नहीं जा रहे? मैं तो अभी छोटा हूँ।”

संजय ने बेटे के कंधे पर हाथ रखा और गंभीर स्वर में बोले—
“बेटा, तुम्हें यह जानना ज़रूरी है कि दुनिया तब कैसे व्यवहार करती है जब उसे यह नहीं पता होता कि तुम कौन हो। लोग गरीब कपड़े देखकर कैसा बर्ताव करते हैं, यह तुम्हें अपनी आँखों से देखना है। याद रखना, चाहे कुछ भी हो जाए, गुस्सा मत करना।”

रोहन ने सिर झुका लिया। मन में डर था, उलझन थी, पर पापा की आँखों में भरोसा था।

कुछ देर बाद उसने वही पुराने कपड़े पहन लिए। पैरों में ढीली चप्पलें थीं, कंधे पर एक छोटा सा थैला टांगा जिसमें दो खाली दूध की बोतलें और पानी रखा था। गोद में सिमरन थी, जो अब भी भूख से रो रही थी।

बैंक की ओर सफर

घर से बैंक की दूरी करीब दो किलोमीटर थी। तेज धूप में छोटे-छोटे कदम बढ़ाता रोहन सोच रहा था—
“पापा ने ऐसा क्यों कहा? मैं तो बच्चा हूँ, यह काम मेरे लिए क्यों?”

रास्ते में कोई ध्यान नहीं दे रहा था। लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। छोटा बच्चा बहन को संभालते हुए थक चुका था, पर पापा की बात याद करके हिम्मत जुटा रहा था।

करीब एक घंटे बाद वह शहर की सबसे बड़ी बैंक शाखा के सामने खड़ा था।

बैंक में पहला अनुभव

बाहर खड़े सिक्योरिटी गार्ड ने उसे देखा और शक भरी नज़र से बोला—
“ए लड़के, कहाँ जा रहा है? यह बैंक है, यहाँ अमीरों का काम होता है। तेरे बस की बात नहीं।”

रोहन डर गया, पर उसने जेब से कार्ड निकाला और धीरे से बोला—
“मैं पैसे निकालने आया हूँ। यह मेरे पापा का कार्ड है।”

गार्ड ने कार्ड देखा और लापरवाही से इशारा करते हुए उसे अंदर जाने दिया।

अंदर का नज़ारा बिल्कुल अलग था। ठंडी हवा, चमकते जूते, महंगे बैग, परफ्यूम की खुशबू। सब लोग कतार में खड़े थे, बातें कर रहे थे। रोहन ने हिम्मत करके काउंटर पर जाकर कहा—
“दीदी, ₹1000 निकालना है।”

काउंटर पर बैठी कैशियर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और ताना मारते हुए बोली—
“यह बैंक है, मुफ्त राशन की दुकान नहीं। यह कार्ड तुझे कहाँ से मिला?”

रोहन ने डरते हुए कहा—
“यह मेरे पापा का कार्ड है।”

कैशियर ने कार्ड हाथ में लिया, हंसी उड़ी—
“यह तो खिलौने जैसा कार्ड लगता है। इसमें पैसे कहाँ होंगे? जा, बाहर खेल।”

लाइन में खड़े कुछ लोग हँस पड़े।
“अरे बच्चे को दो रुपये दे दो, टॉफी ले लेगा।”

रोहन का चेहरा लाल हो गया। सिमरन और ज़ोर से रोने लगी। पर उसने गुस्सा नहीं किया। बस धीरे से कार्ड वापस मांगने की कोशिश की।

तभी मैनेजर मनोज कुमार बाहर आए और गरजते हुए बोले—
“क्या तमाशा लगा रखा है?”

कैशियर ने शिकायत की—
“सर, यह बच्चा झूठ बोल रहा है। कहता है पापा का कार्ड है। शक्ल तो भीख मांगने वालों जैसी है।”

मैनेजर ने रोहन को घूरा और चिल्लाए—
“यह जुर्म है। यह कार्ड तेरा नहीं है। सिक्योरिटी, इसे बाहर निकालो।”

गार्ड ने मजबूरी में रोहन का हाथ पकड़ा और उसे बाहर धकेल दिया।

अपमान का घाव

रोहन दरवाज़े पर बैठ गया। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। सिमरन उसके सीने से चिपकी लगातार रो रही थी। उसके हाथ में कार्ड कसकर दबा था। पापा की आवाज़ कानों में गूंज रही थी—“गुस्सा मत करना।”

लेकिन अंदर उसका दिल टूट रहा था। बैंक के लोग हँस रहे थे, कुछ ग्राहक तमाशा देख रहे थे, और कुछ ने उसे भिखारी समझकर सिक्के देने की कोशिश की।

पापा का आगमन

तभी सड़क पर एक चमचमाती काली गाड़ी आकर रुकी। उससे उतरे संजय शर्मा। काला सूट, चमकते जूते, हाथ में महंगी घड़ी।

जैसे ही उन्होंने अपने बेटे को ज़मीन पर बैठे देखा, उनकी आँखों में तूफान उमड़ आया। तुरंत घुटनों पर बैठकर बोले—
“बेटा, सब ठीक है ना?”

रोहन रो पड़ा—
“पापा, मैंने कुछ नहीं किया। बस पैसे निकालना चाहता था।”

संजय ने बेटे को उठाया, सिमरन को सीने से लगाया और सीधे बैंक में दाखिल हुए।

सच का पर्दाफाश

जैसे ही वह अंदर पहुंचे, पूरा माहौल बदल गया। कर्मचारी सजग होकर बैठ गए। कुछ ग्राहक पहचान गए कि यह शहर के सबसे बड़े व्यापारी संजय शर्मा हैं।

संजय ने गहरी आवाज़ में कहा—
“मेरे बेटे को किसने बाहर निकाला?”

मैनेजर कांपने लगे—
“सर, हमें नहीं पता था कि यह आपका बेटा है।”

संजय ने मोबाइल निकालकर अकाउंट डिटेल्स दिखाईं। स्क्रीन पर बैलेंस था—₹12200 करोड़।

पूरा बैंक सन्नाटे में डूब गया। कैशियर की आंखों से आँसू बहने लगे।

संजय ने ठंडी आवाज़ में कहा—
“मेरे बेटे के हाथ में कार्ड था, पर तुमने उसमें सच नहीं देखा। तुमने सिर्फ उसके मैले कपड़े और रोती बहन को देखा। यही तुम्हारी सोच है—तंगदिली और घमंड।”

फिर उन्होंने ऐलान किया—
“आज मैं अपना पूरा खाता इस बैंक से बंद कर रहा हूँ। इज्ज़त पैसे से बड़ी होती है।”

समाज पर असर

यह दृश्य एक ग्राहक ने रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर डाल दिया। कुछ ही घंटों में वीडियो वायरल हो गया।
हेडलाइन बनी—“बच्चे को भिखारी समझकर निकाला, पिता ने ₹12000 करोड़ का खाता बंद किया।”

पूरा देश चर्चा करने लगा। लोग कहने लगे—
“हमारी असली बीमारी यही है—कपड़ों से इंसान की इज्ज़त आंकना।”

सीख

उस दिन रोहन ने समझा कि पापा ने क्यों उसे यह अनुभव करने दिया।
इज्ज़त कपड़ों या पैसों से नहीं, बल्कि इंसानियत से मिलती है।

संजय ने बेटे से कहा—
“बेटा, याद रखना। अमीरी यह नहीं कि लोग तुम्हें देखकर डरें, बल्कि यह है कि लोग तुम्हें देखकर इज्ज़त करें। और इज्ज़त इंसानियत से मिलती है।”

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