जानकी देवी की आत्मसम्मान की कहानी
जानकी देवी की जिंदगी अब अकेलेपन और उपेक्षा की आदत डाल रही थी। उनके पति राघव जी का देहांत हुए कई साल गुजर चुके थे। समय बीतने के साथ-साथ घर की दीवारों पर लगी तस्वीरों में राघव जी की मुस्कान जस की तस थी, पर उस मुस्कान को देखने वाली आंखें सुनी पड़ गई थीं। कभी वही घर उनकी हंसी से गूंजा करता था। जहां वे रसोई में काम करतीं तो राघव जी आवाज देकर छेड़ते – “जानकी, तुम्हारे हाथ की बनी दाल जैसी दाल कहीं और मिलेगी?” और जानकी मुस्कुराकर कहतीं – “बस तुम्हारे लिए ही खास है।”
लेकिन अब वो आवाज, वो अपनापन और वो सुकून सब अतीत बन चुका था।
आज वह अपने बेटे अजय और बहू सोनिया के साथ रहती थीं। मगर यह रहना सिर्फ कागजों पर और रिश्तों की परिभाषा में था। असल में यह घर उनके लिए पराया सा बन चुका था। चारों तरफ चमचमाती दीवारें थीं, सजे-धजे कमरे थे, महंगे पर्दे और सोफे थे, पर उनमें अपनत्व की एक बूंद भी नहीं थी।
हर सुबह जब सूरज की हल्की किरणें उनके कमरे की खिड़की से भीतर आतीं तो जानकी देवी उनींदी आंखों से उन्हें देखतीं और एक लंबी सांस भरतीं। आंखें खोलने का मन होता भी तो दिल कहता – “क्यों उठना है? किसके लिए उठना है?” लेकिन आदत ने उन्हें मजबूर कर रखा था। वह धीरे-धीरे उठतीं, अपने पतले झुर्रियों भरे हाथों से चप्पल पहनतीं और खामोशी से कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आतीं। बाहर का माहौल ठंडा और अजनबी सा था। घर बड़ा था, लेकिन उस बड़े घर में उनके लिए जगह छोटी होती जा रही थी।
बरामदे से गुजरते हुए उनके कदम ऐसे पड़ते जैसे वे चाहती हों कि कोई उनकी आहट भी ना सुने। दिल के अंदर कहीं डर था – कहीं बहू की आंखें फिर तानों से ना बरस जाएं, कहीं बेटा फिर उल्टा-सीधा ना बोल दे।
ऐसे ही एक दोपहर का वाकया उनकी यादों में हमेशा के लिए छप गया। खाने की मेज पर सब बैठे थे। थाली में चावल और रोटियां रखी थीं। जानकी देवी ने बहुत धीमे स्वर में कहा – “बहू, मुझे बहुत खांसी आ रही है। मैं चावल नहीं खा सकती। तुम चावल खा लो और मुझे यह रोटी दे दो।”
उनकी आवाज में ना तो कोई जिद थी, ना कोई हक जताना था। बस एक मां की साधारण सी तकलीफ थी। लेकिन अजय ने बीच में ही टोक दिया – “मां, दो दिन से सोनिया को भी खांसी-जुकाम है। आप उसे रोटी खाने दीजिए और खुद चावल खा लीजिए। वैसे भी आपको रोटी खाने में दिक्कत होती है। घंटों बैठकर चबाती रहती हैं। इतनी देर तक कोई खाना खाता है क्या?”
बेटे की बातें सुनकर जैसे उनकी सांस अटक गई। रोटी का टुकड़ा हाथ से गिरते-गिरते बचा। वो चुपचाप बेटे का चेहरा देखती रह गईं। सोच रही थीं – क्या यही मेरा वही बेटा है जिसे मैंने अपने हाथों से रोटी तोड़कर खिलाया था? वही बेटा जिसकी थाली में मैंने हमेशा अपनी थाली से ज्यादा डाला था।
उनकी आंखों में आंसू छलक आए, मगर उन्होंने सिर झुका लिया। चाहती भी तो कुछ कह नहीं पातीं। गले में निवाला अटक गया। मन ही मन बुदबुदाईं – “बेटा अपनी पत्नी की तकलीफ तो देख सकता है, पर मां की तकलीफ क्यों नहीं?”
उनका मन तुरंत राघव जी की ओर चला गया। उन्हें याद आया – जब उनके सास को खांसी होती थी तो राघव जी कैसे खाने की मेज पर सबसे पहले उनकी जरूरत का ख्याल रखते। “अम्मा को रोटी देना, दाल पतली करके रखना ताकि गले में तकलीफ ना हो।”
लेकिन आज उनका बेटा सब भूल चुका था। उस दिन जानकी देवी ने दाल का कटोरा उठाया और चुपचाप खाना छोड़ दिया। अगर चावल खातीं तो खांसी और बढ़ जाती। लेकिन किसे परवाह थी? बहू और बेटा अपनी प्लेटों में मशरूफ रहे। किसी ने यह भी ना देखा कि मां बिना खाए उठ गई।
ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। घर में उनकी परवाह करने वाला कोई नहीं था। मगर उनकी एक सहेली थी – सुशीला। वह उनकी जिंदगी की एकमात्र सहारा थी। सुशीला उनकी बचपन की साथी थी। वही गांव की पगडंडियों पर साथ खेली थी, वही स्कूल जाते समय किताबें बांटकर पढ़ी थी। अब दोनों की उम्र ढल चुकी थी, मगर दोस्ती उतनी ही ताजा थी।
सुशीला अक्सर वसंत विहार पार्क में उनसे मिलती। वो जब भी आती अपने साथ कुछ लाती – कभी गरमा गरम पकोड़े, कभी घर के बने लड्डू। उनकी आंखों में हमेशा अपनापन होता और होठों पर चिंता – “जानकी कैसी हो?”
जब जानकी देवी की तबीयत खराब हुई तो दवा का इंतजाम भी सुशीला ने ही किया। दो दिन बाद जब वह थोड़ी ठीक हुई तो पार्क पहुंचीं। दोनों एक बेंच पर बैठे। हवा हल्की-हल्की बह रही थी। सुशीला ने उनकी हथेलियां अपने हाथों में लेकर कहा – “जानकी, इस बार मैं प्रयागराज कुंभ स्नान के लिए जा रही हूं। इतने सालों बाद आया है यह मौका। तुम भी चलो ना।”
कुंभ का नाम सुनते ही जानकी देवी की आंखों में एक चमक तैर गई। बचपन से कुंभ का महत्व सुना था। पर तुरंत ही चेहरे पर संकोच उतर आया – “सुशीला, वहां बहुत भीड़ होगी। हम कैसे जाएंगे?”
सुशीला खिलखिला कर हंस पड़ी – “अरे मैं हूं ना। मेरे बेटे-बहू का वहां बहुत जान-पहचान है। वे हमें आराम से स्नान करवा देंगे। तुम्हें किसी चीज की चिंता नहीं करनी।”
जानकी देवी की आंखें भीग गईं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा – “तुम कितनी किस्मत वाली हो। तुम्हारे बेटे-बहू तुम्हारी इतनी परवाह करते हैं और एक मेरा बेटा है जो पास रहकर भी मुझसे बात तक नहीं करता। जब भी करता है तो उल्टा-सीधा ही बोलता है।”
सुशीला ने उनकी आंखों में गहराई से देखा और गंभीर स्वर में बोली – “जानकी, हमेशा चुप रहना अच्छी बात नहीं होती। कभी-कभी बोलना भी बहुत जरूरी होता है। वरना लोग हमारी चुप्पी का फायदा उठाने लगते हैं।”
यह शब्द उनके दिल में उतर गए। घर लौटते समय वह इन्हीं शब्दों को मन ही मन दोहराती रहीं। जैसे ही उन्होंने गेट खोला, बहू सोनिया सामने खड़ी थी। आंखों में तिरस्कार और होठों पर व्यंग्य तना हुआ था – “आ गई महारानी घूम-फिर कर। घर में कोई काम करने को कहो तो तबीयत खराब हो जाती है और पार्क में घूमने के लिए रोज निकल जाती हैं।”
जानकी देवी का मन दुखी हुआ, मगर इस बार उन्हें सुशीला की बातें याद आ गईं। उन्होंने धीमे मगर ठोस स्वर में कहा – “बहू, मैं घर का सारा काम करती हूं – झाड़ू, पोछा, बर्तन, खाना बनाना। अगर फिर भी कोई काम रह जाता है तो बता देना, मैं कर दूंगी। लेकिन ताने मारने की जरूरत नहीं है।”
यह सुनते ही सोनिया का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उसने पैर पटके और बोली – “मां जी, आप कुछ ज्यादा ही बोलने लगी हैं क्या? अगर चुप रहेंगी तो ही आपके लिए अच्छा होगा।” इतना कहकर वो कमरे में चली गई।
शाम को अजय ऑफिस से लौटा। सोनिया ने आंसू पोंछते हुए नाटक किया और कहा – “अजय, तुम्हारी मां ने आज मेरी बहुत बेइज्जती की है।”
अजय की आंखों में गुस्सा भर आया। वो मां के कमरे में पहुंचा और गरजा – “मां, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई सोनिया को कुछ कहने की? अगर उसने शिकायत की है तो गलती तुम्हारी ही होगी। आगे से अगर सोनिया की बेइज्जती की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”
जानकी देवी का दिल छलनी हो गया। उन्होंने कांपते स्वर में कहा – “बेटा, तुम्हें सिर्फ अपनी पत्नी की तकलीफ दिखती है। मां जिए या मरे इससे तुम्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसा बेटा होने से अच्छा था कि मेरा कोई बेटा ही ना होता।”
यह सुनते ही अजय आग-बबूला हो गया। उसने मां के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया – “अपनी औकात में रहो मां। आगे से सोनिया के खिलाफ कुछ भी कहने से पहले इस थप्पड़ को याद रखना।”
उस थप्पड़ ने न सिर्फ उनके गाल को बल्कि आत्मा को भी झकझोर दिया। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्हें अपने पति राघव जी का चेहरा याद आया, जो हमेशा उन्हें सम्मान देते थे। उन्होंने टूटे स्वर में कहा –
“अजय, तुमने मेरी परवरिश को आज लज्जित कर दिया। मां पर हाथ उठाने वाला बेटा कभी सुखी नहीं रहता। एक दिन तुम्हें अपनी इस गलती का बहुत बड़ा पछतावा होगा।”
उसके बाद कई दिन तक जानकी देवी पहले से भी ज्यादा चुप रहने लगीं। उनकी चुप्पी अब गहरी थी – इतनी गहरी कि जैसे उसके अंदर कोई ज्वालामुखी छुपा हो।
जब वो फिर पार्क में सुशीला से मिलने गईं तो उनकी आंखों में आंसू थे। उन्होंने सुशीला से कहा – “सुशीला, मेरे बेटे ने मुझ पर हाथ उठाया।”
सुशीला का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने कठोर स्वर में कहा – “जानकी, तुम इतनी कमजोर क्यों हो? अगर उसने तुम्हें थप्पड़ मारा तो तुम्हें उसे दो थप्पड़ मारने चाहिए थे। यह कैसी मां हो जो अपनी ही संतान से डर रही हो?”
जानकी देवी ने सिर झुका लिया, होंठ कांप रहे थे। सुशीला ने गंभीर होकर कहा –
“अगर तुमने अपने सम्मान के लिए आवाज नहीं उठाई, तो मुझसे मिलने कभी मत आना। आज उसने हाथ उठाया है, कल को तुम्हें घर से निकाल देगा। तब कोई तुम्हारी मदद करने नहीं आएगा।”
यह शब्द बिजली की तरह उनके दिल में उतर गए। उन्होंने आंसू पोंछे और दृढ़ स्वर में कहा – “सुशीला, तुम सही कहती हो। अब मैं चुप नहीं रहूंगी। अब तुम एक नई जानकी देखोगी जो अपने सम्मान के लिए खड़ी होगी।”
सुशीला ने राहत की सांस ली और मुस्कुराई – “यही बात तो मैं सुनना चाहती थी।”
उस दिन से जानकी देवी के भीतर एक नई आग जल चुकी थी। उन्होंने ठान लिया था कि अब वह अपमान को चुपचाप नहीं सहेंगी।
जानकी देवी के दिल में जो आग जल उठी थी, उसने उनके सोचने का ढंग बदल दिया था। बरसों से जो बातें वे चुप रहकर सहती आ रही थीं, अब वही बातें उनके आत्मसम्मान को चुभने लगी थीं। सुशीला के शब्द – “अगर आवाज नहीं उठाओगी तो लोग चुप्पी का फायदा उठाएंगे” – उनके कानों में बार-बार गूंज रहे थे।
उस रात उन्होंने पहली बार अपने कमरे का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। आईने में अपने चेहरे को लंबे समय तक निहारती रहीं – झुर्रियों से भरा चेहरा, थकी हुई आंखें, गहरी लकीरें।
इन सबके पीछे उन्हें वह औरत दिखाई दी जो कभी अपने पति के साथ पूरे आत्मविश्वास से जीती थी। उन्होंने आईने से कहा – “जानकी, अब वक्त है कि तुम फिर से वही बनो जो टूटे नहीं, जो दूसरों पर बोझ ना बने।”
सुबह होते ही उन्होंने अपनी पुरानी संदूकची खोली। उसमें राघव जी की दी हुई चूड़ियां, पुराने कपड़े और कागज रखे थे। हर वस्तु उन्हें उनके अतीत से जोड़ रही थी। जैसे ही उन्होंने राघव जी की लिखी चिट्ठियां पढ़ीं, उनकी आंखें भर आईं। एक चिट्ठी में लिखा था – “तुम मेरी सबसे बड़ी ताकत हो।”
यह शब्द उनके दिल में हिम्मत भर गए। उन्होंने ठान लिया कि अब वह बेटे-बहू की दया पर नहीं जिएंगी।
उसी शाम वो राघव जी के पुराने मित्र और वकील विनोद जी से मिलने पहुंचीं। उन्होंने पूरी कहानी सुनाई – कैसे बेटे ने थप्पड़ मारा, कैसे बहू रोज ताने देती है और कैसे अब उनका मन टूट चुका है।
विनोद जी ने गंभीरता से कहा – “जानकी बहन, आप चाहे तो कानूनी कदम उठा सकती हैं। कानून आपके साथ है, मगर असली ताकत आपकी हिम्मत है। अगर आपने ठान लिया है कि आप अपनी जिंदगी अपने दम पर जिएंगी तो कोई ताकत आपको रोक नहीं सकती।”
विनोद जी की बातें सुनकर जानकी देवी का मन और पक्का हो गया। उन्होंने तुरंत तय कर लिया कि वे इस घर को छोड़ देंगी।
जब वे लौटकर घर पहुंचीं तो बरामदे से होते हुए हर कोने को गौर से देखा – वही रसोई जहां वे बेटे के लिए अनगिनत बार खाना बनाती थीं, वही बैठक जहां कभी हंसी-ठिठोली गूंजा करती थी, वही दीवार जहां राघव जी की मुस्कुराती तस्वीर टंगी थी।
सब कुछ बदल चुका था। अब यह घर उनके लिए सिर्फ दीवारें और सामान रह गया था।
कुछ जरूरी कपड़े, दवाइयां और गहने समेटकर उन्होंने एक बैग तैयार किया। गहनों को वे इसीलिए साथ ले रही थीं कि आगे की जिंदगी में यही उनका सहारा बनेंगे।
शाम को उन्होंने अजय और सोनिया को सामने बुलाकर साफ कहा – “अब मैं इस घर में नहीं रहूंगी। मैंने रामनगर में एक छोटा सा घर किराए पर ले लिया है। अब अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जिऊंगी। तुम दोनों के लिए मैं बोझ हूं तो अच्छा है कि मैं खुद ही इस बोझ को उतार दूं।”
अजय के चेहरे पर घबराहट और गुस्सा दोनों थे। वो कुछ कहना चाहता था मगर सोनिया ने तिरस्कार से कहा – “ठीक है मां जी, जैसा आपको सही लगे। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।”
जानकी देवी ने एक पल भी नहीं गवाया। बैग उठाया और बिना पीछे देखे दरवाजे से बाहर निकल गईं। जाते-जाते उन्होंने बस एक नजर घर पर डाली – ना गुस्से से, ना रोकर, बस एक शांत नजर जैसे किसी पुराने अध्याय को बंद किया जाता है।
रामनगर का छोटा सा घर उनका नया ठिकाना बना। एक कमरे का मकान, छोटा सा आंगन और एक खिड़की जिससे नीला आसमान साफ दिखाई देता था।
पहली रात जब वे खिड़की के पास बैठीं और बाहर झिलमिलाते तारों को देखा तो मन में शांति उतर आई। लगा जैसे आसमान खुद उनसे कह रहा हो – “अब तुम आजाद हो।”
दिन आसान नहीं थे। बाजार जाकर सब्जियां खरीदना, राशन लेना, बिजली-पानी के बिल भरना – यह सब काम उन्होंने बरसों बाद अकेले किए। शुरू में दिक्कत हुई, पर हर छोटे काम ने उनके दिल में भरोसा भरा।
उन्होंने महसूस किया कि आत्मनिर्भर होना सिर्फ पैसे कमाना नहीं है, बल्कि अपने हर छोटे-बड़े काम के लिए खुद खड़े होना है।
पार्क में रोज जाने से उनकी मुलाकात कई औरतों से हुई। कोई बहू से दुखी थी, कोई बेटे की बेरुखी से – सबके दिल में दर्द था। लेकिन सब जी भी रही थीं।
जानकी देवी को एहसास हुआ कि वे अकेली नहीं हैं, उनका दर्द समाज के कई घरों में छिपा बैठा है।
इसी दौरान सुशीला ने कहा – “जानकी, पास के स्कूल में बुजुर्ग औरतों को बच्चों को पढ़ाने का काम मिलता है। तुम कोशिश क्यों नहीं करती?”
पहले तो जानकी देवी झिझकीं – “क्या मैं पढ़ा पाऊंगी? बरसों हो गए किताब हाथ में लिए।”
सुशीला ने हंसकर कहा – “तुमने अपने बेटे को पढ़ाया है। क्या यह भूल गई? मां का अनुभव किसी किताब से कम नहीं होता।”
अगले ही दिन वे स्कूल पहुंचीं। प्रिंसिपल ने उनसे कुछ बातें की और तुरंत उन्हें एक क्लास दे दी।
पहली बार जब जानकी देवी बच्चों के सामने खड़ी हुईं तो दिल कांप रहा था। मगर जैसे ही उन्होंने कहानियां सुनाना शुरू किया – पंचतंत्र, लोक कथाएं, रामायण की बातें – बच्चों की आंखें चमक उठीं। वे उनकी बातों में खो गए।
एक छोटा बच्चा क्लास खत्म होने पर बोला – “दादी, आप रोजाना आओ।”
उस एक वाक्य ने जानकी देवी का दिल जीत लिया। उन्हें लगा कि उनका खोया हुआ सम्मान और प्यार धीरे-धीरे लौट रहा है।
अब उनकी दिनचर्या बदल गई थी – सुबह स्कूल, दोपहर में घर लौटकर आराम, शाम को पार्क और रात में किताबें। थोड़ी तनख्वाह से खर्च चलने लगा और सबसे बड़ी बात – लोग अब उन्हें इज्जत से देखने लगे। मोहल्ले में सब उन्हें जानकी दी कहकर बुलाने लगे। यह नाम उनके लिए किसी ताज से कम नहीं था।
समय बीतता गया। इधर अजय और सोनिया की जिंदगी में कलह बढ़ने लगी। पैसों को लेकर झगड़े, छोटी-छोटी बातों पर तकरार। अजय के मन में धीरे-धीरे अपराधबोध जागने लगा।
एक दिन वो मां के छोटे घर पहुंचा। उसने धीमे स्वर में कहा – “मां, मैंने बहुत गलती की। मुझे माफ कर दो। मैं आपको वापस घर ले जाना चाहता हूं।”
जानकी देवी ने शांत स्वर में कहा – “बेटा, माफ करना और भरोसा करना अलग बातें हैं। मैं तुम्हें माफ कर सकती हूं, लेकिन उस घर में लौटकर फिर वही अपमान सहना अब संभव नहीं। इज्जत शब्दों से नहीं, रोज के व्यवहार से मिलती है। अगर सच में बदलना चाहते हो तो अपने जीवन में बदलाव लाओ। मेरी जिंदगी अब यही है, जहां मुझे सम्मान और सुकून मिलता है।”
अजय का सिर झुक गया। उसने मां के पांव छुए और भारी मन से चला गया।
जानकी देवी ने आंसू जरूर पोंछे, पर दिल में सुकून था। उन्होंने सोचा – कुछ रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते तो हैं, मगर पहले जैसे कभी नहीं हो पाते।
दिन गुजरते गए। स्कूल ने उन्हें सम्मान दिया। एक दिन बच्चों के साथ कार्यक्रम में उन्हें मंच पर बुलाया गया और “प्रेरणादायक महिला” का सम्मान दिया गया।
जब लोग तालियां बजा रहे थे तो उनकी आंखों में आंसू भर आए। मगर इस बार यह आंसू दुख के नहीं, संतोष के थे।
उन्होंने सोचा – जीवन ने मुझे तोड़ा जरूर, लेकिन इसने मुझे और मजबूत बना दिया। मैंने सीखा कि आत्मसम्मान से बड़ा कोई रिश्ता नहीं।
**सीख:**
इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि इंसान चाहे मां हो, बहन हो या बेटी – अगर उसे अपमान मिले तो चुप रहकर सहना सबसे बड़ी गलती है।
रिश्तों में प्यार और सम्मान सबसे जरूरी है।
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**जय हिंद! जय भारत!**
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