दिवाली की छुट्टी पर घर जा रही थी गाँव की लडकी… जल्दबाजी में गलत ट्रेन में बैठ गई, फिर जो हुआ!
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सुबह का सूरज अभी-अभी क्षितिज पर उभरा था और उसकी हल्की सुनहरी किरणें गाँव की कच्ची मिट्टी पर एक खूबसूरत परत बिखेर रही थीं। कच्चे रास्तों से होकर अपनी-अपनी चरागाहों की ओर जाती हुई गायों के गले में बंधी घंटियों की मधुर खनक, कुएँ की जगत पर इकट्ठा होकर पानी खींचती औरतों की खिलखिलाती बातें और कहीं दूर से आती मंदिर की आरती की धीमी ध्वनि, यह सब मिलकर उस छोटे से गाँव, रामपुर को एक अद्भुत शांति और सुकून देते थे।
इसी गाँव में एक छोटा सा, मिट्टी का घर था, जहाँ संध्या रहती थी। वह एक साधारण सी दिखने वाली लड़की थी, लेकिन उसकी आँखों में सपनों का एक पूरा समंदर तैरता था। उसके सपने गाँव की सीमाओं से बहुत परे, बड़े शहर की ऊँची इमारतों तक जाते थे। उसके पिता, रामभरोसे, एक गरीब किसान थे, जिनकी पूरी ज़िंदगी खेतों में मेहनत करते हुए गुज़री थी। माँ, शांति, आस-पड़ोस के बड़े घरों में काम करके परिवार की गाड़ी खींचने में मदद करती थी। इन दोनों के संघर्षों के बीच पलने वाली संध्या हमेशा एक ही बात कहती थी, “देखना माँ, एक दिन मैं बड़े शहर में काम करूँगी। किसी बहुत बड़ी कंपनी में।”
माँ उसकी बातें सुनकर मुस्कुराती और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहती, “बेटा, सपना देखना बहुत अच्छी बात है, पर बड़े शहर का रास्ता आसान नहीं होता।”
और संध्या हर बार पूरे आत्मविश्वास से जवाब देती, “आसान चीजें तो सबके हिस्से आती हैं माँ। मुझे तो मुश्किलों को हराकर कुछ बड़ा करना है।”
उसकी यह ज़िद सिर्फ बातों में नहीं थी। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने शहर के कॉलेज में दाखिला लेने की ठानी। लेकिन पैसों की तंगी एक बड़ी दीवार बनकर सामने खड़ी हो गई। पिता ने उदास मन से कहा, “बेटी, हम इतने पैसे कहाँ से लाएँगे? कॉलेज की फीस और शहर में रहने का खर्चा हमारी पहुँच से बहुत बाहर है।”
मगर संध्या ने हार नहीं मानी। उसने ठान लिया था कि वह अपनी किस्मत खुद लिखेगी। उसने गाँव के छोटे बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया। दिन भर की पढ़ाई के बाद शाम को वह बच्चों को पढ़ाती और जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते, उन्हें बड़ी हिफाज़त से एक पुराने डिब्बे में जमा करती। कई रातें ऐसी गुज़रतीं जब पूरा घर सो चुका होता और वह आँगन में जलती लालटेन की टिमटिमाती रोशनी में अपनी किताबें खोले पढ़ती रहती। उसकी आँखों में नींद नहीं, सिर्फ एक ही चीज़ थी – शहर का वह सपना, जो उसे सोने नहीं देता था।
उसकी मेहनत रंग लाई। आखिरकार, एक दिन उसे शहर के एक जाने-माने बिजनेस मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला मिल गया। जिस दिन उसने घर छोड़ा, माँ के आँचल में आँसू थे, लेकिन उन आँसुओं के पीछे गर्व की एक गहरी चमक भी थी। स्टेशन पर विदा लेते वक्त माँ ने उसके हाथ में खाने का डिब्बा थमाते हुए बस इतना कहा, “कभी भी खुद पर से भरोसा मत खोना, बेटी। और अपनी जड़ों को कभी मत भूलना।”
वही शब्द उसके दिल में गूँजते रहे, जब उसने ट्रेन की खिड़की से अपने गाँव को धीरे-धीरे पीछे छूटते हुए देखा।
शहर की ज़िंदगी वैसी नहीं थी जैसा उसने सोचा था। यह एक अंतहीन दौड़ थी। कमरे का किराया, पढ़ाई का भारी-भरकम खर्च और हर रोज़ का संघर्ष। वह सुबह कॉलेज जाती और शाम को एक छोटे से रेस्टोरेंट में वेटर का पार्ट-टाइम काम करती। कई बार वह इतनी थक जाती कि उसे नींद तक नहीं मिलती थी। लेकिन हर सुबह वह फिर उसी जज़्बे और हिम्मत के साथ उठ खड़ी होती। धीरे-धीरे उसने खुद को शहर की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी के हिसाब से ढाल लिया। उसे बिजनेस, मैनेजमेंट और कॉर्पोरेट दुनिया की हर बारीकी समझ आने लगी। उसके दोस्त कई बार कहते, “तू पागल है संध्या, थोड़ा आराम भी कर लिया कर।” लेकिन वह बस मुस्कुरा देती और कहती, “मुझे अपना वक्त बर्बाद करने का कोई हक़ नहीं है।”
और फिर वह दिन आया, जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार था। दिवाली की छुट्टियों का दिन। संध्या कई महीनों बाद अपने गाँव लौट रही थी। उसने अपनी छोटी सी बचत से माँ के लिए एक सुंदर सी साड़ी, पिता के लिए नई चप्पलें और घर के लिए ढेर सारी मिठाई खरीदी थी। उसके चेहरे पर वह खुशी थी जिसे शायद शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। शहर की चकाचौंध और भागदौड़ के बीच अब उसका मन सिर्फ गाँव की सोंधी मिट्टी की महक के लिए तरस रहा था।

शाम का समय था जब वह स्टेशन पहुँची। त्योहार का समय होने के कारण स्टेशन पर तिल रखने की भी जगह नहीं थी। हर प्लेटफॉर्म लोगों से खचाखच भरा हुआ था। उसने अपने बैग को कसकर पकड़ा और अपनी ट्रेन का नंबर देखा – 12345 एक्सप्रेस। यही थी उसकी ट्रेन। लेकिन तभी उसकी नज़र सामने वाले स्टॉल पर पड़ी। वह जल्दबाज़ी में पानी की बोतल और रास्ते के लिए खाने का पैकेट लेना भूल गई थी। उसने सोचा, “बस दो मिनट की तो बात है, मैं अभी वापस आ जाऊँगी।”
वह भीड़ को चीरती हुई भागकर स्टॉल की तरफ़ गई। पीछे से एक ज़ोर की सीटी बजी और एक ट्रेन आकर प्लेटफॉर्म पर रुक चुकी थी। उसने जल्दी से पानी और बिस्कुट खरीदे और वापस भागी। उसने अपनी टिकट पर लिखे नंबर से ट्रेन के डिब्बे पर लिखे नंबर को मिलाया। भीड़ और हड़बड़ी में उसे नंबर कुछ-कुछ मिलता-जुलता लगा – 12354। बिना ज़्यादा सोचे-समझे, यह सोचकर कि शायद यही उसकी ट्रेन है, वह जल्दी से एक डिब्बे में चढ़ गई। अंदर जाकर एक खाली सीट पर बैठते ही उसने चैन की साँस ली।
पर कुछ देर बाद ही एक भारी आवाज़ ने उसे चौंका दिया। “आपका टिकट दिखाइए, मैडम।”
एक टिकट चेकिंग ऑफिसर (टीसी) उसके सामने खड़ा था। संध्या ने अपना टिकट निकालकर उसे दे दिया। टीसी ने जैसे ही टिकट देखा, उसके माथे पर शिकन आ गई। उसने टिकट और फिर संध्या को घूरते हुए कहा, “मैडम, यह तो दूसरी ट्रेन का टिकट है। यह ट्रेन 12354 एक्सप्रेस है, जो दूसरे रूट पर जा रही है।”
संध्या के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। “क्या? यह… यह गलत ट्रेन है?” वह घबराकर अपनी सीट से उठ खड़ी हुई। “साहब, मैं तो गलती से बैठ गई। प्लीज़, मुझे अगले स्टेशन पर उतार दीजिए।”
टीसी ने बेरुखी से कहा, “मैडम, अब अगला स्टेशन 30 किलोमीटर बाद आएगा। ट्रेन यहाँ नहीं रुक सकती।”
उसकी आँखों में आँसू भर आए। वह हताश होकर वापस अपनी सीट पर बैठ गई। उसने अपने बैग को कसकर पकड़ा और मन ही मन रोने लगी। बस एक छोटी सी गलती और सब खत्म हो गया। घर पहुँचने की सारी खुशी एक पल में काफूर हो गई थी।
उसी डिब्बे के एक कोने में एक आदमी बैठा उसे बड़ी गौर से देख रहा था। उसने एक साफ़-सुथरा सूट पहन रखा था, लेकिन उसके चेहरे पर थकान साफ़ झलक रही थी। कुछ देर तक वह संध्या की बेचैनी को देखता रहा, फिर उसने धीरे से कहा, “परेशान मत होइए। कभी-कभी गलतियाँ भी हमारे लिए सही साबित हो जाती हैं।”
संध्या ने आँसू पोंछकर उसकी तरफ देखा। “पर सर, मैं तो बस अपने घर जा रही थी। अब तो सब गड़बड़ हो गया।”
वह आदमी हल्का सा मुस्कुराया। “मैं भी अपनी ट्रेन चूक गया था और जल्दबाज़ी में यह वाली पकड़ ली। वैसे, मेरा नाम आदित्य मेहरा है। मैं एक टेक कंपनी का मालिक हूँ।”
संध्या ने थोड़ी झिझक के साथ अपना परिचय दिया, “जी, मैं संध्या हूँ। बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रही हूँ।”
“अच्छा? तो फिर आप तो हमारी जैसी कंपनियाँ चलाने की तैयारी में होंगी,” आदित्य ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहा।
दोनों के बीच धीरे-धीरे बातचीत शुरू हो गई। संध्या ने उसे बताया कि वह कितने संघर्षों से यहाँ तक पहुँची है। कैसे उसने हर मुश्किल का सामना किया और अपने सपनों को ज़िंदा रखा। आदित्य बहुत ध्यान से उसकी बातें सुनता रहा। शायद उसे उस लड़की की आँखों की सच्चाई और उसके जज़्बे में कुछ ऐसा दिखा, जो आजकल के बनावटी लोगों में नहीं मिलता।
कई घंटे गुज़र गए। रात गहरी होती चली गई। ट्रेन अब किसी अनजान रास्ते पर सरपट दौड़ी जा रही थी। लेकिन दोनों की बातों ने उस अनजाने सफर को यादगार बना दिया था। आदित्य ने अचानक एक गहरी साँस लेते हुए कहा, “हमारी कंपनी में फिलहाल कुछ बड़ी गड़बड़ियाँ चल रही हैं। कुछ लोग बेईमानी कर रहे हैं, सिस्टम में भ्रष्टाचार घुस गया है। मैं खुद कई बार सोचता हूँ कि सब कुछ छोड़कर कहीं दूर चला जाऊँ।”
संध्या ने पूरी ईमानदारी से कहा, “सर, शायद आपको किसी ऐसे इंसान की ज़रूरत है जो सिर्फ पैसे के लिए नहीं, बल्कि दिल से कंपनी के लिए काम करे। बिना किसी लालच के।”
आदित्य ने मुस्कुराकर उसकी आँखों में देखा और कहा, “शायद… और शायद वह इंसान अभी मेरे सामने ही बैठा है।”
संध्या हैरान होकर उसे देखने लगी।
“जब तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो जाए, तो हमारी कंपनी में इंटरव्यू के लिए ज़रूर आना,” आदित्य ने अपना विज़िटिंग कार्ड उसे देते हुए कहा।
ट्रेन आखिरकार एक ऐसे स्टेशन पर रुकी, जहाँ से संध्या को अपने गाँव जाने के लिए दूसरी बस मिल सकती थी। आदित्य ने खुद ट्रेन से उतरकर उसे एक ऑटो में बिठाया और जाते-जाते कहा, “याद रखना संध्या, कभी-कभी गलत ट्रेन ही हमें सही मंज़िल तक ले जाती है।”
संध्या बस उसे देखती रह गई। ऑटो आगे बढ़ गया और उसकी आँखों में अब डर नहीं, बल्कि उम्मीद की एक नई किरण थी। उस रात गाँव की हवा में दीये तो जल ही रहे थे, पर असली रोशनी तो संध्या के अंदर जल चुकी थी – एक ऐसे सफर की रोशनी, जो अब उसकी पूरी ज़िंदगी बदलने वाला था।
दिवाली की छुट्टियाँ खत्म हुईं और संध्या वापस शहर लौट आई, लेकिन इस बार वह अकेली नहीं थी। उसके साथ एक नया आत्मविश्वास और आदित्य मेहरा का दिया हुआ विज़िटिंग कार्ड था। गाँव की गलियों में बिताए कुछ दिनों ने उसे तरोताज़ा कर दिया था, लेकिन उसका मन अब उस चुनौती के लिए बेचैन था जिसका ज़िक्र आदित्य ने किया था।
शहर पहुँचते ही उसे उस जगह की तेज़ रफ़्तार और भीड़ का फिर से एहसास हुआ। लोग भागते हुए, अपने-अपने सपनों के पीछे दौड़ते हुए। लेकिन अब उसे यह भीड़ डराती नहीं, बल्कि प्रेरित करती थी।
आदित्य की कंपनी का मुख्य भवन शहर के सबसे पॉश इलाके में था। काँच की बड़ी-बड़ी खिड़कियों और स्टील के फ्रेम से बनी वह इमारत आसमान को छूती हुई लग रही थी। संध्या ने एक गहरी साँस ली, अपने कपड़ों को ठीक किया और अंदर कदम रखा।
पर पहली ही मुलाकात में उसे एक अजीब से झटके का एहसास हुआ। रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और हंसते हुए कहा, “आप इंटरव्यू देने आई हैं? किस पोस्ट के लिए?” जब संध्या ने बताया, तो वह और भी व्यंग्यात्मक रूप से मुस्कुराई। “इतनी छोटी सी लड़की, इस बड़ी कंपनी में क्या कर पाएगी?”
संध्या के होंठ काँप गए। एक पल के लिए उसके दिल ने उसे डराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसे अपनी माँ के शब्द याद आए – “कभी खुद पर से भरोसा मत खोना।”
उसने अपनी आवाज़ को स्थिर करते हुए कहा, “मैं यहाँ सिर्फ काम सीखने और कंपनी के लिए मेहनत करने आई हूँ।”
इंटरव्यू रूम में वह बैठी, लेकिन आदित्य मेहरा वहाँ नहीं थे। इंटरव्यू लेने वाला अधिकारी, मिस्टर वर्मा, एक अधेड़ उम्र का चालाक दिखने वाला व्यक्ति था। उसने संध्या का रिज्यूमे देखकर मुस्कुराते हुए पूछा, “इतना कम अनुभव और इतनी बड़ी कंपनी में आने का सपना? क्यों?”
संध्या ने अपनी पूरी मेहनत, पढ़ाई और संघर्ष को बिना किसी लाग-लपेट के सामने रख दिया। उसने कोई झूठ नहीं कहा, बल्कि अपनी सच्चाई को ही अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाकर पेश किया। लेकिन अधिकारी ने सिर्फ सिर हिलाया और कहा, “आपको अभी कंपनी की नीतियों और यहाँ के काम करने के तरीके का पता नहीं है। हम आपको अभी नहीं ले सकते।”
संध्या को समझते देर नहीं लगी कि यहाँ सिर्फ प्रतिभा का नहीं, बल्कि अंदरूनी राजनीति और चापलूसी का भी बोलबाला है। कुछ लोग अपने फायदे के लिए झूठ फैलाते हैं और नए लोगों को आगे बढ़ने से रोकते हैं। वह निराश होकर बाहर निकली, लेकिन उसने हार नहीं मानी। उसने तय किया कि वह इस कंपनी के अंदर की सच्चाई को बाहर लाकर रहेगी।
उसने आदित्य को फोन करने के बजाय एक दूसरा रास्ता चुना। उसने उसी रेस्टोरेंट में अपना पार्ट-टाइम काम जारी रखा, लेकिन अब उसका असली मिशन कुछ और था। वह कंपनी के बाहर उन छोटे कर्मचारियों से मिलने लगी जो लंच के समय बाहर आते थे। वह उनसे दोस्ती करती, उनकी समस्याएँ सुनती। धीरे-धीरे उसे पता चला कि कंपनी के अंदर कुछ सीनियर मैनेजर और अधिकारी एक बड़ा घोटाला कर रहे हैं। वे नकली बिल बनाकर कंपनी से पैसे हड़प रहे थे, छोटे कर्मचारियों की मेहनत का क्रेडिट खुद ले लेते थे और जो कोई आवाज़ उठाने की कोशिश करता, उसे नौकरी से निकालने की धमकी देते थे।
संध्या ने सब कुछ नोट करना शुरू कर दिया। वह छिपकर उन लोगों की गतिविधियों पर नज़र रखती। उसने एक पुराने कर्मचारी, रामू काका, का विश्वास जीता, जो उस कंपनी में सालों से काम कर रहे थे और सब कुछ जानते थे, पर डर के मारे चुप थे। रामू काका की मदद से संध्या ने कुछ दस्तावेज़ों की कॉपी हासिल की, जो घोटालों का सीधा सबूत थे।
उसका दिल हर पल डर से धड़कता था, लेकिन उसके अंदर की आग उसे रुकने नहीं दे रही थी। वह जानती थी कि यह जोखिम भरा है, लेकिन वह अन्याय के खिलाफ चुप नहीं बैठ सकती थी।
इसी बीच एक दिन आदित्य मेहरा अचानक कंपनी के दौरे पर आए। जब वह बाहर निकल रहे थे, तो उनकी नज़र संध्या पर पड़ी, जो पास के एक कैफे में बैठी कुछ कागज़ों में उलझी हुई थी। आदित्य उसे पहचान गए और उसके पास आए।
“संध्या? तुम यहाँ? मैंने सुना था तुम इंटरव्यू के लिए आई थीं, पर तुम्हारा सिलेक्शन नहीं हुआ।”
संध्या ने झिझकते हुए सिर हिलाया।
आदित्य ने उसकी टेबल पर पड़े कागज़ों की तरफ इशारा करते हुए पूछा, “यह सब क्या है?”
संध्या ने एक पल सोचा और फिर हिम्मत करके कहा, “सर, मैं आपकी कंपनी को बचाने की कोशिश कर रही हूँ।” और उसने वे सारे सबूत आदित्य के सामने रख दिए जो उसने इकट्ठा किए थे।
आदित्य के चेहरे का रंग उड़ गया। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी नाक के नीचे इतना बड़ा धोखा चल रहा था। उन्होंने संध्या की आँखों में देखा – उनमें डर था, पर सच्चाई की एक अडिग चमक भी थी।
आदित्य ने कहा, “बस तुम ही हो जो हमारी कंपनी को इस दीमक से बचा सकती हो। मैं चाहता हूँ कि तुम हमारी टीम का हिस्सा बनो।”
संध्या की आँखों में चमक आ गई। उसे लगा जैसे उसका सपना अब सच होने वाला है। लेकिन असली चुनौती तो अब शुरू हुई थी।
आदित्य ने संध्या को एक जूनियर एनालिस्ट के पद पर नियुक्त कर दिया, लेकिन उसका असली काम कंपनी के अंदर चल रहे भ्रष्टाचार की पूरी जाँच करना था। जैसे ही भ्रष्ट अधिकारियों को यह पता चला, उन्होंने संध्या के खिलाफ एकजुट होकर मोर्चा खोल दिया। उन्होंने उसे अपमानित करने की हर संभव कोशिश की। उसे जानबूझकर गलत काम दिए जाते, उसकी फाइलों को गायब कर दिया जाता और उसके बारे में झूठी अफवाहें फैलाई जातीं। कुछ कहते, “यह गाँव की लड़की हमें बिजनेस सिखाएगी? दो दिन में भाग जाएगी।”
लेकिन संध्या ने अपने आप से कहा था, “सच के लिए डरना नहीं, मेहनत से जीतना है।”
उसने हर अपमान का जवाब अपने काम से दिया। वह दिन-रात मेहनत करती, हर रिकॉर्ड, हर फाइल और हर खाते की बारीकी से जाँच करती। धीरे-धीरे उसने उन सभी सुरागों को जोड़ना शुरू कर दिया जो बिखरे पड़े थे। उसे पता चला कि यह घोटाला सिर्फ कुछ मैनेजरों तक सीमित नहीं है, बल्कि कंपनी का एक बहुत ही भरोसेमंद और सीनियर अधिकारी इस पूरे गिरोह का सरगना है।
यह जानना संध्या के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने छिपकर उस अधिकारी की बातचीत रिकॉर्ड की और उसके कंप्यूटर से कुछ महत्वपूर्ण फाइलें कॉपी कीं। अब उसके हाथ में अकाट्य सबूत थे।
आदित्य मेहरा ने एक बोर्ड मीटिंग बुलाई। कंपनी के सभी बड़े अधिकारी उस आलीशान कॉन्फ्रेंस रूम में मौजूद थे। सब यही सोच रहे थे कि यह एक रूटीन मीटिंग है।
तभी संध्या ने कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में एक फाइल थी। भ्रष्ट अधिकारियों के चेहरे पर उसे देखकर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आई।
आदित्य ने गंभीर आवाज़ में कहा, “आज यह मीटिंग एक खास मकसद से बुलाई गई है। हमारी कंपनी में कुछ लोग हैं जो इसे अंदर से खोखला कर रहे हैं। और आज उनका पर्दाफाश होगा।”
यह कहकर उन्होंने संध्या को इशारा किया।
संध्या ने काँपते हाथों से, लेकिन एक दृढ़ आवाज़ में, सारे सबूत एक-एक करके सबके सामने रख दिए। नकली बिल, झूठी रिपोर्ट्स, पैसों की हेराफेरी के दस्तावेज़ और अंत में, उस सीनियर अधिकारी की ऑडियो रिकॉर्डिंग।
जैसे ही रिकॉर्डिंग बजी, पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया। अधिकारियों की आँखों में अब डर और शर्मिंदगी थी। उनका खेल खत्म हो चुका था।
आदित्य ने खड़े होकर कहा, “जो भी हमारी कंपनी के साथ बेईमानी कर रहा है, उसे कानून के हिसाब से सज़ा भुगतनी होगी।”
उस दिन के बाद, कंपनी में एक बड़ा बदलाव आया। सभी भ्रष्ट अधिकारी निकाल दिए गए। कंपनी की गलत नीतियाँ सुधार दी गईं और कर्मचारियों में विश्वास का एक नया माहौल पैदा हुआ।
संध्या ने महसूस किया कि मेहनत, ईमानदारी और हिम्मत ही इंसान का सबसे बड़ा हथियार है।
इस पूरी प्रक्रिया के दौरान, आदित्य और संध्या के बीच एक खास रिश्ता भी गहराता गया। आदित्य उसकी कड़ी मेहनत, हिम्मत और निस्वार्थ भावना से बहुत प्रभावित था। वह अब उसे सिर्फ एक कर्मचारी के तौर पर नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान के तौर पर देखता था जिसने उसे अपनी ही कंपनी के असली मूल्यों को फिर से सिखाया था।
एक दिन, काम खत्म होने के बाद, आदित्य ने संध्या को ऑफिस के बगीचे में बुलाया। चारों तरफ हरियाली, हल्की धूप और पक्षियों की चहचहाहट थी।
आदित्य ने उसके हाथ में एक छोटा सा बॉक्स रखते हुए कहा, “संध्या, तुमने न सिर्फ मेरी कंपनी को बचाया है, बल्कि मुझे भी बदल दिया है। मैंने तुम्हारी मेहनत और ईमानदारी देखी है। और मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा यह सफर सिर्फ इस कंपनी में ही नहीं, बल्कि मेरी ज़िंदगी में भी हमेशा साथ रहे।”
संध्या ने थोड़ा चौंकते हुए पूछा, “सर, आप…”
आदित्य मुस्कुराए। “मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बनो। क्या तुम मुझसे शादी करोगी?”
संध्या के होठों पर एक खूबसूरत मुस्कान खिल गई और आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उसने कहा, “हाँ, मैं तैयार हूँ। न सिर्फ आपके साथ, बल्कि हमारे सपनों और ईमानदारी के इस सफर के लिए।”
कुछ महीनों बाद, एक सादे लेकिन खूबसूरत समारोह में दोनों की शादी हो गई। संध्या ने अपने माता-पिता को भी अपनी शादी में बुलाया। माँ के आँचल में फिर से आँसू थे, लेकिन इस बार ये खुशी और गर्व के आँसू थे। पिता की आँखों में अपनी बेटी के लिए एक असीम संतोष का भाव था।
शादी के बाद संध्या ने कंपनी में और भी नई पहल शुरू कीं – कर्मचारियों के बच्चों के लिए शिक्षा, उनके परिवारों के लिए स्वास्थ्य योजनाएँ और एक ऐसा माहौल जहाँ हर किसी की मेहनत का सम्मान हो।
इस तरह, उस साधारण से गाँव की लड़की ने न केवल अपने सपनों को सच किया, बल्कि दुनिया को यह भी सिखाया कि अगर इरादे नेक हों और हिम्मत साथ हो, तो एक गलत ट्रेन पर शुरू हुआ सफर भी आपको आपकी सही और सबसे खूबसूरत मंज़िल तक पहुँचा सकता है। असली ताकत इंसान की दौलत या पद में नहीं, बल्कि उसकी मेहनत, साहस और दिल की अच्छाई में होती है।
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