बेटी का सम्मान: एक नई शुरुआत

बरसात के बाद की मिट्टी की भीनी खुशबू पूरे गांव में फैल चुकी थी। खेतों में पानी भर गया था और तालाब के किनारे नन्हे मेंढक मस्ती से कूद रहे थे। परंतु रामलाल की आंखों में इस खूबसूरत मौसम का कोई रंग नहीं था—बस चिंता ही चिंता थी। अपने पुराने खपैलदार घर के सामने बैठा रामलाल अपने सूखे, थके हुए हाथों को देख रहा था। वही हाथ जिन्होंने कितनी रातें जागकर अपनी बेटी गौरी को पढ़ाया, अपने हिस्से का दूध छिपाकर गौरी को पिलाया, वही हाथ आज कितने लाचार लग रहे थे—क्योंकि अब गौरी की शादी का समय आ गया था।

शादी के लिए घर बेच रहा था गरीब बाप, विदाई के वक्त बेटी ने ऐसा गिफ्ट दिया कि  पूरे गाँव ने सलाम किया

गौरी पास आई और पूछा, ‘‘बाबूजी, आज खेत नहीं गए?’’ सफेद सलवार-कुर्ते में, माथे पर पसीना, पर चेहरे पर चिंता। रामलाल ने मुस्कुराने की कोशिश की, मगर बेटे की शादी की चिन्ता उसके स्वर में झलक रही थी। गौरी अच्छे से जानती थी कि बाबूजी की चिंता सिर्फ खेती-बाड़ी की नहीं, बल्कि शादी के खर्चे की भी है। उसने मन ही मन ठान लिया कि वह अपने पिता को टूटने नहीं देगी।

गांव में चर्चा थी कि रामलाल अपनी बेटी की शादी के लिए घर बेचने वाला है। जिसका कोई मजाक उड़ा रहा था, तो कोई उसकी मजबूरी पर तरस खा रहा था। खुद रामलाल भी समझ नहीं पा रहा था कि कर्ज लेना ज्यादा बुरा है या घर बेचना। उधर गौरी को जब यह सब मालूम हुआ, उसने चुपचाप अपने बक्से में से वो बैंक पासबुक निकाली, जिसमें उसने दिल्ली में नौकरी के दौरान बड़े जतन से पैसे बचाए थे। ये पैसे उसने बाबूजी को सरप्राइज़ देने के लिए रखे थे—घर अपने बाबूजी को वापस दिलाने के लिए।

हर गुजरते दिन के साथ शादी की तैयारियाँ बढ़ती गईं, घर में रौनक लौटने लगी, मगर रामलाल की चिंता कम नहीं हुई। हर दिन वह साहूकार के पास हिसाब लगाता, समझौते का बोझ दिल पर लिए घर लौटता। दूसरी ओर गौरी अपने प्रयास में लगी रही और पोस्टमास्टर काका की मदद से सारी कागजी कार्रवाई जल्द पूरी कर ली। उसका संकल्प था, “विदाई के वक्त यह लिफाफा बाबूजी को देना है।”

शादी की रस्मों के दिन घर में त्योहार जैसा माहौल था—हल्दी, मेहंदी, बारात, ढोल-नगाड़े, हर जगह हंसी-खुशी और रौनक। मगर गौरी के दिल में सिर्फ एक पल का इंतजार था—विदाई का। उसी वक्त, जब घर भी हाथ से जा रहा हो। मगर वह जानती थी, उसकी मेहनत रंग लाएगी।

अंत में वो पल आ ही गया—विदाई का। घर में सन्नाटा, आंखों में आंसू, और भावनाओं का सैलाब। गौरी ने अपने बाबूजी के पैर छुए, फिर धीरे से वो लिफाफा उनके हाथ में थमा दिया। रामलाल ने लिफाफा खोला, घर के कागज अपने नाम देख उसकी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले। आज बेटी ने पिता को सबसे अमीर बना दिया था। गांव वाले फुसफुसा रहे थे, ‘‘रामलाल की बेटी धन्य है—बेटी ने बाप को घर लौटाया।’’

श्यामबाबू साहूकार भी दूर खड़ा-खड़ा शर्माता रह गया। रामलाल ने कहा, ‘‘गलत सोचने का हक सबको है, लेकिन सही करने का हक भगवान ने बेटियों को दिया है।’’

गौरी विदा होकर चली गई, मगर जाते-जाते वह समझा गई कि एक पढ़ी-लिखी, समझदार बेटी पूरे परिवार को इज्जत, अभिमान और नई सोच दे सकती है। इसका असर पूरे गांव में दिखाई दिया—लोगों ने बेटियों को पढ़ाना शुरू किया, औरतें कहने लगीं, ‘‘अगर बेटियां ऐसी हों, तो बेटा-बेटी में फर्क ही मिट जाए।’’

रामलाल अब रोज शाम आंगन में बैठकर सोचता—गर्व से, संतोष से, निश्चिंतता से। बार-बार आसमान की ओर देखता और मन ही मन भगवान से यही दुआ करता—‘‘भगवान, बस इतनी सी दौलत दे देना कि अपने बच्चों को वही सब दे सकूं, जो मेरी बेटी ने मुझे दिया—इज्जत, प्यार और अभिमान।’’

कहानी यही खत्म होती है, लेकिन यह संदेश छोड़ जाती है कि गरीबी भले ही बड़ी समस्या हो, मगर दिल की अमीरी और बेटी का सम्मान उससे कहीं बड़ा है। बेटियां सिर्फ घर छोड़ने नहीं, बल्कि अपना नाम और सम्मान वापिस लाने भी आती हैं।