क्या हुआ उन बेटियों का जिन्होंने आदमी को जिंदा दफना दिया || अल्लाह का कहर बेटियों पर टूटा ||

.

.

क्या हुआ उन बेटियों का जिन्होंने अपनी मां को जिंदा दफना दिया? अल्लाह का कहर उनके ऊपर टूटा

मेरे प्यारे दोस्तों, कभी आपने सोचा है कि जब औलाद की बेरुखी इतनी बढ़ जाए कि वह अपने ही हाथों से अपनी माँ को जिंदा मिट्टी में दफना दे? यह कहानी है एक ऐसी माँ और उसकी बेटियों की, जिनके साथ कुछ ऐसा हुआ कि सुनकर रूह कांप उठे।

मैं उस दिन सिर्फ 14 साल की थी। मेरी आँखों के सामने मेरी माँ सांस ले रही थी, उसकी आँखें खुली थीं, होंठ कांप रहे थे। मैं बार-बार कह रही थी, “माँ अभी जिंदा है,” लेकिन मेरी बड़ी बहनों ने मेरी बात को वहम समझकर दबा दिया। उस वक्त मेरे दिल में इतना डर और खौफ था कि मैं चीख भी नहीं सकी। मेरी जुबान जैसे पत्थर हो गई थी। मिट्टी के हर फावड़े के साथ मुझे ऐसा लग रहा था जैसे माँ की चीखें मेरे कान फाड़ रही हों।

माँ को आखिरी उम्र में कैंसर हो गया था। इलाज कराने के बजाय मेरी बहनों ने उसे घर के आंगन में जिंदा दफना दिया और खुद शहर की चमक-दमक में खो गईं। तीनों बहनों ने खूब पैसा कमाया, शादियां कर लीं, लेकिन जब कारोबार तबाह हुआ तो उन्होंने माँ की जमीन बेचने का मन बनाया। जब वे घर पहुँचीं तो वहां पुराना घर नहीं, बल्कि एक आलीशान बंगला था। दरवाज़ा खुलते ही सबके मुंह हैरानी से खुले रह गए क्योंकि उस बंगले के नाम पर मेरा नाम लिखा था — जिया। मैं सबसे छोटी थी, लेकिन सबसे ज्यादा बिगड़ी हुई और लाडली भी।

मेरे पिता का निधन तब हुआ था जब मैं 14 साल की थी। उन्होंने बड़ी इंश्योरेंस करवाई थी, जिसका पैसा हमें मिलने वाला था। पिता के मरने की खबर हमारे लिए एक सन्नाटा थी। लेकिन जब इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से चेक आया, तो घर का माहौल बदल गया। माँ ने चेक को देखकर कहा, “तुम्हारा बाप जाते-जाते भी तुम्हारे लिए बहुत कुछ कर गया।” बड़ी बहन ने बेइज्जती भरे लहजे में कहा, “हर बाप कुछ न कुछ करता है, इसमें क्या खास बात है?”

उस दिन के बाद माँ खामोश हो गई। हम तीनों बहनें अपने-अपने कामों में लग गईं। गाँव पुराना और पिछड़ा हुआ था। वहाँ कोई स्कूल, अस्पताल, बिजली या सड़कें नहीं थीं। बस धूल और जर्जर दीवारें थीं, जिनके अंदर हमारी जिंदगी कैद थी। उस घर को बेचकर भी कोई खास फायदा नहीं था, और कोई उसे खरीदने को तैयार भी नहीं था। हम तीनों बहनें अक्सर सोचती थीं कि अगर माँ न होती तो हम कब की शहर जाकर बेहतर जिंदगी जी रही होतीं। लेकिन माँ को यहाँ अकेला छोड़ने का ख्याल किसी को भी अच्छा नहीं लगता था।

माँ बीमार जरूर थी, लेकिन इतनी भी नहीं कि बिस्तर से लग जाए। वह हर वक्त किचन में कुछ न कुछ पकाती रहती थी। कभी-कभी पुराने संदूकों से पिता की चीजें निकालकर आँसू बहा लेती थी। एक दिन माँ की तबीयत बहुत बिगड़ गई। सांस लेने में दिक्कत होने लगी। हमने सोचा आम बीमारी होगी, लेकिन दो दिन बाद हालत और खराब हो गई। छोटी बहन ने जोर देकर टेस्ट करवाए। अस्पताल में डॉक्टरों ने बताया कि माँ को कैंसर है, और वह भी अंतिम चरण में। इलाज महंगा था — कम से कम पाँच लाख रुपए चाहिए थे।

हम तीनों बहनें चुपचाप एक-दूसरे को देखती रहीं। इतनी बड़ी रकम हमारे पास नहीं थी। इंश्योरेंस के पैसे भी लगभग खत्म हो चुके थे। माँ की दवाइयों और टेस्टों पर ही काफी खर्च हो चुका था। छोटी बहन ने सुझाव दिया कि मिलकर कोई बड़ा कदम उठाएं, लेकिन बड़ी बहन ने कहा, “कामयाबी के लिए कुर्बानी देनी पड़ती है। और हमें भी कुछ कुर्बानी देनी होगी।”

दरअसल, बड़ी बहन का दिल पहले ही से शहर में बस चुका था। वह वहाँ एक लड़के को पसंद करती थी, जिसके ख्वाबों में नया घर और नई जिंदगी थी। माँ उसके लिए बोझ बन चुकी थी। वह बार-बार कहती, “अगर तुम कुछ बनना चाहती हो तो दिल सख्त करना पड़ेगा। वरना सारी जिंदगी इसी पुराने घर और बीमार माँ के साथ कटेगी।”

एक दिन बड़ी बहन ने फैसला किया कि माँ को एक पुरसुकून मौत देनी चाहिए। कैंसर की आखिरी स्टेज में वह तीन महीने में मर जाएगी, लेकिन तब तक हमारी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी। इसलिए बेहतर होगा कि हम उसे पहले ही रुखसत कर दें।

उस दिन दोपहर में माँ छत पर कपड़े सुखाने गई। मैं नीचे थी और बड़ी बहन उसके पीछे गई। कुछ देर बाद जोरदार आवाज़ आई। मैं भागकर बाहर निकली तो माँ बेसुध पड़ी थी, चेहरा जख्मी था। बड़ी बहन ने कहा, “शायद पैर फिसल गया होगा।” मैंने माँ की नब्ज़ देखी, हल्की सांस महसूस हुई। मैंने कहा, “माँ जिंदा है, जल्दी अस्पताल चलें।” लेकिन बड़ी बहन चिल्लाई, “अस्पताल जाकर क्या करेंगी? डॉक्टर कहेंगे कि कुछ नहीं हो सकता। मौत करीब है, बस आराम से जाने दो।”

दरमियानी बहन ने भी हामी भर दी। मैं चुप रही, जैसे मेरी जुबान गुम हो गई हो। वह माँ जिसके लम्स से हम बड़े हुए, जिसकी दुआ से हम मुसीबतों से बचते रहे, अब उसी को दफनाने की तैयारी हो रही थी। बड़ी बहन ने कहा कि अगर रिश्तेदारों को बुलाया तो स्यापा होगा, खर्चा अलग होगा, और माँ की ख्वाहिश थी कि उसे इसी घर में दफन किया जाए।

हमने कब्र खोदनी शुरू की। जब मिट्टी हट रही थी, मुझे हर झोंके के साथ ऐसा लग रहा था जैसे माँ की सांस चल रही हो, वह हमसे कुछ कहना चाहती हो। लेकिन हमने कुछ नहीं सुना। सफेद चादर डालकर उसे कब्र में उतार दिया। मैंने फिर कहा, “माँ अभी जिंदा है, देखो उसके होंठ हिल रहे हैं,” लेकिन मेरी बहनों ने कहा, “यह तुम्हारा वहम है, अब माँ मर चुकी है।”

हमने ना किसी को बुलाया, ना रस्म अदा की। कब्र बंद कर घर का दरवाजा ताला लगाकर शहर के लिए रवाना हो गईं। दो-चार दिन दिल बोझिल रहा, रात को नींद नहीं आती थी। माँ की आवाज़ कानों में गूंजती थी, जैसे वह पुकार रही हो। लेकिन जब शहर की रौनक देखी, चमक-दमक में अपने सपने सच होते देखे, तो वह बोझ हल्का होने लगा।

हम तीनों बहनें शादियां कर चुकी थीं। बड़ी बहन ने सबसे बड़े भाई से निकाह किया, हम छोटी बहनों ने भी उनके दो भाइयों से। पैसों से हमने एक छोटा कारोबार शुरू किया जो बढ़ने लगा। शहर की जिंदगी रंगीन थी, हर रोज नया लिबास, नया खाना, नया अंदाज।

लेकिन एक दिन पता चला कि वह घर लड़कों का नहीं, उनके किसी रिश्तेदार का है जो वापस आ रहा है। कानूनी नोटिस मिलने पर हमने वह घर छोड़ दिया और छोटे से फ्लैट में आ गईं। तीन बीवियां, तीन शौहर, और छोटा फ्लैट जहाँ रहना मुश्किल हो गया।

कारोबार गिरने लगा, दुकानें खाली पड़ीं। तीनों बहनें आपस में झगड़ने लगीं। भाइयों के बीच भी दूरी बढ़ी। घर की फिजा बिगड़ गई। दिल के अंदर एक बोझ बैठ गया जो किसी को दिखाया नहीं जा सकता था।

कभी रात को आँख खुलती तो माँ की वह आखिरी झलक याद आती, जब वह सांस ले रही थी और मैंने कहा था कि वह जिंदा है। लेकिन मेरी बहनों ने कहा था कि साँसे बस कुछ लम्हों की मेहमान हैं। अब जब भी बीमार को मरते देखती हूँ, लगता है शायद माँ भी इसी तकलीफ में थी। लेकिन हमने उसे जिंदा दफन कर दिया।

कई बार दिल चाहता था कि चीख-चीख कर बता दूं कि हमसे बड़ी गलती हुई है, लेकिन खौफ था कि अगर यह राज खुल गया तो सब खत्म हो जाएगा। कारोबार भी खत्म हो जाएगा, इज्जत भी।

एक दिन बड़ी बहन ने कहा कि माँ की बद्दुआ लग गई है। कारोबार पहले ही खत्म हो चुका था, अब और बिगड़ गया। शौहर ताने देते, बच्चे सवाल करते कि पहले सब कहाँ था।

बड़ी बहन ने सबको बुलाया और कहा कि अब वक्त आ गया है कि हम वह फैसला करें जो पहले कर लेना चाहिए था — जमीन और घर बेचकर पैसे बांट लें और अपने-अपने रास्ते बनाएं।

हम गाँव की तरफ रवाना हुए, बचपन की यादें दिल में लिए। लेकिन जब घर पहुँचे तो पुराना घर नहीं, बल्कि एक तीन मंजिला इमारत खड़ी थी। दरवाज़ा खुला था, अंदर एक कब्र बनी थी जिस पर लिखा था, “यहाँ मेरी तीनों बेटियां दफन हैं।”

सबके कदम ठिठक गए। तभी बड़ी बहन के कंधे पर किसी ने हाथ रखा। वह कोई और नहीं, बल्कि हमारी माँ का बेटा मुनीब था। वह माँ का पहला बेटा था जिसे बचपन में जबरदस्ती उनसे छीन लिया गया था।

मुनीब ने कहा, “यह वही जमीन है जहाँ मैं पैदा हुआ था और जिसे तुम लोगों ने मेरी माँ समेत मिट्टी में दफना दिया। तुमने सिर्फ जमीन पर कब्जा नहीं किया, बल्कि एक माँ की सांसों को भी दबा दिया।”

बड़ी बहन ने उसका मजाक उड़ाया, लेकिन मुनीब ने कहा, “यह कोई झूठ नहीं, यह सच है। जो तुमने किया, मैंने पत्थर पर लिख दिया ताकि दुनिया देखे कि खून के रिश्ते जब बेअसर हो जाएं तो मिट्टी कैसे चीखने लगती है।”

तभी माँ हमारे सामने खड़ी हुई — वही माँ जिसे हमने जिंदा दफन कर दिया था। वह तंदुरुस्त, खूबसूरत और मुतमिन थी। उसके चेहरे पर नफरत नहीं, बल्कि बेनियाजी थी जो हमारे दिल में कांटे की तरह चुभ रही थी।

माँ ने नरमी से कहा, “तुम लोग मुझे मरा समझकर चले गए थे, लेकिन मुनीब ने मुझे कब्र से निकाला और अस्पताल ले गया। मौत से छीनकर वापस जिंदगी में लाया। मैंने सारी जायदाद मुनीब के नाम कर दी है। तुम यहाँ क्या लेने आई हो? जाओ वापस।”

बड़ी बहन ने कहा, “यह हमारा हक है।” माँ ने थप्पड़ मारा, “बाप का घर वह होता है जहाँ बेटियाँ माँ को दफनाने के बजाय बचाती हैं। जहाँ औलाद बेरहम हो, वहाँ दीवारें भी रोती हैं।”

मुनीब ने भी थप्पड़ मारा और कहा, “अब बताओ, अपनी जमीन ज्यादा प्यारी है या अपनी माँ की जान?”

हम सब साकेत हो गए। माँ ने कहा, “अगर मैं चाहूँ तो पुलिस को बुला सकती हूँ, क्योंकि तुमने मुझ पर कातिलाना हमला किया था। मैंने तुम्हें जिंदा छोड़ा क्योंकि मैंने तुम लोगों को जन्म दिया है, लेकिन अब तुम लोगों के लिए मैं कुछ भी नहीं हूँ।”

मुनीब ने कहा, “अब यह जमीन मेरी है। मैं इस इलाके का एएसआई हूँ। तुम्हें जेल भेज दूंगा।”

हमारी टांगे कांपने लगीं। शर्मिंदगी से हमारी जुबान बंद हो गई। माँ के कदमों में गिरने की हिम्मत भी नहीं थी। हम सब ने एक-दूसरे को देखा और बेआवाज़ रो पड़े। हम शहर वापस आ गए, लेकिन वह शहर भी अजनबी लगने लगा।

कारोबार बर्बाद हो चुका था। अब मेहनत मजदूरी से पेट पालना पड़ता था। पति ताने देते, बच्चे फरमाइशें करते, लेकिन हम खामोश रहतीं क्योंकि हमें पता था हमारी बर्बादी हमारी ही वजह से हुई है।

जिस दिन हमने माँ को कब्र में उतारा, उसी दिन हमारी किस्मत दफन हो गई थी। जब तक माँ के हाथ हमारे सिरों पर ना आएं, तब तक हम कुछ भी कमा लें, इज्जत नहीं कमा सकते।

दिन गुजरते गए, दिल का बोझ कम नहीं हुआ। कई बार दिल चाहता था जाकर माँ के कदमों में गिर जाऊं, लेकिन फिर खौफ आता कि कहीं माँ हमें फिर से दुत्कार न दे।

दोस्तों, याद रखो जिस घर में माँ की इज्जत दफना दी जाती है, वहाँ से बरकत और रहमत हमेशा के लिए उठ जाती है।

अल्लाह पाक हम सबको अपने माँ-बाप का फरमाबरदार बनाए। आमीन।

.

play video: