माँ का कर्ज – सावित्री देवी की कहानी

देवघर की उस पवित्र भूमि पर, जहाँ हर सुबह शिवालय की घंटियाँ गूंजतीं और हवा में गंगाजल तथा फूलों की सुगंध घुल जाती, वहीं मंदिर की सीढ़ियों के पास एक बूढ़ी औरत रोज़ अपनी छोटी सी फूलों की दुकान लगाती थी। लोग उसे “माँ सावित्री” के नाम से जानते थे। झुर्रियों से भरे चेहरे पर एक शांति थी, जो उसके भीतर की आग को ढक देती थी। लेकिन यह वही सावित्री देवी थीं जिन्हें कभी उनके अपने बेटे रोहित ने यहीं छोड़ दिया था — तीर्थ यात्रा के बहाने।

भोजपुर के एक छोटे से गाँव में सावित्री देवी का जीवन बीता। पति का साया बहुत पहले उठ गया था। तब उनका बेटा रोहित महज़ पाँच साल का था। उस दिन से ही सावित्री के जीवन में संघर्ष स्थायी हो गया। खेतों में मजदूरी करतीं, दूसरों के घरों में रोटियाँ सेंकतीं, और कई बार भूखे रहकर भी बेटे का पेट भरतीं।

रात को जब सारा गाँव सो जाता, तब वह मिट्टी के चूल्हे की मद्धिम लौ में बेटे की किताबों को देखतीं और भगवान से कहतीं,
“भोलेनाथ, मेरे बेटे का भविष्य उज्जवल बना देना।”

सालों गुजर गए। बेटे ने मेहनत से पढ़ाई की, शहर चला गया। सावित्री ने अपनी चूड़ियाँ और अंगूठी तक बेचकर उसकी फीस भरी। जब रोहित को पहली नौकरी मिली तो उन्होंने मंदिर में जाकर माथा टेका —
“अब मेरी तपस्या सफल हुई।”

माँ का सपना बस इतना था — मेरा बेटा बड़ा आदमी बने।
और वो सपना सच हुआ भी।

रोहित शहर की चकाचौंध में खो गया। उसने शादी की, आलीशान घर खरीदा, कारें, नौकर, सब कुछ था। लेकिन इस सबके बीच माँ कहीं पीछे छूट गई। शुरू में वह महीने में एक बार गाँव आती थी, फिर साल में एक बार, फिर फोन पर भी बात कम होने लगी। माँ की आँखें हर शाम दरवाज़े की ओर लगी रहतीं। हर बार कोई भी बस आती तो वह समझती, “शायद मेरा रोहित आया होगा।”

लेकिन एक दिन फोन आया।
“माँ, मैं तुम्हें देवघर के बाबा वैद्यनाथ के दर्शन कराने ले चलूंगा।”
सावित्री के चेहरे पर पहली बार सालों बाद मुस्कान लौटी। आँसुओं से भीगे स्वर में बोलीं,
“बेटा, तेरा भला हो, तूने मेरी बरसों पुरानी तमन्ना पूरी कर दी।”
उन्हें क्या पता था कि यही यात्रा उनके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा बन जाएगी।

अगली सुबह उन्होंने अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाली, उसमें पुराने बेलपत्र, चावल और एक छोटी माला रखी।
“भोलेनाथ, अब मैं तेरे दरबार जा रही हूँ,” वे आसमान की ओर देखकर बोलीं।

रोहित कार चला रहा था। माँ पूरे रास्ते बातें करती जा रही थीं —
“याद है बेटा, जब तू छोटा था, तेज़ बुखार में मैंने मनौती मानी थी कि तुझे बाबा के दर्शन कराऊँगी। आज तू मुझे ले जा रहा है। तेरा माँ पर यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूँगी।”
रोहित बस मुस्कुराता रहा — लेकिन उस मुस्कान में अपनापन नहीं, एक योजना छिपी थी।

देवघर पहुँचते ही मंदिर की घंटियों की गूंज और “बोल बम” के जयकारों से पूरा वातावरण पवित्र हो उठा। सावित्री देवी की आँखों में आँसू थे।
“भोलेनाथ, आज मेरी तपस्या पूरी हुई,” उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा।
रोहित ने कहा, “माँ, भीड़ बहुत है, आप यहीं सीढ़ियों पर बैठिए। मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेकर आता हूँ।”
माँ ने सिर हिलाया, आँखें बंद कीं और नाम जपने लगीं — “ओम नमः शिवाय…”

एक घंटा… दो घंटे… सूरज ढल गया।
माँ की आँखें भीड़ में अपने बेटे को खोज रही थीं। हर गुजरते चेहरे में उन्हें रोहित नजर आता।
“यही होगा मेरा बेटा…” लेकिन हर बार उम्मीद टूटी। धीरे-धीरे मंदिर खाली होने लगा, दीप बुझने लगे, और सावित्री देवी अकेली रह गईं। अब उन्हें समझ आ चुका था — बेटे ने उन्हें छोड़ दिया है।
लेकिन माँ का दिल अजीब होता है — सच जानकर भी वो माफ कर देता है।

उन्होंने आसमान की ओर देखा —
“भोलेनाथ, मेरा बेटा सुखी रहे। अगर उसने मुझे छोड़ दिया, तो शायद यह मेरी ही किस्मत थी। अब मैं तेरे भरोसे हूँ।”

उस रात देवघर की हवाएँ बहुत ठंडी थीं। मंदिर के बाहर बैठे कुत्ते, कुछ भिखारी, और दूर से आती घंटियों की आवाज़ — सब मिलकर उस रात को और गहरा बना रहे थे।
सावित्री ने वहीं सीढ़ियों पर लेटकर आसमान देखा —
“जब मैंने उसे जन्म दिया था, तब सोचा भी नहीं था कि एक दिन वह मुझे ऐसे छोड़ जाएगा…”
आँसू बहते-बहते सूख गए।

रात के तीसरे पहर एक पुजारी वहाँ से गुजरा। उसने माँ को अकेला देखा।
“माई, आप यहाँ अकेली क्यों?”
माँ बोलीं — “मेरा बेटा गया है प्रसाद लेने, अभी आएगा…”
पुजारी ने उनकी हालत देखी। तभी एक समाजसेवी युवती मीरा उधर से निकली। उसने माँ के काँपते हाथ और सूखी आँखें देखीं।

मीरा ने धीरे से उनका हाथ थामा —
“माँ, अब आप अकेली नहीं हैं। बाबा की नगरी में कोई किसी को छोड़ता नहीं।”

वो उन्हें अपने छोटे से घर ले गई। गर्म खाना, पानी, और छत — बस इतना ही तो माँ को चाहिए था।
सावित्री रो पड़ीं —
“बेटी, आज पहली बार किसी ने मुझे खिलाया। मैं तो हमेशा बेटे को खिलाकर ही पेट भरती थी…”

अगली सुबह मीरा और पुजारी ने मिलकर मंदिर के बाहर एक छोटी सी जगह दिलाई। सावित्री ने वहाँ फूलों की टोकरी रखी और बाबा के दरबार में फूल बेचने लगीं। पहले दिन डरते हुए बोलीं — “बाबा के लिए बेलपत्र ले लो।”
उनकी आवाज़ में ऐसी सच्चाई थी कि लोग रुक गए। किसी ने फूल लिए, किसी ने आशीर्वाद माँगा।

धीरे-धीरे श्रद्धालु कहने लगे — “माँ से फूल लो, उनका आशीर्वाद साथ मिलेगा।”
कुछ महीनों में उनकी दुकान टोकरी से बढ़कर छोटी मेज तक पहुँच गई। फिर दुकान बन गई।
अब सुबह-सुबह वे साफ कपड़े पहनतीं, माथे पर भस्म लगातीं और दुकान पर बैठ जातीं। चेहरे पर आत्मविश्वास था, दर्द नहीं।

मीरा ने मुस्कुराकर कहा —
“देखो माँ, जिसने आपको छोड़ा था, उसने सोचा भी नहीं होगा कि आप इतनी मजबूत बन जाएँगी।”
माँ ने आसमान की ओर देखा —
“सही कहा बेटी। बेटे ने मुझे बोझ समझा, लेकिन बाबा ने मुझे सहारा दिया। अब यही मेरा घर है, यही मेरा परिवार।”

सालों बीत गए। “माँ की फूलों की दुकान” अब देवघर का प्रसिद्ध नाम बन चुकी थी। श्रद्धालु मानते थे कि अगर माँ से फूल लो, तो मनोकामना पूरी होती है।

एक दिन भीड़ में एक चेहरा दिखा — रोहित।
थका हुआ, टूटा हुआ। बिजनेस खत्म, घर बर्बाद, पत्नी छोड़ चुकी थी। आँखों में पश्चाताप की आँच थी।
जैसे ही उसने फूलों की दुकान पर बैठी माँ को देखा, उसके कदम रुक गए। आँसू अपने आप बहने लगे।

वो दौड़कर माँ के पैरों में गिर पड़ा —
“माँ, मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बड़ा पाप किया। तुमसे दूर हो गया। कृपया घर चलो।”

चारों ओर खामोशी छा गई। लोग ठहर गए। सावित्री ने बेटे के सिर पर हाथ रखा —
“बेटा, माँ अपने बच्चों को श्राप नहीं देती। जिस दिन तूने मुझे यहाँ छोड़ा, उसी दिन मैंने तुझे माफ कर दिया। लेकिन याद रख, इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं। तूने मुझे बोझ समझा, पर बाबा ने मुझे सहारा दिया। अब मेरा घर यही है, मेरा परिवार यही है।”

रोहित फूट-फूट कर रोने लगा। उसके भीतर सब कुछ टूट गया।
सावित्री ने कहा —
“अगर सच में मेरी माफी चाहिए तो जा, अपने कर्म सुधार। माता-पिता को बोझ मत समझ। यही तेरी सच्ची परीक्षा है।”

वो फिर दुकान पर बैठ गईं, चेहरे पर शांति और आँखों में तेज़ था।
देवघर की गलियों में अब हर कोई जानता था — “माँ की फूलों की दुकान” सिर्फ दुकान नहीं, एक संदेश थी।
वो हर फूल के साथ आशीर्वाद देतीं —
“जिसने माँ-बाप की सेवा की, उसका जीवन सफल हुआ।”

वो अब किसी छोड़ी गई माँ नहीं थीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और ममता की जीवित मूर्ति थीं।
उनकी मुस्कान में यह सीख छिपी थी —
“जिसे तुम बोझ समझते हो, वही एक दिन तुम्हारा सहारा बन सकता है। माँ का दिल कभी खाली नहीं होता, बस दुखों को दवा बना लेता है।”

जय माँ। जय भारत।