एक बेबस मरीज, एक निडर नर्स – इंसानियत की जीत

मुंबई का सरकारी अस्पताल, रात का समय। इमरजेंसी वार्ड में हल्की बीप और नर्सिंग स्टाफ की धीमी आवाजें तैर रही थीं, पर अस्पताल के एक कोने में गहरा सन्नाटा पसरा था। उसी सन्नाटे में एक स्ट्रेचर पर अधेड़ उम्र का पुरुष लाया गया – चेहरे पर चोटों के निशान, फटे कपड़े, शरीर पर जमी खून की परत, और सबसे खास – बिना पहचान, बिना किसी रिश्तेदार या परिचित के, मानो पूरी दुनिया से कटा हुआ।

ड्यूटी पर मौजूद जूनियर नर्स मीरा ने जब उस मरीज को देखा, तो उसके चेहरे की लाचारी और दर्द में बहुतेरे अनकहे सवाल थे। बाकी स्टाफ ने उसे एक औपचारिकता मानकर फॉर्म भरने और इलाज शुरू करने की तैयारियां कीं। पर मीरा की नजरें उससे नहीं हट रही थीं। उसे उस बेहोश शरीर के भीतर कोई गहरी कहानी महसूस हो रही थी।

डॉक्टर ने प्राथमिक इलाज शुरू किया – सिर पर गहरी चोट, कई जगह फ्रैक्चर। डॉक्टर को संदेह था कि यह सिर्फ सड़क दुर्घटना नहीं, बल्कि हमला है। मरीज को फौरन आईसीयू में शिफ्ट किया गया। मीरा ने अगले कई दिनों तक अपनी ड्यूटी के समय से भी ज्यादा वक्त उसी मरीज के पास बिताया। वह उसकी आंखों में झांकती, बातें करती, उसके आंसुओं के पीछे के राज़ को समझने की कोशिश करती रही।

बाकी नर्सें मीरा का मजाक उड़ातीं – “कहीं प्यार न हो जाए तुझे इस लावारिस से!” लेकिन मीरा मुस्कुरा देती, नजरअंदाज कर देती। उसे इतना तो समझ आने लगा था कि ये आदमी इस हाल में खुद नहीं आया; कोई उसे जानबूझकर ऐसे हाल में छोड़ गया है।

एक दिन मीरा वार्ड में दवा देने गई तो देखा कि मरीज की पलकों में हरकत है, आंखों में हलचल है। मीरा ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा, “आप ठीक हो जाएंगे, घबराइए मत।” उसकी आंख से एक आंसू गिरा – जैसे किसी गहरे दुख की नदी में से एक बूंद बाहर छलक पड़ी हो। वह अब भी बोल नहीं पा रहा था, शायद सिर की चोट से उसकी आवाज अस्थाई रूप से चली गई थी।

मीरा ने अस्पताल प्रशासन से कई बार अनुरोध किया – ‘कृपया इस मरीज की पहचान पता करें।’ पर हमेशा एक ही जवाब – ‘यह पुलिस का मामला है, तुम अपनी ड्यूटी करो।’ फाइल में उसका नाम दर्ज कर दिया गया – ‘Unidentified male, age ~60’। ना पुलिस रिपोर्ट, न अखबार में खबर, न अन्य अस्पताल से कोई जानकारी।

अब मीरा उस मरीज की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी – अपनी तनख्वाह से फल लाती, कंबल बदलती, पास बैठकर धीमे स्वर में भजन गुनगुनाती। उसे लगता कि दुनिया में यदि कोई सच में किसी की परवाह कर सकता है, तो वह है – इंसानियत।

दिनों दिनों में मरीज की हालत सुधरने लगी – उसने खाना खाना शुरू किया, आंखों से प्रतिक्रिया देने लगा, पर बोल नहीं सका। एक रात मीरा ने उसके पास बैठ उस पर सवाल किया – “क्या आपके घरवाले आपको ढूंढ़ रहे होंगे?” उस पर फिर से आंसू बह निकले, जवाब न था, कोई शब्द नहीं, बस एक भारी चुप्पी।

मीरा दिन-ब-दिन उसके और करीब आती गई। अब वह उसे ‘बाबा’ कहने लगी थी, उसकी देखभाल में अपनी जिम्मेदारी से भी आगे बढ़ गई थी। डॉक्टरों का कहना था – “शायद जल्द ये कभी बोल पाएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता…”।

एक दिन मरीज की कमीज की जेब में से मीरा को एक आधा जला ख़त मिला – उस पर एक विदेशी बैंक की मुहर थी, थोड़ा सा कागज और उसमें अस्पष्ट-से अंग्रेज़ी के दस्तावेज। मीरा ने वो कागज प्रशासन को दिखाया तो उसने सिरे से टाल दिया, “पुलिस को बुलाओ, तुम बाहर जाओ!”।

पर मीरा ने हार नहीं मानी। उसने खुद इंटरनेट और अपने सीमित साधनों से उस बैंक के बारे में जानना शुरू कर दिया। पता चला – वह स्विस बैंक सिर्फ ऊँची हैसियत के व्यापारियों के लिए था, वहां अकाउंट खुलवाना आसान नहीं था। मीरा की जिज्ञासा आशंका में बदल रही थी – “आखिर एक सड़क पर मिला लावारिस आदमी ऐसे बैंक से कैसे जुड़ा हो सकता है?”

उधर अस्पताल में भी कुछ अजीब हलचल थी – कुछ अजनबी चेहरों ने बिना नाम-पता बताए मरीज के बारे में जानकारी लेनी शुरू की। एक बार मीरा ने खुद देखा – एक अजनबी आदमी लंबे समय तक ICU के बाहर बस उस मरीज को देख रहा था, लेकिन जब मीरा पास गई, वह बिना कोई जवाब दिए चुपचाप चला गया। मीरा को लगने लगा – शायद ये वही लोग हैं जो बाबा को इस बुरी हालत में छोड़ गए।

बाबा अब रात को भी डर-डर कर उठ बैठते, बेचैन हो जाते, जैसे उनका अतीत आज भी डरावना साया बन कर पीछा कर रहा हो।

तीन दिन बाद अस्पताल में अफरातफरी का माहौल…एक नीली रंग की लग्जरी कार का काफिला, चार बॉडीगार्ड्स और उनके बीच से निकला एक साठ साल का युवक – सूट बूट, काले चश्मे, चेहरे पर बर्फ-सी ठंडक! वह सीधे रिसेप्शन पर गया – “60 साल के लावारिस मरीज को मैं तलाश रहा हूं; वह मेरे पिता हैं।” पूरा स्टाफ दंग रह गया।

मीरा ICU में थी, जब उसे बताया गया – “कोई आया है, जो खुद को उस लावारिस का बेटा बता रहा है!” मीरा दंग: “क्या यह वही बेटा है, जिसकी बेसब्री उसकी आंखों में महीनों से देख रही हूं, या वही जिससे वह डरते हैं?”

आईसीयू के बाहर वही आदमी खड़ा था – आंखों में अजनबीपन। कोई अपनापन, कोई चिंता, कोई पछतावा नहीं – बस गै़रियत, और भीतर कहीं एक कूटनीतिक गणना। मीरा ने उससे पूछा, “आपको कैसे पता चला कि ये आपके पिता हैं?” – “हम इन्हें एक महीने से ढूंढ रहे थे, ये बड़े उद्योगपति रमेश अग्रवाल हैं, और मैं उनका बेटा विवेक अग्रवाल।”

मीरा सकते में। जिसे सबने लावारिस कहा, जिसकी देखभाल किसी ने न की, जिसने शायद सड़क पर मर ही जाना था – वह देश की बड़ी स्टील कंपनी का मालिक है? बाबा की आंखों से आसूं बह निकले – ये आंसू दर्द के नहीं, अतीत की प्रेरणा से पैदा हुए थे।

मगर विवेक के चेहरे पर शिकन भी न थी। उसने डॉक्टरों से हाथ मिलाया, बॉडीगार्ड्स को निर्देश दिया – “इन्हें प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट करो।” बाबा उस ‘सुरक्षा’ में पहुँचा दिये गये, लेकिन मीरा को लग रहा था – “वह जितना पहले सुरक्षित था, अब शायद उतना नहीं।”

मीरा ने बाबा का हाथ पकड़ पूछा – “क्या आप जाना चाहते हैं?” बाबा की पलकें दो बार झपकी, सिर हल्का सा ‘ना’ में हिल गया। मीरा समझ गई – ये रिश्ता खून का ही नहीं, शायद किसी धोखे का भी है।

कुछ ही दिनों बाद अस्पताल के रिकार्डरूम में चोरी हुई – बाबा की फाइलें, वैसा लिफाफा, सब कुछ गायब। सीसीटीवी फुटेज – उसी रात की रिकॉर्डिंग ग़ायब! मीरा के शक अब यकीन में बदलने को तैयार थे।

फिर एक रात अस्पताल में फायर अलार्म बजा – मीरा दौड़ी बाबा के प्राइवेट वार्ड में। देखा – अंदर से दरवाजा बंद था, जब दरवाजे को तोड़ा गया – वहां एक शख्स अंधेरे में बाबा की ड्रिप निकाल रहा था। वह भाग निकला, डॉक्टरों ने बाबा को संभाला, लेकिन उनका शरीर कांप रहा था।

अगली सुबह मीरा को बाबा से एक टुकड़ा कागज मिला – कांपते हाथों से लिखी एक बात: “बचाओ, ये मेरा बेटा नहीं है।” मीरा दंग रह गई – क्या वह वाकई उसका बेटा नहीं, या कोई पहचान की चोरी हो रही थी? या सच्चा बेटा अब केवल दौलत-लालच का निर्दयी चेहरा बन चुका है?

मीरा ने सबूत जोड़ने शुरू किए – चोरी हुए कागजात, फुटेज, वार्ड का हमला। उसी समय अस्पताल में नया चेहरा आया – इंस्पेक्टर आदित्य राठौड़। चुपचाप, मगर तेज निगाहों वाला अफसर।

मीरा ने आदित्य को सब कुछ बताया – फाइल चोरी, नकली दस्तावेज, बाबा की फिसलती पहचान। आदित्य खुद जांच में जुट गया – बाबा की उंगलियों के निशान, खून के टेस्ट, बैंक के कागजात और विवेक का अतीत सब जांचा।

जल्द पता चला – रमेश अग्रवाल के नाम पर संपत्ति के दस्तावेजों पर जाली हस्ताक्षर हो रहे थे