दिवालिया हो चुका था व्यापारी, जब उसके पुराने कर्मचारी ने उसे देखा तो उसने कुछ ऐसा किया कि इतिहास बन गया

दिल्ली की चांदनी चौक की तंग गलियों में कभी एक नाम सूरज की तरह चमकता था — सेठ रामचंद्र गुप्ता, गुप्ता टेक्सटाइल्स के मालिक। एक सेल्फ-मेड बिज़नेसमैन, जिन्होंने गरीबी से उठकर एक विशाल कपड़ा साम्राज्य खड़ा किया। उनके लिए उनका कारोबार सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि एक इबादत था और उनके कर्मचारी उनका परिवार। उन्हीं कर्मचारियों में से एक था समीर, बिहार के एक छोटे से गांव से आया हुआ एक ईमानदार, मेहनती और लगनशील युवक, जिसे सेठ जी ने बेटे की तरह पाला और कारोबार की हर बारीकी सिखाई।

समीर की मेहनत रंग लाई और वह कंपनी का जनरल मैनेजर बन गया। लेकिन वक़्त ने करवट ली। सेठ जी ने धीरे-धीरे कारोबार की बागडोर अपने दामाद राकेश को सौंप दी, जो चालाक और लालची था। समीर की चेतावनी को नजरअंदाज़ करते हुए सेठ जी ने सब कुछ राकेश के हवाले कर दिया। राकेश ने समीर को झूठे इल्जामों में फंसा कर निकाल दिया और धीरे-धीरे कंपनी को दीमक की तरह चाटकर दिवालिया कर दिया। सेठ जी की दौलत, इज्जत, सब कुछ मिट्टी में मिल गया। वह सड़क पर आ गए और अपनों ने भी साथ छोड़ दिया।

समीर ने हार नहीं मानी। उसने अपने गुरु से सीखे हुए उसूलों और हुनर से एक नई शुरुआत की और “समीर अपैरल्स” नाम से एक सफल कंपनी खड़ी की। पर उसके दिल में हमेशा एक टीस थी — अपने सेठ जी को खो देने की। पांच साल बाद एक बरसात की रात उसने उन्हें फुटपाथ पर भीख मांगते हुए पाया। समीर ने उन्हें घर लाया, पर स्वाभिमान टूटा हुआ था।

समीर ने एक निर्णय लिया — वह गुप्ता टेक्सटाइल्स को दोबारा ज़िंदा करेगा। उसने अपनी कंपनी का हिस्सा बेच दिया, भारी कर्ज लिया, पुराने कर्मचारियों को वापस बुलाया और सेठ जी से छिपाकर उसी जगह एक नई शानदार इमारत बनवाई। फिर एक दिन सेठ जी को वहां लाकर चाबी उनके हाथों में दी — “सेठ जी, आपकी सल्तनत आपका इंतजार कर रही है।”

सेठ जी की आंखों में आंसू थे। उन्होंने समीर को गले लगा लिया। गुप्ता टेक्सटाइल्स फिर से रोशन हो गया। सेठ जी फिर से सम्राट बने — और उनके साथ खड़ा था उनका सबसे वफादार सिपाही, समीर।

यह कहानी हमें सिखाती है कि दौलत से बड़ी दौलत होती है — इंसानियत, वफादारी और कृतज्ञता।

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