“SP ऑफिस में आया एक थका-हारा बुज़ुर्ग…जैसे ही उसने नाम बताया, ऑफिसर की रगें काँप उठीं!”
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एसपी ऑफिस में आया एक थका-हारा बुज़ुर्ग…जैसे ही उसने नाम बताया, ऑफिसर की रगें काँप उठीं!
दोपहर का वक्त था। जिला पुलिस थाना में हल्की सी ऊब और चाय की खुशबू फैली हुई थी। कुछ सिपाही मोबाइल पर व्यस्त थे, तो कुछ फाइलों के पन्ने पलट रहे थे। अचानक दरवाजे पर एक कांपती हुई आवाज गूंजी—”साहब, मेरी मदद कीजिए।” सबकी नजरें दरवाजे की ओर मुड़ीं। वहां खड़ा था एक थका-हारा बुजुर्ग, उम्र करीब 70-75 साल। चेहरे पर झुर्रियां, कपड़े मैले-कुचैले, हाथ में एक फटा हुआ झोला और आंखों में थकान से ज्यादा उम्मीद की चमक।
एक सिपाही ने झुंझलाकर कहा, “अबे ओ बाबा, यहां भीख नहीं मिलती, निकलो बाहर!”
बुजुर्ग ने धीमे स्वर में जवाब दिया, “मैं भीख नहीं मांग रहा बेटा, मेरा सामान चोरी हो गया है। एक शिकायत दर्ज करानी है।”
सिपाही ने ठंडी नजर से देखा, “क्या चोरी हो गया, कटोरी या चप्पल? देखो बाबा, टाइम मत वेस्ट करो।”
बुजुर्ग ने धीरे से कहा, “मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं था, बस एक पुराना बटुआ, उसमें मेरी बीवी की दवा के पैसे थे और मेरी पेंशन की पर्ची।”
थाने में कोई हंस रहा था, कोई नजरें चुरा रहा था। तभी अंदर के केबिन से आवाज आई, “क्या हुआ बाहर? कौन है?”
यह आवाज थी एसपी आदित्य प्रताप सिंह की। उनकी आंखों में तेज और चेहरे पर अनुशासन की सख्ती थी, लेकिन दिल का साफ।
सिपाही ने अनमने से जवाब दिया, “कोई बूढ़ा आया है सर, चोरी का केस बताकर भीख मांग रहा है।”
अंदर से फाइल पटकी गई, “चोरी का मामला है तो सुनो, भीख मांगना और शिकायत करना दो अलग चीजें हैं। भेजो उसे अंदर।”
बुजुर्ग कांपते हुए अंदर पहुंचे। एसपी साहब ने सामने देखा, उनकी निगाहें उस चेहरे पर जमी रहीं। “बैठिए बाबा, बताइए क्या हुआ?”
आवाज में नरमी थी।
बुजुर्ग ने थैले से एक पुरानी फटी डायरी निकाली, “मैं बस्ती नंबर 11 में रहता हूं। मेरी बीवी बहुत बीमार है। कल बाजार गया था, एक आदमी ने धक्का मार दिया। जब संभला तो मेरा बटुआ नहीं था। उसमें मेरे पेंशन के कागज और कुछ दवाई के पैसे थे।”
एसपी आदित्य की नजरें डायरी पर टिक गईं। उसमें एक नाम लिखा था—हरिनाथ।
एसपी की सांस एक पल को रुक गई। “क्या नाम बताया आपने?”
“हरिनाथ…हरिनाथ सिंह,” बुजुर्ग ने जवाब दिया।
एसपी की उंगलियां मेज पर थिरकने लगीं। “बाबा, आपकी बाजू पर यह निशान कैसा है?”
बुजुर्ग ने आहिस्ता से बाजू ऊपर की। एक पुराना जला हुआ निशान था, जैसे एसपी आदित्य ने अपने बचपन में अपने पिता के हाथ पर देखा था।
“आपका कोई बेटा है बाबा?”
बुजुर्ग ने मुस्कुराने की कोशिश की, फिर थककर बोले, “था…बहुत साल पहले। एक रेल दुर्घटना में हम बिछड़ गए थे।”
एसपी आदित्य की आंखों में नमी उतर आई। कमरे में सन्नाटा फैल गया।
वह अपनी जगह से उठे, धीरे-धीरे आगे बढ़े और सामने झुककर पूछा, “बाबा, आप मुझे पहचानते हैं?”
बुजुर्ग ने झुककर देखा, फिर जैसे समय की परतें खुलने लगीं। “आदित्य…” उनकी आवाज कांप रही थी।
एसपी आदित्य की आंखें अब नमी से भरी थीं। “बाबा, आप ही हो ना…हरिनाथ सिंह…मेरा बाबा!”
बुजुर्ग की आंखें पल भर के लिए खुली की खुली रह गईं। वह आदित्य की आंखों में देख रहे थे, जैसे किसी भूले-बिसरे सपने को पहचानने की कोशिश कर रहे हों। “तू…तू मेरा आदित्य है?”
आदित्य ने आगे बढ़कर उनके हाथ थाम लिए, “हां बाबा, मैं ही हूं…आपका बेटा, जिसे आपने स्टेशन पर आखिरी बार देखा था।”
बुजुर्ग का शरीर कांपने लगा। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह फर्श पर ही बैठ गए, और एसपी भी घुटनों के बल नीचे आ गया।
सिपाही और कर्मचारी जो अब तक तमाशा देख रहे थे, सन्न रह गए। जो बुजुर्ग उन्हें झूठा शिकायतकर्ता लग रहा था, वही इस थाने के सबसे ताकतवर अफसर का बाप निकला!
“लेकिन बाबा, आप कहां चले गए थे? उस रात के बाद आप कभी नहीं मिले…”
हरिनाथ ने धीरे-धीरे जवाब दिया, “रेल हादसे की रात मैं तुम्हें ढूंढता रहा बेटा, लेकिन भगदड़ में सब बिछड़ गए। मैं घायल हो गया, अस्पताल में महीनों रहा। फिर समझा कि शायद तू नहीं रहा।”
“मैं रहा बाबा, मैं जिंदा रहा। एक अनाथालय पहुंचा, बड़ा होकर आईपीएस बना। सोचा, अगर कभी कोई सुराग मिलेगा तो…लेकिन तुम्हारा नाम, शहर सब खो गया था।”
एसपी की आवाज भी अब बह रही थी।
बुजुर्ग ने थरथराते हाथों से बेटे का चेहरा छू लिया। “तू कितना बड़ा हो गया, अफसर बन गया बेटा…”
पूरा थाना भावुक हो गया था। कोई चुपचाप आंखें पोंछ रहा था, कोई छुपकर वीडियो बना रहा था। उस पल में कोई नियम, कोई वर्दी, कोई औपचारिकता नहीं थी—सिर्फ एक बाप और एक बेटे की मुलाकात थी, जो जिंदगी भर अधूरी रही थी।
एसपी ने आदेश दिया, “सभी रिकॉर्ड करो कि बाबा की शिकायत पर अब एफआईआर दर्ज होगी, और इस केस की तह तक जाया जाएगा।”
सभी अफसर हरकत में आ गए। एक सिपाही चाय लेकर आया, “बाबा जी, कुछ खाइए, बहुत देर से भूखे होंगे।”
एसपी ने खुद जाकर अपने केबिन से एक कपड़ा लाया और पिता के पैरों से धूल साफ की।
“मैंने कितनी बार भगवान से मांगा था कि एक बार मिलवा दो…अब मैं आपको कहीं नहीं जाने दूंगा बाबा।”
बुजुर्ग बोले, “नहीं बेटा, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता।”
“बोझ? बाबा, अगर आपकी दुआ ना होती तो आज मैं एसपी नहीं होता। मेरा पूरा जीवन आपसे ही तो है।”
थोड़ी देर में प्रेस को भी खबर मिल गई थी। थाने के बाहर मीडिया इकट्ठा हो चुकी थी।
“एसपी आदित्य ने जो किया, वह आज का सबसे बड़ा संदेश है,” एक पत्रकार ने कहा।
शायद वह सही था, क्योंकि यह कहानी सिर्फ एक गुमशुदा बाप और बेटे की नहीं थी, यह कहानी थी हर उस इंसान की जिसे दुनिया ने भुला दिया, लेकिन किस्मत ने नहीं।
शाम ढल चुकी थी। पुलिस स्टेशन की भीड़ धीरे-धीरे कम हो रही थी, लेकिन एक कोना अब भी भावनाओं से भरा हुआ था।
एसपी आदित्य प्रताप सिंह अपने पिता को सरकारी वाहन में बिठाकर अपने सरकारी आवास की ओर जा रहे थे।
रास्ते भर दोनों के बीच चुप्पी थी, लेकिन वह चुप्पी बोझिल नहीं थी—वह चुप्पी उन सालों की थी, जिन्हें शब्दों से भरना मुश्किल था।
बुजुर्ग हरिनाथ सिंह खिड़की से बाहर देख रहे थे, जैसे हर दृश्य उनके लिए नया था।
“बहुत बदल गया है यह शहर,” उन्होंने धीरे से कहा।
“शहर बदला है बाबा, पर आपका बेटा अब भी वही है, जो आखिरी बार स्टेशन पर आपके गले लगकर रोया था,” आदित्य ने गाड़ी चलाते हुए कहा।
घर पहुंचने पर आदित्य की पत्नी सीमा दरवाजे पर खड़ी थी।
वह समझ नहीं पा रही थी कि एसपी साहब इतने भावुक क्यों हैं और साथ में कौन है।
“सीमा, मिलो, यह मेरे पिताजी हैं।”
सीमा चौंक गई, “आपके? लेकिन आपने तो कहा था…”
“हां, मैंने भी यही समझा था कि वह नहीं रहे, लेकिन किस्मत ने आज मुझे फिर से उनका बेटा बना दिया।”
सीमा ने तुरंत उनके पैर छुए और आदरपूर्वक अंदर ले गई।
रात का खाना दोनों ने साथ खाया।
बहुत सालों बाद आदित्य पिता के कमरे में बैठा, उनके पैरों के पास बैठकर पुरानी बातें सुन रहा था।
हरिनाथ ने धीरे से कहा, “बेटा, तुझसे कुछ छुपाया है…”
आदित्य चौका, “क्या बात है बाबा?”
“तू जब अनाथालय पहुंचा था, मैं तुझे ढूंढने निकला था, लेकिन मैं अकेला नहीं था। तेरी मां भी थी मेरे साथ।”
आदित्य के चेहरे से रंग उड़ गया, “मां?”
“हां बेटा, वो जिंदा थी, लेकिन हादसे के बाद मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गई थी। जब तू नहीं मिला, वो टूट गई। मैंने उसे सेवा संस्थान में भर्ती करा दिया, जहां उसका इलाज हो सके।”
“तो क्या वह अब भी…?”
“अब तक मैं हर महीने जाकर मिलता था, पर पिछले महीने मेरी जेब कट गई, दवाई के पैसे भी चले गए। तभी शिकायत दर्ज कराने गया था।”
एएसपी आदित्य खड़ा हो गया, “मैं अभी चलूंगा बाबा, मां को लेकर आऊंगा। अब कोई अधूरा रिश्ता नहीं छोड़ना चाहता।”
बुजुर्ग की आंखों से आंसू निकल पड़े, “आज तू वाकई बड़ा अफसर ही नहीं, बड़ा बेटा भी बन गया है।”
कुछ घंटों बाद एसपी की गाड़ी शहर के एक सेवा आश्रम में रुकी।
वहां एक कोने में एक बुजुर्ग महिला बैठी थी—सफेद बाल, शांत चेहरा, खोई हुई सी निगाहें।
एसपी धीरे-धीरे उनके पास गया, “मां…”
आवाज में कांपता पर अपनापन भी।
महिला ने पलटकर देखा, कई सालों की धुंध जैसे छटने लगी।
“आदित्य…” उसकी आंखें पहली बार चमकीं।
एएसपी आदित्य ने झुककर उनका हाथ थामा, “हां मां, मैं आ गया हूं, आपका बेटा।”
सेवा आश्रम की नर्सें, स्टाफ, सब उस पल को देख रहे थे—एक बिछड़ा हुआ परिवार फिर से जुड़ गया था।
सुबह की पहली किरणें जब एसपी आदित्य प्रताप सिंह के घर की खिड़कियों से अंदर आईं, तो घर के अंदर की रौनक कुछ अलग ही थी।
बरसों बाद उस घर में सिर्फ चाय की खुशबू नहीं, एक मां की ममता, एक पिता का स्नेह और एक बेटे की संतुष्टि का उजाला फैला था।
आदित्य ने दोनों के पैर छूकर आशीर्वाद लिया, “अब मैं अकेला नहीं हूं, अब मेरा घर है, मेरा परिवार है।”
सीमा ने हाथ में आरती की थाली ली और दोनों बुजुर्गों की पूजा की, “मां, बाबा, आप दोनों हमारे लिए भगवान हैं।”
उस दिन थाना परिसर में एक विशेष सभा रखी गई।
सभी पुलिस अधिकारी, कर्मचारी, मीडिया और स्थानीय लोग मौजूद थे।
एएसपी आदित्य प्रताप सिंह मंच पर खड़े थे, और उनके पास बैठे थे उनके मां-बाप—हरिनाथ सिंह और श्रीमती सावित्री देवी।
आदित्य ने माइक उठाया, “आप सब सोच रहे होंगे कि एक बुजुर्ग की शिकायत के लिए मैंने थाने को रोका, क्यों इतना गंभीर हुआ?”
तो सुनिए—सारा मंच सन्न हो गया।
“क्योंकि वह बुजुर्ग सिर्फ कोई पीड़ित नहीं था, वह मेरे पिता थे, जिनसे मैं बचपन में रेल हादसे में बिछड़ गया था। और कल इतने वर्षों बाद इस थाने में वह मुझसे फिर मिले। कल जो मेरी वर्दी थी, वह एक पुलिस अफसर की थी, पर आज जो मैं पहना हूं, वह एक बेटे का फर्ज है—और यह फर्ज मैं कभी नहीं छोड़ सकता।”
सभा में बैठे कई लोग रो पड़े, कुछ ने तालियां बजाई, कुछ सन्न थे।
इसके बाद आदित्य ने एक नई योजना की घोषणा की—हर थाने में एक सम्मान कक्ष बनाया जाएगा, जहां हर बुजुर्ग की शिकायत को गंभीरता से सुना जाएगा, बिना किसी पूर्वाग्रह, बिना किसी मजाक के।
“जो लोग हमें जन्म देते हैं, जो देश के लिए जीते हैं, उन्हें आखिरी सफर तक सम्मान मिलना चाहिए।”
मीडिया की हेडलाइंस थीं—”एसपी के थाने में मिला सालों बाद बिछड़ा पिता, देश की आंखें नम; आदित्य प्रताप सिंह बने आदर्श बेटा, नई मिसाल; अब बुजुर्गों की शिकायत होगी सबसे पहली प्राथमिकता, पुलिस विभाग में बदलाव।”
शाम को आदित्य अपने पिता के पास बैठा था, “बाबा, एक बात कहूं?”
“हां बेटा?”
“अब मैं आपकी पुरानी डायरी को डिजिटल करवा रहा हूं, आपकी लिखी यादें, कविताएं, सब देश पढ़ेगा।”
हरिनाथ मुस्कुराए, “मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरा बेटा इतना बड़ा बनेगा और फिर मुझे ढूंढेगा।”
“आपने कभी छोड़ा नहीं बाबा, किस्मत ने हमें देर से मिलाया, पर अलग नहीं कर पाई।”
यह कहानी सिर्फ एक बाप-बेटे की नहीं, बल्कि इंसानियत, सम्मान और रिश्तों की है। जो लोग हमें जिंदगी देते हैं, उनका सम्मान ही हमारी असली जिम्मेदारी है।
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