फटे कुर्ते वाला बुज़ुर्ग जब बैंक गया तो सब हंसे… लेकिन कुछ घंटे बाद सबकी हंसी गायब!

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सुबह की हलकी धूप बैंक के शीशों पर पड़कर चुभती थी, लेकिन शहर के इस उजाड़े इलाके में खड़े पुराने इमारत के अंदर सब कुछ बिल्कुल अलग था। एक तरफ सफेद और नीले रंग का काउंटर, चमचमाती फ्लोर टाइल, बटन-नुमा कुर्सियां और महंगे सूट-टोपी वाले ग्राहक, दूसरी तरफ एक बूढ़ा आदमी अपने तिनके-छिनके कपड़ों में, घिसी-चप्पलें और हाथ में लाठी लेकर, धीरे-धीरे दरवाजे से भीतर आया। वह सन्नाटे में पूरे बैंक की नज़रों को अपने ऊपर इक्ट्ठा करते चला गया।

उस वृद्ध का नाम श्यामलाल था। सात दशक से अधिक उम्र, चेहरे पर समय की लकीरें, पर आंखों में अभी भी एक नटखट चमक थी। हर कदम पर उसके पैर को लाठी ने सहारा दिया, और दूसरा हाथ एक पुराना लिफाफा थामे हुआ था। बैंक की हवादार हॉल में ऐसे खड़ा देख हर किसी के मन में सवाल उठा, “यह आदमी यहां क्या कर रहा है?” कुछ ग्राहक गुस्से में कानों को उछलाकर बोले, “यहां गरीबों के लिए नहीं बनता,” किसी ने कहा, “कहां से आ गया!” दूधिया रोशनी में सूट-बूट वालों के बीच एक अजनबी का दिखना असहज था, सब धीरे-धीरे फुसफुसाने लगे—कौंधती अफवाहों की तरह।

काउंटर नंबर तीन पर रीमा बैठी थी। पीछे से “बैंक कार्यपालिका” का परिचय पत्र झिलमिलाता, चेहरा थका सा मगर प्यारा। जब उसने बूढ़े को देखा तो मुस्कुरा कर बोली, “बाबा, बताइये, कैसे मदद कर सकती हूं?” पर आवाज़ में झिझक थी। वह बोला, “बेटा, मेरे खाते में गड़बड़ी हो गई है। पैसे दिख नहीं रहे।” रीमा ने एक निगाह लिफाफे पर डाली—फटे कागज, धूल से जमे किनारे। उसने उठकर लिफाफा लिया, बोली, “ठीक है बाबा, अभी चेक करती हूं, कृपया इंतजार कर लीजिए।” और जैसे ही वह पलटी, बूढ़ा वेटिंग एरिया की ओर बढ़कर खड़़ा हो गया, जहां कोने में एक पुरानी कुर्सी रखी थी।

जैसे-जैसे लम्हे बीतते गए, ग्राहकों की भीड़ उस बूढ़े की चुप्पी से नाराज होती गई। दो घड़ी बज चुकी थी और रीमा अब तक लौटी नहीं। बूढ़े ने लाठी से सहारा लेकर खुद को कुर्सी पर मौजूद एक कोने में खींचा, लेकिन सीधा बैठना मुश्किल था। वह चारों ओर देखता, कभी लिफाफा संभाले, कभी ताम-झाम देखकर मुस्कुराता, जैसे दुनिया के सारे सवाल उसके लिए अदना मनोरंजन हों।

कुछ देर बाद उसने पीछे मुड़कर देखा, वहीं से एक छोटा सहायक कर्मचारी, रमेश, आया। तन में विनम्रता, चेहरे पर सज्जनता। उसने झुककर पूछा, “दादा, कोई समस्या तो नहीं?” बूढ़े ने सहज स्वर में कहा, “बेटा, मैनेजर से मिलना है। मेरा जरूरी काम है।” बिना शब्द गवाए, रमेश दौड़ा, मैनेजर रजनीश के केबिन तक पहुंचा और बुलाई। पर वह भीतर तक झाँका, फिर बोला, “इनसे कह दो बैठ जाएं, अभी व्यस्त हूं,” और फोन पर बातें करने लगा। बैंक के नियम-कायदे, ग्राहक सेवा, प्रबंधन रिपोर्ट—सब कुछ उसके कानों से गुजर गया, पर बूढ़े के मन में केवल ठंडी थोड़ी आशंका उभरी कि उसे दरकिनार किया जा रहा है।

दो घंटे गुजर गए। बूढ़ा थक-स्वान महसूस कर रहा था पर उसकी धीमी साँसों में उम्मीद जिंदा थी। वह अक्सर अपनी लाठी के सहारे उठकर मैनेजर के केबिन की ओर बढ़ा, फिर पीछे हट गया। अंततः उसने ठान लिया कि अब और इंतजार नहीं करेगा। सहारे से उठकर धीमे कदमों से केबिन की ओर बढ़ा। लॉबी में हर किसी ने देखा, सूट-बूट वाले ग्राहक, कर्मचारी, सुरक्षा गार्ड—सब की आवाज़ें थम गईं। रजनीश खिड़की से झाँककर देखता रहा कि बूढ़ा हाथ में लिफाफा लिए कितनी धीमी शांति से चलता आया।

“हाँ बाबा?” मैनेजर ने गुस्से-सीर स्वर में पूछा, कागज-कलम रखकर पीछे मुड़ आया। बूढ़े ने लिफाफा आगे बढ़ाया, बोला, “बेटा, इसमे मेरे खाते की जानकारी है। पिछले कुछ दिनों से लेन-देन रुक गया है।” रजनीश ने लिफाफा उठा कर देखा, एक क्षण रुककर हल्की सी हँसी निकाली—“बाबूजी, जब बैलेंस होता, तो लेन-देन होता। आपके खाते में शायद शून्य शून्य…” बूढ़ा स्थिर आवाज़ में बोला, “बिना देखा कैसे कह सकते हो? एक बार चेक तो कर लो।” रजनीश ने टाल मारा, “ये सालों का अनुभव है। अमीरों और गरीबों का चेहरा पहचानता हूं मैं।” बूढ़ा ट नही बोला, बस आश्वस्त मुस्कान से हँस पड़ा, फिर बोला, “ठीक है, बेटा, मैं जा रहा हूं, पर इस लिफाफे में जो लिखा है, पढ़ लेना।” इतना कहकर वह मुड़े और धीमी ताल-लय में बाहर निकल गए।

लाठी की ठक-ठक ध्वनि चौंकाने वाली थी, लगभग पैरों में फिसलन भरती हुई, पर बूढ़े ने न रुका, न घुटनों को किसी कराहने दिया। बैंक में एक अजीब सा सन्नाटा फैल गया। कुछ देर काम रुका, ग्राहक आपस में खामोशी से कानाफूसी करने लगे, “उसने कहा लिफाफा पढ़ना।” “कैसा ख़त?” “लगता है बड़ा मामला है।” कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था कि उन्होंने बैंक मैनेजर के साथ ऐसा व्यवहार किया। जब रजनीश वापस अपनी कुर्सी पर आए, तो किसी उलझन-सी उनमें समाई थी। हात में बिखरे कुछ पेपर, दिमाग़ में अस्पष्ट डर—कि उस वृद्ध ने जो कहा, सच में कोई बड़ी कीमत होगी।

अगली सुबह ठीक दस बजे फिर वही वृद्ध युवक-सा ठाठ-बाट लाया। इस बार साफ-सुथरे कपड़े, लाठी के बजाय सीधा कंधों पर जैकेट टाँग रखा था, हाथ में एक पतला ब्रीफकेस थामा था। उसके साथ एक मध्यम उम्र का आदमी भी था, सूट में सजी, पैराप्लेन की तरह तैयार, ब्रीफकेस उसके हाथ में था। जब वे बैंक में आए, तो फिर वही अजीब माहौल बना—हर आंख आश्चर्य में बड़ी हुई, कदम वहीं ठिठक गए।

बूढ़ा सीधे मैनेजर की ओर बढ़ा, इशारे से बुलाया। रजनीश ने त्रुटि-दर्शन कर केबिन से बाहर निकला, हकलाते स्वर में बोला, “आप… आप कौन हैं?” वृद्ध ने मुस्कुराया, “बेटा, तुम कल जो बदसलूकी की, उसकी सजा तुम्हें भुगतनी पड़ेगी, पर पहले मेरी बात सुना।” उस दिन से बैंक में वक़्त का सिकुड़ाव हो गया था, रजनीश का रंग मुँह से उड़ा हुआ, कान खड़े जैसे कोई ज़हरीली हवा बहने लगी हो। वृद्ध ने कहा, “मैं इस बैंक का मालिक या तुम्हें मालिक समझना, मेरे नाम पर 70 प्रतिशत शेयर हैं।” वहीं खड़े मध्यम उम्र के साथी ने दस्तावेज़ पेश किए—शेयरहोल्डिंग रिपोर्ट, मुद्रा पलट, बैंकिंग कमिशन के पन्ने, सरकारी रजिस्ट्रेशन की फोटोकॉपी। सब कुछ वैसा था जैसा उनकी काया-मनाही भरोसे के बाद हो सकता है।

एकाएक पूरे बैंक में हल्लाः कर्मचारी सामना करते शर्म से सिर झुकाने लगे, ग्राहक खामोश खड़े, सुरक्षा गार्ड को आंखों पर विश्वास नहीं, और मैनेजर तो संभल ही नहीं पा रहा था। वृद्ध ने पूछा, “अब तुम्हारी कुर्सी? तुम्हें हटाया जा रहा है। नया मैनेजर रमेश, इसी बैंक का सज्जन कर्मचारी बनेगा।” रमेश, जो पिछली दो दिनों से बूढ़े के लिए रक्षा कवच बनता रहा, अब खुद चौंककर देख रहा था। मैनेजर के फौरन हटाये जाने की घोषणा से बैंक का इज़्ज़तदार तामझाम लहू-होकर रह गया।

बूढ़ा एक क्षण थमा, फिर कहा, “हमारी नीति स्पष्ट रहे—किसी के कपड़े या रूप से ग्राहक को आंका नहीं जाएगा। हम सभी का समान व्यवहार करेंगे। आज से यदि कोई अमीर-गरीब भेदभाव करेगा, तो वही सजा पायेगा।” फिर उसने रुका, फिर मध्यम उम्र के साथी से कहा, “रमेश, यह पैकेट तुम्हारे लिए।” उसने सामने बढ़ाया—एक प्रमोशन लेटर, जहां बैंक बोर्ड ने उनकी सेवा और ईमानदारी देख नई नियुक्ति की घोषणा की थी। सबने तालियाँ बजाईं, प्रेरित खड़े हुए। बूढ़े ने स्वयं रीमा को भी बुलाया, “तुम अक्सर ग्राहक के कपड़ों से ही सोच बैठती हो कि कौन अमीर, कौन नहीं। तुम्हें देखना सिखाया जायेगा।” रीमा ने हाथ जोड़ सहमकर माफी माँगी, “बाबा, आगे सचेत रहूँगी।”

उस दिन से बैंक का माहौल बदल गया। ग्राहक वही पुराने आए, लेकिन कर्मचारियों ने अभिव्यवहार में सुधार कर लिया—कोई लाउड स्पीकर पर उकसाऊ टिप्पणी नहीं, कोई व्यंग्य नहीं, खारीस कमरे में हल्की नम्रता घुल गयी। रीमा ने ग्राहकों को नम्रता से आवाज लगाई, मैनेजर कुर्सी पर नहीं थम पाया, ब्रीफकेस के साथी बूढ़े के साथ कॉर्नर में खड़े योजना बना रहे थे कि कैसे बैंक सेवा को और पारदर्शी बनाया जाए। रमेश तेजी से सिख रहा था—क्योंकि उन्होंने बूढ़े के लिए उस धैर्य और सम्मान का आदान-प्रदान कभी आसान नहीं समझा था।

समय बितता गया, बैंक की समीक्षा रिपोर्ट आयी, ग्राहकों की संतुष्टि बढ़ी, शिकायतें लगभग घटकर शून्य हो गयीं। शिक्षण संस्थान ने इस उदाहरण को केस स्टडी में शामिल किया—“ग्राहक सेवा में समानता का महत्व” शीर्षक से। शहर के अखबार में लिखा गया, “बैंक मालिक ने गरीब और अमीर के बीच दीवार गिरायी।” कई लोग आए और बैंक के पूर्व मैनेजर रजनीश से मिलने की कोशिश की, पर उसने कॉफी तक नहीं पी। बैंक की सेना ही बदल गयी—मुमकिन नहीं था कि वे एक छोटे बुजुर्ग के आने से असहज हो।

बाद में मैंने सुना कि बूढ़े ने उस पुराने लिफाफे में क्या लिखा था। वह एक पत्र था—बैंक के कर्मचारियों के नाम, व्यवहार को लेकर कुछ पंक्तियां, ग्राहकों के अनुभव और सुधार के सुझाव। उस पत्र की पंक्तियों में था, “इंसान का चेहरा उसकी आत्मा का आईना है, कपड़े नहीं।” और अंत में लिखा था, “कभी खुद को दूसरों के ऊपर मत रखो। सेवा ही हमारी वास्तविक पूँजी है।”

इस छोटी घटना ने मुझे सिखाया कि सम्मान का मूल्य सर्वाधिक है, चाहे सामने वाला कपड़े में सादगी हो या सोने में लिपटा। आज भी जब मैं बैंक में प्रवेश करता हूं, रीमा मुझसे सहानुभूति की मुस्कान देती है, और रमेश, नया मैनेजर, आत्मविश्वास भरे स्वर में पूछता है, “क्या मदद कर सकता हूं?” मुझे जानकर अजीब लगता है कि वो वही व्यक्ति है जिसने कभी हमारी जूतों वाली दुनिया में घुसकर कह दिया—“यह बैंक आपके लिए नहीं, हमारे लिए नहीं, समाज के लिए है।”

और वह बूढ़ा आदमी, श्यामलाल, जो बैंक का आधिकारिक मालिक था, फिर कभी शाखा में नहीं आया। कहते हैं वह अगले वर्ष यहां से दूसरे शहर गए, जहाँ गरीबों और किसानों के लिए एक नया बैंक खोलने की योजना थी। उस अनुभव ने यह साबित किया कि असली संपत्ति इंसानियत है, और असली शक्ति सम्मान है। कैश काउंटिंग मशीनों की गूंज से बढ़कर तो दिलों की धड़कन है, जो हमें इंसानों से जोड़ती है।