भूखा बच्चा कचरे में खाना उठा कर खा रहा था… होटल के मालिक ने देखकर किया ऐसा काम कि होश उड़ जाएंगे..
राहुल की कहानी – भूख, इंसानियत और सपनों की उड़ान
शहर की एक हल्की ठंडी शाम थी। सड़कें पीली-पीली रोशनी में नहाई हुई थीं। बाजार में भीड़ धीरे-धीरे कम हो रही थी, दुकानों के शटर गिरने लगे थे। उसी भीड़ के बीच एक छोटा सा बच्चा होटल के बाहर खड़ा था। उम्र मुश्किल से दस-ग्यारह साल, फटे पुराने कपड़े, पैरों में टूटी चप्पल, और चेहरे पर भूख और थकान की झलक। उसकी आंखों में उम्मीद भी थी, जो बुझते-बुझते फिर से जग जाती थी।
वह होटल के दरवाजे से अंदर झांक रहा था। लकड़ी की मेजों पर लोग गरमागरम खाना खा रहे थे। रोटियों की खुशबू, सब्जी के मसाले, ताजा दाल की सौंधी महक उसके नथुनों में भर गई। उसका पेट कई बार से खाली था। उसने होंठ काटे और धीरे से बोला – “काश थोड़ी सी रोटी मिल जाती।”
वह होटल के बाहर रखे ड्रम के पास खड़ा हो गया, जहां बचा हुआ खाना फेंका जाता था। चुपचाप इंतजार करता रहा कि कोई आए और बचा खुचा खाना बाहर रख दे।
थोड़ी देर बाद होटल का एक नौकर आया और प्लेट में बचे टुकड़े ड्रम में डालने लगा। बच्चा झटके से आगे बढ़ा, कांपते हाथों से एक सूखी रोटी का टुकड़ा उठाया। उसी वक्त होटल के मालिक की नजर उस पर पड़ गई। सफेद कुर्ता पहने, करीब पचास साल का आदमी, चेहरा सख्त मगर आंखों में गहराई।
मालिक गुस्से में बोला – “अरे, तू क्या कर रहा है? कूड़े से खाना निकाल रहा है?”
बच्चा डर गया, हाथ कांपने लगे, रोटी का टुकड़ा जमीन पर गिर गया। उसने धीमी आवाज में कहा – “भूखा हूं साहब। कई दिन से ठीक से खाना नहीं खाया। सोचा थोड़ा बचा हुआ मिल जाएगा तो पेट भर जाएगा।”
मालिक का चेहरा सख्त से नरम हुआ। उसने बच्चे को गौर से देखा – पतली हड्डियां, अंदर धंसी आंखें, झुकी कमर – कई रातों की भूख बयान कर रही थी।
मालिक ने गहरी सांस ली – “तू ऐसे क्यों खा रहा है बाहर? अंदर आ।”
बच्चा चौका, आंखें फैल गईं। डरते-डरते बोला – “नहीं साहब, मैं अंदर नहीं आ सकता। लोग बुरा मानेंगे।”
मालिक ने फिर कहा – “मैं कह रहा हूं, अंदर आ। तू मेहमान है मेरा।”
धीरे-धीरे बच्चा कदम बढ़ाता हुआ अंदर आया। होटल के भीतर लोग उसे देखने लगे। कोई दया से, कोई तिरस्कार से। लेकिन मालिक ने बिना परवाह किए उसे खाली मेज पर बैठाया और नौकर से कहा – “जा, एक थाली ले आ। वही खाना जो बाकी सबके लिए बना है। ताजा गरमागरम।”
नौकर थोड़ा हिचकिचाया, फिर सिर झुका कर चला गया। कुछ देर बाद गरम रोटियां, दाल, सब्जी, चावल बच्चे के सामने रख दिए। बच्चा थाली को देखता ही रह गया। आंखों में आंसू आ गए। कांपते हाथों से रोटी उठाई, मगर खाने से पहले मालिक की ओर देखा – “साहब, सच में मैं खा सकता हूं?”
मालिक मुस्कुराया – “खाने के लिए पेट चाहिए और तेरा पेट खाली है। शर्म मत कर, खा।”
बच्चे ने रोटी तोड़ी, दाल में डुबोई, जैसे ही पहला निवाला मुंह में डाला, गालों पर आंसू लुढ़क पड़े। पहली बार गरम और अच्छा खाना खाया था। हर निवाले में सुकून और दर्द दोनों थे। होटल के ग्राहक चुपचाप उस दृश्य को देखते रहे।
खाना खत्म होने पर बच्चा बोला – “साहब, मैं पैसे तो नहीं दे सकता। लेकिन आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा।”
मालिक कुछ देर चुप रहा, आंखों में हल्की नमी थी। पूछा – “तेरा नाम क्या है?”
बच्चे ने सिर झुकाकर कहा – “राहुल।”
मालिक बोले – “ठीक है राहुल, अब तू रोज यहां आएगा। रोज खाना मिलेगा, लेकिन एक शर्त है।”
राहुल घबरा गया – “कैसी शर्त?”
मालिक – “शर्त यह कि तू पढ़ाई करेगा। मैं तुझे यहां काम भी सिखाऊंगा और स्कूल में भी दाखिला करवाऊंगा, लेकिन मेहनत करेगा समझा?”
राहुल हैरान था। सोच रहा था कोई भूखे को खाना दे दे तो भी बड़ी बात है, ये आदमी तो उसकी पूरी जिंदगी बदलने की बात कर रहा है। आंखें चमक उठीं – “साहब, अगर आप सच में ऐसा कर देंगे तो मैं अपनी जान लगा दूंगा पढ़ाई में।”
उस दिन से राहुल की जिंदगी बदलने लगी। हर सुबह होटल आता, मेज साफ करता, बर्तन धोता। दोपहर में मालिक जगदीश उसे पास के स्कूल ले गया, नाम लिखवाया गया। शुरू में राहुल को मुश्किल हुई – किताबें, अक्षर, सब नया था। लेकिन उसके भीतर भूख से भी बड़ी भूख थी – सीखने की भूख।
जगदीश हर शाम उसे बैठाकर कहता – “राहुल, याद रख गरीबी इंसान को रोक नहीं सकती अगर इरादे मजबूत हों।”
राहुल ध्यान से सुनता, पढ़ाई में जुटा रहता। स्कूल में धीरे-धीरे उसकी पहचान बनने लगी। मास्टर जी कहते – “यह लड़का तो बहुत होशियार है।”
वक्त गुजरता गया। सालों बीत गए। राहुल ने पढ़ाई में कमाल कर दिया। जहां बाकी बच्चे खेलकूद में समय बिताते, वह होटल में मदद करता और बाकी समय किताबों में डूबा रहता।
जगदीश समझाता – “खाना पेट भरने के लिए है राहुल, लेकिन असली भूख इंसान के सपनों की होती है। अगर सपने पूरे करना चाहता है तो मेहनत करनी होगी।”
राहुल ने यह बात गांठ बांध ली।
धीरे-धीरे उसने हाई स्कूल पास किया, फिर कॉलेज गया। पढ़ाई के साथ-साथ होटल में भी काम करता रहा।
आज जो लोग उसे कूड़े से खाना उठाते देखते थे, वही लोग अब इज्जत से सलाम करने लगे।
कई साल बाद राहुल ने पढ़ाई पूरी की, नौकरी के लिए शहर से बाहर गया। जाते वक्त जगदीश से कहा –
“साहब, अगर उस दिन आपने मुझे अंदर बुलाकर खाना ना खिलाया होता तो शायद मैं आज जिंदा भी ना रहता। आप मेरे लिए सिर्फ मालिक नहीं, पिता जैसे हैं।”
जगदीश की आंखें भर आईं। सिर पर हाथ रखते हुए बोले –
“बेटा, मैंने सिर्फ तुझे मौका दिया था। लेकिन तूने उस मौके को पहचान कर मेहनत की। यही तेरी जीत है।”
वक्त ने करवट ली। कुछ साल बाद राहुल एक बड़ी कंपनी में अधिकारी बन गया। जब वह अपने गांव लौटा, सबसे पहले उसी होटल गया। होटल अब भी वहीं था, लेकिन जगदीश बूढ़े हो चुके थे।
राहुल ने उन्हें गले लगाकर कहा –
“साहब, मैं आज जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। अब मेरी बारी है।”
राहुल ने होटल को बड़ा बनाने का खर्च उठाया, कई गरीब बच्चों के लिए पढ़ाई का इंतजाम करवाया।
मुस्कुराकर कहा –
“उस दिन आपने एक भूखे बच्चे को खाना दिया था। लेकिन दरअसल आपने उसकी जिंदगी बदल दी थी। अब मैं चाहता हूं कि और बच्चों की भी बदले।”
जगदीश की आंखों से आंसू बह निकले। धीमे स्वर में बोले –
“बेटा, यही असली इंसानियत है।”
इस तरह एक भूखे बच्चे की पुकार से शुरू हुई कहानी इंसानियत और सपनों की मिसाल बन गई।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि यहीं से शुरू होता है नया सबक।
एक होटल मालिक ने उस दिन सिर्फ एक भूखे बच्चे को खाना खिलाया था, मगर उस छोटे से कदम ने एक जिंदगी बदल दी।
फिर वही बच्चा बड़ा होकर अनगिनत बच्चों की जिंदगियां बदलने का जरिया बन गया।
कभी-कभी इंसान को लगता है कि उसके पास देने के लिए कुछ नहीं है।
लेकिन सच तो यह है कि जरा सी दया, एक छोटी सी मदद किसी की किस्मत की सबसे बड़ी चाबी बन सकती है।
अगर जगदीश उस दिन चुप रहता और राहुल को डांट कर भगा देता, तो शायद हम सब यह कहानी कभी ना सुन पाते।
याद रखिए –
भूख सिर्फ पेट की नहीं होती, भूख सपनों की भी होती है।
और जब कोई इंसान किसी और की भूख मिटाता है, तो असल में वह इंसानियत का सबसे बड़ा कर्ज चुका रहा होता है।
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि अच्छाई का एक छोटा सा कदम आने वाले वक्त में इंसानियत की सबसे बड़ी मिसाल बन सकता है।
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