कहानी: आरोही और राजू का सफर
प्रारंभ
दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल के बाहर शाम का वक्त था। आसमान पर हल्की सी जर्दी छाई हुई थी और मरीजों की आमद और रफ्त का सिलसिला जारी था। एंबुलेंस की तेज आवाजें, दौड़ते हुए नर्सें, परेशान चेहरे, और डॉक्टरों की सफेद कोटें, हर चीज अपने निजाम में मशरूफ थी। उसी माहौल में अस्पताल के न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट से डॉक्टर आरोही वर्मा निकल रही थी।
वह एक खुशखुल्क, पुर एतमाद और मेहनती खातून थी जो अपनी काबिलियत की बुनियाद पर अस्पताल की आला डॉक्टरों में शुमार होती थी। आज का दिन भी मशरूफ गुजरा था। आरोही ने एक आखिरी मरीज को चेक किया और नर्स से जरूरी हिदायत देकर बाहर की राह ली। उसके चेहरे पर थकन तो थी लेकिन साथ ही वह इत्मीनान भी था जो सिर्फ फर्ज की अदा करने के बाद मिलता है।
अचानक मुलाकात
जैसे ही वह अस्पताल के दरवाजे के करीब पहुंची, उसके कदम रुक गए। सामने अस्पताल के दाखिली गेट के पास खड़ा एक शख्स उसका इंतजार कर रहा था। वह शख्स बोसीदा कपड़ों में मलबूस था। कमीज के कॉलर फटे हुए थे। पतलून पर धूल जमी हुई थी और पांव में पुराने जूते जिनकी एड़ियां लगभग खत्म हो चुकी थीं। उसके हाथ में एक सादा सा गुलदस्ता था।
ना महंगे फूल, ना रिबन। बस सफेद गुलाबों की कुछ कलियां एक अखबारी कागज में लिपटी हुई। उसकी निगाहें सीधी आरोही की तरफ थीं। जैसे बरसों से उसी लम्हे का इंतजार कर रहा हो। आरोही ने उसे देखा, लेकिन पहचानने में कुछ वक्त लगा। फिर वह चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा।
अतीत की यादें
लेकिन उसने फौरन नजरें चुरा लीं। जैसे कोई गैर अहम आदमी राह रोक रहा हो। तभी वह शख्स बोला, “आवाज मध्यम थी लेकिन दिल से निकली हुई। आरोही, मैं राजू हूं। क्या तुम मुझे पहचानती हो?” आरोही के चेहरे पर लम्हे भर के लिए हैरानी आई। जैसे ज़हन में किसी धुंधली याद की खिड़की खुली हो।
लेकिन उसने फौरन चेहरा मोड़ा और साथ खड़े अपने डॉक्टर साथियों की तरफ मुतवजे हो गई। डॉक्टर विजय और डॉक्टर अनूप, जो उसी के साथ घर जाने वाले थे, उसके कंधे पर झुक कर बोले, “कौन है यह?” आरोही ने हंसते हुए कहा, “कोई पुराना जानने वाला लगता है। लेकिन अब शायद भिखारी बन चुका है।”
प्रस्ताव और अस्वीकार
राजू के होंठ कांपे, मगर वह आगे बढ़ा। उसने हाथ में मौजूद गुलदस्ता बुलंद किया और गहरी सांस लेकर बोला, “मैं तुमसे शादी का रिश्ता मांगने आया हूं, आरोही।” उसकी आवाज में कपकपाहट थी। मगर अल्फाज मजबूत थे। जैसे बरसों का हौसला जमा किया हो।
अस्पताल के दाखिली दरवाजे पर कुछ लोगों ने सुना और रुक गए। नर्सें, वार्ड बॉयज, यहां तक कि कुछ मरीजों के रिश्तेदार भी मुतवज्जे हो गए। माहौल में एकदम संजीदगी आ गई। आरोही का चेहरा सुर्ख हो गया। गुस्से से नहीं, ना शर्मिंदगी से, बल्कि हकारत से।
वह तेज आवाज में हंसी और बोली, “शादी का रिश्ता तुम एक मैट्रिक फेल लड़का एक न्यूरोलॉजिस्ट से शादी करेगा? ख्वाब में भी मत सोचना।” यह जुमला जैसे हवा में तीर बनकर राजू के सीने में धंस गया।
समाज की प्रतिक्रिया
लोगों की निगाहें बदल गईं। कुछ ने हंसी दबाई, कुछ ने सर हिलाया और कुछ ने मोबाइल निकालकर वीडियो बनाना शुरू कर दिया। राजू की आंखों में दुख साफ झलक रहा था। लेकिन उसने सर झुका लिया। उसके चेहरे पर कोई तासुर ना रहा। ना शिकायत, ना गिला, सिर्फ खामोशी।
उस खामोशी ने सबको और भी गैर मुतमिन कर दिया। कुछ लम्हों के लिए माहौल मुंजमिद हो गया। सिर्फ हवा की हल्की सी सरसराहट और राजू की सांसों की गूंज बाकी थी। आरोही तेज कदमों से आगे बढ़ी और अपनी कार में जा बैठी। गाड़ी स्टार्ट की और बिना एक बार पीछे देखे रवाना हो गई।
राजू की स्थिति
राजू वहीं खड़ा रहा। हाथ में गुलदस्ता, गर्द आलूद चेहरा, आंखों में दर्द और दिल में वह सवाल जो शायद अब कभी ना पूछा जा सके। अस्पताल के दरवाजे पर जैसे वक्त थम गया हो। राजू अब भी वहीं खड़ा था। हाथ में वही सादा सा गुलदस्ता। चेहरे पर खामोशी और आंखों में एक ऐसी उम्मीद जो लम्हा बलम्हा दम तोड़ रही थी।
आसपास खड़े लोग सरगोशियां कर रहे थे। कुछ के चेहरों पर हंसी थी। कुछ के तासुरात तंजिया थे और कुछ के दिलों में सिर्फ तजसुस। सबकी निगाहें उस शख्स पर थीं जिसने हिम्मत करके एक मशहूर न्यूरोलॉजिस्ट को सादा लिबास में शादी का पैगाम दिया था।
आरोही का अंतर्मंथन
आरोही के कदम तेज हो चुके थे। लेकिन अचानक वह मुड़ी जैसे कुछ कहना बाकी हो। उसने अपने डॉक्टर दोस्तों की तरफ देखा, जो मुस्कुराहट दबा नहीं पा रहे थे। फिर एक कदम आगे बढ़कर राजू के करीब आकर रुक गई।
उसने एक लम्हे के लिए उसे सरतापा देखा। फटे जूते, मैले कपड़े, धुंधली आंखें। फिर उसने बुलंद आवाज में कहा ताकि सब सुने, “यही था मेरा बचपन का दोस्त, जिसके साथ मैं आम के दरख्त के नीचे खेलती थी, जो मेरे घर से पानी पीने आया करता था और आज यह फकीर बनकर अस्पताल के दरवाजे पर मुझे प्रपोज करने आ गया। वाह राजू, तुम में हिम्मत तो बहुत है। मगर तुम्हें शर्म जरा भी नहीं।”
राजू की खामोशी
लोगों में दबी-दबी हंसी सुनाई दी। नर्सें एक-दूसरे को कोहनियां मारने लगीं। कुछ नौजवानों ने राजू की वीडियो बनाना शुरू कर दी। राजू के होंठ कपकपाए, मगर उसने कुछ नहीं कहा। उसने वह गुलदस्ता थामा हुआ था जैसे वही उसका आखिरी सहारा हो।
तभी आरोही ने एक कदम और आगे बढ़ाया और एक झटके से राजू के कंधे पर हाथ मारा। निहायत हकारत से जैसे कोई चीज रास्ते से हटाई जाती हो। “हट जाओ रास्ते से। तुम जैसे लोग ख्वाब देखना छोड़ दें तो बेहतर है,” वह गरज गई।
राजू का गिरना
यह धक्का सिर्फ जिस्म पर नहीं, राजू की रूह पर लगा। उसका वजूद डगमगाया। कदम पीछे लड़खड़ाए और वह अस्पताल के दाखिली रास्ते के फर्श पर गिर पड़ा। गुलदस्ता उसके हाथ से छूट कर जमीन पर बिखर गया। सफेद गुलाबों की पंखुड़ियां फुटपाथ पर बिखरती चली गईं, और कुछ पंखुड़ियां राजू के चेहरे से आकर चिपक गईं।
जैसे उसकी खामोशी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही हो। लोगों ने या तो हंसी उड़ाई या नजरें फेर लीं। कोई आगे नहीं आया। राजू खुद संभलने की कोशिश करता रहा। अपनी एड़ियां जमाता, कपड़ों से गर्द झाड़ता, लेकिन उसके हाथ कांप रहे थे।
राजू का दर्द
जिस्म तो संभल गया, मगर दिल वह तो पूरी तरह टूट चुका था। चेहरा मिट्टी से अटा हुआ था। लेकिन उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। सिर्फ एक अजीब सी चमक जैसे किसी ने अंदर कुछ जला दिया हो। वह कोई आम शर्मिंदगी नहीं थी, बल्कि वह जज्बा था जो बरसों के ताल्लुक, बचपन की दोस्ती और मासूम मोहब्बत के जवाब में मिली रुसवाई से जन्म लेता है।
आरोही ने आखिरी बार तंजिया निगाह डाली और आगे बढ़ गई। डॉक्टर विजय ने भी पीछे मुड़कर राजू को देखा। मगर एक लम्हे के लिए भी रुका नहीं। उनके लिए वह सिर्फ एक नाकाम आशिक था जो एक बुलंद मकाम पर फज लड़की के सामने ख्वाब देखने की गलती कर बैठा था।
राजू का अकेलापन
गाड़ी का दरवाजा बंद हुआ। इंजन की आवाज गूंजी और आरोही की कार अस्पताल से बाहर निकल गई। राजू वहीं खड़ा रहा। आसपास के शोर में गुम, लेकिन उसके अंदर खामोशी की गूंज थी। रफ्ता-रफ्ता लोग भी वहां से हट गए। वीडियो बनाने वाले अपनी पोस्ट अपलोड करके आगे बढ़ गए।
लेकिन राजू वहीं बैठा रहा। उसकी निगाहें अब भी अस्पताल की उस शीशे की दीवार पर जमी हुई थीं, जहां से कुछ लम्हे पहले आरोही बाहर निकली थी। आखिरकार उसने आहिस्ता से सर उठाया। जमीन पर बिखरे गुलाबों को देखा। उन्हें हाथ में लिया। धीरे से सीने से लगाया और एक सर्द आह भरकर वहां से चल पड़ा।
नई शुरुआत
ना कोई शिकायत, ना बद्दुआ। सिर्फ खामोशी। और उस खामोशी में एक नई शुरुआत का बीज बो दिया गया। इतवार की सुबह का वक्त था। धूप अभी पूरी तरह फैली नहीं थी। लेकिन दिल्ली के मगरबी इलाके की सब्जी मंडी में काफी चहल-पहल हो चुकी थी।
आरोही वर्मा, जो आम दिनों में अपने अस्पताल की मशगूलियत में घिरी रहती थी, आज छुट्टी का फायदा उठाते हुए खुद सब्जी लेने निकली थी। उसने सफेद रंग की सादा साड़ी पहनी थी। बालों को क्लिप से समेटा हुआ था और कंधे पर एक कपड़े का माहौल दोस्त थैला टंगा हुआ था।
सब्जी मंडी में
मंडी की गलियों में हर तरफ सब्जी फरोशों की आवाजें गूंज रही थीं। आलू प्याज 10 के 3 किलो भिंडी बिल्कुल ताजा। आरोही बाजार की रौनक में खोई हुई थी। मगर उसके दिलो दिमाग में कल का वाकया बार-बार उभर रहा था।
राजू का चेहरा, उसकी खामोश निगाहें और जमीन पर बिखरा गुलदस्ता हर मंजर जैसे बार-बार जहन में रीप्ले हो रहा हो। वह ठेले वाले से टमाटर तलवा रही थी कि एक मामूस आवाज ने उसे चौंका दिया। “अरे आरोही बेटा, आज खुद सब्जी खरीदने आई हो?”
सरोज चाची की सलाह
आरोही ने पलट कर देखा। सामने सरोज चाची थीं। वही जिनका घर आरोही के बचपन के घर से दो मकान छोड़कर था। सफेद बालों वाली, हमेशा साड़ी के पल्लू में चाबी लटकाए और मोहल्ले की हर खबर रखने वाली खातून।
आरोही ने हल्का सा मुस्कुराकर कहा, “हां चाची, आज छुट्टी है। सोचा सब्जियां खुद ही ले लूं।” सरोज चाची ने सब्जियों पर एक नजर डाली और हंसते हुए बोलीं, “बेटा, भिंडी बहुत महंगी हो गई है। लेकिन आजकल शहर में सब कुछ ही अजीब हो रहा है। मसलन, कल अस्पताल के बाहर क्या हुआ था? सुना है ना?”
कल का वाकया
आरोही का दिल धड़कने लगा। उसने संभलकर कहा, “क्या हुआ था?” चाची ने भौहे चढ़ाते हुए कहा, “अरे वही जो सब वीडियो में देखा। एक बोसीदा कपड़ों वाला लड़का हाथ में गुलदस्ता लिए तुम्हें प्रपोज कर रहा था।”
आरोही ने बेनियाजी से हंसते हुए कहा, “हां चाची, बस कोई बेकार सा लड़का था। मैट्रिक पास भी नहीं लगता था। मैंने इंकार कर दिया।”
राजू की पहचान
सरोज चाची का चेहरा एक लम्हे के लिए संजीदा हो गया। उन्होंने आरोही के कंधे पर हाथ रखा और आहिस्ता से कहा, “बेटा, वह कोई आम लड़का नहीं था। वह राजू था। तुम्हारा बचपन का पड़ोसी।”
आरोही की हंसी एकदम रुक गई। आंखें फैल गईं। “कौन राजू?” “अरे वही राजू, जिसके साथ तुम आम के पेड़ के नीचे खेलती थी। वही जिसका पिता राशन डिपो में काम करता था।”
आरोही के लबों पर बेयकीनी छा गई। “नहीं चाची, वह तो स्कूल भी छोड़ गया था ना।” चाची ने पुरोखार लहजे में कहा, “नहीं बेटा, जब उसके वालिद का इंतकाल हुआ तो वह अपने मामू के साथ देहरादून चला गया। वहीं एक आर्मी स्कूल में दाखिला लिया। फिर एनडीए, फिर आईएमए। आज वह भारतीय फौज का ब्रिगेडियर है। कल जो तुमने देखा, वह उसकी वर्दी नहीं, उसकी आजमाइश थी।”
आत्ममंथन
आरोही के हाथ में पकड़ा थैला लरजने लगा। वह चुप हो गई। इर्दगिर्द की आवाजें जैसे मध्यम पड़ने लगीं। सिर्फ सरोज चाची की आवाज गूंज रही थी। “वह भष बदलकर आया था। शायद यह जानना चाहता था कि तुम आज भी उसे दिल से पहचानती हो या सिर्फ कपड़ों से।”
इस जुमले ने आरोही की रूह को चीर दिया। उसे लगा जैसे कोई आईना उसके सामने रख दिया गया हो और उसमें वह एक गुरूरजदा जाहिरी दिखावे में खोई लड़की नजर आ रही थी, जो अपने अतीत की मोहब्बत को उसके लिबास से परख बैठी।
राजू के प्रति खेद
सरोज चाची ने नरमी से कहा, “बेटा, कभी-कभी लोग हमारी जिंदगी में आईना बनकर आते हैं और जब हम उन्हें पहचानने से इंकार करते हैं, तो दरअसल हम अपने सच से भागते हैं।” आरोही की आंखें नम हो गईं। उसने सरोज चाची का हाथ थामा, मगर जुबान से कुछ ना कह सकी।
सब्जियों का बाजार अब वैसा ना लग रहा था जैसा चंद मिनट पहले था। वह हर सब्जी वाले की आवाज, हर हंसी, हर शोर में राजू की वही खामोश निगाहें तलाश कर रही थी। सच उसके सामने खड़ा था और वह पहली बार नजरें नहीं चुरा पा रही थी।
घर लौटना
आरोही सब्जियों की थैली हाथ में लिए घर वापस आई तो उसके कदमों में वजन था। जैसे उसका हर कदम उसकी सोचों की गहराई में डूबा हो। दरवाजा बंद करते ही वह सीधा किचन में गई। सब्जियां सिंक में रखी और कमर सीधी किए बगैर सीधे लॉन्ज की तरफ चल दी।
उसकी आंखें बेजान, दिल बोझल और दिमाग भरा हुआ था। भरा हुआ सवालों, शर्मिंदगी और एहसास से। वह सोफे पर बैठ गई और अपना चेहरा दोनों हाथों में छुपा लिया। कुछ पल वैसे ही बीत गए। उसकी मां शोभा वर्मा, जो सहन में कपड़े तय कर रही थी, आरोही को इस तरह बेहरकत देखकर चौंक गई।
मां का सहारा
वह अंदर आई और नरम लहजे में पूछी, “बेटा, खैरियत है? सब्जी मंडी से थक कर आई हो?” आरोही ने आहिस्ता से सर उठाया। “मां, मुझे तुमसे कुछ पूछना है।” शोभा साथ आकर बैठते हुए बोलीं, “पूछो बेटा, क्या बात है?”
आरोही की आवाज में कुछ टूटा हुआ था। “राजू याद है? हमारा पड़ोसी, बचपन में जिसके साथ खेलते थे।” शोभा हल्का सा मुस्कुराई। “हां हां, वह दुबला पतला लड़का जो तुम्हारे साथ आम के दरख्त के नीचे बैठकर स्कूल का होमवर्क करता था। बहुत खामोश बच्चा था। क्यों? अचानक उसे क्यों याद किया तुमने?”
आरोही ने एक लम्हे के लिए नजरें चुराई। फिर आहिस्ता से बोली, “मां, कल अस्पताल के बाहर एक बोसीदा कपड़ों वाला शख्स मुझे मिला। उसने कहा कि वह राजू है। उसने मुझे प्रपोज किया। लेकिन मैंने उसका मजाक उड़ा दिया। धक्का देकर अस्पताल के दरवाजे से हटा दिया।”
मां की सलाह
शोभा का चेहरा बदल गया। “क्या तुमने वाकई ऐसा किया?” आरोही की आंखों से आंसू बहने लगे। “मां, उस वक्त मैंने सोचा वह कोई बेकार नाकाम शख्स है। उसके हुलिए से लगा जैसे सड़क पर रहने वाला हो। लेकिन आज मंडी में सरोज चाची ने बताया कि वह कोई आम शख्स नहीं। वह ब्रिगेडियर है। फौज में है मां और कल वह भष बदल कर आया था। शायद मेरा इम्तिहान लेने।”
शोभा ने गहरी सांस ली। फिर अब तुम क्या करोगी? आरोही ने नजरें उठाई। आंखों में नमी, मगर आवाज में अजम्म था। “अब मुझे सच्चाई जाननी है मां। मुझे मालूम करना है राजू आज कहां है और मैं उससे माफी मांगना चाहती हूं। दिल से।”
माफी की तलाश
मां ने उसके सर पर हाथ फेरा। “अगर तुम्हारे दिल में सच्चाई है तो शायद वह तुम्हें माफ भी कर दे। लेकिन याद रखो, हर माफी का मतलब यह नहीं कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए। कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो भर तो जाते हैं मगर निशान छोड़ जाते हैं।”
आरोही ने सर हिलाया और उस रात के अंधेरे में उसका जमीर पूरी तरह जाग चुका था।
नई सुबह
अगली सुबह आरोही ने जल्दी उठने की कोशिश की, मगर नींद जैसे आंखों से रूठ गई थी। रात भर करवटें बदलती रही। कभी अपने कमरे की छत को घूरती, कभी खिड़की से बाहर आसमान को तकती जैसे वहां कहीं उसका मांझी उसे घूर रहा हो। दिल में एक खलिश थी।
एक बेकरारी जो सोने नहीं देती। जब वह आखिरकार बिस्तर से निकली, सूरज निकल चुका था। लेकिन उसके दिल पर एक अंधेरा साया अभी तक छाया हुआ था। आज उसने अस्पताल जाने की तैयारी नहीं की। उसने खुद ही फोन करके एक दिन की रुखसत ली।
दिल में यह फैसला कर लिया था कि अब महज दूसरों की बातों पर कनारत नहीं करेगी। अब वह खुद राजू को तलाश करेगी। उससे मिलेगी और सच्चाई को अपनी आंखों से देखेगी।
राजू की खोज
आरोही ने सादा शलवार कमीज पहनी, बाल समेटे और खुद को एक आम सी लड़की की तरह तैयार किया। ना कोई ज्वेलरी, ना लिपस्टिक, सिर्फ एक साफ दिल और शर्मिंदा निगाहें। वह ऑंटों में बैठकर पुराने मोहल्ले की तरफ रवाना हुई।
यह वही इलाका था जहां उसने बचपन गुजारा था। गली के नुक्कड़ पर वह आम का दरख्त अब भी मौजूद था। मगर अब उसकी छांव कुछ अधूरी सी लगती थी। शायद वक्त के साथ उस दरख्त ने भी बहुत कुछ खो दिया था।
राजू का घर
कुछ घर नए रंगों में रंगे जा चुके थे। कुछ वैसे के वैसे थे। पुरानी यादों की तरह खामोश। आरोही आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखती राजू के पुराने घर के सामने जा पहुंची। वही घर जो कभी छोटा सा पुराना सा और मिट्टी की दीवारों वाला होता था। अब वह कदरे नया लग रहा था।
बाहरी दीवार पर हल्के नीले रंग का पेंट था। खिड़कियों पर ताजा पर्दे और गेट के साथ एक छोटा सा नीम का दरख्त लगाया गया था। जो उसकी गैर मौजूदगी के दौरान जैसे तन्हा खड़ा रहा था। मगर गेट बंद था।
दरवाजे पर दस्तक
आरोही ने एक लम्हा दरवाजे को देखा जैसे कोई सवाल किए जा रहा हो। अंदर सन्नाटा था। ना कोई कदमों की आहट, ना ही किसी बर्तन की खनक। एक पल के लिए वह सोचने लगी। क्या कोय क्या वह राजू को कभी देख भी पाएगी? क्या वक्त हमेशा के लिए उससे छीन चुका है?
तभी सामने के घर का दरवाजा खुला और एक जईफ शख्स लकड़ी की छड़ी के सहारे बाहर आए। उनकी आंखों में उम्र की रोशनी और तजुर्बे की धुंध थी। वह थे महेश चाचा।
महेश चाचा से मुलाकात
आरोही ने एहतराम से हाथ जोड़े। “नमस्ते चाचा जी। पहचाना मुझे?” महेश चाचा ने आंखें सिकोड़ कर देखा। फिर मुस्कुरा दिए। “अरे बेटा आरोही, तुम तो डॉक्टर बन गई थी ना। इतने सालों बाद कैसे आना हुआ?”
आरोही ने हिचकिचाई। फिर आहिस्ता से बोली, “चाचा जी, मुझे राजू से मिलना है। वह यहां है?” चाचा ने सर हिलाते हुए कहा, “अभी तो नहीं बेटा। वह दो दिन से शहर से बाहर है। लेकिन अगले हफ्ते वापस आ रहा है।”
आरोही के चेहरे पर उम्मीद जगी। “वापस कब?” चाचा ने राजदाराना अंदाज में कहा, “राजू अब मेजर जनरल बन चुका है। उसकी प्रमोशन की तकरीब है। हलफबरदारी के बाद वह कुछ दिन यहां रुकेगा।”
राजू की सफलता
आरोही की आंखें खुली की खुली रह गईं। उसने बेसाख्ता कहा, “मेजर जनरल?” चाचा ने फक्र से हंसते हुए कहा, “हां बेटा, हमारा राजू अब पूरी फौज का मान है। वही जो तुम्हारे साथ खेलता था। लेकिन उसने अपनी खामोशी में वह कर दिखाया जो कई शोर वाले भी नहीं कर पाते।”
आरोही खामोश हो गई। अंदर से कोई चीज टूट रही थी। शायद गुरूर, शायद खुदफरेबी। शायद वह पछतावा जो अब हद से बढ़ चुका था। “चाचा, क्या वह मुझसे मिलेगा?”
महेश चाचा ने थोड़ा सोच कर कहा, “नहीं जानता बेटा। उसके दिल में क्या है? लेकिन तुम यहां रहो। शायद वह आकर खुद जवाब दे दे।”
राजू के दरवाजे पर
आरोही ने बंद दरवाजे को एक बार फिर देखा। दिल जैसे वहीं अटक गया हो। राजू का घर उसे करीब लगा, मगर फिर भी बहुत दूर। बिल्कुल उसके दिल की तरह। अगली सुबह आरोही मामूल के मुताबिक नाश्ते की मेज पर आकर बैठी।
मगर उसके हाथ थाली में रखे नारियल के लड्डुओं तक ना बढ़ सके। चाय का कप भी ठंडा हो चुका था और उसकी नजरें टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थीं। टीवी पर लाइव नशरियात जारी थी। दिल्ली छावनी में आज एक खुसूसी तकरीब भारतीय फौज के नए मेजर जनरल्स की हलफ बरदारी बराह ए रास्त दिखाई जा रही है।
राजू का नाम
आरोही का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा जैसे उसका दिल जानता हो कि आज वह लम्हा आने वाला है जब हकीकत उसके सामने आईना बनकर खड़ी हो जाएगी। टीवी स्क्रीन पर सैकड़ों फौजी अफसरान वर्दी में कतार से खड़े थे। पृष्ठभूमि में भारतीय परचम लहरा रहा था।
एक के बाद एक नाम पुकारा जा रहा था और फिर मेजर जनरल राजीव प्रताप सिंह आगे आए। कैमरा झूम हुआ। एक बांकार पुर एतमाद चेहरा स्क्रीन पर नमूदार हुआ। राजू, आरोही के हाथों से चाय का कप छूटते-छूटते बचा। वह सांस लेना भूल गई।
यही वह शख्स था जिसे उसने सिर्फ जाहिरी कपड़ों से जाना। बिना सोचे समझे नीचा दिखाया और सबके सामने जलील किया। मां किचन से निकलकर लॉन्ज में आई और अपनी बेटी को नम आंखों के साथ साकेत देखकर चौंक गई।
माफी की तलाश
“क्या हुआ आरोही?” आरोही ने कांपती आवाज में कहा, “मां, वह राजू टीवी पर मेजर जनरल।” शोभा ने स्क्रीन की तरफ देखा और फिर बेटी के आंसुओं को वह खामोशी से आरोही के पास बैठकर चौंक गई।
“बेटा, कभी-कभी हम जो खो देते हैं वह हमारी आंखों के सामने होता है। लेकिन हम उसे पहचान नहीं पाते।” आरोही ने अपनी मां के कंधे से लगकर आहिस्ता से कहा, “मां, मैंने बहुत बड़ी गलती की है।”
राजू से मुलाकात
मां ने उसे थपथपाया। “हां बेटा, शायद की है। लेकिन अब यह तुम पर है कि तुम अपने पछतावे को अमल में बदलो या सारी उम्र बोझ बनाए रखो।” टीवी पर राजू ने हलफ लिया और आरोही की आंखों से एक और आंसू बह निकला।
चंद दिन बाद आरोही हर रोज राजू के दरवाजे के सामने से गुजरती। कभी किसी आहट की तलाश में, कभी किसी साए की झलक में। उसके दिल में एक अजब सी बेकरारी थी। वह वक्त, वह मंजर, वह शर्मिंदगी अब भी उसके दिल को काट रही थी।
राजू की पहचान
वह चाहती थी कि राजू से एक बार बात हो जाए, कि वह उसके सामने खड़ी हो। आंखों में आंखें डालकर बस इतना कह सके, “माफ कर दो राजू।” फिर वह दिन आ गया। हफ्ते की दोपहर थी। सूरज पूरी आबोताब से चमक रहा था। गांव की सड़कें धूप में तप रही थीं।
पुरानी गलियों में जैसे कुछ नया होने वाला हो। अचानक पूरे मोहल्ले में हलचल मच गई। बच्चे दौड़ते हुए गलियों में चीखने लगे। “गाड़ी! गाड़ी! बड़ी गाड़ी आई है!” दाब औरतें छतों से झांकने लगीं। मर्द दरवाजों के बाहर आ खड़े हुए।
राजू की गाड़ी
एक सरख रंग की चमचमाती फरारी गाड़ी गांव की कच्ची गली में दाखिल हुई। उसकी रफ्तार धीमी थी। लेकिन उसकी मौजूदगी सब पर भारी थी। गाड़ी के अगले हिस्से पर छोटा सा भारतीय परचम लहरा रहा था।
गाड़ी जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, लोग खुद-ब-खुद दोनों जानिब होकर रास्ता बनाने लगे। सबकी निगाहें एक ही जानिब थीं। गाड़ी के दरवाजे पर जब गाड़ी आरोही के घर के सामने रुकी, उसकी सांसे बंद हो गईं।
राजू का आगमन
वह सामने के सहन में खड़ी थी। साफ साड़ी पहने, बालों को जुड़े में बांधे और नजरें सड़क पर मरकूज़। दरवाजा खुला और जैसे वक्त एक लम्हे के लिए रुक गया। गाड़ी से जो शख्स उतरा, वह वर्दी में मलबूस था।
सजी संवरी फौजी वर्दी, कंधे पर चमकते हुए दो सितारे, सीने पर मेडल्स और पेशानी पर संजीदगी का हाला। वह था राजू। अब मेजर जनरल राजीव प्रताप सिंह। लोगों के चेहरों पर हैरत, फक्र और तजसुस के तासुर दौड़ने लगे।
राजू का बदलाव
यही है वह राजू जो कभी फटे कपड़ों में घूमता था। “कमाल कर दिया लड़के ने। बचपन में इतना खामोश था और आज देखो, भारत का जनरल बन गया।” आरोही का दिल जैसे सीने में थम गया हो। उसके हाथ लरजने लगे। वह नजरें नहीं हटा पा रही थी।
राजू की चाल, उसकी आंखों की संजीदगी, वह सब कुछ बदल चुका था। सिवाय उस खामोशी के जो अब भी उसके अंदर बोलती थी। राजू ने गाड़ी से उतरकर गर्दो नवाह का जायजा लिया और फिर कदम कदम चलता।
राजू की नजरें
लोगों को हल्का सा सलाम करता आरोही के सामने आ खड़ा हुआ। दोनों की नजरें मिल गईं। बरसों की यादें, तकलीफें, खुशियां सब एक पल में एक दूसरे के चेहरों पर दौड़ने लगी। भीड़ बिल्कुल खामोश हो गई।
जैसे पूरा गांव एक तमाशाई बन गया हो। मर्द, औरतें, बच्चे सबकी नजरें आरोही और राजू पर टिकी हुई थीं। तभी राजू ने आहिस्तगी से सर झुकाया और आरोही से मुखातिब हुआ। “नमस्ते आरोही।”
राजू का संदेश
आरोही का गला सूख चुका था। उसके होठ कपकपा रहे थे। इससे पहले कि वह कुछ बोलती, राजू ने नरमी मगर मजबूत लहजे में कहा, “उस दिन जो कुछ हुआ, मैं भूला नहीं। लेकिन मैं आया इसलिए था कि तुम्हें इज्जत से याद रख सकूं। तुम्हारी सच्चाई जान सकूं कि अगर मैं वर्दी के बिना सामने आऊं तो तुम मुझे सिर्फ मेरी पहचान से पहचानो ना कि मेरे लिबास से।”
आरोही की आंखें भर आईं। उसे कुछ कहना था, मगर अल्फाज साथ नहीं दे रहे थे। राजू ने गहरी सांस ली और कहा, “आज तुम्हारे सामने एक जनरल खड़ा है। मगर उस दिन तुम्हारे सामने तुम्हारा बचपन का दोस्त राजू खड़ा था और तुमने उसे नहीं पहचाना, बल्कि उसका मजाक उड़ाया।”
माफी की मांग
भीड़ में दबी-दबी सरगोशियां होने लगीं। कुछ लोग नजरें झुका गए। आरोही ने आंखों में नमी लिए। धीमी आवाज में कहा, “राजू, मैं शर्मिंदा हूं।” राजू ने एक लम्हे को उसकी तरफ देखा। फिर नजरें मोड़ ली।
“शर्मिंदगी का बोझ तुम्हारे दिल पर रहेगा, आरोही। लेकिन मेरा दिल अब वही नहीं रहा।” फिर उसने लम्हा भर तवकुफ किया। “याद रखो, कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो भर तो जाते हैं, मगर निशान छोड़ जाते हैं।”
राजू का निर्णय
आरोही का दिल जैसे जमीन में धंस गया। “क्या हम फिर कभी दोस्त भी नहीं बन सकते?” राजू ने थोड़ी देर सोचा। फिर धीमे लहजे में बोला, “दोस्ती वहां निभती है जहां दिल पहचाने जाते हैं। शक्लें नहीं।”
आरोही ने कपकपाती आवाज में कहा, “जानती हूं और शायद वही सब कर मेरे लिए सबसे कीमती तोहफा है, राजू।” राजू ने हाथ बढ़ाया, रश्मी अंदाज में जैसे बरसों की दीवार एक छोटे से मुसाफे से गिर जाए।
आरोही ने वह हाथ थाम लिया। वह लम्हा जो कभी रुसवाई से जुड़ा था, अब एक नया बाप बन चुका था। खामोश, बाखार और सच्चाई से लबरेज।
निष्कर्ष
इस कहानी ने हमें यह सिखाया कि इंसानियत, सच्चाई और प्यार की पहचान केवल बाहरी लिबास से नहीं होती, बल्कि दिल की गहराई से होती है। कभी-कभी हमें अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर दूसरों की सच्चाई को समझने की जरूरत होती है। राजू और आरोही की कहानी हमें यह भी बताती है कि सच्चे रिश्ते समय और हालात के बावजूद हमेशा जिंदा रहते हैं।
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