एक गरीब वेटर दो यतीम बच्चों को फ्री में खाना खिलाता था , 25 साल के बाद जब वो लौटे , तो जो हुआ उसने

नेकी का पेड़: बहादुर सिंह की कहानी

भूमिका

दिल्ली की भागती-दौड़ती ज़िंदगी में, जहाँ हर कोई अपनी किस्मत बदलने के लिए जूझ रहा है, वहाँ एक छोटी सी नेकी की कहानी 25 साल बाद एक विशाल छायादार पेड़ बनकर सामने आती है। यह कहानी है बहादुर सिंह की, एक साधारण वेटर, जिसकी दयालुता ने दो अनाथ बच्चों की ज़िंदगी बदल दी। यह कहानी हमें सिखाती है कि अच्छाई कभी बेकार नहीं जाती, और वक्त आने पर वही नेकी हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाती है।

पहला अध्याय: करोल बाग की गलियों में

दिल्ली के करोल बाग इलाके में शेर पंजाब नामक एक मशहूर रेस्टोरेंट था। यहाँ के छोले-भटूरे और बटर चिकन का स्वाद दूर-दूर तक मशहूर था। इसी रेस्टोरेंट में बहादुर सिंह पिछले 15 सालों से वेटर का काम करते थे। उनकी उम्र लगभग 35-40 साल थी। मजबूत कद-काठी, चेहरे पर मेहनत की थकान, लेकिन आँखों में एक अजीब सी चमक और मुस्कान हमेशा रहती थी।

बहादुर सिंह का घर पास की ही बस्ती में था। दो कमरों का किराए का मकान, जहाँ उनकी बूढ़ी माँ और बेटी मीना रहती थी। पत्नी का देहांत दस साल पहले हो गया था। बहादुर सिंह की दुनिया इसी घर और रेस्टोरेंट के बीच सिमटी थी। वह बेटी को पढ़ाने के लिए दिन-रात मेहनत करते थे। उनकी तनख्वाह ज़्यादा नहीं थी, लेकिन रेस्टोरेंट के मालिक गुरबचन सिंह उनकी ईमानदारी की बहुत कदर करते थे।

दूसरा अध्याय: नेकी का बीज

रेस्टोरेंट में हर रात बचा हुआ खाना इकट्ठा होता। दाल, सब्जी, चावल, रोटियाँ—काफी कुछ बच जाता था। दूसरे वेटर या तो इसे घर ले जाते या फेंक देते। लेकिन बहादुर सिंह रोज़ स्टील के डिब्बे में खाना पैक करते और बस्ती के आखिरी छोर पर बनी एक टूटी-फूटी झोपड़ी तक ले जाते।

इस झोपड़ी में दो बच्चे रहते थे—वीरू और रानी। वीरू सड़क पर गाड़ियों के शीशे साफ करता था, रानी झोपड़ी में ही रहती थी। दोनों अनाथ, अकेले, और कुपोषण के शिकार थे। बहादुर सिंह ने पहली बार उन्हें तब देखा जब वीरू सड़क किनारे रो रहा था। पूछने पर पता चला कि उसे आज एक भी रुपया नहीं मिला था, और उसकी बहन सुबह से भूखी थी। बहादुर सिंह ने उस दिन उनके लिए रोटियाँ दीं। वे बच्चे चुपचाप खाना खा लेते, लेकिन उनकी आँखों में कृतज्ञता की चमक आ जाती।

यह सिलसिला एक साल चला। बहादुर सिंह बिना किसी उम्मीद के रोज़ खाना देते, कभी पुराने कपड़े या फल भी लाते। वह वीरू से कहते, “बेटा, तुझे पढ़ना चाहिए,” लेकिन वीरू बस सिर झुका लेता। बहादुर सिंह उनके लिए एक अनजाने मसीहा बन गए थे।

तीसरा अध्याय: अचानक जुदाई

एक रात बहादुर सिंह रोज़ की तरह खाना लेकर झोपड़ी पहुँचे, लेकिन वहाँ वीरू और रानी नहीं थे। उनका सामान भी गायब था। बस्तीवालों ने बताया कि दोनों अपना सामान लेकर कहीं चले गए हैं, लेकिन कहाँ, किसी को नहीं पता। बहादुर सिंह को बहुत दुख हुआ। उन्होंने कई दिनों तक इंतजार किया, लेकिन बच्चे वापस नहीं आए। धीरे-धीरे उन्होंने खुद को समझाया कि शायद वे किसी अच्छी जगह चले गए होंगे। वह मन ही मन उनकी सलामती की दुआ करते रहे।

समय बीतता गया। रेस्टोरेंट बड़ा और शानदार हो गया। बहादुर सिंह अब 65 के पार हो चुके थे। बेटी मीना की शादी हो गई थी, माँ भी गुजर चुकी थी। बहादुर सिंह अब अकेले रहते थे, रेस्टोरेंट के स्टोर रूम की देखरेख करते थे। तनख्वाह कम हो गई थी, शरीर कमजोर हो गया था। उनकी दुनिया बहुत छोटी और खामोश हो गई थी। वह अक्सर रात को उन दो बच्चों को याद करते, जिनका कोई अता-पता नहीं था।

चौथा अध्याय: नेकी का फल

एक दिन रेस्टोरेंट के मैनेजर ने बहादुर सिंह को मालिक के केबिन में बुलाया। वहाँ दो लोग बैठे थे—एक नौजवान और एक युवती। नौजवान ने बहादुर सिंह के हाथों को थामा, आँखों में आँसू थे। “अंकल, क्या आपने मुझे पहचाना?” बहादुर सिंह हैरान रह गए। वह आवाज़ कुछ जानी-पहचानी थी। “मैं वीरू हूँ और ये मेरी बहन रानी।”

25 साल बाद वे दोनों लौटे थे। अब वे कामयाब थे—वीरू मुंबई की एक बड़ी कंपनी का सीईओ, रानी मशहूर आर्किटेक्ट। उन्होंने बहादुर सिंह को बताया कि कैसे बहादुर की दी हुई रोटियों ने उन्हें जीने की उम्मीद दी। कैसे वे डर के मारे दिल्ली छोड़कर मुंबई चले गए, वहाँ बहुत मेहनत की, लेकिन बहादुर सिंह की याद हमेशा उनके साथ रही।

पाँचवाँ अध्याय: नई शुरुआत

वीरू और रानी ने बहादुर सिंह को अपने साथ लंदन से आए थे। उन्होंने बहादुर सिंह के लिए एक शानदार बंगला खरीदा, जहाँ बहादुर सिंह को आराम से रहना था। उन्होंने कहा, “अंकल, आपने हमें जिंदगी दी थी, अब हम आपकी बाकी की जिंदगी को खुशहाल बनाना चाहते हैं।”

लेकिन वीरू यहीं नहीं रुके। उन्होंने शेर पंजाब रेस्टोरेंट खरीद लिया और बहादुर सिंह को उसका मालिक बना दिया। अब वह रेस्टोरेंट “बहादुर द ढाबा” था। बहादुर सिंह ने रेस्टोरेंट को प्यार और ईमानदारी से चलाया। रोज रात को बचा हुआ खाना पैक करवाकर बस्ती के जरूरतमंदों में बाँटते। वीरू और रानी अक्सर मिलने आते, पुराने दिनों को याद करते।

छठा अध्याय: नेकी की मिठास

बहादुर सिंह की जिंदगी पूरी तरह बदल गई थी। अब उनका अकेलापन खत्म हो गया था। उनके पास प्यार, सम्मान, और सुकून था। वह अब भी अपनी नेकी की परंपरा को निभाते थे। रेस्टोरेंट में काम करने वाले स्टाफ को भी सिखाते थे कि बचा हुआ खाना फेंकना नहीं चाहिए, बल्कि जरूरतमंदों तक पहुँचाना चाहिए।

बहादुर सिंह का दिल अब सुकून से भरा था। वह जानते थे कि नेकी का फल जरूर मिलता है, चाहे देर से ही सही। उनकी कहानी पूरे इलाके में मशहूर हो गई थी। लोग दूर-दूर से “बहादुर द ढाबा” में खाना खाने आते, और बहादुर सिंह की मिसाल को याद करते।

सातवाँ अध्याय: इंसानियत का संदेश

बहादुर सिंह की कहानी ने पूरे शहर को बदल दिया। अब कई रेस्टोरेंट्स रोज बचा हुआ खाना जरूरतमंदों तक पहुँचाने लगे। बहादुर सिंह ने एक छोटी सी नेकी की शुरुआत की थी, जो अब एक आंदोलन बन चुकी थी। लोग बहादुर सिंह को सलाम करते थे, और उनकी कहानी बच्चों को सुनाते थे।

मीना भी अपने बच्चों के साथ अक्सर बहादुर सिंह से मिलने आती थी। बहादुर सिंह अब अकेले नहीं थे, उनके पास एक बड़ा परिवार था—वीरू, रानी, मीना, और पूरा इलाका।

निष्कर्ष

यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी कभी बेकार नहीं जाती। बहादुर सिंह ने बिना किसी उम्मीद के दो अनाथ बच्चों की मदद की, और किस्मत ने 25 साल बाद उन्हें उनकी सोच से भी कहीं ज्यादा लौटा दिया। यह कहानी विश्वास दिलाती है कि दुनिया में अच्छाई जिंदा है, और उसका फल जरूर मिलता है।

अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ है, तो इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर साझा करें। नेकी का संदेश फैलाएं, ताकि हर कोई जान सके कि एक छोटी सी भलाई भी किसी की पूरी दुनिया बदल सकती है।

शुक्रिया!