“रोहन और प्रिया: एक रात, जिसने सब कुछ बदल दिया”

(Rohan aur Priya: Ek Raat, Jisne Sab Kuch Badal Diya)

दिल्ली की ठंडी फरवरी की रात थी। सड़कों पर हल्का कोहरा पसरा हुआ था और ज़्यादातर घरों में लाइटें बुझ चुकी थीं। लेकिन उसी रात, सेंट्रल चिल्ड्रन हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में एक नन्हे से बच्चे की धीमी कदमों की आवाज़ गूंजी — जैसे कोई बहुत छोटी लेकिन बहुत बहादुर आत्मा दुनिया से मदद मांगने आई हो।

वह सात साल का एक दुबला-पतला लड़का था — नाम था रोहन। उसकी बाहों में एक साल की प्रिया थी, जो पतले कपड़े में लिपटी गहरी नींद में थी। चेहरे पर कोई डर नहीं, कोई आंसू नहीं — बस एक शांत दृढ़ता।
काउंटर पर बैठी नर्स ने सिर उठाया, और उससे पहले कि वह कुछ पूछती, बच्चे ने धीमी आवाज़ में कहा —
“मेरे सौतेले पिता मेरी बहन को मारना चाहते हैं।”

कमरे की हवा जैसे थम गई।

नर्स ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया, फिर पुलिस और चाइल्ड वेलफेयर अधिकारी को सूचित किया। डॉक्टर ने रोहन की पीठ और हाथों पर पुरानी व ताज़ा चोटों के निशान देखे। बच्ची ठीक थी लेकिन कमज़ोर।
किसी ने ज्यादा नहीं पूछा — सब समझ गए कि यह बच्चा दर्द से नहीं, डर से बड़ा हुआ है।


टूटी मां, नशे में डूबा घर

रोहन दिल्ली के उत्तम नगर की एक तंग गली में रहता था। मां सुनीता कपड़ा फैक्ट्री में काम करती थी, पर एक हादसे में उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट लग गई।
दवाओं, दर्द और निराशा के बीच उसने विक्रम नाम के एक आदमी को अपने घर में जगह दी — जो पहले दयालु लगता था, फिर राक्षस बन गया।

विक्रम ने घर के नियम तय कर दिए —
“बड़े बात करें, बच्चे चुप रहें।”
“अगर रोया, तो मारा जाएगा।”

सुनीता अब दवाओं और नशे में डूबी रहती।
विक्रम हर दिन और हिंसक होता गया — मारना, चिल्लाना, तोड़फोड़।
और रोहन? उसने चुप रहना सीख लिया।
उसे मालूम था कि बोलना मतलब बहन को खतरे में डालना।

वह रोज़ खुद खाना बनाता, बहन को खिलाता, डायपर बदलता, कपड़े धोता — सात साल की उम्र में मां और पिता दोनों की भूमिका निभा रहा था।
कभी पड़ोसी पूछते, “बेटा, मां कहां है?”
वह बस कहता — “मां ठीक नहीं हैं। मैं बहन का ध्यान रखता हूं।”


वह रात

उस शाम विक्रम शराब और सट्टे में पैसे हारकर घर लौटा।
उसने गालियां दीं, मेज पलट दी। प्रिया रोने लगी।
विक्रम गरजा —
“चुप करा इसे, वरना मैं फेंक दूंगा इसे खिड़की से!”

रोहन का दिल जम गया। यह अब धमकी नहीं थी — यह हकीकत बनने वाली थी।

जब सब सो गए — मां नशे में, विक्रम कुर्सी पर बेहोश — तब रोहन ने फैसला किया।
उसने अपने छोटे बैग में दूध का डिब्बा, पानी की बोतल, एक तौलिया और मां का जैकेट रखा।
प्रिया को गोद में लिया, जैकेट में लपेटा, और दरवाज़े से बाहर निकल गया।

बाहर ठंड थी, लेकिन उसके कदम गर्म थे — डर से नहीं, हिम्मत से।


छह गलियों की यात्रा

उसने सोचा, बस छह गलियां पार करनी हैं — फिर अस्पताल मिलेगा।
हर गली के साथ उसकी सांस भारी होती गई, हाथ सुन्न होने लगे, लेकिन उसने रुकना नहीं सीखा।
हर बार जब थकान बढ़ती, उसे विक्रम की आंखें याद आतीं — लाल, हिंसक — और वह तेज़ चलने लगता।

तीसरी गली में उसने दीवार के पीछे छिपकर बिस्कुट खाया, ताकि बेहोश न हो जाए।
चौथी गली में एक बाइक तेज़ी से गुज़री — वह डर गया, पर छिप गया।
पांचवीं गली में उसके पैर कांपने लगे, लेकिन वह जानता था कि अब लौटना मौत है।
और फिर छठी गली के बाद —
वहां, अंधेरे में चमकता साइनबोर्ड दिखाई दिया —
“केंद्रीय बाल चिकित्सालय – इमरजेंसी”

उसने राहत की सांस ली और अंदर पहुंचा।

“आंटी,” उसने नर्स से कहा,
“क्या मेरी बहन के लिए सोने की जगह है? हम घर वापस नहीं जा सकते।”


एक नया सवेरा

डॉक्टरों ने तुरंत बच्ची को देखा — वह कमजोर थी पर सुरक्षित।
रोहन को बिस्तर पर लिटाया गया, लेकिन उसने अपनी बहन का हाथ नहीं छोड़ा।
उसकी आंखें बस प्रिया पर टिकी थीं, जैसे डर हो कि वह कहीं फिर न खो जाए।

सोशल मीडिया पर उस रात एक वीडियो वायरल हुआ —
एक छोटे लड़के का, जो अपनी बहन को बचाने के लिए अस्पताल आया था।
पूरा देश भावुक हो गया। पर रोहन को इन सबका पता नहीं था।
वह बस अपनी बहन की सांसें गिन रहा था।


नई जिंदगी की शुरुआत

बाल कल्याण विभाग ने उन्हें एक अस्थायी घर भेजा —
मधु आंटी और राकेश अंकल के पास, जो अनाथ बच्चों की देखभाल करते थे।
पहली बार, रोहन ने एक घर देखा जहां कोई चिल्लाता नहीं था।
जहां खाना गिरने पर मार नहीं पड़ती थी।
जहां रात में नींद डर से नहीं, शांति से आती थी।

मधु ने कहा, “बेटा, यहां शांति है। तुम्हारी बहन के खेलने के लिए आंगन भी है।”
रोहन ने धीरे से पूछा,
“क्या प्रिया मेरे साथ सो सकती है?”
मधु मुस्कुराई, “हाँ, बेटा। बिस्तर बड़ा है। तुम दोनों साथ रहोगे।”


धीरे-धीरे रोशनी लौटने लगी

दिन बीतते गए। प्रिया हंसना सीख गई, बोलना सीख गई।
हर बार जब वह अपने भाई को देखती, उसकी आंखें चमक जातीं।
डॉक्टर बोले, “अब बच्ची सामान्य हो रही है।”

रोहन भी स्कूल लौट गया।
शुरुआत में वह चुप रहता, पर नई टीचर पूजा मैम ने उसे समझा।
उन्होंने एक दिन कहा —
“कुछ मत लिखो, बस वो बनाओ जो तुम्हें याद है।”
रोहन ने एक ड्राइंग बनाई —
एक बड़ा बच्चा एक छोटे बच्चे को दलिया खिला रहा है।
कोई बड़ा नहीं था — सिर्फ दो भाई-बहन, एक पेड़ के नीचे।

पूजा मैम की आंखें नम हो गईं।


मां की वापसी

तीन महीने बाद सुनीता ने इलाज शुरू किया और मुलाकात की अनुमति मिली।
वह कमजोर थी, लेकिन होश में थी।
रोहन ने प्रिया को उसकी गोद में रखा और कहा —
“मां, अब आपको ठीक होना है। बहन को आपकी जरूरत है।”

सुनीता फूट-फूट कर रो पड़ी।
वह समझ गई कि उसके बच्चे उससे ज्यादा मजबूत निकले।


आखिरी मोड़ – एक सच्चा घर

आठ महीने बाद, मधु और राकेश ने दोनों बच्चों को गोद ले लिया।
घर अब सच में “घर” बन गया था —
जहां हर दिन डर नहीं, प्यार था।
जहां बच्चे रोने से नहीं, हंसने से पहचाने जाते थे।

प्रिया अब चलना सीख चुकी थी, और उसका पहला शब्द था — “भैया।”
रोहन अब मुस्कुराता था।
वह फिर से स्कूल में बोलने लगा, जवाब देने लगा, सपने देखने लगा।

एक शाम मधु ने पूछा —
“बेटा, अब डर लगता है?”
रोहन ने कहा —
“नहीं, अब डर नहीं लगता। बस बहन को देखता हूं तो हिम्मत मिलती है।”


एक आखिरी पन्ना

उस रात जब सब सो गए, रोहन ने अपनी डायरी में लिखा —

“आज प्रिया पूरे दिन हंसी।
अब अजनबियों से नहीं डरती।
शायद अब वह एक सामान्य बच्ची बन रही है।
और मैं…
शायद अब एक सामान्य बच्चा बन रहा हूं।”

वह मुस्कुराया, लाइट बंद की, और शांति से सो गया।
कई महीनों बाद पहली बार, बिना डर के।

क्योंकि कभी-कभी, सबसे बड़ी बहादुरी किसी चीज़ से लड़ने में नहीं होती —
बल्कि अपनी मासूमियत को बचाए रखने में होती है,
जब पूरी दुनिया आपके खिलाफ हो।