क्या हुआ जब एक लड़के ने जी जान से महनत की और फिर भी सफ़लता नहीं मिली , फिर उसने जो किया…

टूटा हुआ भरोसा: सपनों के बोझ तले एक दास्तान

क्या होता है जब कड़ी मेहनत करने के बाद भी कामयाबी न मिले?

मुकेश ने अभी-अभी कॉलेज की पढ़ाई खत्म की थी। उसकी उम्र करीब इक्कीस साल थी। आँखों में अनगिनत सपने थे और दिल में एक ऐसी आग थी जो किसी बड़े उजाले की तलाश में जल रही थी। गाँव में उसका एक छोटा सा घर था, और उसके पिताजी एक साधारण किसान थे।

जब उसने अपनी माँ की थाली में रखा आखिरी निवाला देखा, तो उसका दिल भर आया। माँ की आँखों में अटूट उम्मीद थी। पिता के चेहरे पर ज़िंदगी की ज़िम्मेदारियों की गहरी लकीरें थीं, और छोटे भाई-बहन के चेहरे पर मासूम सवाल थे कि “भैया, कब शहर से नौकरी लेकर लौटोगे?” वह मुस्कुराया, जैसे सब कुछ बहुत आसान हो, जैसे ज़िंदगी बस किताबों और इम्तिहानों में सिमटी हो। लेकिन उसे क्या पता था कि शहर की भीड़ में खो जाना सबसे आसान और ख़ुद को बचाए रखना सबसे मुश्किल होता है।

वह एक पुरानी बस में बैठकर, जिसकी सीटें टूटी हुई थीं, शहर में सरकारी नौकरी की तैयारी करने निकल पड़ा। रास्ते के धूल भरे मोड़ों पर हर झटका उसे उसकी ज़िम्मेदारी याद दिला रहा था। माँ ने जाते वक्त उसके बैग में चुपके से एक कागज़ रख दिया था, जिस पर लिखा था: “बेटा, हार मत मानना। हमें तुझ पर पूरा भरोसा है।” वह बार-बार वही कागज़ निकाल कर देखता और मन ही मन सोचता कि शायद भरोसा ही सबसे बड़ा बोझ होता है।

शहर की हवा अलग थी। वहाँ कोई किसी को नहीं जानता था। उसने किराए पर एक छोटा सा कमरा लिया, जिसमें चार दीवारें थीं और एक बल्ब जो आधी रात को कभी जलता था, कभी बुझता था। जैसे वह बल्ब याद दिला रहा हो कि अंधेरे से डरने की नहीं, उसे अपनाने की आदत डालो।

हर सुबह, वह उठकर आईने में ख़ुद को देखता और सोचता कि शायद यही वह चेहरा है जो एक दिन पूरे परिवार की तकदीर बदल देगा। लेकिन उम्मीदों के बोझ तले एक इंसान की ज़िंदगी क्या हो जाती है, यह वह ख़ुद ही जानता था।

क्लास में बैठते हुए उसे कभी नींद आने लगती, कभी भूख सताती, लेकिन वह जानता था कि पढ़ाई से पीछे हटना मतलब सबकी उम्मीदों को तोड़ देना। वह ख़ुद को बार-बार समझाता कि कुछ भी हो जाए, हार नहीं माननी है, चलते रहना है।

जब कभी घर से फ़ोन आता, माँ कहती, “बेटा, खाना समय से खा लेना।” और वह झूठ बोल देता कि “हाँ माँ, मैं खा लेता हूँ।” जबकि सच्चाई यह थी कि निवाला गले से नीचे उतरता ही नहीं था। कभी रोटी खत्म हो चुकी होती और पैसों के आने में अगला हफ्ता बाकी होता। रात के अंधेरे में, जब सारा शहर सो जाता, तो वह बालकनी में बैठकर सोचता कि क्या सपने वाकई पूरे होते हैं या बस कहानियों तक सीमित हैं। हवा उसके चेहरे को छूती तो वह आँखें बंद करके गाँव की यादों में खो जाता और उसकी आँखें भर आतीं। लेकिन जब आँखें खोलता, तो कमरे की सीलन और दीवारों पर उखड़ा हुआ प्लास्टर दिखाई देता, जैसे कोई कह रहा हो कि ज़िंदगी जितनी रंगीन लगती है, उतनी होती नहीं।

हर सुबह उसकी वही दिनचर्या थी: उठना, पढ़ना, लाइब्रेरी जाना, और वापस लौटकर नोट्स देखना। उसे अब यह भी याद नहीं था कि उसने पिछली बार कब खुलकर हँसा था। हर हफ्ते जब घर से फ़ोन आता, तो वह कहता, “सब ठीक है।” लेकिन अंदर से वह जानता था कि कुछ भी ठीक नहीं है। उसके सपनों पर धीरे-धीरे थकान की धूल जमने लगी थी, पर वह उसे झाड़ नहीं पा रहा था।

शहर अब उसके लिए पुराना हो गया था। हर मोड़, हर चाय की दुकान, हर नोट्स बेचने वाली फोटोकॉपी की दुकान उसे पहचानने लगी थी, लेकिन वह ख़ुद को भूलने लगा था। सुबह चार बजे उठकर किताबों के सामने बैठना अब एक मजबूरी बन चुका था। पहले जहाँ जोश था, वहाँ अब आदत थी। पहले जहाँ उत्साह था, वहाँ अब डर था कि अगर असफल हुआ तो क्या होगा? अगर घर वालों का भरोसा टूट गया तो कौन संभालेगा? वह हर सवाल के पीछे छिपे हुए उस दर्द को महसूस कर रहा था जो उसे धीरे-धीरे अंदर से खोखला कर रहा था।

उसकी लाइब्रेरी की मेज़ के कोने पर हमेशा वही पुराना टिफिन रखा होता जो हर दिन थोड़ा सा खाली रह जाता था। वह सोचता था कि अगर थोड़ा बचा लूँ, तो कल काम आ जाएगा। उसकी जेब में अब पैसे खत्म हो चुके थे, अब बस रसीदों की फटकार थी। नोट्स की कॉपी के पन्नों पर वह हर रात अपनी निराशा लिख देता था, जैसे ख़ुद से बात कर रहा हो, पर जवाब कोई नहीं देता था। वह हर मॉक टेस्ट में औसत अंक लाता और ख़ुद को कहता कि ‘कोई बात नहीं, अगली बार बेहतर होगा’। लेकिन अगली बार कब आया, यह उसे याद नहीं रहा, बस दिन बीतते गए और रातें लंबी होती गईं।

फिर एक दिन, जब सरकार ने परीक्षा की घोषणा की, उसकी आँखों में दोबारा चमक लौटी। उसने सोचा, अब शायद वक्त पलट जाएगा, अब शायद उसके सालों की मेहनत रंग लाएगी। वह रात-दिन मेहनत से तैयारी करने लगा। उसने अपने कमरे की दीवारों पर लिख दिया था: “सफलता ही जवाब है।” उसके दोस्तों ने कहा, “अब बस थोड़ा और धैर्य रखना।” लेकिन उसे धैर्य की नहीं, भरोसे की ज़रूरत थी। वह भरोसा जो बार-बार टूटने के बावजूद भी ज़िंदा था।

और फिर, आखिरकार परीक्षा का दिन आया। उसने माँ को फ़ोन किया और कहा, “माँ, आज तुम्हारे बेटे की किस्मत का दिन है।” माँ ने कहा, “भगवान तेरा साथ दे, बेटा।” और उसकी आँखें भर आईं। वह सुबह तैयार हुआ, सादा कपड़े पहने, एक पुरानी पेन जेब में रखी और अपने नोट्स को आखिरी बार देखा, जैसे किसी पुराने दोस्त को विदा कर रहा हो। फिर वह परीक्षा केंद्र की ओर निकल पड़ा। धूप तेज़ थी, लेकिन उसके अंदर उम्मीद थी कि इस बार वह सफल हो जाएगा।

लेकिन उस दिन का अंत वैसा नहीं हुआ जैसा उसने सोचा था।

कुछ दिनों बाद, जब परिणाम आने वाले थे, तभी खबर आई कि परीक्षा का पेपर लीक हो गया था।

सुबह की धूप फीकी थी, जैसे आसमान भी थक गया हो। वह लड़का चाय की दुकान पर बैठा अखबार पढ़ रहा था और तभी उसकी नज़र उस छोटे से कॉलम पर पड़ी जिसमें लिखा था: “सरकारी परीक्षा का पेपर लीक हुआ। सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि जाँच चल रही है।”

उसने उस पंक्ति को बार-बार पढ़ा, जैसे यकीन नहीं हो रहा था, जैसे किसी ने उसके सपनों के नीचे से ज़मीन खींच ली हो। वह वहीं बैठा रहा। बहुत देर तक चाय ठंडी हो गई, पर उसने कप को नहीं छुआ। उसके हाथ काँप रहे थे और आँखें खाली हो चुकी थीं। उसके आस-पास लोग बातें कर रहे थे कि “अब तो परीक्षा रद्द हो जाएगी। सब मेहनत बेकार चली गई।” पर वह कुछ नहीं बोला। बस अखबार को मोड़कर अपनी बैग में रख लिया, जैसे वह उसे छिपाना चाहता हो, जिसे याद करने पर भी सीना फट जाए।

कमरे में लौटकर उसने ख़ुद को आईने में देखा। उसके चेहरे पर लाचारी थी और आँखों में आँसू थे। उम्मीदें टूट गई थीं। अब वह वैसा नहीं रहा था। उसके माथे की लकीरें गहरी हो गई थीं, आँखों के नीचे थकान जमा थी, और होठों पर कोई उम्मीद नहीं बची थी। उसने अपने टेबल पर रखी किताबें देखीं, जैसे किसी ने मज़ाक कर दिया हो। चार साल की मेहनत, चार साल की नींद, चार साल की हर खुशी, बस एक रात में मिट्टी में मिल गई थी।

वह बिस्तर पर लेट गया, लेकिन नींद नहीं आई। दिमाग में वही आवाज़ गूँज रही थी कि ‘अगर मैं हार गया तो क्या होगा? माँ को क्या बताऊँ कि सब बेकार चला गया? क्या होगा उनकी उम्मीदों का जो उन्होंने मुझसे लगाई थी?’ पिता अब भी वही उम्मीद रखेंगे। उसके अंदर एक आग जल रही थी, और वह आग उसे भीतर से खा रही थी।

उसने मोबाइल उठाया। कई बार माँ का नंबर डायल किया, लेकिन हर बार कैंसिल कर दिया। वह नहीं चाहता था कि माँ की आवाज़ सुनकर वह टूट जाए।

सुबह होते ही सोशल मीडिया पर खबरें फैल गईं। लोग गुस्सा दिखा रहे थे। कोई सिस्टम को कोस रहा था, कोई सरकार को। पर उसके लिए यह सब सिर्फ़ शोर था, क्योंकि उसकी ज़िंदगी में अब सन्नाटा था। उसकी लाइब्रेरी के दोस्त भी निराश थे। सबने कहा कि अब अगली परीक्षा में बैठेंगे, लेकिन उसके अंदर की वह चमक जो कभी उम्मीद थी, अब राख बन चुकी थी।

उसने अगले दिन किताबें खोलीं, लेकिन अक्षर अब आँखों में नहीं उतरते थे। वह पन्ने पलटता रहा, पर सब धुंधला दिखता रहा। हर बार कोशिश करता कि फिर से शुरू करे, लेकिन अब अंदर से कोई कहता था कि बस, अब और नहीं।

कुछ दिन बाद, जब गाँव से माँ का फ़ोन आया, तो उसने वही पुराना झूठ दोहराया कि “सब ठीक है, माँ।” और माँ ने कहा, “बेटा, बस तू खुश रहना।” और उसने होठों पर मुस्कान खींच ली जो आँसुओं से भीगी थी।

वह फिर से कोशिश में जुट गया। किताबें खोलीं, कोचिंग जॉइन की, सुबह उठना शुरू किया, लेकिन अब वह वो नहीं था। पहले जोश था, अब आदत थी। पहले उम्मीद थी, अब मजबूरी थी। पहले सपने थे, अब बस वादा था उस माँ से जो रोज़ भगवान से कहती थी, “मेरा बेटा एक दिन कुछ करेगा।”

हर दिन वह वही रूटीन दोहराता: पढ़ता, लिखता, चाय पीता और वापस किताबों में झाँकता। लेकिन हर शब्द के पीछे अब एक सन्नाटा था। वह मुस्कुराता था ताकि कोई न जाने कि वह टूट चुका है, पर उसकी मुस्कान में अब हँसी नहीं थी, बस एक दिखावा था, जैसे ज़िंदगी निभाई जा रही हो।

और इसी निभाने के बीच वह धीरे-धीरे ख़ुद से दूर होता गया। ख़ुद से इतना दूर कि एक दिन उसे महसूस हुआ कि अब उसके भीतर कोई आवाज़ नहीं बची। सुबह की हल्की रोशनी कमरे में गिर रही थी, लेकिन उसके अंदर अंधेरा गहरा था। उठना अब सिर्फ़ आदत थी। हाथ उठाना सिर्फ़ शरीर की हरकत थी। आँखें खुलना सिर्फ़ दुनिया को दिखाने के लिए कि “मैं ज़िंदा हूँ।” दिल के अंदर कुछ नहीं बचा था, बस खालीपन था, जैसे कोई खिड़की खोली हो और सारे रंग उड़ गए हों।

वह लड़का अब किताबों को खोलता, लेकिन अक्षर अब उसके दिल तक नहीं पहुँचते। वह नोट्स पलटता, लेकिन हर पन्ना सिर्फ़ कागज़ का हिस्सा था, कोई कहानी नहीं, कोई आवाज़ नहीं, बस सन्नाटा था। चार दीवारें भी अब उसकी चुप्पी में शामिल थीं। वह कमरे में अकेला नहीं था, लेकिन अकेलापन हर तरफ़ था। घरवालों को वह रोज़ बताता कि सब ठीक है। माँ की आवाज़ कानों में गूँजती और वह मुस्कुराता, लेकिन भीतर से रोता था।

हर हँसी जो उसने बनाई थी, हर शब्द जो उसने कहा था, बस दिखावा था। क्योंकि अब वह जानता था कि ज़िंदगी ने उसे जितना नहीं तोड़ा था, उतना उसने ख़ुद को तोड़कर बना लिया था।

कोई नहीं समझ पाता कि वह लड़का अब वह नहीं रहा जो कभी सपने देखता था। उसकी ज़िंदगी अब सिर्फ़ चुप्पी और आदत बन गई थी। रात के समय जब सब सो जाते, तो वह दीवार की तरफ़ देखता और कहता, ख़ुद से, “मैं ज़िंदा हूँ, लेकिन अब मैं नहीं हूँ। मैं वह नहीं हूँ जो कभी था। मैं सिर्फ़ परछाई हूँ, सिर्फ़ चुप्पी हूँ, सिर्फ़ उम्मीदों के बोझ तले दबा हुआ एक नाम हूँ जो कहीं खो गया।”

और इसी चुप्पी में उसकी ज़िंदगी बीतती रही। बिना किसी धड़कन के, बिना किसी शोर के, सिर्फ़ चुप्पी में दबकर हर दिन एक जैसा गुज़रता रहा। दुनिया के लिए वह लड़का ज़िंदा था, लेकिन अंदर से पूरी तरह से टूट चुका था।

संदेश:

आज हर स्टूडेंट की यही कहानी है। तो मेरा हर माँ-बाप से विनम्र निवेदन है कि अपने बच्चों को उम्मीदों के बोझ से इतना न दबाएँ कि वह ज़िंदगी जीना ही भूल जाएँ।

यह कोई कहानी नहीं है, बस आज की सच्चाई है।