अच्छाई का फल: एक साधारण कैशियर से सुपरमार्केट मैनेजर बनी शीतल वर्मा की कहानी
कभी-कभी हमारी ज़िंदगी में कुछ ऐसा होता है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या वाकई इस दुनिया में अच्छाई की कोई कदर है। कोलकाता के एक बड़े सुपरमार्केट में काम करने वाली शीतल वर्मा के साथ भी एक ऐसा ही दिन आया, जिसने उसकी पूरी ज़िंदगी बदल दी।
शीतल एक साधारण परिवार से थी। मां की तबीयत खराब रहती थी, और छोटे भाई की पढ़ाई का सारा खर्च उसी की कमाई से चलता था। हर सुबह वह मुस्कान के साथ ग्राहकों का स्वागत करती, बिलिंग करती और अपनी तेज़ी व ईमानदारी के लिए जानी जाती थी। उसे अपनी नौकरी से प्यार था, क्योंकि यही उसके परिवार का सहारा थी।

एक दिन दोपहर के वक्त एक बुज़ुर्ग आदमी कांपते हाथों से सामान की टोकरी लेकर शीतल के काउंटर पर आए। शीतल ने उन्हें आदर से अभिवादन किया, “नमस्ते बाबा! कैसे हैं आप?” बाबा ने हल्की मुस्कान दी और बोले, “बेटा, जैसे-तैसे दिन काट रहा हूं। दवाई लेनी थी, लेकिन पहले राशन ज़रूरी लगा।” शीतल ने सामान स्कैन किया—चावल, दाल, तेल, ब्रेड, कुछ सब्जियां—कुल ₹756 हुए। बाबा ने अपनी जेब से सिक्के और कुछ मुड़े हुए नोट निकाले, पर उनके पास कुल ₹485 ही थे। परेशान होकर वे सामान लौटाने लगे।
शीतल के दिल को यह देखा नहीं गया। उसने इधर-उधर देखा, सुपरवाइजर दूर खड़ा था और सीसीटीवी ठीक ऊपर था, लेकिन उसका दिल बाबा को खाली हाथ जाने नहीं देना चाहता था। उसने चुपचाप अपनी जेब से बाकी के पैसे निकालकर बिल में जोड़ दिए। “चिंता मत करिए बाबा, आपका बिल पूरा हो गया। सामान ले जाइए।” शीतल ने हँसकर कहा।
बाबा की आँखें भर आईं। “बेटा, तू बहुत नेक है। मैं तेरा यह अहसान कभी नहीं भूलूंगा।” शीतल ने कहा, “कोई एहसान नहीं बाबा, बस समझो आपकी पोती ने मदद कर दी।” बाबा ढेरों दुआएं देते हुए चले गए।
शीतल को लगा उसने दिन का सबसे अच्छा काम किया, लेकिन उसे नहीं पता था कि यही उसके लिए मुसीबत भी बनेगा। बाबा के जाते ही सुपरवाइजर आ गया, “शीतल, तुमने किसी ग्राहक के पैसे अपनी जेब से चुकाए? तुम्हें कंपनी की पॉलिसी का पता भी है?” शीतल घबरा गई, “सर, वो बाबा बहुत परेशान थे, मैंने बस थोड़ा-सा…” मगर सुपरवाइजर ने बात काट दी, “यह चैरिटी सेंटर नहीं है, हम यहाँ बिज़नेस करने आए हैं। कोई बहस नहीं, तुम अब यहाँ काम नहीं कर सकती।”
शीतल को उसी वक्त नौकरी से निकाल दिया गया। उसे जैसे विश्वास ही नहीं हुआ। उसने अपने यूनिफॉर्म वापस की, बैग उठाया और बिना कुछ बोले सुपरमार्केट से बाहर निकल गई। बाहर आते ही उसकी आंखों से आंसू बह निकले। अब वह क्या करेगी, घर जाकर मां को क्या बताएगी, भाई की फीस कैसे देगी—यही सवाल मन में चल रहे थे।
शाम को शीतल एक पार्क की बेंच पर उदास बैठी थी। तभी एक महंगी गाड़ी वहाँ रूकी। उसमें से वही बाबा निकले, जिन्हें शीतल ने मदद की थी। उन्होंने शीतल को देखा और बोले, “बेटा, तू यहाँ क्यों बैठी है?” शीतल ने धीरे-धीरे सारी सच्चाई बताई—कैसे उसकी नौकरी चली गई सिर्फ इस छोटी-सी मदद के लिए।
बाबा के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने शीतल को बताया—“जिस सुपरमार्केट से तुम्हें निकाला गया, उसका असली मालिक मैं ही हूँ। अब मेरी तबीयत खराब रहती है, काम बेटे और मैनेजर के भरोसे छोड़ दिया है, पर आज तुझे देखा तो मन भर आया। तेरा दिल और तेरी ईमानदारी सब देख ली। तुम जैसी लड़की को ही असल में मैनेजमेंट में होना चाहिए। अब से तुम ही इस सुपरमार्केट की नई मैनेजर होगी।”
शीतल को यकीन ही नहीं हुआ। “लेकिन बाबा, मेरे पास तो कोई अनुभव नहीं है…” बाबा मुस्कुराए,“बेटा, सच्चाई, ईमानदारी और मदद का जज़्बा अगर है, तो तुम किसी भी हालात में अच्छे लीडर बनोगी।”
अगले दिन शीतल फिर उसी सुपरमार्केट गई। लेकिन अब वह एक साधारण कैशियर नहीं, बल्कि नई मैनेजर बनकर गई थी। जिसने कल उसकी नौकरी छीनी थी, वह आज उसकी नई बॉस थी। शीतल ने सबके सामने नई पॉलिसी सुनाई – अब से यहाँ इंसानियत का सम्मान होगा। जरूरतमंद को सम्मान मिलेगा, किसी को भी धन या हालात पर जज नहीं किया जाएगा।
उसकी ईमानदारी, मेहनत और अच्छाई ने उसे नई पहचान दिला दी। जो लड़की कल तक छोटी नौकरी से डर रही थी, आज पूरे सुपरमार्केट की सबसे खास और भरोसेमंद इंसान बन गई।
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