8 साल की भटकी हुई मासूम बच्ची के साथ मंदिर के बुजुर्ग पुजारी ने जो किया… इंसानियत रो पड़ी

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मंदिर के पुजारी और भटकी हुई बच्ची की कहानी — इंसानियत की मिसाल

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में, सर्दियों की एक रात थी। मंदिर की घंटियों की आवाज पूरे गांव को सुकून देती थी, लेकिन उस शाम उन घंटियों के बीच किसी की सिसकियों की आवाज भी गूंज रही थी। मंदिर के बाहर, सड़क किनारे बैठी थी आठ साल की आर्या। पुरानी फ्रॉक, नंगे पैर, आंखों में डर और अकेलापन। वह आने-जाने वालों से बस इतना कहती, “मां, भूख लगी है, कुछ दे दो।” कोई उसे अनदेखा कर आगे बढ़ जाता, कोई दया दिखाकर रोटियां उसकी गोद में रख देता। लेकिन उसकी आंखों में जो दर्द था, वह भूख से कहीं ज्यादा था।

तीन दिन से आर्या मंदिर के बाहर ही बैठी थी। ना कहीं जाती, ना किसी से ज्यादा बात करती। रात को मंदिर के बरामंडे के एक कोने में दुबक कर सो जाती थी। मंदिर के पुजारी हरिदास जी, उम्र करीब साठ साल, सफेद धोती-कुर्ता, माथे पर चंदन का टीका—हर कोई उनसे अपनापन महसूस करता था। उन्होंने कई बार उस बच्ची को देखा, सोचा शायद किसी मजदूर की बेटी होगी। लेकिन उस रात सर्दी बहुत बढ़ चुकी थी। जब हरिदास जी ने मंदिर का दरवाजा बंद किया, उनकी नजर फिर उसी कोने में पड़ी। छोटी बच्ची ठंड से कांप रही थी। उनका दिल कांप उठा। वे उसके पास पहुंचे, बोले—“बेटी, ठंड लग रही है ना?”

बच्ची चौंक गई, आंखों में डर था। लेकिन हरिदास जी की मुस्कुराहट देख उसका डर थोड़ा कम हुआ। उन्होंने कहा—“आओ अंदर चलो, यहां हवा नहीं लगेगी। मैं तुम्हें रोटी भी दूंगा।” बच्ची ने पहले मना किया, फिर मजबूरी में उनके पीछे चल पड़ी। मंदिर के पीछे एक छोटा सा कमरा था। वहां एक दिया जल रहा था, भगवान की मूर्ति थी। हरिदास जी ने कंबल निकाला, कहा—“ले बेटी, इसे ओढ़ लो।” कांपते हाथों से कंबल पकड़ते ही उसकी आंखों में नमी तैर गई। जैसे किसी ने बरसों बाद उसे अपनापन दिया हो।

हरिदास जी ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” बच्ची ने धीमी आवाज में कहा—“पता नहीं… घर कहां है, नहीं पता… मां-पिता…” सिर झुका लिया, आंसू गिरने लगे। हरिदास जी कुछ पल उसे देखते रहे, फिर रसोई में गए, थाली में रोटियां और दाल लेकर आए। “ले बेटी, पहले खाना खा ले, फिर आराम से बात करेंगे।” बच्ची ने भगवान की मूर्ति की तरफ देखा, धीरे-धीरे खाना खाने लगी। हरिदास जी वहीं बैठे रहे, मन ही मन सोचने लगे—“भगवान, शायद यह बच्ची तूने ही मेरे पास भेजी है। मेरी अधूरी उम्र में नई जिम्मेदारी बनकर।”

रात के ग्यारह बज चुके थे। बाहर ठंडी हवा थी, पर कमरे में सुकून था। बच्ची सो चुकी थी। हरिदास जी उसकी ओर देखते हुए सोच रहे थे—“कौन जाने इसका घर कहां होगा, माता-पिता जिंदा भी हैं या नहीं। पर आज से यह मेरी जिम्मेदारी है।”

अगली सुबह मंदिर की घंटियों के साथ गांव के लोग हैरान थे। मंदिर के बरामंडे में अब वह बच्ची पूजा के फूल बांट रही थी। लोग पूछने लगे—“पंडित जी, यह कौन है?” हरिदास जी मुस्कुरा कर बोले—“भगवान की भेजी परी है। नाम रखा है आर्या।” कुछ लोग हंस पड़े—“अब मंदिर में बच्ची भी पालेंगे क्या?” वे बोले—“मंदिर में भगवान रहते हैं, और भगवान की दी जिम्मेदारी से कोई भाग नहीं सकता।”

उस दिन से आर्या वहीं मंदिर में रहने लगी। दिन में फूल तोड़ती, पूजा की तैयारी करती, शाम को हरिदास जी अक्षर सिखाते—क, ख, ग… वह गलती करती, हंसती। हरिदास जी कहते—“कोई बात नहीं बेटी, भगवान भी गलती करने वालों को माफ कर देते हैं।” धीरे-धीरे गांव में चर्चा फैल गई—“पंडित हरिदास ने अनजान बच्ची को अपने पास रख लिया है।” कोई कहता—“भलाई का जमाना नहीं, पंडित जी, लोग क्या कहेंगे?” कोई कहता—“आजकल कौन पराई बच्ची को घर में रखता है?” पर हरिदास जी किसी की परवाह नहीं करते। उनके दिल में अब भक्ति के साथ एक नया रिश्ता जुड़ गया था—पिता का रिश्ता।

शाम को जब वह दिया जलाते, भगवान से यही प्रार्थना करते—“हे भोलेनाथ, इस बच्ची का अतीत मैं नहीं जानता, पर इसका भविष्य उज्जवल बना देना।” कस्बे के लोग समझ नहीं पा रहे थे कि पुजारी ने यह बच्ची क्यों रखी। हरिदास जी जानते थे—कभी-कभी भगवान मंदिरों में नहीं, मासूम आंखों में मिलते हैं।

समय बीता, आर्या अब आठ साल की बच्ची से ग्यारह साल की चंचल लड़की बन चुकी थी। उसकी आंखों में अब डर की जगह विश्वास था, खिलखिलाती हंसी थी। लेकिन गांव के लोगों को यह हंसी पसंद नहीं थी। अब हर किसी की जुबान पर ताना था, किसी की आंखों में शक। चाय की दुकान पर बुजुर्ग कहते—“पंडित जी बच्ची की पढ़ाई में लगे हैं, यह कौन सी धर्म सेवा है?” कोई कहता—“किसे पता बच्ची का धर्म क्या है?” हरिदास जी मुस्कान से जवाब देते—“भगवान की मूर्ति को बिना जाति पूछे पूजा जा सकता है, तो मासूम बच्ची को बिना धर्म पूछे क्यों नहीं अपनाया जा सकता?”

आर्या भी इन बातों को सुन लेती, पर हरिदास जी का चेहरा देखते ही डर मिट जाता। एक दिन स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर दौड़ती हुई मंदिर पहुंची। पहली बार क्लास में अव्वल स्थान पाया था। “बाबा, देखो, मैं पास हो गई, पहले नंबर पर आई हूं।” हरिदास जी ने आंसू भरी आंखों से गले लगा लिया—“बेटी, आज तेरा नहीं, मेरी साधना का फल मिला है।” आर्या खिलखिला कर हंसी—“अब मुझे मंदिर में बड़ी घंटी बजाने दो।” दोनों हंस पड़े, मंदिर में जैसे भगवान भी मुस्कुरा उठे।

सफलता के साथ-साथ ताने भी बढ़ने लगे। पर हरिदास जी जवाब नहीं देते। कहते—“जिसे भगवान पर भरोसा है, उसे इंसानों की बातों से क्या डर?” समय आगे बढ़ा। आर्या अब चौदह साल की हो चुकी थी। उसकी आंखों में सपना था—डॉक्टर बनने का। वह स्कूल में पढ़ती, रास्ते में बीमार जानवरों को देखती, कभी गाय के घाव पर मिट्टी लगाती, कभी जानवर को रोटी देती। हरिदास जी पूछते—“बेटी, तुझे डर नहीं लगता?” वह कहती—“बाबा, डर तब लगता है जब कोई साथ ना हो। आप हैं ना, तो भगवान भी मेरे साथ है।”

एक दिन गांव के मुखिया ने पुजारी को बुलाया—“पंडित जी, लोग बातें बना रहे हैं, बच्ची की जाति पूछी, धर्म पूछा?” हरिदास जी बोले—“मुखिया जी, जब मैंने सांस ली थी, किसी ने मेरा धर्म नहीं पूछा था, फिर मैं क्यों पूछूं उसकी जाति? यह बच्ची मेरे लिए भगवान का प्रसाद है, मैं प्रसाद को ठुकरा नहीं सकता।” मुखिया चुप हो गया। चर्चा फैल गई, पर हरिदास जी को फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए आर्या अब बेटी नहीं, आस्था थी।

धीरे-धीरे आर्या बड़ी होती गई। पढ़ाई में लगन बढ़ती गई। गांव का मास्टर कहता—“पंडित जी, लड़की बहुत तेज है, इसे शहर भेजिए।” हरिदास जी चुप रहे, लेकिन मन में कुछ नया अंकुरित होने लगा। रात को भगवान के सामने बैठे सोचते—“अगर इसे गांव तक सीमित रख दूं तो इसका भविष्य मिट्टी बनकर रह जाएगा। इसे आसमान चाहिए।” अगले दिन उन्होंने बड़ा फैसला लिया—आर्या को शहर भेजेंगे, चाहे जमा पूंजी बेचनी पड़े।

जब उन्होंने आर्या को बताया, वह बोली—“बाबा, मैं कहां जाऊंगी आपसे दूर? आप ही तो मेरा घर हैं।” हरिदास जी बोले—“बिटिया, घर वह नहीं जहां हम रहते हैं, घर वह है जहां से सपनों की शुरुआत होती है।” आर्या की आंखों में आंसू थे, लेकिन भीतर आग जल चुकी थी—डॉक्टर बनने की, कुछ करने की, बाबा का नाम रोशन करने की।

आर्या अब सत्रह साल की हो चुकी थी। गांव के स्कूल से लेकर कस्बे के इंटर कॉलेज तक टॉप किया। मेडिकल कॉलेज का फॉर्म आया, फीस देखकर उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। बाबा ने मंदिर की कुटिया बेच दी, ताकि बेटी के सपने पूरे हों। आर्या ने परीक्षा दी, जब परिणाम आया तो गांव में ढोल बजने लगे—वह मेडिकल कॉलेज में सिलेक्ट हो गई थी। हरिदास जी की आंखों में गर्व के आंसू थे—“बेटी, आज मैंने भगवान को नहीं देखा, पर तुझमें जरूर महसूस किया है।”

शहर पहुंचकर आर्या ने नई जिंदगी शुरू की। किराए का कमरा, कॉलेज, मेहनत—लेकिन हर रात बाबा की दी पोटली सीने से लगाकर भगवान से प्रार्थना करती—“हे भोलेनाथ, मेरे बाबा को स्वस्थ रखना।” आर्या अब मेडिकल की पढ़ाई में बहुत आगे बढ़ चुकी थी। सेवा की भावना उसके भीतर गहराती गई। गांव में हरिदास जी अकेले रह गए थे। अब वे बूढ़े हो चुके थे। हर सुबह वही पूजा, वही आरती, वही प्रार्थना—“हे शिव शंकर, मेरी बिटिया को सफल बना देना।”

फिर एक दिन आर्या डॉक्टर बन गई। उसने बाबा को फोन किया, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। दिल घबराने लगा। वह गोरखपुर लौट आई। मंदिर के पीछे पुराने बरामंडे में बाबा बीमार पड़े थे। आर्या उनके पैरों पर गिर पड़ी—“बाबा, देखो, मैं डॉक्टर बन गई।” हरिदास जी ने कांपते हाथ से उसका चेहरा छुआ—“मुझे पता था, बिटिया, तू आएगी। अब तू वही कर जो तेरा धर्म है—सेवा, गरीबों का इलाज, कभी किसी का दिल मत तोड़ना।”

अगले दिन आर्या ने बाबा को शहर ले जाने का फैसला किया—“बाबा, मैंने अस्पताल खोला है, उसमें पहला कमरा आपके लिए है।” बाबा बोले—“बिटिया, मैं तो मंदिर का हिस्सा हूं।” आर्या ने उनका हाथ थाम लिया—“भगवान वही रहते हैं जहां भक्ति होती है, आपके साथ रहना ही मेरी सबसे बड़ी पूजा है।”

गांव के लोग देख रहे थे—जो कल ताने मारते थे, आज श्रद्धा से झुक गए। किसी ने कहा—“यह वही बच्ची है जो मंदिर के बाहर थी, आज अपने पिता समान पुजारी को अपने घर ले जा रही है।” किसी की आंखों से आंसू बह निकले। किसी ने सिर झुका कर कहा—“आज समझ आया, भगवान सिर्फ मंदिर में नहीं, ऐसे दिलों में रहते हैं जो दूसरों के लिए धड़कते हैं।”

शहर पहुंचकर आर्या ने बाबा को अस्पताल में रखा। अस्पताल बड़ा नहीं था, पर हर कोने में इंसानियत की खुशबू थी। दीवारों पर लिखा था—“यहां इलाज धर्म नहीं, इंसान देखकर किया जाता है।” हर कमरे में जरूरतमंद मरीज थे। आर्या ने कहा—“बाबा, यही मेरा असली मंदिर है, जहां सेवा होती है।” बाबा की आंखों से आंसू बह निकले—“हे भोलेनाथ, मेरी तपस्या पूरी हुई।”

धीरे-धीरे आर्या का अस्पताल मशहूर होने लगा। हर धर्म, हर जाति के लोग वहां इलाज कराने आते। वह ना के बराबर फीस लेती। कहती—“मेरे बाबा ने मुझे सब कुछ दिया, अब मैं वही लौटाना चाहती हूं।” कुछ महीनों बाद बाबा की तबीयत और बिगड़ गई। बाबा बोले—“बिटिया, जब मैं ना रहूं, तो अस्पताल में मेरा नाम मत लिखना। बस मंदिर के बाहर उस जगह एक दिया जला देना, जहां तू पहली बार बैठी थी। वह दिया हमेशा जलता रहना चाहिए, ताकि कोई और भटकी आत्मा वहां सुकून पा सके।”

आर्या ने वादा किया—“वो दिया कभी नहीं बुझेगा।” बाबा की सांसें शांत हो गईं। आर्या फूट-फूट कर रो पड़ी—“बाबा, आपने सिखाया था कि भगवान हर जगह है। आज मैं आपको अपने हर मरीज के चेहरे में देखूंगी।”

उस दिन से अस्पताल के बाहर और गांव के मंदिर में एक दीपक हमेशा जलता है—हरिदास दीप। लोग कहते हैं, वह दिया कभी नहीं बुझता। आर्या ने अपनी जिंदगी सेवा में समर्पित कर दी। लोग उसे ‘डॉक्टर बिटिया’ कहते। जब कोई पूछता—“आप ऐसा क्यों करती हैं?” तो वह मुस्कुराकर कहती—“एक पुजारी ने मुझे सिखाया था कि भक्ति भगवान के लिए नहीं, इंसान के लिए होनी चाहिए।”

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