माँ की आख़िरी ख्वाहिश के लिए बेटे ने की शादी… मगर पत्नी ने कर दिया सबको हैरान

मुंबई के करोड़पति करण मेहता की सच्ची कहानी — मजबूरी की शादी से सच्चे प्यार तक

मुंबई के करण मेहता एक करोड़पति थे। उनके पास दौलत थी, शोहरत थी और बड़ा कारोबार था। लेकिन उस वक्त उनकी सबसे बड़ी दौलत, उनकी मां अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही थी।
बिस्तर पर लेटी मां ने कांपते हाथों से बेटे का हाथ पकड़ा और धीमी आवाज में कहा—
“बेटा, मैं एक आखिरी इच्छा लेकर मरना नहीं चाहती। तू अगले सात दिन में शादी कर ले। तभी मेरी आंखें चैन से बंद होंगी। वरना मैं अपनी सारी संपत्ति अनाथ बच्चों के नाम कर दूंगी।”

करण जैसे पत्थर का हो गया। शादी, वो भी 7 दिन के अंदर! यह फैसला आसान नहीं था, मगर मां की हालत देखकर उसके पास ना कहने की ताकत नहीं थी।
उसने सिर झुका लिया और बस इतना कहा—
“ठीक है मां, जैसा आप चाहें।”

सबसे पहले उसके दिमाग में आई अपनी पुरानी मंगेतर नेहा कपूर की याद। कॉलेज के दिनों से दोनों शादी का सपना देख रहे थे।
करण ने तुरंत नेहा को फोन किया और पूरी बात बताई। नेहा कुछ देर चुप रही फिर बोली—
“करण, मैं अभी शादी के लिए तैयार नहीं हूं। दो दिन बाद मुझे कॉन्फ्रेंस के लिए जाना है। बाद में बात करते हैं।”

करण ने समझाने की कोशिश की—
“नेहा, यह मेरी मां की आखिरी ख्वाहिश है। बस एक सिंपल सी शादी कर लो। बाद में सब ठीक कर लेंगे।”
लेकिन नेहा झुंझला गई—
“तुम इतनी जल्दी इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो? मैं तैयार नहीं हूं।”
और फोन काट दिया।

करण टूट चुका था। एक तरफ मां की आखिरी इच्छा, दूसरी तरफ नेहा का इंकार। वह जानता था कि अब किसी भी हाल में शादी करनी ही होगी, चाहे किसी से भी।

मजबूरी का फैसला

तभी उसके मन में ख्याल आया—अगर कोई लड़की सिर्फ कागज पर शादी के लिए मान जाए, कुछ दिनों के लिए।
उसने अपने वकील को बुलाया और कहा—
“मुझे एक कॉन्ट्रैक्ट शादी करनी है, सिर्फ 7 दिन के लिए। लड़की को कोई नुकसान नहीं होगा, मैं पूरा खर्च उठाऊंगा।”
वकील हैरान था, लेकिन करण की मजबूरी समझ गया।

उसी शाम एक सामाजिक संस्था से संपर्क हुआ। वहां से पता चला कि एक लड़की ऋतु शर्मा के पिता बहुत बीमार हैं और इलाज के लिए पैसे नहीं हैं।
संस्था की कार्यकर्ता ने कहा—
“वह लड़की बहुत सीधी है। अपने पिता के लिए कुछ भी कर सकती है। अगर आप उसका इलाज करवा दें तो शायद वह शादी के लिए तैयार हो जाए।”

ऋतु का त्याग

अगली सुबह ऋतु आई। उसके चेहरे पर थकान साफ थी। साधारण सलवार सूट, थकी हुई आंखें मगर भीतर से मजबूत।
करण ने साफ शब्दों में कहा—
“यह शादी बस 7 दिन की होगी, सिर्फ कागजों पर। बदले में तुम्हारे पापा का पूरा इलाज मैं करवाऊंगा।”

ऋतु चुप रही। उसकी आंखों में आंसू थे। फिर धीमे से बोली—
“अगर इससे मेरे पापा की जान बच सकती है, तो मैं तैयार हूं।”

करण ने वादा किया—
“तुम्हारी इज्जत और मर्यादा का पूरा ध्यान रखूंगा।”
और उसी दिन दोनों ने कोर्ट में शादी के कागजों पर दस्तखत कर दिए।
ना कोई बारात, ना दुल्हन का लाल जोड़ा, ना शादी की रस्में।
बस दो अनजान लोग मजबूरी में एक समझौते में बंध गए।

कोर्ट मैरिज के बाद करण ने ऋतु को अपने बड़े से घर के गेस्ट रूम में ठहराया। कोई शादी की सजावट नहीं, ना ढोल नगाड़े।
बस एक हल्का गुलाबी सूट, जिसे खुद करण ने खरीदकर दिया था।
करण ने साफ कहा—
“यह रिश्ता सिर्फ नाम का है। तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होगी। 7 दिन बाद सब खत्म हो जाएगा।”

ऋतु ने सिर झुका लिया। उसके लिए यह शादी वाकई एक समझौता थी, लेकिन उस समझौते में भी उसने अपने भगवान को साक्षी मान लिया था।

धीरे-धीरे बदलता रिश्ता

शुरुआती दिन बिल्कुल खामोशी में बीते। दोनों के बीच सिर्फ जरूरत भर की बातें होती—
“खाना खा लिया?”, “कुछ चाहिए तो बताना।”

लेकिन उसी खामोशी में कहीं एक अनकहा जुड़ाव पनप रहा था।
एक दिन नौकरानी ने आकर कहा—
“साहब, वो मैडम सुबह से कुछ खाई-पी नहीं है। पूजा में बैठी है।”
करण ने फाइलें बंद की और हल्की मुस्कान के साथ बोला—
“उन्हें रहने दो। यह घर और इसके नियम वह खुद समझ जाएंगी।”

पर उसके दिल में सवाल उठ रहे थे—
यह लड़की इतनी चुप क्यों है?
क्या उसके अपने सपने कभी नहीं थे?
उसने बिना किसी सवाल के सिर्फ पापा के इलाज के लिए हां कैसे कर दी?

अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर एक छोटा सा कागज रखा था। उस पर लिखा था—
“हमारी शादी सिर्फ कागजों की बात नहीं रही। अब यह रिश्ता मेरे भगवान के सामने भी है। आपने मेरे पापा को सहारा दिया, इसके लिए मैं आभारी हूं।”

करण ठहर गया। उसने उस चिट्ठी को मोड़कर अपनी जेब में रख लिया—जैसे कोई एहसास जिसे वह खोना नहीं चाहता।

तीसरे दिन करण अस्पताल गया। ऋतु के पिता बेहोश थे। ऋतु उनके पास बैठी, हाथ थामे थी।
करण के आने पर उसने बस हल्की मुस्कान दी। ना कोई शिकायत, ना कोई सवाल।
करण चुपचाप वहां कुछ देर बैठा और फिर लौट आया। उसकी आंखों में पहली बार अजीब सा सुकून था।

शाम को बारिश हो रही थी। करण बालकनी में खड़ा था। सामने से रोशनी आ रही थी।
ऋतु अपने कमरे में पूजा कर रही थी। उसके चेहरे पर शांति थी और आंखों में गहरी आस।
करण दरवाजे पर कुछ देर खड़ा रहा, फिर धीरे से फुसफुसाया—“दिलचस्प”—और वापस लौट आया।

नेहा की वापसी

चौथे दिन अचानक घर का दरवाजा जोर से खुला। नौकरानी हड़बड़ा कर बोली—
“साहब, एक मैडम आई है। कहती है आपकी मंगेतर है।”
करण सन्न रह गया। नाम पूछा तो जवाब मिला—नेहा मैडम।

वो कुछ पल वहीं खड़ा रहा, फिर खुद को संभालते हुए बोला—
“उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाओ, मैं आता हूं।”

दरवाजा खोला तो सामने खड़ी थी नेहा—चेहरे पर गुस्सा, आंखों में सवाल और होठों पर शिकायतें।
उसने तेज आवाज में कहा—
“करण, यह क्या है? तुमने मुझसे बिना बताए शादी कर ली? यह लड़की कौन है?”

करण ने शांत लहजे में कहा—
“बैठो नेहा, बात करते हैं।”
नेहा लगभग चीखते हुए बोली—
“मैंने बस दो दिन मांगे थे और तुमने मेरा इंतजार भी नहीं किया। तुमने किसी और से शादी कर ली?”

करण ने उसकी आंखों में देखा और धीमे स्वर में कहा—
“नेहा, तुम लेट हुई। वो वक्त पर आ गई। यह शादी मजबूरी में 7 दिन के लिए हुई है, और तुम जानती हो क्यों।”

नेहा तिलमिला उठी—
“मजबूरी! और अब तुम उसे पत्नी कह रहे हो? कितने दिनों के लिए? सात दिन?”
उसकी आवाज जहर की तरह चुभ रही थी।
करण चुप हो गया। कुछ देर बाद नेहा वहां से चली गई।
लेकिन जाते-जाते उसने तंज कसते हुए कहा—
“यह कहानी यहीं खत्म नहीं होगी, करण। यह जंग अभी बाकी है।”

ऋतु का संघर्ष और करण का बदलता दिल

अस्पताल से लौटते वक्त करण ने देखा कि ऋतु का चेहरा पीला पड़ गया है।
पूरे दिन उसने सिर्फ अपने पापा की चिंता में समय बिताया था।
घर लौट कर भी वो बिना खाए ही पूजा में बैठी रही।

करण ने पहली बार सख्ती से कहा—
“ऋतु, अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊंगा। तुम बीमार पड़ी तो पापा की देखभाल कौन करेगा?”

ऋतु चौकी। उसकी आंखों में अनजाने से स्नेह की झलक थी।
वह चुपचाप उठी और करण के साथ बैठकर खाना खा लिया।
उस रात दोनों देर तक बात करते रहे।
ऋतु ने बताया—
“मेरे पापा के लिए मैंने सब छोड़ा। मेरे सपनों में कभी यह शादी नहीं थी। लेकिन अब लगता है भगवान ने मुझे यहां भेजा है।”

करण बस सुनता रहा। लेकिन उसके दिल में हलचल बढ़ रही थी।

नेहा इस रिश्ते को हजम नहीं कर पा रही थी।
वह बार-बार करण को फोन करती, मैसेज भेजती। लेकिन करण जवाब नहीं देता।
गुस्से में आकर उसने ऋतु को कॉल किया और ताने मारते हुए बोली—
“तुम सोचती हो कि करण तुम्हें सच में चाहता है? यह शादी तो बस सात दिन की है। सातवें दिन तुम्हें इस घर से निकाल दिया जाएगा। तुम्हारा कोई हक नहीं है करण पर।”

ऋतु ने कुछ नहीं कहा। बस आंखों से आंसू बह निकले।
रात को जब करण आया तो उसने देखा ऋतु चुपचाप रो रही है।
उसने पूछा—
“क्या हुआ?”
ऋतु ने सिर झुका लिया—
“कुछ नहीं, बस ऐसे ही।”

करण ने उसका चेहरा उठाया और पहली बार साफ शब्दों में कहा—
“ऋतु, याद रखना। यह शादी चाहे मजबूरी में हुई, लेकिन अब तुम इस घर और मेरे जीवन का हिस्सा हो। कोई तुम्हें कमजोर नहीं कर सकता।”

ऋतु की आंखों में आंसू थे, मगर इस बार राहत के।

सातवां दिन—फैसले की घड़ी

आखिरकार सातवां दिन आ गया।
सुबह-सुबह करण की मां ने उसे पास बुलाया। उनकी हालत थोड़ी सुधरी थी।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा—
“बेटा, मैंने तुझसे एक वादा लिया था और तूने निभा दिया। अब मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी हो गई है।”

करण की आंखें भर आईं। वह जानता था कि आज के बाद उसे ऋतु से अलग होना है।
शाम को वकील आया और उसने फाइल आगे रखी—
“यह डिवोर्स पेपर्स हैं। आज के बाद आप दोनों आजाद हैं।”

ऋतु ने कांपते हाथों से पेन उठाया। उसकी आंखें छलक रही थीं।
लेकिन उसने दस्तखत कर दिए।

करण की बारी आई। उसने पेन उठाया मगर हाथ कांपने लगे।
उसका दिल मानने को तैयार नहीं था।
कुछ देर सोचने के बाद उसने पेन नीचे रख दिया और पेपर फाड़ कर फेंक दिए।
सब लोग हैरान रह गए।

करण ने सबके सामने कहा—
“यह रिश्ता मजबूरी से शुरू हुआ था। लेकिन अब यह मेरे दिल की जरूरत बन गया है। मैं ऋतु के बिना जी नहीं सकता।”

ऋतु रोते हुए घर छोड़कर स्टेशन चली गई।
उसने सोचा—यह सब करण ने मां के सामने कहा, लेकिन मैं उसकी जिंदगी में बोझ नहीं बनना चाहती।

जब करण को पता चला तो वह पागलों की तरह स्टेशन भागा।
प्लेटफार्म पर भीड़ थी। ऋतु ट्रेन पकड़ने वाली थी।
करण ने जोर से आवाज लगाई—
“ऋतु, रुको!”

ऋतु पीछे मुड़ी। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
करण दौड़कर उसके सामने आया और सबके सामने घुटनों पर बैठ गया—
“मैंने जबरदस्ती तुम्हें इस रिश्ते में खींचा था। लेकिन अब मैं अपने दिल से तुम्हें अपनाना चाहता हूं। क्या तुम हमेशा मेरी पत्नी बनोगी?”

ऋतु के आंसू थम ही नहीं रहे थे।
उसने कांपते हाथों से करण का हाथ थाम लिया और बोली—
“हां, अब यह रिश्ता भगवान के नाम पर है। मैं तुम्हारी हूं।”

चारों ओर तालियां बज उठीं।
ट्रेन चल पड़ी, मगर अब ऋतु को कहीं नहीं जाना था।

घर लौटते ही करण की मां ने दोनों को एक साथ देखा।
उनकी आंखों से आंसू बह निकले।
उन्होंने कहा—
“आज मुझे लगता है भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। अब मैं चैन से जी सकती हूं।”

ऋतु के पिता का इलाज करण ने जारी रखा। धीरे-धीरे वह भी ठीक होने लगे।
करण और ऋतु की मजबूरी से शुरू हुई शादी अब एक सच्चा और गहरा रिश्ता बन चुकी थी।

कहानी की सीख

कभी-कभी मजबूरी में उठाया गया कदम भगवान का दिया हुआ आशीर्वाद बन जाता है।
सच्चे रिश्ते कागजों से नहीं, दिल से बनते हैं।
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि कुछ रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन सच्चाई और भरोसा उन्हें हमेशा के लिए जोड़ देता है।
प्यार कभी दिखावे से नहीं, बल्कि छोटे-छोटे एहसासों से बड़ा होता है।

तो याद रखिए—जो रिश्ता दिल से जुड़ जाए, वह सात दिन क्या, सात जन्मों तक साथ निभाता है।

अब आपसे सवाल:
अगर आपकी जिंदगी में भी ऐसा कोई रिश्ता आ जाए जो मजबूरी से शुरू हुआ हो, लेकिन धीरे-धीरे दिल की गहराई तक उतर जाए—तो क्या आप उसे अपनाएंगे या छोड़ देंगे?
अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताइए।

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मिलते हैं अगली कहानी में। तब तक रिश्तों की कीमत समझिए और अपने अपनों को संभाल कर रखिए।
जय हिंद।