ग़लती से ग़लत बस में बैठ गया लड़का, जब कंडक्टर ने उसे उतारा तो बस स्टैंड पर उसे ऐसा कुछ मिला जिसने

एक ग़लत बस, एक पुरानी डायरी और नई शुरुआत – मोहन की परिवर्तन यात्रा

प्रस्तावना
कभी एक छोटी–सी भूल पूरी जिंदगी का दिशा–निर्देश बदल देती है। हम सोचते हैं “सब खत्म,” पर वही क्षण हमारे लिए अप्रत्याशित द्वार खोल देता है। यह कहानी है मोहन की—एक साधारण ग्रामीण लड़के की—जिसने एक गलत बस में बैठकर अपने सपनों की नौकरी खो दी, पर उसी गलती ने उसे एक ऐसे उद्देश्य से मिला दिया जो किसी वेतन से बड़ा, किसी पद से ऊँचा था।

भाग 1: गाँव – मिट्टी, मेहनत और मामूली सपनों में छुपी विशाल आकांक्षा
मोहन का गाँव सुबह के सुनहरे कुहासे में लिपटा रहता। खेतों पर ओस की बूंदें ऐसे चमकतीं जैसे किसी ने हर धान की बाल में चाँदी का कण टाँक दिया हो।
उसका परिवार गरीबी की परिभाषा था लेकिन ईमानदारी और आत्मसम्मान उनकी विरासत।

पिता रामलाल: छोटे जोत के किसान—“धरती थकती नहीं, इंसान थक जाता है बेटा, इसलिए शिकायत मत करना,” उनका स्थायी वाक्य।
माँ सीता देवी: चूल्हे की आँच और अपनत्व की गंध में घर को आश्वस्ति का मंदिर बनाती।
छोटी बहन राधा: बारह बरस की, गौरैया–सी चंचल।
मोहन पढ़ाई में तेज। स्कूल की टीन की छत के नीचे बैठकर वह वैज्ञानिक खोजों और उद्योगपतियों की आत्मकथाएँ पढ़ता तो उसकी आँखों में भी वही चमक उतर आती—“मैं भी कर सकता हूँ।”

भाग 2: पहला बुलावा – अवसर का पत्र
बारहवीं के बाद उसने विभिन्न कंपनियों में प्रशिक्षु (ट्रेनी) पद हेतु आवेदन डाक से भेजे। एक दिन डाकिए ने नीली मुहर वाला बड़ा लिफाफा दिया। “प्रिय मोहन, आपको इंटरव्यू हेतु आमंत्रित किया जाता है…”
घर में दीपावली–सा उल्लास। पिता ने लकड़ी के संदूक से पुरानी खादी की पोटली निकाली—कुछ सिक्के, कुछ नोट, वर्षों की बचत। “यही है पूंजी। इसे दौलत बना या अनुभव—चयन तेरा।”
माँ ने सूखी लाल मिर्च के तेल में डूबा आम का अचार, सत्तू की टिक्कियाँ, गुड़ और मोटी रोटियाँ कपड़े में बाँध कर थैले में रखीं। “रास्ते में बाहर का मत खाना, पेट को गड़बड़ नहीं होने देना इंटरव्यू से पहले।”
मोहन ने प्रण दोहराया—“मैं लौटकर आपका बोझ हल्का करूँगा।”

भाग 3: बस अड्डा – भीड़ और भ्रम
ज़िला मुख्यालय का बस स्टैंड उसकी कल्पना से विशाल—पटरियों पर लुढ़कती बोरियाँ, चाय की उबलती केतली, चिल्लाहटें: “पटना… ग्वालियर… शहर वाली सीधी…”
मोहन ने टिकट खिड़की पर पूछा—“फलाँ शहर की पहली बस?”
किसी ने हाथ हिलाया—“वो सामने वाली। जल्दी चढ़ो छूट जाएगी।”
उसने बिना दोबारा पक्का किए दौड़ लगाई और बस में चढ़ गया। सीट मिल जाना उसे संकेत लगा—“किस्मत साथ है।” खिड़की पर कोहनी टिकाए वह भविष्य के कोलाज देखने लगा: ऑफिस का पहचान–पत्र, टाई, ई–मेल्स, बैंक में वेतन संदेश…

भाग 4: नींद और भटकाव
सत्तू–रोटी खाकर उसने माँ के हाथ की महक महसूस की और अनजाने उनींदेपन में चला गया। जब आँख खुली तो दृश्य बदल चुका था—ना तो शहरों की बढ़ती रोशनी, न बड़े धुएँ वाले कारखानों की कतार—बल्कि सामने झाड़ियों, दूर नीची पहाड़ियाँ और एक सुनसान–सा छोटा प्लेटफ़ॉर्म।
“भैया यह कौन–सा पड़ाव?”
कंडक्टर ने टिकट देखा, भौंहें सिकोड़ ली—“अरे यह तो पश्चिम वाली रूट का है। तुम तो दक्षिण–पश्चिम में जा बैठे। यह बस उस शहर को नहीं जाती।”
“तो मैं…? इंटरव्यू…” आवाज काँप गई।
“आगे रुकना अंतिम। उतरो। रातभर यही वापस जाएगी पर तब तक देर हो जाएगी शायद।”

भाग 5: टूटन का क्षण
बस चली गई। धूल ने कुछ क्षण उसे घेर कर खालीपन और गहरा कर दिया। एक अजनबी छोटे कस्बे के निर्जन बस–स्टैंड पर लोहे की ठंडी बेंच पर बैठे उसने सिर दोनों हथेलियों में छिपा लिया। भविष्य—जो अभी आधे घंटे पहले चमक रहा था—धुँधला काँच बन गया।
“मैंने सब बिगाड़ दिया… पिताजी की पूँजी… माँ का अचार… इंटरव्यू छूट जाएगा… मैं असफल हूँ।”
आँसू उभर आए—पर भीतर कोई हल्की सी आवाज भी थी—“ठीक है, जो हुआ वो तथ्य है; अब क्या?”

भाग 6: भूला हुआ बैग – संयोग या लक्षण?
पैर के पास पुरानी कैनवस का एक बैग पड़ा था—कोई यात्री छोड़ गया होगा। उसने झिझक कर उठाया (सिर्फ यह देखने कि मालिक का पता मिले)। भीतर:

कुछ मुड़े नोट
दो सépia टोन पुराने फोटोग्राफ (एक परिवार—पुरुष, स्त्री, छोटा बालक)
एक टूटी रीढ़ (spine) वाली चमड़े के कवर की डायरी
पहले पन्ने पर नाम: “अक्षय मेहरा – 1997 से…”
मोहन ने अनायास एक पृष्ठ पढ़ा—
“आज फिर व्यापार का सौदा जीता पर घर हारता गया। बेटे ने ‘पापा कब आएंगे’ का प्रश्न पूछना छोड़ दिया। पत्नी की आँखों में निराश आदत बन गई। मैंने सोचा सम्पत्ति = सफलता, पर शून्यता बढ़ती गई…”
मोहन हर पंक्ति में एक ऐसा व्यक्ति महसूस कर रहा था जो ‘लक्ष्य पाने’ की दौड़ में ‘अर्थ खो’ चुका था—वह अर्थ जिसे पाने के लिए मोहन अभी दौड़ने जा रहा था। उसके मन में नैतिक झंकार—“यह बैग लौटाना मेरा कर्तव्य है।” उसने बिज़नेस कार्ड ढूँढ निकाला—एक पते पर हल्की स्याही।

भाग 7: अजनबी हवेली
पता वही कस्बा—नगर के बाहर की दिशा। वह पैदल निकला। रास्ते की धूल, पेड़ों की झूलती छाया, कुत्तों की अनमनी भौंक, दूर एक पुरानी कोठी—जालीदार बरामदा, मुरझाई बेलों से अटका हुआ।
दरवाज़ा कटकटाया। एक वृद्ध द्वारपाल–सदृश व्यक्ति—धँसी आँखें, सफ़ेद दाढ़ी—बोला, “किससे?”
“अक्षय मेहरा जी… यह बैग… शायद उनका…”
वृद्ध की पुतलियाँ हल्का काँपीं—“अंदर बैठो।”

भाग 8: प्रतीक्षा का अँधेरा
घर के भीतर धूप न के बराबर—भारी परदे, दीवारों पर धूल सने चित्र। वातावरण में परित्याग की गंध।
वृद्ध ने पानी रखा—“साहब पहले बड़े उद्योगपति रहे—अब एकांतवासी। परिवार… छोड़ गया। शब्दों के काँटे अभी भी अंदर।”
मोहन ने धीमे कहा—“मैं बैग लौटाने आया हूँ।”
वृद्ध ने अंदर एक दरवाज़े पर दस्तक दी—“साहब, कोई लड़का… बैग लेकर।”
अंदर से धीमी थरथराती आवाज—“आने दो।”

भाग 9: अक्षय – पछतावे का चेहरा
कक्ष में एक खाट, बगल में दवाइयों की शीशी, टूटे फ्रेम में मुस्कुराता पुराना परिवार–फोटो। खाट पर दुबला, सफ़ेद बालों में उलझा चेहरा—अक्षय। उसकी आँखें बाहर निराश पत्थर नहीं—अंदर पिघलते हिमनद थीं।
मोहन ने बैग आगे किया—“यह शायद आपका…”
अक्षय की उंगलियाँ काँपीं—उन्होंने बैग को अपने सीने से लगाया मानो कोई खोया हिस्सा लौट आया। फोटो बाहर निकाली—एक क्षण को उनकी साँस अटक गई—“सीमा… आरव…” होंठों पर नाम टूटकर बिखरे।
वह रोए नहीं—बस गहरी साँसें—जैसे वर्षों बाद हवा भीतर पूरा प्रवेश कर रही।
“तुम कौन?”
“मोहन… गलती से गलत बस… यह बैग मिला… लौटाने सोचा।”
अक्षय ने कुर्सी की पकड़ मजबूत की—“गलतियाँ… अजीब चीज़… मेरी एक गलत प्राथमिकता ने सब कुछ छीना।”

भाग 10: मोहन का संकट साझा
मोहन ने अपना संक्षिप्त प्रसंग बताया—इंटरव्यू छूटना, परिवार की आशाएँ।
अक्षय ने सुनते हुए कहा—“तुम्हारी ‘गलत बस’ ने तुम्हें मेरे सामने लाकर एक आईना रखा है—तुम अभी दौड़ में प्रवेश करोगे; मैं दौड़ पूरी कर भार से टूटा। शायद हम दोनों एक दूसरे से कुछ बचा सकते हैं।”

भाग 11: डायरी का शेष – अतीत का अनावरण
अक्षय ने मोहन को शाम तक रुकने को कहा। उन्होंने स्वयं अपनी कहानी सुनाई (डायरी के पन्नों से आगे):

छोटे नगर से उदारीकरण के बाद व्यापार विस्फोट का लाभ; आय तेजी से चार गुना; घर में भौतिक वस्तुएँ बढ़तीं, संवाद घटता।
पत्नी सीमा ने कहा—“समय भी निवेश है”—उन्होंने हँसकर टाला।
बेटा आरव का स्कूल वार्षिक समारोह—वे क्लाइंट बैठक के कारण नहीं गए। पहली बार आरव ने सीना झुका लिया।
सीमा ने अलग कमरा लेना शुरू—“तुम रहते नहीं, जो आते हो वह भी यहाँ उपस्थित नहीं।”
अंतिम विच्छेद: अक्षय ने परिवार को “धीमे करियर अवरोध” कह दिया—सीमा बेटे को लेकर मायके चली गई और वापस नहीं आई।
व्यापार शिखर के बाद साझेदार ने धोखा + बाज़ार गिरावट—अक्षय ने एक साथ वित्तीय व भावनात्मक रिक्तता अनुभव की।
मोहन ने महसूस किया—‘मैं अभी शुरुआत में हूँ—मैं यह करने नहीं आया था कि अंत में अकेला रह जाऊँ।’

भाग 12: अर्थ की खोज – द्विपक्षीय समझौता
मोहन: “साहब, मैं वापस जाऊँगा—पर नई दृष्टि के साथ। क्या आप… अपने बेटे को खोजने का प्रयास दोबारा करेंगे?”
अक्षय: “सालों से पत्र लिखे—भेजे नहीं। भय था अस्वीकृति का। क्या तुम्हारी उपस्थिति मेरी हिम्मत बनेगी?”
मोहन: “अगर मैंने एक गलती से नई मुलाक़ात पाई है, आप अपनी पुरानी गलती से नया संबंध पा सकते हैं।”

भाग 13: पुनर्संपर्क की प्रक्रिया
मोहन ने योजना बनाई:

    पुराने परिचित वकील से आरव के वर्तमान शहर का पता (क़ानूनी कागज़ों के पुराने पते से सुराग)
    एक सम्मान–पूर्ण पत्र—अक्षय ने लिखा, मोहन ने संपादित:
    “प्रिय आरव, मैं स्पष्टीकरण नहीं माँगता, सिर्फ़ उत्तरदायित्व स्वीकार करता हूँ। यदि संवाद की एक दरार बची हो तो एक छोटा उत्तर भी पर्याप्त होगा।”
    कूरियर—ट्रैकिंग।
    7 दिन में उत्तर—एक छोटा ई–मेल: “स्वास्थ्य कैसा? मुझे सोचने का समय चाहिए।”
    अक्षय ने कागज़ मोड़ कर हाथ काँपते हुए रखा—“उम्मीद वापस माँगना नहीं, इंतज़ार करना है।”

भाग 14: मोहन का निर्णय – इंटरव्यू खोया, दिशा नहीं
मोहन ने कंपनी को ई–मेल किया (ग्राम सेवा केंद्र के डिजिटल कियोस्क से):
“एक आकस्मिक परिस्थिति के कारण निर्धारित तिथि अनुपस्थित; अनुरोध है पुनर्निर्धारण या भविष्य रिक्ति में विचार।”
आश्चर्य—तीन दिनों बाद प्रत्युत्तर—“आपका शैक्षिक रिकॉर्ड मजबूत है; अगला बैच दो महीने बाद। तब उपस्थित रहें।”
वह हतप्रभ—गलती = पराजय नहीं बनी; उसे अंतराल मिला—जो अब वह अक्षय की सहायता और आत्म–तैयारी में लगाएगा।

भाग 15: परामर्श – पीढ़ियों का सेतु
अक्षय (उद्योग–अनुभव) + मोहन (नवीन सीखने की भूख) = संवाद:

समय प्रबंधन बनाम समय उपस्थिति
“पैसा उत्पादक संपत्ति है, पर समय पुनरुत्पादित नहीं”—अक्षय की सीख
मोहन ने नोट्स बनाए—इन्हें उसने “जीवन परिचालन मैनुअल” कहा।

भाग 16: आरव का आगमन
एक दिन बरसात की भीनी दोपहर—मुख्य द्वार पर कार रुकी। बीस के उत्तरार्ध में युवक—आँखों में जिज्ञासा + सावधानी।
अक्षय खड़े होना चाहते थे—घुटने काँपे—मोहन ने सहारा दिया।
आरव ने दूरी से देखा—“आप… बदले हुए लग रहे।”
अक्षय: “बुढ़ापा बदल देता है।”
आरव: “नहीं, पछतावा।”
मोहन ने चुपचाप हटकर जगह छोड़ी—सिर्फ़ दृश्य का मध्यस्थ नहीं, उत्प्रेरक बनना उसका उद्देश्य था।

भाग 17: संवाद – टूटे धागे का गाँठ
आरव: “जब मुझे पुरस्कार मिला था और आप नहीं आए—मैंने तय किया था सफलता आपको दिखाऊँगा, आपके साथ नहीं।”
अक्षय: “मैंने व्यापार को परिवार पर प्राथमिकता दी—यह असफल रणनीति थी।”
आरव: “क्या अब आप मुझसे ‘प्रदर्शन’ नहीं, उपस्थिति मांगेंगे?”
अक्षय: “अब मैं सिर्फ सुनने आया हूँ—अगर तुम अनुमति दो।”
वह क्षण आँसू–रहित पर गहरा—जैसे दो महाद्वीप भूकंपीय वर्षों बाद फिर पास आ रहे हों।

भाग 18: सीमा का पत्र
कुछ सप्ताह बाद आरव ने अपनी माँ (सीमा) को स्थिति लिखी—संक्षिप्त उत्तर मिला:
“अक्षय को बताना—क्षमा व्यक्तिगत शांति के लिए संभव; साथ लौटना व्यावहारिक नहीं। उन्हें अपना शेष जीवन सार्थक बनाने दो।”
अक्षय ने पत्र को माथे से लगाया—“यह ‘वापसी नहीं’ का शोक नहीं; यह ‘स्वीकार’ की मुहर है।”

भाग 19: परोपकार योजना
अक्षय ने मोहन से कहा—“मैं जो संपत्ति बची है उसे अर्थ देना चाहता हूँ। अतीत में मैंने केवल लाभ अधिकतम देखा—अब प्रभाव अधिकतम।”
मोहन ने प्रस्ताव बनाया:

‘समय–संवर्धन छात्रवृत्ति’ (ग्रामीण मेधावी छात्रों के लिए—ताकि वे परिवहन/गलत सूचना के कारण अवसर न खोएँ जैसे वह लगभग खो देता)
एक छोटा ‘करियर कोचिंग एवं मूल्य–केंद्र’ केंद्र कस्बे में—पुस्तकालय + मार्गदर्शन सत्र।
अक्षय ने अपनी पूँजी का भाग ट्रस्ट में रखा—मोहन को संचालन संरक्षक (guardian of intent) नियुक्त किया—पर स्पष्ट किया “मालिकाना नहीं—उत्तरदायित्व।”

भाग 20: मोहन का इंटरव्यू – नई परिभाषा
दो महीने बाद सही बस, सही मार्ग। इंटरव्यू कक्ष में अधिकारी ने पूछा—“आप देर से क्यों शामिल हो रहे इस बैच?”
मोहन: “एक गलती से मैंने सीखा कि योजना विफल हो सकती है; मैंने दो माह में वह सीखा जो शायद प्रशिक्षण में नहीं मिलता—मानवीय मूल्यांकन, समय की प्राथमिकता। यह मुझे अधिक स्थिर बना गया।”
परिणाम—चयन। पर उसने अंशकालिक मॉडल चुना ताकि ट्रस्ट केंद्र भी सँभाले। कंपनी ने उसकी परिपक्वता सराही—उसे ‘कम्युनिटी एंगेजमेंट’ प्रोजेक्ट में शामिल किया।

भाग 21: केंद्र की पहली सुबह
एक किराये के पुरानी किरासीन गंध वाले हॉल को साफ कर—टूटे टेबल मरम्मत, दीवार पर प्रेरक वाक्य:
“गलत बस में चढ़ना अन्त नहीं, यदि आप उतरकर सही दिशा पहचान लें।”
पहले दिन पाँच बच्चे—संकोच। मोहन ने पूछा—“आपको शहर जाते डर क्यों लगता?” जवाब मिले—भय, मार्गज्ञान अभाव, पिता की शंका।
उसने प्रायोगिक सत्र—नक्शा पढ़ना, समय सारणी समझना, सुरक्षित यात्रा।

भाग 22: अक्षय का रूपांतरण
अक्षय अब हफ्ते में दो दिन केंद्र आकर आर्थिक साक्षरता का सत्र लेते—“बचत बनाम निवेश”—पर हर उदाहरण में जोड़—“उद्देश्य से पृथक पैसा आपको सूना कर देगा।”
उनका चेहरा अब भी कमजोर, पर आवाज दृढ़। आरव बीच–बीच में आता—वह भी किशोरों को बताता कैसे ‘अनुपस्थिति’ घर में मौन दरार बनाती।

भाग 23: मोहन का परिवार शहर में
मोहन ने पिता–माँ को बुलाने पूर्व निर्णय लिया कि उनका स्वाभिमान अक्षुण्ण रहे—उन्हें “निर्भर” नहीं “योगदानशील” महसूस कराए।
पिता के लिए छत पर जैविक सब्जी उगाने का प्रोजेक्ट; माँ केंद्र की लड़कियों को पौष्टिक स्थानीय व्यंजन बनाकर सिखातीं—“स्वास्थ्यकर सस्ती रेसिपी।”
राधा को पुस्तकालय ने चकित किया— उसने विज्ञान प्रदर्शनी मॉडल बना कर जिला स्तर पर जीता—उसके प्रमाणपत्र पर रामलाल की आँखें नम—पर गर्व से भरी।

भाग 24: संघर्ष – गलत आरोप
एक बार किसी ने अफवाह उड़ा दी—“मोहन ने बूढ़े अमीर आदमी (अक्षय) को प्रलोभन देकर संपत्ति कब्जाई।”
मोहन ने सार्वजनिक बैठक रखी—ट्रस्ट के कागज़, ऑडिट रिपोर्ट दीवार पर प्रोजेक्ट—“स्वामित्व = ट्रस्ट; व्यक्तिगत खाते = शून्य लाभ।”
अक्षय ने आगे कदम—“मेरा अतीत स्वार्थ से भरा था—यदि यह युवक स्वार्थी होता तो गुम होने का अवसर उसी दिन ले लेता जिस दिन उसने मेरा बैग पाया था।”
संदेह थमा—पारदर्शिता ने कथा को बचाया।

भाग 25: आरव और अक्षय – अन्तिम सेतु
अक्षय का स्वास्थ्य गिरने लगा। एक शाम उन्होंने आरव और मोहन दोनों को बुलाया—
“मैंने मूर्खतापूर्ण ढंग से ‘दुःखी व्यक्ति’ की पहचान पाल ली थी। तुम दोनों ने मुझे ‘उपयोगी प्रायश्चित’ का रास्ता दिया। आरव, मुझे पिता कहलाने योग्‍य बनाने का श्रेय तुम्हारी अनुमति को; मोहन, तुम्हें ‘दूसरा बेटा’ कहने का साहस तुम्हारी निष्काम उपस्थिति को।”
मोहन ने कहा—“साहब, मैंने भी आपका अनुभव उधार लेकर अपने भविष्य की गलतियों का ब्याज बचाया।”

भाग 26: विदाई और विरासत
एक हल्की वर्षा भरी रात अक्षय ने शांत साँसों में दुनिया छोड़ी—टेबल पर खुली डायरी का नया पन्ना:
“अंत में दौलत = वे चेहरें जो जाने के क्षण आपके पास हों। अब मैं सम्पन्न हूँ।”
ट्रस्ट ने उनकी स्मृति में ‘अक्षय मेहरा उत्तरदायित्व छात्रवृत्ति’ जोड़ दी—आवेदन में अनिवार्य प्रश्न: “आप कौन–सी संभावित गलती देखते हैं जिससे बचना चाहेंगे?”

भाग 27: मोहन का व्यापक प्रभाव
केंद्र का मॉडल पास–पड़ोस कस्बों में प्रतिरूपित—सरकारी कौशल मिशन ने साझेदारी प्रस्तावित।
मोहन ने कंपनी के CSR विंग के साथ “ग्रामीण संक्रमण सहायता कार्यक्रम” शुरू किया—यातायात, समय सारिणी, इंटरव्यू शिष्टाचार, वित्तीय धोखाधड़ी से सुरक्षा।
उसने इंटरव्यू वार्ता में हमेशा ‘गलत बस’ की कथा साझा की—श्रोता हँसते भी और नोट भी बनाते।

भाग 28: राधा की उड़ान
राधा ने इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण—वह बोली—“भैया, अगर तुम गलत बस में न होते तो शायद यह केंद्र न होता; मेरे जैसे कितने बच्चों को दिशा न मिलती।”
मोहन मुस्कुराया—“गलत मार्ग में छिपी दिशा को देखना ही दृष्टि है।”

भाग 29: समापन दृश्य
संध्या। केंद्र की दीवारों पर बच्चों की चित्रकारी—एक बस जिसे दो मार्ग—एक धुँधला, एक उजला। मोहन ने नए बैच से पूछा—“अगर गलती हो जाए?”
एक बालिका बोली—“हम रोएँगे थोड़ी देर—फिर देखें कहाँ उतरे हैं—वहीं का अवसर पकड़ लेंगे।”
मोहन ने खिड़की से बाहर देखा—क्षितिज पर ढलता सूरज—“हारी हुई दौड़ नहीं, बदला हुआ मार्ग है,” उसने मन ही मन दोहराया।

उपसंहार / सीख

    गलती = तथ्य; परिभाषा = our response.
    अवसर हमेशा ‘सीधे चयनित मार्ग’ पर नहीं—कभी भटकाव ही पुल देता है।
    सफलता के समीकरण में “उपस्थिति” अनिवार्य चर है—अन्यथा उपलब्धियाँ रिक्त अर्थ रखतीं।
    पारदर्शिता संदेह का समाधान है; अच्छा कार्य स्वयं रक्षा नहीं करता—संरचना बनानी पड़ती है।
    प्रायश्चित को क्रिया में रूपांतरित करना ‘देर से सही’ पर निर्णायक पुनर्निर्माण है।
    कृतज्ञता केवल धन्यवाद नहीं—अर्थपूर्ण प्रतिफलन (meaningful reciprocation) है।

अंतिम पंक्ति
एक गलत बस ने मोहन को उसके निर्धारित इंटरव्यू से दूर और उसके असली उद्देश्य के करीब पहुँचा दिया। जीवन ने साबित किया—कभी–कभी खोना = अनियोजित प्राप्ति का प्रथम चरण।

(समाप्त)