दारोगा ने रास्ते में रोकी स्कूटी मारा थप्पड़ सच्चाई पता चली कि ये लड़की कौन हैं, तो सबके होश उड़ गए!
सुंदरपुर मार्ग की सच्चाई: एक लंबी कहानी
सुंदरपुर मार्ग की धूल भरी सड़क पर तेज़ गति से एक स्कूटी दौड़ रही थी। उस पर बैठी थी अंजलि, सलवार-कुर्ते में साधारण सी दिखने वाली लड़की, जो अपनी बहन की शादी में जा रही थी। उसके पास कोई सरकारी गाड़ी नहीं थी, न कोई रुतबा। वह बस एक आम लड़की थी, जिसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी और मन में उम्मीद।
अंजलि ने विजयनगर की गलियों से गुजरते हुए हवा को महसूस किया। आज का दिन उसके लिए खास था। लेकिन सुंदरपुर मार्ग के मोड़ पर उसकी स्कूटी धीमी हो गई। सामने पुलिस की बैरिकेडिंग थी, लकड़ी के डंडे, कुछ सिपाही और बीच में विजय वर्दी में खड़ा था। उसकी आंखों में अकड़ थी। विजय ने हाथ उठाया और रुकने का इशारा किया।
अंजलि ने स्कूटी साइड में लगाई और शांत लहजे में पूछा, “क्या हुआ?” विजय ने उसे सिर से पांव तक घूरा और पूछा, “कहां जा रही हो?” अंजलि ने जवाब दिया, “मेरी बहन की शादी है।” विजय की होठों पर कुटिल मुस्कान आ गई। “शादी, मगर हेलमेट नहीं और स्पीड भी ज्यादा थी।” उसने जेब से चालान बुक निकाली। “नाम बताओ, चालान कटेगा।”
अंजलि ने कहा, “मैंने कोई नियम नहीं तोड़ा।” विजय का चेहरा सख्त हो गया। “मैडम, हमें कानून मत सिखाओ।” अंजलि की आंखों में चमक थी, पर वह चुप रही। विजय ने सिपाही मोहन को इशारा किया, “देखो, यह होशियार बन रही है।” मोहन ने हिचकते हुए कहा, “सर, जाने दें।” विजय ने ठहाका मारा, “जाने दें, पहले सबक सिखाओ।”
अचानक विजय ने अंजलि के गाल पर जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। सड़क पर सन्नाटा छा गया। अंजलि का सिर झटका, मगर उसने खुद को संभाला। उसकी आंखों में गुस्सा था, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। विजय ने सिपाहियों को देखा, “क्या देख रहे हो? इसे पकड़ो।” मोहन और दूसरा सिपाही आगे बढ़े, मोहन ने अंजलि का हाथ पकड़ा, “चलो थाने।”
अंजलि ने हाथ झटकते हुए कहा, “हिम्मत मत करो।” विजय का पारा चढ़ गया, “पकड़ो, इसे घसीटो।” एक सिपाही ने अंजलि के बाल खींचे और उसे स्कूटी से दूर खींचा। दर्द से अंजलि कराह उठी, मगर उसने होठ सीए। उसने अपनी पहचान छिपाई थी, वह देखना चाहती थी कि कल्याणपुर थाना कितना नीचे गिर चुका है।
मोहन ने अंजलि की स्कूटी को लात मारी। “बड़ी आई शरीफ!” विजय ने चीखा, “थाने ले चलो, वहां औकात दिखाएंगे।” सिपाहियों ने उसे जीप में धकेला। सुंदरपुर मार्ग पीछे छूट गया।
कल्याणपुर थाना पास आया। पुरानी इमारत, छीलती दीवारें, बदबू। अंजलि को जीप से उतारा गया। विजय ने दरवाजे पर खड़े सिपाहियों से कहा, “स्पेशल केस।” थाने में हलचल थी। अंजलि को एक गंदी कोठरी में धकेला गया। अंदर दो औरतें थीं – सुनीता और रेखा। सुनीता ने पूछा, “क्या किया तूने?” अंजलि ने हल्की मुस्कान दी, “कुछ नहीं।”
रेखा ने आह भरी, “हम भी बेकसूर हैं, यहां सब खेल है।” अंजलि ने कोठरी देखी – टूटी खाट, बदबू, दीवारों पर निशान। उसका मन भारी हुआ। “अगर मेरे साथ ऐसा हो सकता है, तो आम लोगों का क्या हाल होता होगा?” उसने सोचा।
विजय टेबल पर बैठा, कलम घुमा रहा था। “नाम बता!” उसने चीखा। अंजलि चुप रही। विजय ने मेज पर हाथ मारा, “सुनाई नहीं देता?” अंजलि ने शांत स्वर में कहा, “रेखा।” विजय हंसा, “चालाक है, मगर ज्यादा मत कर।” उसने मोहन से फुसफुसाया, “चोरी का केस डालो, कागज तैयार करो।”
मोहन ने हिचकते हुए कहा, “सर, बिना सबूत?” विजय ने आंखें तरेरी, “सबूत यहां बनते हैं।” अंजलि ने सब सुना। उसने टेबल पर एक कागज देखा, विजय का लिखा – “राकेश साहब मामला निपटाए।” राकेश कौन था?
विजय ने कोठरी का दरवाजा खोला, “बाहर निकल।” तभी थाने में हलचल हुई। अरुण, एक ईमानदार अफसर, अंदर आया। उसकी आंखें सतर्क थीं। उसने अंजलि को देखा, उसका हावभाव शांति भरा था। “क्या केस?” उसने विजय से पूछा। विजय ने हंसकर कहा, “सड़क छाप बदतमीजी।” अरुण की भौहें सिकुड़ी, “सबूत?” विजय ने कंधे उचकाए।
अरुण ने अंजलि को गौर से देखा, “कुछ गड़बड़ है।” उसने सोचा, “क्या अंजलि का राज खुलेगा या विजय का जाल और गहरा होगा?”
कोठरी में सुनीता ने धीरे से पूछा, “तू सचमुच चुप क्यों है?” अंजलि की आंखें दीवार पर टिकी थीं, “सच सुनने का वक्त आएगा।” उसका मन उलझा था, विजय का वह कागज, राकेश साहब का नाम, कौन था राकेश और क्यों विजय उसे छिपा रहा था?
विजय टेबल पर बैठा सिपाहियों को डांट रहा था, “काम चोर, उस लड़की का केस पक्का करो।” मोहन ने हिचकते हुए कहा, “सर, चोरी का इल्जाम बिना सबूत?” विजय ने आंखें तरेरी, “सबूत मैं हूं!” उसने एक कागज उठाया – फर्जी गवाह का बयान, जिसमें लिखा था कि अंजलि ने बाजार से पर्स चुराया।
विजय ने हंसकर मोहन को थमाया, “यह ले, राकेश साहब को दिखाओ, वो खुश होंगे।” अंजलि ने कोठरी के झरोखे से सुना, उसका दिल धड़का। “राकेश, यह जाल बड़ा है।”
अरुण थाने में चहलकदमी कर रहा था, उसकी आंखें विजय पर थीं। पिछले साल विजय ने अरुण का तबादला करवाने की धमकी दी थी, जब उसने एक फर्जी केस का विरोध किया था। अरुण ने अंजलि को देखा, उसकी शांति नजरों में ठंडक थी। “यह साधारण नहीं,” उसने सोचा।
अरुण ने मोहन को एकांत में पकड़ा, “वह कागज क्या था?” मोहन ने नजरें चुराई, “कुछ नहीं सर।” अरुण ने सख्ती से कहा, “बता वरना तू भी फंसेगा।” मोहन ने फुसफुसाया, “विजय सर राकेश साहब को भेज रहे हैं, चोरी का बयान।” अरुण की भौहें सिकुड़ी, “राकेश, वो साहब?” उसने टेबल की ओर देखा, जहां कागज पड़ा था।
अंजलि को कोठरी से निकाला गया। विजय ने चीखा, “नाम बता, सही बता!” अंजलि ने शांत स्वर में दोहराया, “रेखा।” विजय ने मेज पर हाथ मारा, “झूठ, तुझे सबक सिखाएंगे।” उसने सिपाही को इशारा किया, सिपाही ने अंजलि के कंधे पर धक्का मारा, वो दीवार से टकराई। मगर चेहरे पर डर नहीं था।
विजय ने कागज लहराया, “यह देख, गवाह – तूने चोरी की।” अंजलि ने कागज देखा, हस्ताक्षर, तारीख – सब फर्जी। उसने मन में ठाना, “इसे ही उल्टा करूंगी।” उसने कहा, “गवाह से मिलवाओ।” विजय हंसा, “तुझे हक नहीं।” मगर अंजलि की आंखों में कुछ था, विजय का मन अटका।
कोठरी में सुनीता और रेखा फुसफुसा रही थीं। सुनीता ने कहा, “विजय ने मुझे झूठे केस में फंसाया, मेरा बेटा जेल में है।” रेखा ने आह भरी, “मुझे दुकान के पैसे न देने का इल्जाम।” अंजलि ने सुना, उसका मन भारी हुआ, “यह थाना नहीं, जाल है।”
उसने सुनीता से पूछा, “राकेश का नाम सुना?” सुनीता चौकी, “वो बड़ा साहब है, विजय उससे डरता है।” अंजलि की आंखें सिकुड़ी, “बड़ा साहब।”
अरुण ने चुपके से टेबल पर कागज देखा, गवाह का पता गलत था। उसने पुरानी फाइलें खोली, विजय के कई केस फर्जी थे। एक फाइल में राकेश का जिक्र था – “राकेश साहब, केस निपटाया।” अरुण का मन अटक गया, “यह राकेश कौन?”
उसने मोहन को फिर पकड़ा, “राकेश साहब का आदेश?” मोहन कांप गया, “सर, वो ऊपर वाले हैं।” अरुण ने सख्ती से कहा, “मुझे सच चाहिए।” मोहन ने फुसफुसाया, “विजय उनसे हर केस की हिस्सेदारी भेजता है।” अरुण चौका, “कितना बड़ा जाल!”
विजय ने अंजलि को फिर बुलाया, “बोल सच बोल, नहीं तो लॉकअप में सड़ेंगी।” अंजलि ने शांत नजरें उठाई, “तुम्हारा गवाह झूठा है।” विजय का चेहरा लाल हुआ, “तुझे कैसे पता?” उसने जल्दी से कागज छिपाया। अंजलि ने मन में मुस्कुराया, “पहली गलती।”
उसने कहा, “मुझे गवाह से मिलने दे।” विजय ने चीखा, “चुप!” मगर उसकी आवाज में झिझक थी। अंजलि ने देखा, विजय बार-बार फोन देख रहा था, “राकेश…” उसने अनुमान लगाया।
रात गहरी हुई। अंजलि को कोठरी में वापस धकेला गया। सुनीता ने धीरे से कहा, “तू कुछ छिपा रही है।” अंजलि ने हल्की मुस्कान दी, “सच वक्त मांगता है।” उसने दीवार पर निशान देखे, “कितने बेकसूर यहां सड़े।” उसका मन सख्त हुआ, “यह जाल तोड़ूंगी।”
तभी बाहर हलचल हुई। अरुण ने विजय को टोका, “यह कागज कहां से?” विजय हड़बड़ाया, “बस गवाह का।” अरुण ने सख्ती से कहा, “मुझे शक है।” विजय ने फोन उठाया, किसी को फुसफुसाया, “साहब, मामला गड़बड़ है।”
क्या अंजलि का राज खुलेगा या राकेश का जाल उसे निगल लेगा?
कल्याणपुर थाने की रात स्याह थी। कोठरी की दीवारें ठंडी थीं, मगर अंजलि का मन जल रहा था। विजय का वह फर्जी कागज, चोरी का इल्जाम, राकेश का नाम उसके दिमाग में घूम रहा था।
सुनीता ने धीरे से पूछा, “तू इतनी शांत कैसे?” अंजलि ने दीवार पर उंगलियां फिराई, “सच को वक्त चाहिए।” उसकी आंखें झरोखे से बाहर थीं। विजय टहल रहा था, फोन पर फुसफुसा रहा था, “राकेश साहब, लड़की जिद्दी है।”
अंजलि की नजरें सिकुड़ीं, “राकेश अब करीब है।” उसने सोचा, “इस जाल को उसी के हथियार से तोड़ूंगी।”
विजय ने फोन काटा, पसीना पोंछा। राकेश की आवाज सख्त थी, “मामला संभालो, वरना तुम डूबोगे।” विजय ने टेबल पर कागज देखा, फर्जी गवाह का बयान। उसने मोहन को बुलाया, “यह कागज राकेश साहब तक पहुंचाओ, जल्दी।”
मोहन ने हिचकते हुए कागज लिया, “सर, अगर कोई पूछे?” विजय ने चीखा, “कौन पूछेगा? मैं हूं ना!” मगर उसकी आंखें बेचैन थीं।
अरुण कोने में खड़ा सब देख रहा था, उसने विजय की घबराहट पकड़ी, “कुछ बड़ा छिपा है।” उसने थाने की पुरानी फाइलें खोली, एक फाइल में राकेश का नाम फिर मिला, “राकेश साहब, हिस्सा भेजा।” उसका दिल धड़का, “राकेश बड़ा साहब।”
उसने मोहन को पकड़ा, “यह राकेश कौन?” मोहन कांप गया, “सर, वो ऊपर के अफसर हैं, विजय उनके लिए काम करता है।” अरुण ने सख्ती से कहा, “और यह कागज?” मोहन ने फुसफुसाया, “फर्जी गवाह, अंजलि को फंसाने के लिए।” अरुण का चेहरा सख्त हुआ, “मुझे और चाहिए।”
उसने अंजलि को कोठरी से निकाला। विजय ने कागज लहराया, “देख, गवाह तैयार, अब बोल सच बोल।” अंजलि ने शांत नजरें उठाई, “तुम्हारा गवाह झूठा है।” विजय का चेहरा लाल हुआ, “तुझे कैसे पता?” उसने कागज मोहन को थमाया, “इसे जला दो।”
अंजलि ने तुरंत कहा, “जलाने से सच नहीं मरेगा।” विजय हड़बड़ाया, “चुप!” उसने सिपाही को इशारा किया, सिपाही ने अंजलि को धक्का मारा, वो ठोकर खाई मगर खड़ी रही, “तुम डर रहे हो,” उसने कहा। विजय ने चीखा, “मुझे कोई नहीं डराता!” मगर उसकी आवाज कांप रही थी।
रेखा ने कोठरी में अंजलि से कहा, “तू कुछ जानती है?” अंजलि ने हल्की मुस्कान दी, “जानना कम, देखना ज्यादा।” उसने सुनीता की ओर देखा, “राकेश का जिक्र थाने में सुना?” सुनीता ने सिर हिलाया, “विजय उसे फोन करता है, डरता है।” अंजलि की आंखें चमकीं, “वो मेरा हथियार बनेगा।”
उसने दीवार पर निशान गिने, “कितने बेकसूर यहां टूटे।” उसका मन सख्त हुआ, “इन सबका हिसाब लूंगी।”
अरुण ने रात को थाने में चक्कर लगाया, विजय फोन पर था, “राकेश साहब, कागज भेजा, लड़की चुप नहीं।” अरुण ने सुना, उसने चुपके से विजय की डायरी देखी, “राकेश को भेजे पैसे, केसों की लिस्ट।” यह जाल बड़ा है, उसने बड़बड़ाया। उसने डायरी की फोटो ली, “प्रदीप साहब को बताना होगा।”
प्रदीप विजयनगर के डीएम थे, अरुण का भरोसा। उसने फोन उठाया, मगर सिग्नल कम था, “सुबह तक रुकना होगा।”
सुबह विजय ने अंजलि को फिर बुलाया, “आखिरी मौका, नाम बता!” अंजलि ने शांत स्वर में कहा, “तुम्हारा गवाह कब आएगा?” विजय हंसा, “तुझे हक नहीं।” मगर उसका फोन बजा, राकेश की आवाज गूंजी, “विजय, लड़की को दबाओ, वरना मैं आऊंगा।”
विजय कांप गया, “साहब, मैं संभाल लूंगा।” उसने फोन काटा, अंजलि को घूरा, “तूने सुना?” अंजलि ने सिर हिलाया, “सुना और देखा।” विजय ने चीखा, “कोठरी में सड़ो!” सिपाही ने अंजलि को धकेला।
कोठरी में अंजलि ने सुनीता और रेखा को देखा, “तुम्हारा सच जल्दी खुलेगा।” सुनीता ने आह भरी, “यहां सच दब जाता है।” अंजलि ने दीवार थपथपाई, “इस बार नहीं।” उसने विजय की बेचैनी याद की, “राकेश का डर, वो मेरा हथियार है।”
उसने मन में योजना बनाई, “राकेश को सामने लाना।” मगर कैसे? तभी बाहर हलचल हुई, अरुण ने विजय को टोका, “यह डायरी क्या है?” विजय हड़बड़ाया, “कुछ नहीं।” अरुण ने सख्ती से कहा, “मुझे जवाब चाहिए।”
क्या राकेश का राज खुलेगा या अंजलि का जाल टूटेगा?
कोठरी में रात और गहरी हो चली थी। अंजलि दीवार के सहारे बैठी थी, उसकी आंखें झरोखे से बाहर टिकी थीं। विजय की बेचैनी, राकेश का नाम, वह फर्जी कागज – सब उसके दिमाग में तैर रहा था।
सुनीता ने धीरे से कहा, “तू कुछ करेगी ना?” अंजलि ने हल्की मुस्कान दी, “करना तो पड़ेगा।” उसने राकेश की धमकी याद की, विजय को मामला संभालने का आदेश। “विजय डर रहा है, इसी डर को हथियार बनाऊंगी।” उसका मन सख्त था, “यह जाल अब टूटेगा।”
विजय थाने के हॉल में टहल रहा था, उसका फोन बार-बार बज रहा था। राकेश की आवाज फिर गूंजी, “विजय, लड़की चुप क्यों? केस पक्का करो!” विजय ने पसीना पोंछा, “साहब, फर्जी गवाह तैयार है, चोरी का इल्जाम।” राकेश ने सख्ती से कहा, “कोई गड़बड़ हुई तो तुम गए।”
विजय कांप गया, उसने मोहन को बुलाया, “वो कागज कहां है?” मोहन ने हिचकते हुए थमाया, “गवाह का बयान जिसमें अंजलि पर चोरी का इल्जाम था।” विजय ने कागज टेबल पर रखा, “राकेश साहब को भेजो।” मगर उसकी आंखें बेचैन थीं।
अरुण कोने में खड़ा सब देख रहा था, उसने विजय की डायरी की फोटो अपने फोन में सहेजी थी, “राकेश को भेजे पैसे, फर्जी केसों की लिस्ट।” यह जाल बड़ा है, उसने बड़बड़ाया। उसने प्रदीप को फोन लगाया, “विजयनगर के डीएम साहब, कल्याणपुर थाने में गड़बड़ है, फर्जी केस, राकेश का नाम।”
प्रदीप की आवाज सख्त थी, “सबूत?” अरुण ने कहा, “डायरी, कागज, और एक लड़की – वह साधारण नहीं।” प्रदीप ने कहा, “मैं आ रहा हूं, रुक।” अरुण ने फोन काटा, अंजलि की ओर देखा, “तुम कौन हो?” उसने सोचा।
अंजलि को कोठरी से निकाला गया, विजय ने कागज लहराया, “देख, गवाह – अब बोल सच बोल!” अंजलि ने शांत नजरें उठाई, “तुम्हारा गवाह कहां?” विजय हड़बड़ाया, “तुझे हक नहीं।” अंजलि ने जानबूझकर चारा फेंका, “राकेश साहब को बुलाओ, वो देखें।”
विजय का चेहरा पीला पड़ा, “राकेश तुझे कैसे पता?” उसने कागज मोहन को थमाया, “इसे छिपाओ।” अंजलि ने तुरंत कहा, “छिपाने से सच नहीं मरेगा।” विजय ने चीखा, “चुप!” मगर उसकी आवाज कांप रही थी। अंजलि ने मन में मुस्कुराया, “दूसरी गलती।”
मोहन ने कागज लिया, मगर अरुण ने उसे पकड़ लिया, “यह क्या है?” मोहन कांप गया, “सर, बस गवाह का।” अरुण ने कागज पढ़ा, “हस्ताक्षर फर्जी, पता गलत।” उसने विजय को घूरा, “यह सच नहीं।”
विजय ने हंसने की कोशिश की, “अरुण, तू बीच में मत आ।” मगर उसका फोन फिर बजा, राकेश। विजय ने फुसफुसाया, “साहब, कागज भेजा, पर अरुण शक कर रहा।” राकेश चीखा, “संभालो, वरना मैं आऊंगा।” विजय ने फोन काटा, पसीना पोंछा।
अंजलि ने सब देखा, “राकेश आएगा, बस यही मौका।” रेखा ने कोठरी में अंजलि से कहा, “तूने विजय को डरा दिया?” अंजलि ने सिर हिलाया, “वो डर से टूटेगा।” उसने सुनीता से पूछा, “राकेश का जिक्र और सुना?” सुनीता ने फुसफुसाया, “विजय उसे हर हफ्ते पैसे भेजता है।” अंजलि की आंखें चमकीं, “पैसे – यही सबूत है।”
उसने दीवार पर निशान देखा, “बेकसूरों के दर्द, इनका हिसाब अब।” उसने योजना बनाई, “विजय को और दबाव डालना, राकेश को सामने लाना।”
अरुण ने रात को थाने में चक्कर लगाया, उसने विजय के कचरे में एक टुकड़ा देखा, “राकेश को लिखा नोट – केस निपटाओ, हिस्सा भेजा।” उसने नोट जेब में डाला, “प्रदीप साहब को यह चाहिए।” उसने मोहन को फिर पकड़ा, “राकेश का आदेश कितना पुराना?” मोहन ने कांपते हुए कहा, “सर, सालों से हर केस का हिस्सा।”
अरुण का चेहरा सख्त हुआ, “तू सच बोल तो बच सकता है।” मोहन ने सिर झुकाया, “सर, मैं मजबूर था।”
विजय ने अंजलि को फिर बुलाया, “आखिरी मौका, सच बोल!” अंजलि ने शांत स्वर में कहा, “राकेश साहब को बुलाओ, वह मेरा सच जानें।” विजय का चेहरा सफेद पड़ा, “तू बार-बार उसका नाम…” उसने सिपाही को चीखा, “इसे कोठरी में।”
मगर अंजलि ने आखिरी पल में विजय को देखा, “तुम्हारा डर तुम्हें डुबोएगा।” विजय ने फोन उठाया, राकेश को कॉल किया, “साहब, लड़की राकेश-राकेश चिल्ला रही है।” राकेश चीखा, “मैं आ रहा हूं।”
क्या अंजलि का जाल काम करेगा या राकेश सब मिटा देगा?
कल्याणपुर थाने में सुबह की पहली किरण कोठरी तक नहीं पहुंची थी। अंजलि दीवार के सहारे बैठी थी, उसकी आंखें शांत मगर सतर्क। विजय का डर, राकेश की धमकी, फर्जी कागज – सब अब एक कदम दूर था।
सुनीता ने फुसफुसाया, “तूने राकेश का नाम लिया, अब क्या?” अंजलि ने हल्की मुस्कान दी, “अब सच सामने आएगा।” उसने राकेश की चीख याद की, “मैं आ रहा हूं।” उसका मन सख्त था, “आने दे, यह जाल उसी के सामने टूटेगा।”
विजय हॉल में बेचैन टहल रहा था, उसका फोन चुप था, मगर राकेश की धमकी कानों में गूंज रही थी, “लड़की को दबाओ।” उसने मोहन को चीखा, “वो कागज कहां?” मोहन ने कांपते हुए कहा, “सर, अरुण ने देख लिया।” विजय का चेहरा पीला पड़ा।
अरुण ने टेबल पर हाथ मारा, “उसे रोको!” मगर अरुण बाहर था, प्रदीप को फोन पर, “साहब, राकेश का नाम पक्का, डायरी, नोट, सबूत है।” प्रदीप की आवाज सख्त थी, “थाने पहुंच रहा हूं, लड़की कौन?” अरुण ने कहा, “वो कुछ छिपा रही है।”
अंजलि को कोठरी से निकाला गया, विजय ने कागज लहराया, “अब बोल सच!” अंजलि ने शांत नजरें उठाई, “राकेश साहब आएं, फिर बोलूं।” विजय कांप गया, “तू बार-बार उसका नाम…” उसने सिपाही को चीखा, “इसे कोठरी में।”
तभी थाने का दरवाजा खुला। राकेश वर्दी में, आंखों में गुस्सा, अंदर घुसा। “विजय, यह क्या तमाशा?” उसने चीखा। अंजलि ने राकेश को देखा, लंबा कद, भारी आवाज, बड़ा साहब – उसने सोचा, “खेल शुरू।”
राकेश ने अंजलि को घूरा, “तू कौन, मेरा नाम क्यों?” अंजलि ने शांत स्वर में कहा, “आपके कागज जानते हैं।” राकेश हड़बड़ाया, “कागज?” उसने विजय को घूरा, “यह क्या बकवास?” विजय ने पसीना पोंछा, “साहब, यह झूठी…” मगर अंजलि ने चारा फेंका, “गवाह का बयान, चोरी का – आपने बनवाया।”
राकेश का चेहरा सख्त हुआ, “विजय, संभाल!” उसने फुसफुसाया। अंजलि ने मन में मुस्कुराया, “तीसरी गलती।”
अरुण ने राकेश को देखा, डायरी जेब में दबाए। उसने मोहन को पकड़ा, “सच बोल, वरना डूबेगा।” मोहन रो पड़ा, “सर, राकेश साहब हर केस का हिस्सा…” अरुण ने फोन निकाला, प्रदीप को मैसेज किया, “राकेश यहां, जल्दी।”
तभी थाने में हलचल हुई। प्रदीप सख्त चेहरा लेकर अंदर घुसे, “क्या चल रहा है?” उनकी आवाज गूंजी। विजय कांप गया। राकेश ने हंसने की कोशिश की, “साहब, बस छोटा केस…” मगर प्रदीप ने अंजलि को देखा, “तुम?”
अंजलि ने गहरी सांस ली, “अंजलि… एसडीएम।” थाना सन्न रह गया। विजय का मुंह खुला, राकेश की आंखें फैलीं, मोहन दीवार से टिका। अरुण ने मुस्कुराया।
प्रदीप ने सख्ती से कहा, “सबूत?” अंजलि ने कहा, “विजय का कागज, फर्जी गवाह, राकेश का आदेश।” अरुण ने डायरी थमाई, “यह देखिए – पैसे, केस, राकेश का नाम।”
प्रदीप ने पढ़ा, चेहरा सख्त हुआ, “राकेश, जवाब?” राकेश ने हंसकर कहा, “कागज मेरा, तबादला हो चुका।” उसने कागज लहराया। अंजलि ने तुरंत कहा, “तबादला, आपने चार्ज नहीं छोड़ा।”
प्रदीप ने कागज लिया, पढ़ा, “सच – तुम यहां प्रभारी हो।” राकेश का चेहरा पीला पड़ा, उसने चीखा, “विजय ने फंसाया!” विजय रो पड़ा, “साहब, आपका आदेश…” अंजलि ने कहा, “सच सामने है।”
प्रदीप ने चीखा, “राकेश, विजय – हिरासत में!” मोहन ने हाथ जोड़े, “मैडम, मैं मजबूर था।” अंजलि ने सख्ती से कहा, “सच बोलो।” मोहन ने कबूला, “राकेश का जाल, सालों का हिस्सा।”
सुनीता और रेखा को छोड़ा गया। सुनीता ने अंजलि का हाथ थामा, “तूने हमें बचा लिया।” प्रदीप ने जांच का आदेश दिया, कल्याणपुर थाना बंद, पूरा स्टाफ निलंबित।
राकेश ने चीखा, “मैं अकेला नहीं, ऊपर और हैं!” अंजलि ने कहा, “नाम बोलो!” राकेश चुप रहा। प्रदीप ने अरुण को बुलाया, “सबूत इकट्ठे करो।” अरुण ने डायरी, नोट, फोन रिकॉर्ड थमाए। जांच शुरू हुई, विजयनगर में हड़कंप मचा। राकेश के फोन से और नाम खुले, अफसर, नेता – 40 से ज्यादा गिरफ्तार।
सुंदरपुर मार्ग की बैरिकेडिंग हटी, कल्याणपुर थाना साफ हुआ। अंजलि ने प्रदीप से कहा, “सच जीता।” प्रदीप ने सिर हिलाया, “तुमने विजयनगर बदल दिया।”
अंजलि अपनी बहन की शादी में पहुंची, मेहमानों की भीड़ में वह मुस्कुराई। सुनीता और रेखा ने चिट्ठी भेजी, “तुमने हमें जिंदगी दी।” अरुण को तरक्की मिली, विजय और राकेश जेल में। विजयनगर में नया थाना खुला – ईमान का।
अंजलि ने एक रात सुंदरपुर मार्ग पर स्कूटी रोकी, हवा में सुकून था। “न्याय की चिंगारी जलती रहे,” उसने सोचा।
क्या अंजलि का सच आपके दिल को छू गया?
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