बकरियाँ चराते हुए रास्ता भूली लड़की भारत की सरहद पार आ गयी , फिर सेना के जवानों ने जो किया जानकर

सरहद के पार इंसानियत – सलमा और भारतीय सेना की कहानी

भूमिका

क्या होता है जब नफरत की दीवारें एक मासूम की आंखों के सामने अचानक गिर जाती हैं? क्या इंसानियत किसी देश, धर्म या सरहद की मोहताज होती है?
यह कहानी है सलमा की – पाकिस्तान के एक छोटे गांव की 15 वर्षीय लड़की की, जिसकी दुनिया बकरियों, पहाड़ों और परिवार तक सीमित थी। और यह कहानी है उन भारतीय सैनिकों की, जिनका धर्म सिर्फ देश की रक्षा करना है, लेकिन जिनके दिल में इंसानियत सबसे ऊपर है।

अध्याय 1: सलमा का गांव और उसका जीवन

पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के चकोठी गांव में सलमा का परिवार रहता था। ऊंचे हरे पहाड़ों, झरनों और बकरियों की घंटियों की आवाजों के बीच सलमा की जिंदगी गुजरती थी।
उसके पिता बशीर अहमद मामूली किसान थे, जिनकी छोटी सी जमीन पर उगाई मक्कई से साल भर का गुजारा मुश्किल से होता। मां फातिमा शॉल पर कढ़ाई कर लेती थी।
सलमा का छोटा भाई जुनैद उसकी जान था।
गांव में लड़कियों के लिए स्कूल नहीं था, इसलिए सलमा का सारा दिन घर के काम और बकरियों की देखभाल में ही गुजरता।
उसकी 10-12 बकरियों में सबसे प्यारी थी सफेद रंग की नूरी – उसकी सबसे अच्छी दोस्त। नूरी बहुत शरारती थी, अक्सर झुंड से अलग होकर भाग जाती और सलमा को घंटों ढूंढना पड़ता।

अध्याय 2: सरहद की चेतावनी

गांव सरहद के बहुत करीब था। सलमा के अब्बू ने उसे सख्त हिदायत दी थी – “बेटी, कभी भी उस काली पहाड़ी से आगे मत जाना। वहां फौजी होते हैं, खतरा होता है।”
सलमा ने अपने अब्बू की बात गांठ बांध ली थी।
उसने रातों को गोलियों की आवाजें सुनी थीं, गांव के लोगों को हिंदुस्तान के बारे में नफरत भरी बातें करते सुना था।
उसके मन में भी सरहद के उस पार के लिए एक अनजाना डर, एक धुंधली सी नफरत थी।

अध्याय 3: खो जाना

सितंबर के आखिरी दिनों में हल्की ठंड और दोपहर बाद पहाड़ों पर धुंध छा जाती थी।
एक दिन सलमा अपनी बकरियों को चराते हुए काली पहाड़ी के पास पहुंची।
नूरी अचानक झुंड से अलग होकर पहाड़ी की तरफ भागने लगी।
सलमा ने आवाज दी, “नूरी, रुक जा!” लेकिन नूरी नहीं रुकी।
सलमा लाठी उठाकर उसके पीछे दौड़ी।
भागते-भागते सलमा को एहसास ही नहीं हुआ कि वह कब काली पहाड़ी पार कर गई – जिस पार जाने से उसके अब्बू ने मना किया था।
अचानक मौसम ने करवट ली।
चारों ओर घनी सफेद धुंध छा गई, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था।
सलमा डर गई। नूरी की आवाज कहीं खो गई थी। बाकी बकरियां भी नजर नहीं आ रही थीं।
वह पूरी तरह अकेली थी, भूख, प्यास और डर से बेहाल।
सूरज ढलने लगा, पहाड़ों पर अंधेरा घिरने लगा।
सलमा एक पेड़ के नीचे बैठकर फूट-फूट कर रोने लगी।
उसे अपने घर, अपने अब्बू-अम्मी और छोटे भाई की याद आ रही थी।
वह रोते-रोते थककर वहीं सो गई।

अध्याय 4: भारतीय सेना की चौकी

नियंत्रण रेखा के इस पार टाइगर हिल पोस्ट पर भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट के जवान तैनात थे।
मेजर विक्रम सिंह – 35 वर्षीय अफसर, जिनके चेहरे पर सख्ती और आंखों में रहमदिली थी।
उनके लिए ड्यूटी ही धर्म था।
सुबह जब सूरज की किरणें बर्फीली चोटियों पर पड़ीं, मेजर विक्रम अपने दो जवानों – हवलदार राम सिंह और सिपाही पवन के साथ गश्त पर निकले।
यह वह इलाका था जहां हर पल घुसपैठ का खतरा बना रहता था।
करीब एक किलोमीटर दूर हवलदार राम सिंह ने दूरबीन से देखा – एक लड़की पेड़ के नीचे सो रही है, कपड़े फटे हुए, ठंड से कांप रही थी।
तीनों सतर्क हो गए, बंदूकें तैयार कर लीं।
धीरे-धीरे पेड़ के पास पहुंचे, लड़की की नींद खुल गई।
उसने भारतीय सेना की वर्दी देखी, डर के मारे चीख उठी।
वह हाथ जोड़कर रोने लगी, “अब्बू, अम्मी, मुझे घर जाना है, मैंने कुछ नहीं किया।”

अध्याय 5: इंसानियत की परीक्षा

मेजर विक्रम ने उसकी आंखों में मौत का खौफ देखा।
उन्होंने तुरंत अपनी बंदूक नीचे कर ली और जवानों को भी इशारा किया।
बहुत ही नरम आवाज में कश्मीरी में पूछा – “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे। तुम कौन हो? यहां अकेली क्या कर रही हो?”
सलमा ने रोते-रोते अपनी टूटी-फूटी जुबान में पूरी कहानी बता दी – कैसे वह नूरी के पीछे भागते-भागते रास्ता भटक गई।
मेजर विक्रम और जवान समझ गए – यह कोई घुसपैठिया नहीं, मासूम बच्ची है।
मेजर ने उसे पानी की बोतल दी, सिपाही पवन ने चॉकलेट दी।
सलमा ने जिंदगी में पहली बार चॉकलेट खाई – मीठे स्वाद के साथ इंसानियत की मिठास भी उसके अंदर घुल गई।
मेजर विक्रम ने अपनी पोस्ट पर संपर्क किया – “बच्ची को लेकर पोस्ट पर आ रहे हैं।”

अध्याय 6: पोस्ट पर मेहमाननवाजी

पोस्ट पर बाकी जवान भी सलमा को देखकर हैरान रह गए।
मेजर विक्रम ने उसे गर्म कमरे में बिठाया।
रसोइए लंगर सिंह ने गरम-गरम आलू के पराठे और चाय बनाई।
सलमा ने कई घंटों की भूख के बाद खाना खाया – उसे लगा यह जिंदगी का सबसे स्वादिष्ट खाना है।
जवानों ने उसे गरम जैकेट, कंबल दिया।
कोई उसके गांव के बारे में पूछ रहा था, कोई छोटे भाई के बारे में।
सलमा हैरान थी – ये वही हिंदुस्तानी फौजी नहीं थे, जिनके बारे में डरावनी कहानियां सुनी थी।
वह भूल गई थी कि वह दुश्मन देश में है। उसे लग रहा था जैसे वह अपने ही घर में है।

अध्याय 7: कठिन फैसला

अब मेजर विक्रम के सामने चुनौती थी – प्रोटोकॉल के मुताबिक उसे उच्च अधिकारियों को सौंपना था।
फिर लंबी कानूनी, डिप्लोमेटिक प्रक्रिया शुरू होती – जिसमें महीनों, शायद साल लग सकते थे।
इस दौरान सलमा को पूछताछ, मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ती।
मेजर विक्रम का जमीर यह मानने को तैयार नहीं था।
उन्होंने बच्ची की आंखों में घर जाने की तड़प देखी थी, उसके मां-बाप के दर्द का अंदाजा लगा लिया था।
उन्होंने फैसला किया – सलमा को उसी रास्ते से चुपचाप उसके घर पहुंचाएंगे।
कमांडिंग ऑफिसर कर्नल वर्मा से हॉटलाइन पर संपर्क किया, पूरी स्थिति बताई।
कर्नल वर्मा बोले – “जो करने जा रहे हो, जोखिम भरा है। अगर चूक हुई तो दोनों देशों के बीच मुद्दा बन सकता है।”
मेजर विक्रम बोले – “मैं इस बच्ची की जिंदगी को फाइलों में बर्बाद होते नहीं देख सकता।”
कर्नल वर्मा बोले – “मुझे तुम पर भरोसा है, ऊपर बात करता हूं। लेकिन सुरक्षा सबसे पहले।”

अध्याय 8: सरहद पर इंसानियत की डील

मेजर विक्रम ने पाकिस्तानी रेंजर्स के समकक्ष अधिकारी कैप्टन बिलाल से हॉटलाइन पर संपर्क किया।
पहले कैप्टन बिलाल को शक हुआ – कहीं यह कोई चाल न हो।
लेकिन मेजर विक्रम की आवाज में सच्चाई, ईमानदारी थी।
मेजर ने कहा – “हम सिर्फ इस बच्ची को उसके मां-बाप तक पहुंचाना चाहते हैं।”
आखिरकार इंसानियत के नाते कैप्टन बिलाल मान गए।
तय हुआ – अगले दिन सुबह 10 बजे अमन सेतु के पास नो मैन्स लैंड में दोनों सेनाएं मिलेंगी, बच्ची को सौंपा जाएगा।

अध्याय 9: मिलन का भावुक दृश्य

अगली सुबह भारतीय सेना की जीप, सफेद झंडा लगाकर सलमा को लेकर अमन सेतु की तरफ बढ़ी।
मेजर विक्रम ने सलमा को ढेर सारी चॉकलेट्स, छोटे भाई के लिए खिलौने दिए।
सलमा की आंखों में आंसू थे – वह इन फरिश्ता जैसे इंसानों को छोड़कर जाना नहीं चाहती थी।
सरहद के उस पार पाकिस्तानी रेंजर्स की टुकड़ी, कैप्टन बिलाल के नेतृत्व में खड़ी थी।
सलमा के मां-बाप भी थे – बशीर अहमद और फातिमा।
सलमा मां-बाप को देखकर दौड़ पड़ी – तीनों एक-दूसरे से लिपटकर ऐसे रो रहे थे जैसे खोई कायनात वापस मिल गई हो।
दोनों तरफ के सख्त जान फौजियों की आंखें भी नम हो गईं।

अध्याय 10: सम्मान और सैल्यूट

सलमा के माता-पिता मेजर विक्रम के पैरों में गिर पड़े – “आप फरिश्ता बनकर आए हैं, हमने तो बच्ची को खो दिया था।”
मेजर विक्रम ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया – “यह हमारा फर्ज था भाई साहब। बेटी चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, बेटी तो बेटी होती है।”
कैप्टन बिलाल ने मेजर विक्रम को सैल्यूट किया – यह सैल्यूट एक इंसान का दूसरे इंसान की इंसानियत को था।
मेजर विक्रम ने भी मुस्कुरा कर उतने ही सम्मान से सैल्यूट का जवाब दिया।
उस दिन सरहद पर बंदूकों का शोर नहीं, इंसानियत का संगीत गूंज रहा था।

अध्याय 11: इंसानियत की जीत

सलमा अपने गांव लौट गई – उसकी आंखों में अब हिंदुस्तान के लिए डर नहीं, बल्कि प्यार और सम्मान था।
गांववालों को भी पता चला – दुश्मन देश के फौजी भी इंसान होते हैं, जिनके दिल में रहम और मोहब्बत है।
मेजर विक्रम और उनके जवानों ने साबित किया – वे सिर्फ देश के ही नहीं, इंसानियत के भी सच्चे रक्षक हैं।
उन्होंने नफरत की आग में मोहब्बत और रहमदिली का पुल बनाया, जिस पर चलकर इंसानियत खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी।

अंतिम संदेश

यह कहानी सिखाती है –
इंसानियत सबसे बड़ा मजहब है।
सरहदें असली नहीं, असली सरहदें दिलों में होती हैं।
अगर दिलों में मोहब्बत हो, तो दुनिया की कोई दीवार, कोई बंदूक, कोई झंडा इंसानियत को बांट नहीं सकता।

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इंसानियत जिंदाबाद!

समाप्त