कहानी: एक मां की पहचान
प्रस्तावना
आज सुबह-सुबह प्रतीक्षा सदन वृद्धाश्रम में बैठी विमला जी की नजरें आश्रम के बड़े से लोहे के गेट पर किसी शिकारी की तरह टिकी थीं। हर गुजरती गाड़ी की आवाज पर उम्मीद की एक नई कोपल फूटती और अगले ही पल चेहरे पर मायूसी छा जाती। एक साल पूरा मायूसी होने को आया था उन्हें इस वृद्धाश्रम में आए हुए।
अतीत की यादें
एक साल पहले, आज के ही दिन उनके पोते के चौथे जन्मदिन पर बेटे संजय और बहू रीता ने जोरदार पार्टी दी थी। घर मेहमानों से भरा था। विमला जी को क्या पता था कि वह घर में उनकी आखिरी खुशी थी। पार्टी के हफ्ते भर बाद ही बेटे संजय और बहू रीता ने कनाडा घूमने जाने का प्लान बना लिया था।
“मां, हम लोग एक महीने के लिए कनाडा जा रहे हैं। अब तुम घर पर अकेले कैसे रहोगी? तुम्हारी देखभाल भी ठीक से नहीं हो पाएगी,” संजय ने चिंता जताते हुए कहा। “बस एक महीने की तो बात है। तुम प्रतीक्षा सदन वृद्धाश्रम में रह लो। वहां तुम्हारी उम्र के लोग भी हैं। मन लगा रहेगा। हम आते ही तुम्हें सबसे पहले घर ले आएंगे।” विमला जी ने मन मारकर हामी भर दी।
अकेलेपन का सामना
लेकिन जब बेटा बहू घूमकर वापस आए, तब भी उन्हें लेने कोई नहीं आया। हफ्ता बीता तो विमला जी ने खुद फोन मिलाया। “अरे मां, वो हम आते ही घर की मरम्मत का काम शुरू करवा दिया। तुम्हें तो पता ही है दीवारों में कितनी सीलन आ गई थी। अब काम चल रहा है तो धूल मिट्टी और शोर में तुम्हें तकलीफ होगी। बस यह निपट जाए फिर तुम्हें इज्जत से घर लाएंगे।”
मरम्मत का वह काम फिर कुछ समय और खा गया। देखते-देखते तीन महीने गुजर गए। आश्रम में उनकी हम उम्र औरतें उन्हें पहले ही समझ चुकी थीं। “विमला बहन, खुद को धोखा मत दो। यह सब बहाने हैं तुम्हें यहां रखने के। अब कोई नहीं आएगा।”
विश्वास का टूटना
पहले तो विमला जी का मन लड़ने को दौड़ता था। “मेरा संजय ऐसा नहीं है,” वह खुद को दिलासा देती। पर जब महीने गुजरते गए और फोन पर भी बहानों के सिवा कुछ ना मिला तो उनका विश्वास भी रेत की तरह मुट्ठी से फिसल गया। उन्हें यकीन हो गया कि अब उन्हें लेने कोई नहीं आने वाला।
हर रविवार सुबह विमला जी तैयार होकर गेट पर टकटकी लगाए बैठी रहती, पर सूरज चढ़ता और ढल जाता। सड़क पर गाड़ियां आती-जाती रहतीं, पर वह गाड़ी कभी नहीं आती जिसका उन्हें इंतजार होता था।
पवन का जन्मदिन
आज उनके पोते पवन का पांचवां जन्मदिन था। बेटे से उम्मीद भले ही मर चुकी थी, लेकिन पोते की ममता का धागा अब भी उनकी सांसों से जुड़ा था। वह बस एक बार, सिर्फ एक बार उसे निगाह भर देखना चाहती थीं। एक घंटे तक यूं ही दरवाजे की ओर ताकते उनके अंदर का सब्र जवाब दे गया।
उनके सब्र का बांध, जिसे वह एक साल से तिनातिनका छोड़कर बना रही थी, आज एक ही झटके में टूट गया। एक हठीली जिद ने उनके कमजोर हो चुके इरादों को फिर से बुलंद कर दिया। “नहीं, आज तो मैं अपने पवन को देखकर ही रहूंगी। चाहे कुछ भी हो जाए।”
पहचान छुपाना
लेकिन विमला जी जानती थीं कि अगर वह अपनी इसी पहचान के साथ गईं तो शायद घर की दहलीज भी पार ना कर पाएंगी। रीता का चेहरा उनकी आंखों के सामने घूम गया, जिसमें उनके लिए सम्मान नहीं, केवल तिरस्कार का भाव होता था।
इसलिए उन्होंने तय किया कि वह वहां भेष बदलकर जाएंगी। लेकिन मैनेजर से परमिशन लेनी भी अभी बाकी थी। उन्होंने मैनेजर के दफ्तर का दरवाजा खटखटाया।
मैनेजर से अनुमति
मैनेजर कुमार जी एक भले आदमी थे जो इन बुजुर्गों के दर्द को समझते थे, पर नियमों से बंधे थे। “अंदर आ जाइए, विमला जी,” उन्होंने कहा। विमला जी ने अपनी आवाज में जितनी हो सके उतनी दीनता भरकर कहा, “कुमार जी, मुझे आज शाम तक के लिए छुट्टी चाहिए थी। आज शहर के बाहरी इलाके में फोन लगाया तो पता चला कि मेरी एक ननद बहुत बीमार है। शायद आखिरी समय है उनका।”
झूठ बोलते हुए उनकी जुबान लड़खड़ा रही थी और आत्मा कांप रही थी। जीवन में उन्होंने कभी किसी से छल नहीं किया था। पर आज वह अपने ही बेटे से मिलने के लिए झूठ का सहारा ले रही थीं।
कुमार जी ने उनकी आंखों में झांका। उन आंखों की गहराई में एक ऐसी विवशता और दर्द का समंदर था जिसे देखकर वह ना नहीं कर सके। उन्होंने एक रजिस्टर आगे बढ़ाते हुए कहा, “ठीक है, विमला जी। यहां दस्तखत कर दीजिए और शाम होने से पहले लौट आइएगा।”
पहचान बदलना
अब उन्हें अपनी पहचान को, अपनी ममता को, अपने मां होने के अस्तित्व को कुछ घंटों के लिए दफन करना था। विमला को पीछे छोड़कर एक ऐसा रूप धरना था जिसे कोई पहचान ना सके।
इसीलिए वे अपने कमरे के साथ वाले कमरे में चली गईं जहां सरला जी रहती थीं, जिनका हाल ही में मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ था। अब वह अपना पुराना चश्मा नहीं पहनती थीं।
चश्मा लेना
उन्होंने सरला जी से उनके पुराने मोटे कांच वाले और काले फ्रेम के चश्मे मांग लिए। “सरला बहन, जरा अपना पुराना चश्मा देना। मेरी आंखों में कुछ चुभ रहा है। धूप में देखने में तकलीफ होगी।” सरला जी ने तुरंत वह चश्मा दे दिया।
जैसे ही विमला जी ने वह चश्मा अपनी आंखों पर लगाया, दुनिया धुंधली हो गई। पर शायद यही जरूरी था। इस धुंधल के पीछे उनकी ममतामई जानी पहचानी आंखें लगभग छिप गईं।
घर की ओर
उन्होंने आईने में खुद को देखा। आईना भी उन्हें पहचान नहीं पा रहा था। यह कोई और ही औरत थी। थकी हुई, हारी हुई, दुनिया की ठोकरें खाई हुई। उन्होंने अपनी कमर को जानबूझकर थोड़ा और झुका लिया। चाल में एक लाचारी का भाव ले आई और सिर पर साड़ी का पल्लू डालकर उसी पल्लू से आधा चेहरा ढक लिया। अब वह विमला जी नहीं थीं।
वह संजय की मां नहीं थीं। पवन की दादी नहीं थीं। वह एक बेनाम, बेचान औरत थीं। जिसे दुनिया की भीड़ में कोई नहीं देखेगा। कोई नहीं पहचानेगा।
मोहल्ले की गलियां
आश्रम से बाहर की दुनिया आज कुछ अलग ही लग रही थी उन्हें। जब उन्होंने अपने मोहल्ले की गलियों में कदम रखा तो उनका दिल किसी कैद पंछी की तरह जोर-जोर से फड़फड़ाने लगा। यह वही गलियां थीं जहां उन्होंने संजय को साइकिल चलाना सिखाया था।
वह नुक्कड़ वाली हलवाई की दुकान जहां से संजय जलेबियां खाने की जिद करता था। हर मोड़, हर दुकान, हर घर किसी भूली हुई कहानी की तरह उनके ज़हन में ताजा हो रहा था।
घर का जश्न
आखिरकार वह उस मोड़ पर आ गईं जहां से उनका दो मंजिला घर साफ दिखाई देता था। घर वैसा ही था। पर आज उस पर गुब्बारे और रंग बिरंगी झालरें लगी थीं। गेट भी खूबसूरत गोल्डन ब्लैक गुब्बारों से सजा हुआ था। आज उनके पवन के जन्मदिन का जश्न मनाने की तैयारी चल रही थी।
घर के बाहर लगा वह पीपल का पेड़ जिसके नीचे बैठकर वह सहेलियों के साथ बातें करती थीं, वह ओठ में खड़ी हो गईं। हिम्मत जवाब दे रही थी। किस मुंह से, किस बहाने से वह अंदर जाएं।
रीता की नाराजगी
वह सोच ही रही थीं कि तभी उन्होंने देखा कि उनके घर की काम वाली बाई रत्ना घर की ओर बढ़ी और दरवाजे की घंटी बजा दी। एक पल बाद दरवाजा खुला और रीता बाहर आई। पार्टी की तैयारियों और मेहमानों को संभालने के तनाव में उसका चेहरा तमतमाया हुआ था।
“मेम साहब, आज मैं काम पर नहीं आ पाऊंगी,” रत्ना ने घबराते हुए कहा, “मुझे किसी जरूरी काम से शहर के बाहरी इलाके में जाना पड़ रहा है।”
“आज ही सारे जरूरी काम याद आ रहे हैं। घर पर ढेर सारे मेहमान आने वाले हैं और तू छुट्टी मांग रही है,” रीता ने भड़कते हुए कहा।
अवसर का फायदा
विमला जी ने सब कुछ सुन लिया। किस्मत का खेल देखो। जिस घर में मां बनकर जाने के सारे रास्ते बंद थे, उसी घर में एक काम वाली बाई की जगह खाली हो गई थी। नियति उन्हें एक मौका दे रही थी।
पर उसकी कीमत उनका स्वाभिमान था। एक पल को उनका मन हुआ कि वापस लौट जाएं। इस जिल्लत से बेहतर तो आश्रम का अकेलापन है। पर फिर धुंधले चश्मे के पार उन्हें पवन का हंसता हुआ चेहरा दिखाई दिया।
ममता की जीत
पोते के प्रति ममता ने उनके टूटे हुए आत्मसम्मान को समेटा और एक अजीब सी हिम्मत दी। उन्होंने अपने आंसू पोंछे। आज उन्हें अपने पोते को नजर भर देखने के लिए एक नौकरानी बनना था।
वे पेड़ की ओट से बाहर निकलीं। उनके कदम जमीन पर नहीं, अपने ही स्वाभिमान की राख पर पड़ रहे थे। एक-एक लंबी गहरी सांस ली और आगे बढ़कर दरवाजे की घंटी पर उंगली रख दी।
दरवाजे का खुलना
घंटी की आवाज पर दरवाजा लगभग एक झटके से खुला। सामने रीता खड़ी थी, जिसका चेहरा तनाव और झल्लाहट से तमतमाया हुआ था। “कौन?” उसका सवाल किसी तीर की तरह लगा। विमला जी का कलेजा मुंह को आ गया।
उन्होंने अपनी आवाज बदलकर धीरे से कहा, “मैं… मैं शांति बाई…” उनका वाक्य पूरा होता उससे पहले ही रीता की आंखों में एक चमक कौंध गई।
पहचान की गलती
उसे लगा कि रत्ना ने अपनी सास को भेज ही दिया। उसके चेहरे पर चिड़चिड़ाहट की जगह एक स्वार्थी राहत छा गई। “अच्छा, अच्छा! समझ गई। भगवान का शुक्र है, तू आ गई। मैं तो परेशान हो गई थी,” रीता ने लगभग विमला जी का हाथ पकड़ते हुए कहा।
उसे उस झुके हुए चेहरे या उन धुंधली आंखों में झांकने की फुर्सत ही कहां थी। उसके लिए यह झुकी हुई काया महज एक समस्या का समाधान थी।
घर में पहली बार
विमला जी ने दरवाजे के अंदर कदम रखा। घर की जानी पहचानी महक एक तेज झोंके की तरह उनसे टकराई। यह वही घर था जिसका हर कोना उनकी ममता का गवाह था।
सोफे पर पड़े कुशन, जिनकी गैलाफ उन्होंने खुद अपने हाथों से सिलाई की थी। दीवार पर लगी पूरे परिवार की वह बड़ी सी तस्वीर, सब देखते-देखते वह रुआंसी हो उठीं। लेकिन फिर उनकी नजर अपने पोते पवन को ढूंढने लगी।
पवन का जन्मदिन
“क्या हुआ? क्या देख रही हो? काम करने ही आई हो ना? तो वहां क्या कर रही हो?” रीता ने कड़कती आवाज में कहा और फिर रसोई की तरफ इशारा करते हुए हुक्म देते हुए बोली, “सुनो, पहले यह सारे गंदे बर्तन साफ कर दो। सिंक भरा पड़ा है। फिर सब्जियां काट देना। जल्दी करो, शाम को सब मेहमान आ जाएंगे।”
विमला जी ने एक शब्द नहीं कहा। वह एक मशीन की तरह चुपचाप रसोई में चली गईं। सिंक बर्तनों से लबालब भरा था। उन्होंने नल खोला और बर्तन माजने लगीं।
पवन का आगमन
तभी अंदर के कमरे से बच्चों के खिलखिलाने की आवाज आई और एक 5 साल का बच्चा तूफान की तरह दौड़ता हुआ बाहर आया। उसने नीले रंग की एक सुंदर सी शेरवानी पहनी हुई थी, जिसमें वह बिल्कुल किसी शहजादे जैसा लग रहा था।
पवन उसे देखकर विमला जी वहीं जड़ हो गईं। उनके हाथ रुक गए। उनका मन चित्कार उठा कि दौड़कर उसे अपनी बाहों में भर लें। उसके माथे को चूम लें और कहें, “जन्मदिन मुबारक हो मेरे बच्चे।”
दूर से निहारना
पर वह अपनी हैसियत जानती थीं। वह दादी नहीं, शांतिबाई थीं। वह बस दूर से उसे निहारती रहीं। अपनी आंखों में उमड़ आए आंसुओं के सैलाब को पल्लू के कोने में सोखती रहीं।
पवन उन पर एक नजर डाले बिना ही खिलौनों की दुनिया में मग्न दूसरे बच्चों के साथ खेलने के लिए बाहर बाग में भाग गया। वह एक पल भी नहीं रुका।
संजय का आगमन
दोपहर में संजय आया। वह फोन पर किसी दोस्त से बात कर रहा था। “हां यार, शाम को जरूर आना। और हां, भाभी जी और बच्चों को लेकर आना, नहीं तो मैं नाराज हो जाऊंगा।” ऐसा कहकर वह एक बनावटी हंसी-हंसने लगा।
उसकी नजर रसोई में काम करती हुई शांतिबाई पर पड़ी। एक पल के लिए बस एक पल के लिए उसे एक अनजाना सा अपनापन महसूस हुआ। उसकी झुकी हुई कमर और कद्दा बाग काठी में कुछ ऐसा था जो उसे अपनी मां की याद दिला रहा था।
पहचानने का प्रयास
पर अगले ही पल उसने इस ख्याल को झटक दिया। “यह मां कैसे हो सकती है? वह तो आराम से आश्रम में है। मैं भी क्या सोचने लगा?” उसने अपनी ही मां को नहीं पहचाना और मस्ती में फोन पर बात करता हुआ अंदर आ गया।
पार्टी का माहौल
शाम होते-होते घर मेहमानों से भर गया। संजय के दोस्त, रीता की सहेलियां, कुछ दूर के रिश्तेदार सब मौजूद थे। महफिल में महंगे इत्र की खुशबू और संगीत का शोर गूंज रहा था।
विमला जी उस शोर में कभी मेहमानों को पानी के गिलास पकड़ातीं, कभी चाय नाश्ते की प्लेट। “हैप्पी बर्थडे टू यू” पवन की धुन पर तालियां बजीं। पवन ने केक काटा और पहला टुकड़ा संजय और रीता को खिलाया।
विमला जी की तड़प
विमला जी दूर खड़ी यह सब देख रही थीं। उनका दिल चाह रहा था कि पवन एक बार उनकी तरफ भी देखे। पर उसकी गार्ड भी दुनिया अपने दोस्तों और तोहफों में सिमटी हुई थी।
तभी संजय की एक बुजुर्ग आंटी मीना जी इधर-उधर देखते हुए पूछ ही बैठीं, “संजय बेटा, सब तो हैं पर तुम्हारी मां कहां है? उनके बिना घर में यह उत्सव अधूरा सा लग रहा है। वह तो पवन पर जान छिड़कती थी। कहीं गई है क्या?”
सच का सामना
यह सवाल एक तीर की तरह लगा। पर संजय और रीता इसके लिए पहले से तैयार थे। रीता ने अपने चेहरे पर एक कुशल अभिनेत्री की तरह चिंता और प्यार भरी मुस्कान सजाई और बोली, “क्या बताएं मीना आंटी। मां तो कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गई हैं। उनकी बरसों से इच्छा थी कैलाश मानसरोवर करने की। हम तो कह रहे थे कि बाद में चली जाइएगा पर वह नहीं मानी।”
झूठ का पर्दा
संजय ने तुरंत बात को आगे बढ़ाया जैसे यह एक डायलॉग पहले से ही तैयार हो। उसकी आवाज में एक झूठा गर्व और आत्मसंतुष्टि थी। “हां आंटी, हमने तो बहुत मना किया कि इस उम्र में इतना कष्ट क्यों उठा रही हैं। पर वह कहने लगी, ‘बेटा, तुम लोगों के लिए अपनी सारी उम्र खपा दी। अब थोड़ा पुण्य भी कमा लूं।’ पता नहीं कब बुलावा आ जाए। आखिर मां की इच्छा से बढ़कर हमारे लिए क्या हो सकता है?”
महफिल की वाहवाही
हमने ही सारी बुकिंग करवाई है। “अब कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गई हैं। कुछ महीने तो लग ही जाएंगे वापस आने में।” यह सुनते ही महफिल में वाहवाही की गूंज उठ गई। एक दोस्त ने संजय की पीठ थपथपाते हुए कहा, “यार संजय, तू तो सच में आज का श्रवण कुमार है। आजकल के जमाने में कौन मां-बाप के लिए इतना सोचता है? सलाम है तुझे।”
विमला जी की पीड़ा
प्रशंसा के यह शब्द सुनकर जहां संजय और रीता गदगद हो रहे थे, वहां विमला जी के लिए वह शब्द पिघले हुए शीशे के फव्वारे की तरह थे जो सीधे उनके कानों में उतर रहे थे। उनकी आत्मा छलनी हो रही थी।
जिस मां का हाल जानने की बेटे को फुर्सत नहीं थी, आज उसकी झूठी कैलाश मानसरोवर यात्रा के नाम पर वह अपनी महानता की इमारत खड़ी कर रहा था। यह धोखा, यह पाखंड, यह सफेद झूठ उनसे सहा नहीं गया।
ट्रे का गिरना
उनके कांपते हाथों में पानी के गिलासों से सजी एक ट्रे थी। श्रवण कुमार का खिताब सुनकर उनके हाथ की पकड़ ढीली पड़ गई। संतुलन बिगड़ गया और ट्रे क्षण की एक दिल दहला देने वाली तेज आवाज के साथ फर्श पर जा गिरी। कांच के गिलास टुकड़ों में बिखर गए।
सन्नाटा
संगीत बंद हो गया। कदम थम गए। सबका ध्यान उस ओर गया जहां एक बूढ़ी काम वाली बाई बिखरे हुए कांच के टुकड़ों के बीच कांपती हुई खड़ी थी। इसी हड़बड़ाहट में जब वह झुकने की कोशिश कर रही थीं, तो उनके चेहरे से वह भारी मोटे कांच का चश्मा फिसल कर गिर गया और सिर से पल्लू भी सरक गया।
पहचान का खुलासा
एक पल के लिए वहां मौत का सा सन्नाटा छा गया। सच सबके सामने था। वह औरत जिसे सब काम वाली बाई समझ रहे थे, वह कोई बाई नहीं थी। अब सबके सामने संजय की कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गई मां विमला जी खड़ी थीं।
“विमला, तुम विमला ही हो ना? इस घर की मालकिन और संजय की मां,” मीना आंटी बड़े गौर से देखते हुए बोलीं। वह एक कदम आगे बढ़ीं। उनकी आंखें अविश्वास से फैली हुई थीं।
संजय की शर्मिंदगी
संजय और रीता के चेहरे सफेद पड़ गए। उनकी जुबान तालू से चिपक गई। जिन चेहरों पर अभी कुछ देर पहले प्रशंसा की चमक थी, अब उन पर शर्मिंदगी की और पकड़े जाने की कालिक पुत गई।
“तेरी यह हालत किसने की, विमला?” मीना जी ने पूछा। “मीना, मैं कैलाश मानसरोवर यात्रा पर नहीं, बल्कि वृद्ध आश्रम चली गई थी। मेरे बच्चों ने कुछ दिनों के लिए मुझे वहां रहने को कहा था। पर फिर कभी लेने नहीं आए, ना ही मुझसे मिलने आए। लेकिन आज, आज मेरे पवन का जन्मदिन था। मेरा दिल नहीं माना, सब्र जवाब दे गया। मैं अपने पोते को देखे बिना नहीं रह सकी। बस एक बार, सिर्फ एक बार अपनी इन आंखों से उसे निहारना चाहती थी।”
विमला जी की कहानी
“अगर मैं अपनी उसी पहचान के साथ इस दरवाजे पर आती तो शायद मुझे दहलीज से ही लौटा दिया जाता।” कहते-कहते उनका गला रंध गया। उनकी कहानी सुनकर हर मेहमान स्तब्ध था।
संजय और रीता सिर झुकाए ऐसे खड़े थे मानो जमीन फट जाए और वे उसमें समा जाएं। विमला जी ने एक आखिरी नजर अपने बेटे पर डाली। फिर उनकी आंखें उस भीड़ में अपने पवन को ढूंढने लगीं।
पवन की मासूमियत
वह केक की मेज के पास दूसरे बच्चों के बीच सहमा हुआ खड़ा था। इस पूरे तमाशे से अनजान, वह बस अपनी दादी को देख रहा था। जिन्हें वह अब तक पहचान नहीं पाया था।
“जब झूठ का पर्दा फट ही गया है,” उन्होंने धीरे से कहा, “और सबको पता चल ही गया है कि मैं कौन हूं, तो फिर मैं अपनी वह एक ख्वाहिश भी पूरी कर ही लेती हूं जिसके लिए मैंने अपनी इज्जत तक दांव पर लगा दी।”
आलिंगन का पल
यह कहकर वह धीरे-धीरे आगे बढ़ीं। वह पवन के सामने पहुंचीं और अपने कांपते हुए घुटनों के बल जमीन पर बैठ गईं। एक साल से पत्थर बनी उनकी आंखें अब झरझर बहने लगी थीं। “मेरे बच्चे,” यह शब्द उनके मुंह से एक सिसकी के साथ निकला और फिर उन्होंने अपनी दोनों बाहें फैलाईं और पवन को अपनी ओर खींचकर कस के अपनी छाती से लगा लिया।
यह सिर्फ एक आलिंगन नहीं था। यह एक साल की तड़प का अंत था। वह पवन के बालों को सूंघ रही थीं। उसके गोलमटोल गालों और माथे को बेतहाशा चूम रही थीं और उनकी हर एक हरकत में एक-एक महीने का इंतजार घुला हुआ था।
पवन का अहसास
ऐसा लग रहा था जैसे कोई रेगिस्तान में भटकता प्यासा आखिरकार पानी के स्रोत तक पहुंच गया हो और अपनी बरसों की प्यास बुझा रहा हो। पवन, जो अब तक सहमा हुआ था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसे बस अपनी दादी की कांपती हुई बाहों, उनके आंसुओं की गर्माहट और उन सिसकियों का एहसास हो रहा था।
उसने भी डरते-डरते अपने छोटे-छोटे हाथ उनकी पीठ पर रख दिए। यह दृश्य देखकर वहां मौजूद कई लोगों की आंखों से आंसू बह निकले। मीना आंटी ने अपना मुंह पल्लू से ढक लिया ताकि कोई पीठ पर उन्हें रोते हुए ना देख सके।
विमला जी की नई पहचान
अपनी हसरत पूरी करने के बाद विमला जी ने धीरे से पवन को खुद से अलग किया। उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू से उसके गालों पर लगे अपने आंसू पोंछे और फिर उठ खड़ी हुईं। अब उनके अंदर एक अजीब सी शांति थी। उनकी झुकी हुई कमर सीधी हो चुकी थी।
उन्होंने भीड़ पर एक नजर डाली। फिर बिना किसी भाव के बस इतना कहा, “अच्छा, चलती हूं।” तभी संजय का एक दोस्त सौरभ, जो अब तक चुपचाप यह सारा तमाशा देख रहा था, आगे बढ़ा।
सौरभ का प्रस्ताव
वह एक समझदार और संवेदनशील युवक था। उसने जमीन से विमला जी का चश्मा उठाया। उसे साफ किया और फिर संजय और रीता को घूरती हुई नजरों से देखा। उसकी आंखों में नफरत और अफसोस दोनों थे।
वह विमला जी की ओर मुड़ा। उनके हाथ में चश्मा थमाया और फिर हाथ जोड़कर झुकी हुई नजरों से बोला, “मां जी, आप मेरे साथ चलिए। मेरा घर छोटा है लेकिन मेरे घर में आपकी जगह मेरे सिर आंखों पर होगी।”
स्वाभिमान की जागृति
सौरभ के शब्दों ने जैसे विमला जी के अंदर सोए हुए स्वाभिमान को जगा दिया। उन्होंने अपने आंसू पोंछे और सौरभ के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “जीते रहो बेटा। भगवान तुम्हें बहुत सुखी रखे।”
फिर वह एक पल रुकीं और बोलीं, “पर जब अपना ही खून पानी हो गया, तो मैं किसी पराए पर बोझ कैसे बन सकती हूं। लेकिन बेटा, तुम्हारे विचार जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा। हमेशा खुश रहो।”
विदाई का पल
उन्होंने एक नजर अपने बेटे और बहू पर डाली। उनकी आंखों में अब ना गुस्सा था, ना नफरत। बस एक गहरी, बहुत गहरी उदासी थी। “मेरी जगह अब वहीं है जहां मेरी किस्मत मुझे ले जा चुकी है।”
यह कहते हुए वह मुड़ीं और बिना किसी की ओर देखे उस घर से हमेशा के लिए बाहर निकल गईं। उनके कदमों में अब कोई लाचारी नहीं थी, बल्कि एक ऐसी शांति थी जो सब कुछ खो देने के बाद हासिल होती है।
अंत में
उनके जाने के बाद श्रवण कुमार की उपाधि देने वाले मेहमानों ने शर्मिंदगी से सिर झुका लिया। एक-एक करके सब ने संजय और रीता पर थू-थू करते हुए और लानते भेजते हुए घर छोड़ दिया।
मीना आंटी ने जाते-जाते बस इतना कहा, “संजय, तूने अपनी मां के साथ नहीं, बल्कि इंसानियत के साथ धोखा किया है। भगवान तुझे कभी माफ नहीं करेगा।”
यह शब्द नहीं, तमाचे थे जो संजय और रीता के जमीर पर पड़े थे। इतना कहकर वह भी निकल गईं। पीछे रह गया वह आलीशान घर, बिखरे हुए तोहफे, आधा खाया हुआ केक और फर्श पर पड़े कांच के टुकड़े और उन सबके बीच खड़े थे दोनों पति-पत्नी, जो आज खुद को जमीन में गड़ने जैसी स्थिति में पा रहे थे।
निष्कर्ष
तो दोस्तों, आपको क्या लगता है? विमला जी ने जो फैसला लिया था, क्या वह सही था? अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें और यह भी बताएं कि आप यह कहानी भारत के किस शहर से सुन रहे हैं। अगर कहानी पसंद आई हो तो वीडियो को लाइक और चैनल को सब्सक्राइब जरूर करें और शेयर करना बिल्कुल ना भूलें। धन्यवाद।
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