हरिनारायण की कहानी
प्रस्तावना
वाराणसी की सुबह अपने आप में एक आध्यात्मिक अनुभव होती है। सूरज की पहली किरण जैसे ही गंगा के पानी से टकराती है, पूरा शहर सुनहरी आभा से नहाने लगता है। मंदिरों की घंटियां, मंगला आरती की ध्वनि और दूरदराज से आते शंखनाद एक दिव्यता का वातावरण बनाते हैं। इसी वातावरण में, मंदिर की पहली सीढ़ी पर एक बुजुर्ग की छाया धीमे-धीमे मंदिर की ओर बढ़ रही थी। उसके हाथ में एक पुरानी लकड़ी की झाड़ू थी और पीठ पर लटका एक कपड़े का थैला।
हरिनारायण का जीवन
हरिनारायण, उम्र लगभग 75 से 80 के आसपास, चेहरे पर झुर्रियां लेकिन नजरों में एक अडिग शांति। मंदिर के मुख्य परिसर में पहुंचकर वे चुपचाप अपने झाड़ू का सहारा लेकर मंदिर के आंगन की धूल समेटने लगे। यह कोई साधारण झाड़ू नहीं थी; यह उनके जीवन की तपस्या का हिस्सा बन चुकी थी। हर दिन की तरह आज भी उन्होंने मंदिर की सीढ़ियां साफ कीं, मलबा हटाया, और सूखी फूलों की मालाएं एक कोने में रखीं, ताकि किसी भी आने-जाने वाले को परेशानी न हो।
समाज की नजर
पास से गुजरती एक महिला ने फुसफुसाकर कहा, “लगता है कोई भिखारी है।” उसके पति ने जवाब दिया, “भिखारी नहीं, शायद कोई पगला है। सुना है, झाड़ू लगाकर भगवान से बात करता है।” लेकिन हरिनारायण ने किसी को कुछ नहीं कहा। एक बच्चे ने नाक सिकोड़ते हुए पास में खड़े पुजारी से पूछा, “पंडित जी, यह कौन है?” पुजारी ने उत्तर दिया, “कोई नहीं बेटा। मंदिर के पुराने भक्त हैं। बस ऐसे ही आते हैं। कभी अमीर रहे होंगे। अब तो भगवान ही जाने।”
आंतरिक सफाई
हरिनारायण केवल बाहर की धूल नहीं समेटते थे; वे भीतर की अशुद्धियों को भी मिटा रहे थे—अपनी और शायद हमारी भी। मंदिर के पीछे एक छोटी सी जगह थी, जहां वह रोज बैठते थे। वहीं एक दीवार पर उन्होंने कुछ चीजें टांग रखी थीं। एक पुरानी तस्वीर जिसमें एक युवा लड़का और एक महिला मुस्कुरा रहे थे। वह महिला उनकी पत्नी सावित्री थी, जिनका देहांत हुए अब दो दशक हो गए थे, और वह लड़का उनका बेटा विजय था, जो कभी उनके गले लगकर कहता था, “पापा, मैं बड़ा आदमी बनूंगा, आपके लिए बहुत बड़ी गाड़ी लाऊंगा।”
यादें और तपस्या
हरिनारायण उस तस्वीर को हर सुबह देख मुस्कुराते और धीरे से बुदबुदाते, “बेटा तो बड़ा हो गया, पर अब शायद भगवान ही हमारा संदेश उसे पहुंचाएगा।” हरिनारायण मंदिर में आने वाले लोगों को ध्यान से देखते थे। कोई मोबाइल में सेल्फी लेता, कोई आरती की फोटो डालता, कोई सिर्फ जल चढ़ाकर जल्दी निकलता। पर कोई रुका नहीं। एक बार एक वृद्ध महिला आई, जो चल नहीं पा रही थी। हरिनारायण ने बिना कहे उसका हाथ पकड़कर मंदिर की सीढ़ियां चढ़वा दी। महिला की आंखों में आंसू थे। “बेटा, तू कौन है?” हरिनारायण बोले, “बस भगवान का दरबारी हूं मां। नहीं चाहिए दान।”
सेवा की भावना
कभी-कभी लोग उन्हें पांच या दस रुपये देने की कोशिश करते। सोचते हैं कि यह कोई गरीब भिखारी है। लेकिन हरिनारायण हाथ जोड़कर मना कर देते। “मैं लेने नहीं, देने आया हूं। जिसे आप नहीं देख सकते, वो मेरी पूजा है।” एक दिन एक विदेशी महिला आई, शायद फ्रांस की होगी। उसने हरिनारायण को देख काफी देर तक खड़ी रही। फिर बोली, “You are doing this for God.” हरिनारायण ने सिर्फ मुस्कुरा कर जवाब दिया, “Not for God, with God.” उसके कैमरे में उस मुस्कुराहट की तस्वीर कैद हो गई, जो अगले महीने “The Soul of India” नामक डॉक्यूमेंट्री में छपी।
पहचान और अनदेखी
पुजारी अक्सर उसे दूर खड़ा कर देते। “बाबा, पूजा के समय मंदिर के भीतर मत आया करो। भक्तों को भ्रम होता है।” हरिनारायण चुपचाप पीछे हट जाते लेकिन जाते नहीं। उनका एक ही उत्तर होता, “मैं भगवान के लिए आया हूं, लोगों के लिए नहीं।” धूल के साथ अश्रु भी। एक दिन मंदिर में एक बड़ा कार्यक्रम हुआ। बड़ी हस्तियां आईं, कैमरे लगे, टीवी मीडिया आई। हरिनारायण हमेशा की तरह झाड़ू लगा रहे थे। एक रिपोर्टर ने उन्हें देखा और पूछा, “बाबा, आप इतने सालों से सेवा कर रहे हैं। आपको क्या मिला?”
तपस्या का फल
हरिनारायण मुस्कुराए। बोले, “मुझे भगवान का साथ मिला। बाकी सब तो दुनिया के सौदे हैं।” वही तस्वीर और वह शब्द वायरल हो गए। लेकिन लोग तब भी उन्हें पहचानने को तैयार नहीं थे। मंदिर की सीढ़ियां सिर्फ पत्थर नहीं होतीं; यह समय की कहानियां होती हैं और हर कदम पर किसी न किसी की आस्था, चोट या आशा छिपी होती है। वाराणसी के इस पुराने मंदिर की सीढ़ियां अब घिस चुकी थीं। लेकिन उनके ऊपर एक नाम हर दिन लिखा जाता था—हरिनारायण। वे हर सुबह उस पहली सीढ़ी पर कुछ पल के लिए बैठते थे, जैसे कोई साधक ध्यान करता हो।
यादें और संकल्प
वहीं बैठकर वे मंदिर के द्वार को देखते, मानो अपने भीतर के द्वार से संवाद कर रहे हों। आज से 55 साल पहले इन्हीं सीढ़ियों पर हरिनारायण अपनी पत्नी सावित्री के साथ पहली बार आए थे। नई-नई शादी हुई थी। सावित्री के चेहरे पर घूंघट था, लेकिन मन में श्रद्धा। वह दिन उनके जीवन की शुरुआत थी और आज उनके लिए हर दिन एक तपस्या बन चुका था। कभी यह मंदिर उनके व्यापार की शुरुआत की गवाही बना था, जब उन्होंने भगवान से वचन लिया था, “अगर मेरा बेटा कभी बड़ा आदमी बने तो मैं हर साल सेवा करूंगा।”
विजय की कहानी
हरिनारायण एक मध्यमवर्गीय कपड़ा व्यापारी थे। उनके पास बहुत कुछ नहीं था, लेकिन सपनों की कोई कमी नहीं थी। विजय, उनका इकलौता बेटा, बहुत होशियार था। सावित्री अक्सर कहती थी, “यह बच्चा एक दिन बड़ा अफसर बनेगा। आप देखना, यह आपको गाड़ी में बैठाकर मंदिर लाएगा।” हरिनारायण हंसते थे, लेकिन दिल में एक गर्व उमड़ता था। विजय पढ़ाई में आगे बढ़ा। बनारस से दिल्ली और फिर दिल्ली से अमेरिका। विदेश की दूरी, संस्कारों की दूरी।
परिवार का त्याग
अमेरिका पहुंचकर विजय की दुनिया बदल गई। नए लोग, नया माहौल और फिर एक बिजनेस स्कूल से एमबीए। हरिनारायण और सावित्री ने उसकी हर जरूरत पूरी की। घर गिरवी रख दिया, व्यापार बंद कर दिया, खेत तक बेच डाले। लेकिन कोई शिकायत नहीं। बस एक उम्मीद थी, विजय लौटेगा और हम सब साथ बैठकर मंदिर चलेंगे। पर धीरे-धीरे विजय की चिट्ठियां कम होने लगीं। फिर एक दिन एक कॉल आया। “पापा, मैं यहां बस गया हूं। अब यही सेटल हो रहा हूं।”
अंतिम विदाई
हरिनारायण ने कहा, “बेटा, तेरी मां बहुत बीमार है। एक बार आजा।” पर विजय नहीं आया। सावित्री का अंतिम दिन। सावित्री के अंतिम दिन में हरिनारायण ने उनके कान में धीरे से कहा था, “मैं वचन देता हूं। तेरे बेटे की सफलता के लिए भगवान के मंदिर में झाड़ू लगाऊंगा। जब तक मेरी सांस चलेगी।” सावित्री की आंखों से आंसू बहने लगे थे। वह उनका आखिरी आशीर्वाद था। इसके बाद हरिनारायण ने सब छोड़ दिया। उन्होंने कोई गिला शिकवा नहीं किया। बस एक पुरानी झाड़ू ली और मंदिर की सीढ़ियां पकड़ ली।
सेवा का संकल्प
हर दिन वे मंदिर के आंगन की सफाई करते। ना किसी से कुछ मांगा, ना कुछ जताया। लोगों ने ताने मारे, पुजारी ने अनदेखा किया, और भक्तों ने भिखारी समझा। लेकिन हरिनारायण को फर्क नहीं पड़ा। उन्हें बस एक बात याद थी, “मेरा बेटा जब भी लौटेगा तो भगवान की सीढ़ियां साफ मिलनी चाहिए।” कई बार वे बैठकर सीढ़ियों को देखते और पुरानी बातें याद करते। यहीं से विजय स्कूल जाता था। यहीं बैठकर मैं उसे साइकिल पर बिठाता था।
बच्चों के साथ
कभी-कभी एक-दो बच्चे मंदिर की सीढ़ियों पर खेलते थे। हरिनारायण उन्हें देखकर मुस्कुराते। एक बार एक बच्चा बोला, “बाबा, आपके पास घर नहीं है क्या?” हरिनारायण ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, “जिसके पास भगवान है, उसे और क्या चाहिए बेटा?” उसी दिन दोपहर में मंदिर में हलचल होने लगी। किसी ने कहा, “कल एक बड़ी स्कूल ट्रिप आ रही है। दिल्ली से कोई बड़ा स्कूल बच्चों के साथ वीआईपी भी आ सकते हैं।” हरिनारायण रोज की तरह अपनी झाड़ू उठाकर मंदिर के कोने की ओर बढ़े। लेकिन आज उनके लिए एक विशेष कोना तय कर दिया गया था।
विशेष दिन
मंदिर के पीछे की दीवार के पास बाबा, आप उधर बैठ जाओ। पुजारी ने नजरों से इशारा किया। हरिनारायण कुछ नहीं बोले। बस झाड़ू हाथ में ली और चुपचाप उस कोने की ओर चल दिए। वह जानते थे कि उनका स्थान अब ईश्वर की इच्छा से तय होता है, ना कि लोगों की इजाजत से। मंदिर के गेट पर दो बड़ी एसी बसें रुकीं। अंदर से उतरे स्मार्ट अंग्रेजी बोलते बच्चे, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित इंटरनेशनल स्कूल के छात्र। उनमें से एक छोटी सी लड़की थी, वर्णिका रॉय, जिनकी आंखें उत्साह से चमक रही थीं।
पहचान का क्षण
उसने जैसे ही मंदिर की सीढ़ियां देखी, उसकी नजर उस कोने की तरफ गई, जहां एक झुकी हुई पीठ वाला बुजुर्ग झाड़ू लगा रहा था। “वह कौन है?” उसने अपनी शिक्षिका से पूछा। “कोई मंदिर का सेवक होगा बेटा?” टीचर ने संक्षेप में कहा। लेकिन वर्णिका की आंखें उस चेहरे को देखती रह गईं। जैसे ही दर्शन की बारी आई, सारे बच्चे मंदिर की ओर चलने लगे। लेकिन वर्णिका पीछे मुड़ती रही। उसने धीरे-धीरे मंदिर से हटकर उस बुजुर्ग के पास जाना शुरू किया। पास जाकर उसने धीरे से कहा, “दादू!”
भावनात्मक पुनर्मिलन
हरिनारायण की झाड़ू रुक गई। उन्होंने चौंक कर देखा एक नन्ही सी बच्ची जिनकी आंखें उनकी स्वर्गवासी पत्नी से मिलती थीं। “आप मेरे दादू हो ना?” पापा कहते हैं मेरे दादू नहीं रहे। पर आपके जैसी आंखें मैंने एक तस्वीर में देखी हैं। हरिनारायण कांपते हाथों से उसके सिर पर हाथ रखते हैं। “बेटी, तू कौन है?” “मैं वर्णिका रॉय हूं। मेरे पापा का नाम विजय रॉय है। उन्होंने मुझे कभी आपके बारे में बताया नहीं। लेकिन मैं जानती हूं, आप वही हैं।”
आंसुओं का सैलाब
हरिनारायण की आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने उसे अपने सीने से लगा लिया। कई वर्षों के मौन, तिरस्कार और अकेलेपन की चट्टान अचानक धड़कने लगी थी। बच्चों के साथ एक स्थानीय फोटोग्राफर मंदिर में था। उसने इस दृश्य को चुपचाप अपने कैमरे में कैद कर लिया। मंदिर में एक बच्ची और भिखारी जैसे दिखते बुजुर्ग का भावनात्मक आलिंगन। यही था उसका कैप्शन। किसी को नहीं पता था कि यह तस्वीर अगले दिन अखबारों के पहले पन्ने पर छपने वाली है।
विजय की वापसी
मुंबई रॉय एंटरप्राइजेज का दफ्तर। वहीं दूसरी ओर मुंबई में विजय रॉय अपने 68वीं मंजिल के ऑफिस में बैठा विदेशी क्लाइंट से वर्चुअल मीटिंग कर रहा था। टेबल पर आईपैड, सामने तीन स्क्रीन, और पीछे बैठा निजी सहायक। सब कुछ 21वीं सदी की भव्यता। लेकिन उसी मीटिंग के दौरान उसकी बेटी का स्कूल से एक इमरजेंसी कॉल आता है। “सर, आपकी बेटी वाराणसी में ट्रिप के दौरान मंदिर में किसी वृद्ध से लिपट गई और बोल रही थी कि वह उसके दादाजी हैं। कुछ मीडिया वालों ने तस्वीरें भी खींची हैं।”
भावनात्मक तूफान
विजय के चेहरे की रंगत उड़ गई। “दादाजी? पर मेरे पिता…” वह वाक्य अधूरा ही रह गया, जिसे दुनिया ने भुला दिया था। हरिनारायण मंदिर के कोने में अब भी चुपचाप बैठे थे। वर्णिका का हाथ उन्होंने तब तक नहीं छोड़ा था। वह जान गए थे। भगवान ने उनकी वर्षों की सेवा का उत्तर भेज दिया है। बेटे की बेटी वही दया और वही ममता लिए उनके पास आई थी। उसी समय मंदिर का पुजारी आया और कहा, “बाबा, बच्ची आपके साथ क्यों बैठी है? दूर रखिए इसे।”
दृढ़ता का पल
लेकिन पहली बार हरिनारायण की आंखों में दृढ़ता थी। “यह मेरी पोती है।” अगले ही पल मंदिर की खामोशी टूट गई। Rolls Royce गाड़ी के आते ही मंदिर के मुख्य द्वार पर लोग जुटने लगे थे। चमचमाती काली गाड़ी, साइड में गार्ड और दरवाजा खोलते ही एक सूट-बूट वाला युवक बाहर निकला—विजय रॉय। लोगों ने एक दूसरे से फुसफुसाते हुए कहा, “अरे, यह तो वही अरबपति बिजनेसमैन है ना? क्या बात है? यह मंदिर क्यों आया?”
पुनर्मिलन का क्षण
और तभी मंदिर के कोने में बैठा वह वृद्ध हरिनारायण अचानक सबके आकर्षण का केंद्र बन गया। “दादू, देखो, पापा आ गए!” वर्णिका दौड़ती हुई गाड़ी की ओर गई और विजय का हाथ पकड़ कर बोली, “पापा, यह मेरे दादू हैं। आपने कहा था वो नहीं हैं। लेकिन वो यही हैं। यही सेवा करते हैं।” विजय का चेहरा भावनाओं के तूफान से घिर गया। पहले संकोच, फिर आश्चर्य और अंततः शर्म। वह धीरे-धीरे अपने पिता के पास आया। “यह… यह मेरे पिता हैं।”
अंतिम क्षण
हरिनारायण उठने की कोशिश करने लगे। लेकिन उनकी आंखें नम थीं। शरीर कांप रहा था। विजय उनके सामने झुक गया। “पापा, मैं… मैं शर्मिंदा हूं।” यह कहकर उसने अपने पिता के पैरों को छू लिया। हरिनारायण ने उसे गले लगा लिया। यह एक ऐसा क्षण था, जिसमें वर्षों की दूरी और दर्द खत्म हो गए। विजय ने अपने पिता से कहा, “मैंने तुम्हें कभी नहीं भुलाया। मेरी सफलता तुम्हारी तपस्या का फल है।”
निष्कर्ष
इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि सच्चे प्रेम और समर्पण की कोई कीमत नहीं होती। हरिनारायण ने अपने बेटे के सपनों के लिए जो तपस्या की, उसका फल एक दिन अवश्य मिलता है। यह कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि परिवार, संस्कार और प्यार की ताकत कभी कम नहीं होती। हरिनारायण की झाड़ू ने न केवल मंदिर की धूल को हटाया, बल्कि उनके परिवार के बिछड़े रिश्तों को भी फिर से जोड़ दिया। जय हिंद!
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