माँ के इलाज के लिए 8 साल का बच्चा चाय बेचता रहा… लेकिन जब हॉस्पिटल वाले ने कहा – ICU का खर्च लाखों..

“चाय वाले शिवा की सच्चाई की जंग”

प्रस्तावना

दिल्ली की नींद में डूबती गलियों में, जब सूरज अभी उगने की तैयारी कर रहा होता है, एक नन्हा बच्चा अपनी ठेली पर केतली रखते हुए दिन की शुरुआत करता है। उसका नाम शिवा है—सिर्फ 8 साल का, लेकिन आंखों में जिम्मेदारी, जिद और गहराई। पिता नहीं, मां बिस्तर पर। हर सुबह की शुरुआत एक संघर्ष, हर शाम उम्मीद और हर रात डर के साथ।

शिवा की दुनिया: संघर्ष और ममता

शिवा की मां सुनीता दो साल से बिस्तर पर पड़ी थी। किडनी खराब, लीवर भी जवाब दे रहा था। डॉक्टरों ने कह दिया—जल्दी इलाज शुरू करो, वरना बहुत देर हो जाएगी। दवा का खर्चा हर महीने 5000 से ऊपर, ICU के लिए दो लाख की जरूरत। इतनी उम्र में जहां बच्चे स्कूल जाते हैं, शिवा सड़कों पर चाय बेचता है। उसके पैरों में पुरानी चप्पलें, हाथ में केतली, दिल में मां को बचाने की जिद।

मोहल्ले वाले कभी पैसे देते, कभी सलाम, लेकिन सलाम से इलाज नहीं होता था। शिवा की आंखों में सिर्फ एक सपना था—मां को ठीक करना।

मां की हालत बिगड़ी, शिवा की परीक्षा

एक रात मां को अचानक खून आने लगा। मोहल्ले वालों ने चंदा इकट्ठा किया, किसी तरह बड़े अस्पताल ले गए। डॉक्टरों ने ICU में भर्ती करने को कहा, लेकिन पहले एडवांस मांगा—कम से कम 15,000। शिवा के पास बस 4,375 रुपए थे, सिक्कों और मुड़े-तुड़े नोटों में। उसने डॉक्टर की मेज पर पैसे फैला दिए, “बस यही है अंकल, मेरी मां को बचा लो। बाकी मैं चुका दूंगा, काम करता हूं।”

डॉक्टर झुक गए, लेकिन नियम नहीं झुका। तभी अस्पताल में एक बुजुर्ग आए, जिन्होंने बाहर का सीन देखा था। वो पास आए, शिवा से बोले, “तुम क्या करते हो?”
“चाय बेचता हूं, मां को बचाना है। भगवान से भीख मांग लूंगा, लेकिन मां नहीं मरनी चाहिए।”

बुजुर्ग ने डॉक्टर से कहा, “ICU का सारा खर्च मैं दूंगा, इलाज शुरू करो।”
शिवा की आंखें नम हो गईं, “आप कौन हो अंकल?”
जवाब मिला, “तुम्हारे जैसे बेटे को देखकर अगर कोई कुछ ना करे तो वह इंसान नहीं। तुम्हारी मां को कुछ नहीं होगा।”

जिंदगी की जंग—दूसरा मोड़

अगले कुछ घंटे बेहद नाजुक थे। सुनीता को वेंटिलेटर पर रखा गया, खून चढ़ाया गया, महंगी दवाइयां दी गईं। शिवा पूरे वक्त ICU के बाहर बैठा रहा, हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करता रहा। “मेरा सब कुछ ले लो, लेकिन मां को मत ले जाना।”

डॉक्टर बोले, “फिलहाल हालत स्थिर है, लेकिन खतरा टला नहीं। कुछ दिन ICU में रहना पड़ेगा।”
शिवा ने सिर हिलाया, बटुए से ₹11 निकालकर भगवान के मंदिर में चढ़ाए, “यह मेरी पहली कमाई थी, अब तू रख ले, बस मां को ठीक कर दे।”

अगली सुबह वही बुजुर्ग फिर आए—नाम बताया, नरेश मल्होत्रा, रिटायर्ड जज। उन्होंने शिवा के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, अब से मैं तुम्हारा मददगार हूं। पढ़ाई करोगे ना?”
शिवा बोला, “करूंगा, लेकिन पहले मां को ठीक करना है।”

लिवर ट्रांसप्लांट—नई चुनौती

अगले हफ्ते सुनीता की हालत थोड़ी सुधरी, लेकिन डॉक्टरों ने कहा—लिवर ट्रांसप्लांट जरूरी है, खर्च करीब 1 लाख। शिवा की सांसें थम गईं। उसने फिर चाय की गाड़ी आगे बढ़ाई, हर दुकान, ऑफिस, बस स्टॉप पर चाय बेचने लगा। अब वह दिन में 14 घंटे काम करता, रात को मां के पास सोता।

एक दिन किसी ने उसका वीडियो बना लिया, जिसमें शिवा चाय बेचते हुए मां की कहानी बता रहा था। वीडियो वायरल हो गया, ऑनलाइन फंडिंग शुरू हुई। 5 दिन में 1 लाख इकट्ठा हो गए। शिवा की उम्मीदें जागी। लेकिन उसी रात मां को कार्डियक अरेस्ट आ गया। डॉक्टर बोले—हालत बहुत क्रिटिकल है।

शिवा भगवान के सामने गिर पड़ा, “तूने मेरा सब कुछ ले लिया, अब क्या तसल्ली मिल रही तुझे?”
डॉक्टर बोले—कुछ मिनटों में रिस्पॉन्ड किया, लेकिन हालत नाजुक है।

नरेश मल्होत्रा की मदद, ऑपरेशन की जीत

नरेश मल्होत्रा बोले, “बेटा, हार नहीं मानते। कल एक बड़ा सर्जन आ रहा है, लिवर ट्रांसप्लांट करेगा। पैसा अब इंतजाम हो गया है।”
अगले दिन ऑपरेशन शुरू हुआ, 9 घंटे चला। शिवा पत्थर बना बाहर खड़ा रहा। अंत में डॉक्टर मुस्कुराते हुए बाहर आए, “ऑपरेशन सफल रहा।”

शिवा पहली बार जोर से रोया, कंधों पर से जैसे बोझ उतर गया। सुनीता को धीरे-धीरे होश आने लगा। ICU से बाहर आने में एक हफ्ता लगा। अब शिवा दिन में चाय बेचता, लेकिन चेहरे पर मुस्कान थी। मां ने पूछा, “तू इतना बड़ा कब हो गया बेटा?”
शिवा बोला, “जब पापा चले गए, उस दिन से। अब तू जल्दी ठीक हो जा, मुझे स्कूल भी जाना है और फिर जज बनना है, जैसे मल्होत्रा अंकल हैं।”
मां ने उसे गले से लगा लिया, “मुझे अपने बेटे पर गर्व है।”

अतीत की परतें खुलती हैं

एक दिन अस्पताल से लौटते वक्त शिवा को एक अजनबी ने रोका, “तू ही शिवा है?”
हां कहा।
उसने तस्वीरें दिखाईं, “इनमें से एक तेरे पिता की है, वह जिंदा है।”
शिवा की आंखें फटी रह गईं। एक तस्वीर देखकर ठिठक गया, “यह तो नहीं, यह कैसे हो सकता है?”
आदमी ने एक कागज थमाया, “माफ करना बेटा, मैं मजबूर था।”

शिवा कांपता हुआ कागज लेकर मां के पास गया। मां ने देखा, सन्न रह गई। “यह तो वही है जिसने…” और बेहोश हो गई।
शिवा उलझ चुका था। उसका अतीत बदल रहा था। सच्चाई उससे छुपाई गई थी। लेकिन क्यों? कौन था वह आदमी? उसके पिता क्यों छोड़ गए थे उसे और उसकी मां को? अब 8 साल बाद कौन सी मजबूरी उन्हें वापस लाई थी?

सच्चाई की तलाश—शिवा का सफर

शिवा ने तय किया, अब वह सिर्फ चाय वाला नहीं रहेगा, सच्चाई जानकर रहेगा। एक रात वह चुपचाप उस पते पर निकल पड़ा, हाथ में पुराना कागज, आंखों में आंसू, दिल में आग।

गली नंबर 17, पुराना औद्योगिक क्षेत्र, आरकेपुरम—जहां उजड़े कारखाने, सुनसान गलियां, भूले-बिसरे चेहरों की परछाइयां। शिवा को डर नहीं लगा, अब डर की जगह जिद थी।

मकान टूटा-फूटा, आधी दीवारें झुकी, बाहर पुराना स्कूटर। दरवाजा बंद, अंदर से हल्की रोशनी। शिवा ने दरवाजा खटखटाया, कोई जवाब नहीं। फिर जरा जोर से, दरवाजा खुद खुल गया। अंदर एक बूढ़ा आदमी बैठा था—वही चेहरा जो तस्वीर में था।

“क्या आप मेरे पापा हैं?”
बूढ़े आदमी ने कहा, “तुम्हारा नाम शिवा है ना?”
शिवा ने सिर हिलाया।
“हां, मैं ही हूं। पर मैं इस लायक नहीं कि तू मुझे बाप कहे।”

शिवा कांपने लगा, “क्यों छोड़ा आपने हमें? मां को क्यों तड़पते देखा? हमें क्यों नरक में धकेल दिया?”
आदमी की आंखों में आंसू थे, “मुझे मजबूर किया गया। मैंने तुम्हारी मां से प्यार नहीं किया, वह शादी मेरे ऊपर थोपी गई थी। तुम्हारे जन्म के बाद मुझे पता चला कि मैं एक और औरत से प्यार करता हूं और उससे मेरा बच्चा होने वाला है। तब मैं भाग गया, दूसरी शादी कर ली।”

शिवा चीख पड़ा, “तो आपने हमें छोड़ दिया ऐसे ही? क्या हम खिलौने थे?”
“नहीं, लेकिन तब मेरे पास हिम्मत नहीं थी।”

आदमी ने एक डिब्बा निकाला, जिसमें कुछ कागज और एक पेंडेंट था। “तुम्हारी मां ने यह कभी मुझे दिया था। और ये कागज तुम्हारी सच्चाई बताते हैं बेटा।”

शिवा ने कांपते हाथों से कागज उठाए, पढ़ा—”शिवा, तुम मेरा बेटा नहीं, सुनीता की पहली शादी से हो। मैं तुम्हारा सौतेला बाप हूं। मैंने तुम्हारी मां से शादी तब की जब तुम्हारे असली पिता एक्सीडेंट में गायब हो गए थे। उनकी लाश कभी नहीं मिली थी। यह सब मैंने छुपा लिया ताकि मेरा असली बेटा तुम्हें अपना हिस्सा न समझे।”

शिवा को लगा किसी ने उसके सीने में गर्म सलाख घुसा दी हो।
“तो मैं उस आदमी का बेटा हूं जो अभी कहीं है, जिंदा भी हो सकता है। और आपने हमें इस झूठ में जिंदा रखा।”

शिवा वहां एक पल भी नहीं रुका, कागज उठाए, बाहर निकल गया। सड़क पर चलते हुए उसकी आंखों के आगे बचपन की तकलीफें घूम गईं—मां का खून थूकना, भूखा सोना, चाय के गिलास गिराकर डांट खाना, और अब यह सब एक झूठ के नीचे दबा था। लेकिन एक नई उम्मीद भी जागी—क्या मेरे असली पापा अब भी जिंदा हैं?

असली पिता की तलाश

शिवा अस्पताल पहुंचा, मां को होश आ चुका था। उसने कागज मां को दिखाए। मां फूट-फूट कर रोने लगी, “हां शिवा, यह सच है। तेरे असली पापा बहुत अच्छे इंसान थे। एक बार बाहर गए, फिर लौटे नहीं। सालों इंतजार किया, फिर दबाव में आकर दूसरी शादी की।”

शिवा ने मां का हाथ थामा, “अब मैं उस गलती को सुधारूंगा मां, मैं पापा को ढूंढूंगा, चाहे जमीन-पाताल छानना पड़े।”

मां ने रोका, “नहीं बेटा, वो अब शायद इस दुनिया में नहीं।”
लेकिन शिवा नहीं रुका, उसने उस पते पर खोज शुरू की जहां आखिरी बार उसके असली पिता को देखा गया था—पश्चिम बंगाल, जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन पास की झुग्गियां।

वह वहां पहुंचा, एक बुजुर्ग महिला मिली। “सालों पहले एक आदमी आया था, उसे याददाश्त नहीं थी, बस सुनीता- सुनीता कहकर चिल्लाता था। फिर एक दिन गायब हो गया, लोग कहते हैं कुछ गुंडे उठा ले गए थे।”

कौन गुंडे?
“लाल बाबू के आदमी, यहां माफिया चलता था।”

अब शिवा के लिए लाल बाबू का नाम मिशन बन गया। उसने तय किया, उसे लाल बाबू को खोजना है, अपने पिता को ढूंढ निकालना है।

लाल बाबू का अड्डा—जंग का मैदान

शिवा ने हर झुग्गी, हर नुक्कड़, हर चाय की टपरी पर पूछा, “लाल बाबू कहां मिलेगा?”
हर जवाब में डर, हर निगाह में खामोशी। एक भिखारी बोला, “लाल बाबू कोई आम इंसान नहीं, वह साया है। अब शहर नहीं, जंगल में रहता है, एक पुरानी कोठी में।”

शिवा ने रास्ता पूछा, रात को टॉर्च और मां की चुन्नी का टुकड़ा जेब में रखकर निकल पड़ा। कोठी के पास चार आदमी बंदूक लेकर गेट पर, शिवा पेड़ों के झुरमुट से पिछली दीवार तक पहुंचा, अंदर कूदा।

कोठी अंदर से वीरान, डरावनी, कोने-कोने में कैमरे। शिवा रेंगता हुआ एक कमरे तक पहुंचा, हल्की रोशनी थी, किसी के कराहने की आवाज। अंदर झांका, बूढ़ा आदमी जंजीरों से बंधा—शिवा के असली पिता।

शिवा की आंखों से आंसू छलक गए, “पापा!”
“तू शिवा है?”
“हां पापा, मैं आपको लेने आया हूं।”

तभी दो गार्ड आ गए, शिवा को पकड़कर लाल बाबू के सामने लाकर खड़ा कर दिया। लाल बाबू मुस्कुराया, “तो यह है वह बच्चा जो मेरे सिर का दर्द बना हुआ है।”

“तूने मेरे पिता को क्यों कैद किया?”
“क्योंकि तेरे पिता ने मेरी बहन से शादी करने से मना किया था, मेरी बहन ने खुदकुशी कर ली। मैंने कसम खाई, उसे उसकी जिंदगी से भी ज्यादा प्यार की सजा दूंगा।”

शिवा बोला, “अब सब बदल चुका है, मैं तुम्हारी कोठी और अड्डा दोनों तोड़ दूंगा।”
लाल बाबू ने हंसकर शिवा को अंधेरे कमरे में बंद करवा दिया।

शिवा की हिम्मत—सुरंग से बाहर

कमरे में कोई खिड़की नहीं, दीवारों पर खून के छींटे, जंग लगे औजार। लेकिन शिवा डरता नहीं था। मां की चुन्नी का टुकड़ा दीवार पर रगड़ा, एक ईंट हिली, सुरंग खुली। रेंगता हुआ बाहर खुले जंगल में निकल आया।

भागा, पीछे वाले हिस्से में पापा बंद थे। लकड़ी से गार्ड को बेहोश किया, अंदर पहुंचा, फोन से वीडियो बना लिया—पापा की हालत, लाल बाबू का चेहरा। पापा को छुड़ाया, दोनों सुरंग से बाहर निकले।

दोस्त को कॉल किया, रिपोर्टर था—वीडियो वायरल, पुलिस, मीडिया, NGO पहुंच गए। लाल बाबू भागने की कोशिश में था, पुलिस ने दबोचा।

परिवार का मिलन, सच्चाई का उजाला

शिवा अपने पिता को लेकर अस्पताल पहुंचा, मां की हालत नाजुक थी। लेकिन पति को देखते ही आंखें खुल गईं, दोनों हाथ जोड़कर भगवान को धन्यवाद।

शिवा बीच में बैठा था, एक हाथ मां का, एक हाथ पिता का। पहली बार खुद को पूरा महसूस किया।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। अगले दिन अस्पताल में एक आदमी आया, शिवा को बैग दिया—पिता की डायरी, पेन ड्राइव। डायरी में लिखा, “शिवा, तू सिर्फ मेरा बेटा नहीं, तू एक मिशन है। लाल बाबू सिर्फ नाम नहीं, सिस्टम है। उसमें तेरे सौतेले बाप का भी हाथ था। तू जिसे दुश्मन समझता रहा, शायद वह खुद भी मोहरा था।”

पेन ड्राइव में वीडियो—मां सुनीता, सामने आदमी, “तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया, उसे असली पिता का नाम पता नहीं चलना चाहिए, वरना बहुत कुछ बदल जाएगा।”

स्क्रीन पर नाम—डॉ. रमेश सिन्हा, मिनिस्ट्री ऑफ इंटरनल अफेयर्स।
शिवा का जन्म प्रमाण पत्र—पिता का नाम डॉ. रमेश सिन्हा।

शिवा दौड़कर मां के पास गया, “क्या मैं सिन्हा का बेटा हूं?”
मां ने सिर हिलाया, “हां बेटा, तू उन्हीं का खून है।”

सच्चाई, पहचान और नया सफर

अब शिवा के सामने सवाल—क्या वह उस इंसान को ढूंढे जिसने उसे अपनी पहचान से दूर रखा या उस पिता को माने जिसने 50 साल की कैद में भी मरा नहीं, टूटने नहीं दिया।

डॉ. सिन्हा से मुलाकात—”मैं तुम्हें नाम नहीं दे सका, सिस्टम ने रोक दिया। सुनीता से शादी करना चाहता था, लेकिन दबाव था, ट्रेनिंग थी। जब लौटा, वह शादी कर चुकी थी, बच्चा हो चुका था।”

“पेन ड्राइव क्यों छोड़ी?”
“लाल बाबू की सच्चाई पता चली, तब तक देर हो चुकी थी। तुम्हारे पिता को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन खुद जाल में फंस गया।”

“अब आप क्या करेंगे?”
“जो हर बाप को करना चाहिए, खुद को सरेंडर करूंगा। सारी सच्चाई सामने रखूंगा।”

डॉ. सिन्हा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुद को CBI को सौंप दिया। शिवा को अब शांति मिलनी चाहिए थी, लेकिन नहीं। एक सवाल बाकी था—अब मैं कौन हूं?

शिवा की नई पहचान—मिशन चाय और सच

शिवा ने तय किया, अब वह देश के हर उस बच्चे की आवाज बनेगा जो किसी सिस्टम, किसी लाल बाबू, किसी छुपे नाम के नीचे दबा है। उसने चाय की दुकान फिर से खोली, लेकिन अब वह दुकान संस्था बन गई—”चाय और सच”। हर चाय के गिलास पर लिखा—”हर किसी की सच्चाई कहीं ना कहीं छुपी होती है, बस पूछने की हिम्मत चाहिए।”

शिवा हर हफ्ते एक कहानी सुनाता—गुमनाम बच्चे की, बेसहारा मां की, ऐसे पिता की जिसने बेटे को पहचानने में जिंदगी लगा दी, और ऐसे बेटे की जो चाय से शुरू होकर सच तक पहुंचा।

साल बीत गए, मां ठीक थी, पिता गांव में रहते थे, डॉ. सिन्हा जेल में किताबें लिखते थे। एक दिन शिवा को चिट्ठी मिली—”असली कहानी कभी खत्म नहीं होती, वह बस एक और चाय के साथ फिर शुरू हो जाती है।”

शिवा मुस्कुराया, दुकान के कोने पर वही पुरानी केतली रखी जो मां ने दी थी और बोर्ड पर आखिरी लाइन जोड़ी—”मेरी कहानी खत्म नहीं हुई, अब किसी और की बारी है।”

सीख

हर संघर्ष के पीछे एक सच्चाई छुपी होती है। हिम्मत, मेहनत, और सवाल पूछने की जिद—यही असली ताकत है। शिवा की कहानी हर उस बच्चे के लिए है जो मुश्किलों से लड़कर अपनी पहचान ढूंढता है।

समाप्त