शहर की करोड़पति लड़की जब गाँव के चरवाहे लड़के का कर्ज चुकाने पहुंची, फिर जो हुआ…

गांव की पगडंडियों पर सुबह की हल्की धूप उतर रही थी। मिट्टी की खुशबू, तालाब का चमकता पानी और खेतों में काम करते किसान उस छोटे से गांव को अपनी सादगी में सुंदर बना देते थे। इसी गांव में दो मासूम दोस्त रहते थे—सुहानी और अर्जुन।

सुहानी जमींदार की इकलौती बेटी थी। उसकी मां हर सुबह बड़े प्यार से उसे तैयार करतीं। साफ-सुथरी फ्रॉक, बालों में लाल रिबन की चोटी और हाथ में किताबों से भरा बैग देखकर गांव वाले कहते—”देखो, यही है गांव की पढ़ने वाली बिटिया।” गांव की गिनी-चुनी लड़कियों में से एक थी जिसे स्कूल जाने का मौका मिला था।

दूसरी ओर अर्जुन था। एक गरीब चरवाहे का बेटा। पैरों में घिसे हुए चप्पल, हाथ में लकड़ी की लाठी और पीछे बकरियों का झुंड। उसका स्कूल खेत-खलिहान थे और साथी उसकी बकरियां। लेकिन उसके मन में पढ़ाई की लालसा जलती रहती। जब भी सुहानी किताब लेकर बरगद के पेड़ के नीचे बैठती, अर्जुन चुपचाप पास आकर बैठ जाता और मासूम आंखों से अक्षरों को निहारता।

एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर कहा—
“सुहानी, मुझे भी पढ़ना है, पर बापू कहते हैं कि पढ़ाई गरीबों के लिए नहीं होती।”

सुहानी ने उसकी आंखों में झांकते हुए उत्तर दिया—
“नहीं अर्जुन, पढ़ाई सबका हक है। देखना, अगर स्कूल नहीं जा पाया तो मैं खुद तुझे सिखाऊंगी।”

उस दिन से दोनों ने सपनों की एक नई किताब खोली। सुहानी का सपना था डॉक्टर बनने का और अर्जुन का सपना था कि एक दिन वह गांव में स्कूल बनाए ताकि कोई बच्चा पीछे ना छूटे।

लेकिन किस्मत की चाल बड़ी निराली होती है। अचानक अर्जुन के पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। घर की हालत पहले ही खराब थी। इलाज के लिए पैसे चाहिए थे। अर्जुन ने चारों ओर देखा, लेकिन बेचने लायक कुछ नहीं था। उसकी नजर अपनी किताबों पर पड़ी। वही किताबें, जो उसके लिए सपनों का पुल थीं। आंसुओं के साथ उसने बाजार में जाकर उन्हें बेच दिया। उन्हीं पैसों से पिता की दवा खरीदी। उस दिन से उसके हाथ में किताबें नहीं, बल्कि बकरियों की रस्सी मजबूती से बंध गई।

इधर सुहानी के पिता ने फैसला लिया कि अब बेटी को शहर भेजना होगा। विदाई के वक्त सुहानी बरगद के पेड़ के नीचे अर्जुन से मिलने आई। दोनों की आंखों में आंसू और दिल में बिछड़ने का डर था। सुहानी बोली—
“अर्जुन, मैं जा रही हूं। वादा करती हूं, एक दिन जरूर लौटूंगी।”

अर्जुन मुस्कुराया और बोला—
“जा सुहानी, तुझे आगे बढ़ना है। मैं हमेशा तेरा दोस्त रहूंगा, चाहे दूर से ही सही।”

गाड़ी धूल उड़ाती चली गई और अर्जुन वहीं खड़ा रह गया। हाथ में बकरियों की रस्सी और दिल में टूटी उम्मीदें।

समय गुजरता गया। सुहानी ने शहर की ऊंची-ऊंची इमारतों में पढ़ाई की, मेहनत की और अंततः करोड़ों की मालिक बन गई। उसकी तस्वीरें अखबारों और पत्रिकाओं में छपने लगीं। लोग कहते—”यही है वह लड़की जो गांव से आई और शहर में नाम कमा लिया।”

बाहर से उसकी जिंदगी चमकदार लगती थी—महंगी कारें, नौकर-चाकर, शोहरत और दौलत। लेकिन भीतर एक खालीपन था। रात को खिड़की से बाहर देखते हुए उसका दिल पूछता—”क्या यही जिंदगी है जिसकी चाह

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