रिटायरमेंट के बाद बीमार बूढ़े पिता को बेटे-बहू ने अकेला छोड़ा… फिर जो हुआ, पूरा गांव रो पड़ा
रिटायरमेंट के बाद बेटे ने बीमार बूढ़े पिता का साथ छोड़ा – एक दिल को छू लेने वाली कहानी
विश्वनाथ चौधरी बिहार के देवरिया कस्बे के सरकारी स्कूल में हेडमास्टर थे। उन्होंने चार दशकों तक ईमानदारी और अनुशासन से सेवा की थी। गांव में हर कोई उनका नाम इज्जत से लेता था। 1 मार्च की दोपहर, जब स्कूल ने उन्हें विदाई दी, बच्चों की आंखों में आंसू थे। सहयोगियों ने कहा, “सर अब आराम कीजिए, आपकी सेवा से बढ़कर कोई मिसाल नहीं।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, लेकिन उस मुस्कान में गहरी थकान थी। रिटायरमेंट उनके लिए खालीपन की शुरुआत थी, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।
घर लौटे तो आंगन में पत्नी सुशीला देवी इंतजार कर रही थी। दोनों बेटे अरुण और तरुण, बहुएं कविता और रीमा, पोते-पोतियों की खिलखिलाहट, सुशीला की हंसी, पुराने रेडियो की आवाज – सब कुछ जैसे सुख का संगीत बना हुआ था। विश्वनाथ जी ने सोचा, अब जीवन का सबसे अच्छा समय शुरू हुआ है।
लेकिन किस्मत को शायद कुछ और मंजूर था। कुछ ही महीने बाद, सुशीला देवी को अचानक दिल का दौरा पड़ा। वह रसोई में चाय बना रही थी, गिर पड़ीं। विश्वनाथ जी ने भागकर उठाया, लेकिन देर हो चुकी थी। उनका सारा संसार पल भर में बिखर गया।
तेरहवीं पर बेटों ने कहा, “पिताजी, अब आप गांव में अकेले कैसे रहेंगे? चलिए बारी-बारी से हमारे पास रह लीजिए।”
विश्वनाथ जी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “बेटा, मैं यही ठीक हूं। यही मेरा घर है, तुम्हारी मां की यादें हैं।”
बहुएं कुछ नहीं बोलीं, लेकिन उनके चेहरों पर राहत थी। विश्वनाथ जी समझ गए – शहर के चमक-धमक में बूढ़े मां-बाप की जरूरत अब बस फोटो तक रह गई है।
अब घर में केवल विश्वनाथ जी और उनका पुराना नौकर भोला यादव रह गए थे। भोला कोई आम नौकर नहीं था – वह तीस साल से इस परिवार के साथ था। उसकी पत्नी कमला रोज खाना बना जाती, भोला खेतों और घर का सारा काम संभालता।
विश्वनाथ जी कहते, “भोला, अब तू ही मेरा सहारा है बेटा।”
भोला हर बार झुक कर कहता, “मालिक, जब तक जान है, आपकी सेवा करता रहूंगा।”
समय बीतता गया। उम्र का असर शरीर पर दिखने लगा। शुगर और ब्लड प्रेशर की दवाइयों के सहारे दिन निकलता। एक दिन सुबह उठने की कोशिश की तो पैर साथ नहीं दे रहे थे। भोला दौड़कर आया, उठाया, डॉक्टर बुलाया। डॉक्टर ने कहा, “पैरों की नसें कमजोर हो रही हैं, जल्दी इलाज जरूरी है, नहीं तो चलना-फिरना मुश्किल हो जाएगा।”
खबर सुनते ही दोनों बेटों को फोन किया गया।
अरुण लखनऊ से बोला, “पिताजी, भोला को बोलिए अच्छे डॉक्टर को दिखा दे।”
तरुण ने नोएडा से कहा, “मैं अभी ऑफिस में हूं, अगले हफ्ते छुट्टी लेकर आऊंगा।”
लेकिन वो हफ्ता कभी नहीं आया। भोला इलाज करवाता रहा, दवाइयां देता रहा, हालत बिगड़ती गई।
विश्वनाथ जी को अब बिस्तर से उठने में भी मदद चाहिए होती थी। भोला सुबह-शाम नहलाता, कपड़े पहनाता, खाना खिलाता – जैसे कोई बेटा अपने पिता की सेवा करता है। कई बार कहता, “मालिक, किसी को और बुला लीजिए, मैं अकेला सब नहीं संभाल पाऊंगा।”
विश्वनाथ जी उसका हाथ पकड़ कर कहते, “भोला, मुझे किसी और की जरूरत नहीं है। बस तू है, तो मैं जिंदा हूं।”
धीरे-धीरे उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि अब वे खुद मल-मूत्र तक नहीं छोड़ पाते थे। भोला ने बिना किसी झिझक, बिना किसी स्वार्थ के सब किया। हर सुबह अपने मालिक को साफ करता, नहलाता, मुस्कुराते हुए कहता, “मालिक, भगवान ने मुझे सेवा का मौका दिया है, मैं भाग्यशाली हूं।”
विश्वनाथ जी सोचते – कभी मैंने इसे सिर्फ नौकर समझा था, आज यही मेरा सबसे बड़ा बेटा बन गया।
अब वे हर रात बिस्तर पर लेट कर सोचते – क्या सच में खून के रिश्ते ही अपने होते हैं? या फिर वे लोग, जो हमारे बुरे वक्त में साथ खड़े रहते हैं, वही असली अपने कहलाते हैं।
आंखों में आंसू आ जाते, धीमे स्वर में बोलते, “भोला, अगर तू ना होता तो मैं कब का इस दुनिया से चला गया होता।”
भोला अब पहले से भी ज्यादा ख्याल रखने लगा था। हर रोज सुबह की पहली किरण के साथ आंगन में पहुंच जाता, हाथ में पीतल की लोटा, गुनगुना पानी, आंखों में अपनापन।
एक दिन विश्वनाथ जी बोले, “भोला, तू जानता है मुझे अब किसी चीज की कमी नहीं लगती। लेकिन दिल में सबसे ज्यादा खालीपन क्या है?”
भोला चुपचाप खड़ा रहा।
विश्वनाथ जी बोले, “जब बेटा छोटा था, तो मैं उसके लिए दौड़ता था, खिलाता था, गिरता तो उठा लेता था। आज जब मैं गिरता हूं, तो कोई बेटा नहीं आता।”
भोला की आंखें नम हो गईं। उसने धीरे से कहा, “मालिक, सब वक्त का खेल है, लेकिन भगवान गवाह है, जब तक मैं जिंदा हूं, आपको अकेलापन महसूस नहीं होने दूंगा।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, “तू तो मेरा सच्चा बेटा है भोला।”
अब भोला सिर्फ नौकर नहीं, घर का हिस्सा बन चुका था। दिन गुजरते गए, विश्वनाथ जी अब चारपाई से उठ नहीं पाते थे। भोला हर सुबह नहलाता, साफ कपड़े पहनाता, शरीर में तेल मालिश करता, चारपाई पर बैठा देता।
कमला उसकी पत्नी ताजा रोटी बनाकर लाती, हाथ से खिलाती, भोला पास खड़ा पानी देता।
गांव के लोग आते-जाते, पर अब इस आंगन में कभी बेटे नहीं आते थे। कभी कोई बहू का फोन भी नहीं आता था।
कभी-कभी विश्वनाथ जी कहते, “कैसी विडंबना है भोला? जिन बेटों को मैंने अपने हाथों से खड़ा किया, आज वही मुझे देखना भी नहीं चाहते।”
भोला बस सिर झुका देता, “मालिक छोड़िए, उनके पास सब कुछ है पर सुकून नहीं है। भगवान सबको समझ देगा।”
एक रात की बात है, विश्वनाथ जी को अचानक तेज दर्द हुआ। भोला ने तुरंत डॉक्टर बुलाया, इंजेक्शन दिलवाया, दर्द थोड़ा कम हुआ।
विश्वनाथ जी ने भोला को पास बुलाया, आवाज कमजोर थी, “भोला, कभी सोचा है? हम सभी मिथ्या भ्रम में जीते हैं। समझते हैं कि घर, पैसा, बीवी, बच्चे – सब हमारा है। पर असल में यह सब किसी का नहीं होता, सब अपने-अपने स्वार्थ में जीते हैं।”
भोला चुप था, आंखों से आंसू गिरते रहे।
विश्वनाथ जी बोले, “मुझे अब कुछ नहीं चाहिए भोला, बस मन की शांति चाहिए। तू है, तो लगता है भगवान ने तुझे अपने रूप में भेजा है।”
भोला झुक कर बोला, “मालिक, ऐसा मत कहिए, मैं तो बस एक नौकर हूं।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, “नौकर नहीं भोला, तू मेरा बेटा है। बेटा वही होता है, जो अपने पिता के बुरे वक्त में उसके साथ खड़ा रहे।”
कुछ दिन बाद विश्वनाथ जी ने भोला को बुलाया, “भोला, एक काम करवाना है, तहसील से वकील और लेखपाल को बुला लाओ।”
भोला को समझ नहीं आया, लेकिन उसने बिना पूछे कहा, “ठीक है मालिक।”
अगले दिन दोपहर में वकील साहब आए।
विश्वनाथ जी बोले, “मैं अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूं। जो मैंने खुद की मेहनत से बनाई है, उसका फैसला मैं खुद करूंगा।”
वकील ने कागज निकाले।
विश्वनाथ जी बोले, “मेरी 20 बीघा जमीन है। 10 बीघा पुश्तैनी है, जो मेरे दोनों बेटों में बराबर बांट दी जाए। बाकी 10 बीघा जो मैंने अपनी कमाई से खरीदी थी, उसे भोला यादव के नाम कर दो।”
भोला का चेहरा उतर गया, घुटनों पर गिर गया, “मालिक, यह क्या कर रहे हैं? मैं कौन होता हूं यह सब लेने वाला? मैं तो आपकी सेवा के लिए रखा गया था।”
विश्वनाथ जी बोले, “जो इंसान अपनी सेवा में दिल लगा दे, वह नौकर नहीं, भगवान का भेजा हुआ फरिश्ता होता है। तूने मुझे अपनों से ज्यादा अपनापन दिया है। मैं मरते वक्त तेरे परिवार का भविष्य सुरक्षित करके जा रहा हूं। यही मेरा सुकून है।”
भोला रो पड़ा, कमला भी रो रही थी। वकील ने दस्तखत करवाए, जमीन का बेनामा पूरा किया।
विश्वनाथ जी ने तहसीलदार से कहा, “इस पर यह भी लिख दो कि मेरे बेटों को इस जमीन पर कोई दावा नहीं रहेगा।”
तहसीलदार ने दस्तावेज पूरे कर दिए।
भोला ने सिर झुका कर कहा, “मालिक, आपने जो कर दिया, वह मेरे जीवन का सबसे बड़ा आशीर्वाद है। लेकिन मुझसे एक वादा लीजिए – जब तक सांस है, मैं आपकी सेवा नहीं छोडूंगा।”
विश्वनाथ जी ने कांपते हाथों से उसका सिर सहलाया, “बस यही मेरा वरदान है बेटा।”
उस शाम बरगद के नीचे हवा कुछ अलग थी। विश्वनाथ जी की आंखों में सुकून था। उन्होंने आसमान की ओर देखा, “सावित्री देख रही हो ना? तेरे जाने के बाद भगवान ने मुझे एक सच्चा बेटा दे दिया।”
भोला पास खड़ा था, नम आंखों से मालिक को देखता रहा।
अगली सुबह गांव के आसमान में हल्की धुंध थी। रसोई में भोला चाय बना रहा था। भीतर कमरे में विश्वनाथ जी की तबीयत और बिगड़ रही थी। सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। डॉक्टर ने कहा था, “अब उम्र और बीमारी दोनों भारी पड़ने लगी है।”
भोला ने सावधानी से दवा दी।
विश्वनाथ जी बोले, “भूख नहीं है भोला, अब शरीर थक गया है, बस आराम चाहिए।”
भोला बोला, “आराम तो भगवान के घर मिलेगा मालिक, पर अभी आपको कहीं नहीं जाना है, अभी मैं हूं आपके साथ।”
विश्वनाथ जी मुस्कुरा दिए, “तू बहुत अच्छा बोलता है भोला, अब यही शब्द मुझे जिंदा रखते हैं।”
शाम होते ही हवा भारी लगने लगी। भोला ने कंबल ओढ़ा दिया, चारपाई के पास बैठ गया।
विश्वनाथ जी बोले, “भोला, वह फाइल संभाल के रखना जो वकील साहब कल दिए थे, उसमें मेरी आखिरी बात लिखी है। बेटों को बता देना, मेरे जाने के बाद उसी के अनुसार सब होगा।”
भोला बोला, “मालिक, ऐसी बातें मत कीजिए, आप ठीक हो जाएंगे।”
विश्वनाथ जी ने उसकी हथेली पकड़ ली, “नहीं भोला, अब वक्त आ गया है। लेकिन तू वादा कर, मेरे बिना भी तू इस घर को अकेला नहीं छोड़ेगा। तेरी कमला, तेरे बच्चे – यही तो अब मेरा परिवार है।”
भोला की आंखों से आंसू बह निकले, सिर झुका कर कहा, “मालिक, आपकी बातें मेरे लिए हुक्म है।”
तीसरे दिन सुबह जब सूरज निकला, घर में सन्नाटा था। भोला कमरे में पहुंचा, देखा – विश्वनाथ जी अब गहरी नींद में थे। चेहरे पर अजीब सी शांति थी, जैसे किसी ने सालों की थकान उतार दी हो।
भोला ने उनका पैर छुआ, सन्न रह गया, “मालिक उठिए ना।”
लेकिन जवाब नहीं मिला।
उसकी आंखों से फूट-फूट कर आंसू बहने लगे। बाहर दौड़ा, पड़ोसी को आवाज दी, “भैया, मालिक चले गए।”
पूरा गांव उमड़ पड़ा। हर आदमी की आंखें नम थीं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में किसी को तकलीफ नहीं दी, वह अब सदा के लिए शांत हो गया था।
गांव के मंदिर का पुजारी भी आ पहुंचा, पंडाल लगाया गया। भोला मालिक के सिरहाने बैठा था, कांपते हाथों में माला थी।
वकील साहब भी पहुंचे, उनके साथ तहसीलदार और दोनों बेटे अरुण और तरुण।
कई साल बाद दोनों गांव आए थे, शहर के कपड़ों में, चेहरों पर गंभीरता, भीतर कहीं अपराध बोध।
अरुण और तरुण दोनों ने भोला को देखा, फिर पिता के शरीर के पास जाकर बैठ गए, आंखें भर आईं।
तरुण ने धीरे से अरुण से कहा, “भैया, हमने बहुत बड़ी गलती की, बाबूजी को अकेला छोड़ दिया।”
अरुण बोला, “अब पछताने से क्या फायदा? उन्होंने हमें माफ किया भी, तो क्या हम खुद को माफ कर पाएंगे?”
भोला चुपचाप बैठा था, ना रो रहा था, ना बोल रहा था। भीतर एक गहरी खामोशी थी, जैसे आत्मा भी रो रही हो।
तभी वकील साहब ने कहा, “विश्वनाथ जी ने जाते-जाते कुछ लिखा है, उनकी आखिरी वसीयत सबके सामने पढ़ी जाएगी, फिर ही अंतिम संस्कार होगा।”
भीड़ में सन्नाटा छा गया।
वकील ने फाइल खोली, धीमी आवाज में पढ़ना शुरू किया –
“मैं विश्वनाथ चौधरी, अपने पूरे होशो हवास में यह लिख रहा हूं कि मेरे जाने के बाद मेरी 20 बीघा जमीन और मकान इस प्रकार बांटा जाए – 10 बीघा पुश्तैनी जमीन मेरे दोनों बेटों अरुण और तरुण में बराबर बांटेगी। बाकी 10 बीघा जो मैंने अपनी कमाई से खरीदी, वह मेरे सेवक, पुत्र समान भोला यादव के नाम रहेगी।”
भीड़ में कानाफूसी शुरू हो गई। अरुण और तरुण के चेहरे उतर गए, भोला स्तब्ध रह गया।
वकील ने आगे पढ़ा, “जिसने मेरा मलमूत्र साफ किया, जिसने मुझे अपने पिता की तरह संभाला, वह नौकर नहीं, सच्चा बेटा है। मैं जो कुछ दे रहा हूं, वो उसका हक है, इनाम नहीं।”
वकील की आवाज भारी थी, लेकिन हर शब्द हथौड़े की तरह गूंज रहा था।
भोला सिर झुका कर रो पड़ा, कमला उसकी पीठ सहला रही थी, आंखें भी भरी थीं।
अरुण ने अपने भाई की ओर देखा, कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “तरुण, लगता है बाबूजी ने जो किया, सही किया। हमने सिर्फ नाम के बेटे बनकर फर्ज निभाया, लेकिन भोला ने वो किया जो हमसे कभी ना हो सका।”
तरुण की आंखों में पानी भर आया, “हां भैया, बाबूजी ने हमेशा कहा था – सेवा सबसे बड़ा धर्म है, आज समझ आया।”
दोनों भाई उठे, आगे बढ़कर भोला को गले लगा लिया।
भोला सिसक उठा, “साहब, मैं तो बस उनका नौकर था।”
अरुण बोला, “नहीं भोला, अब तू उनका असली बेटा है, यह घर तेरा होगा। तभी बाबूजी की आत्मा भी शांति पाएगी।”
वकील ने दस्तावेज बंद किए, “अब उनकी आखिरी इच्छा पूरी की जाए।”
भोला ने कांपते हाथों से माला उठाई, सिर झुकाकर विश्वनाथ जी के चरणों पर रख दी।
उस पल पूरा गांव रो पड़ा। किसी के पास शब्द नहीं थे, बस सिसकियां थीं और एक सच – खून का रिश्ता नहीं, दिल का रिश्ता सबसे बड़ा होता है।
शाम ढल चुकी थी, चिता तैयार थी।
वरुण ने सिसकते हुए कहा, “तरुण, भोला ने वह किया जो हमसे कभी ना हो सका, जिसने पिता का दर्द देखा, हर सांस में साथ दिया, दुख में रोया, माथे पर हाथ रखा, वही तो असली बेटा है।”
भीड़ में हलचल हुई।
तरुण आगे बढ़ा, भोला के कांपते कंधों पर हाथ रखकर बोला, “भोला, हमने सिर्फ खून का रिश्ता निभाया, लेकिन तूने दिल का रिश्ता निभाया है। आज हम दोनों भाई यह अधिकार तुझे देते हैं कि तू ही बाबूजी को मुखाग्नि दे, क्योंकि आग देने का हक खून से नहीं, सेवा से कमाया जाता है।”
भोला के कदम डगमगा गए, हाथ जोड़कर बोला, “साहब, मैं कैसे? मैं तो उनका नौकर था।”
तरुण ने उसकी बात बीच में ही रोक दी, “नहीं भोला, तू नौकर नहीं, तू हमारा बड़ा भाई है। बाबूजी की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब अग्नि उन्हीं हाथों से मिलेगी जिन्होंने आखिरी सांस तक सेवा की।”
भोला रोते हुए आगे बढ़ा, दोनों बेटों ने उसके कंधे थामे, “जा भोला, अपने बाबूजी को विदा कर दे, अब तू ही उनका सच्चा बेटा है।”
भोला ने कांपते हाथों से मुखाग्नि दी, लपटें उठीं, पूरा गांव सिसक उठा।
हर आंख नम थी, हर दिल ने महसूस किया – सच्चे रिश्ते खून से नहीं, निस्वार्थ सेवा और प्रेम से बनते हैं।
रात को भोला चुपचाप बैठा था। आंखों में नींद नहीं थी। सामने वही चूल्हा बुझा पड़ा था, जिसमें वह हर सुबह विश्वनाथ जी के लिए दूध गर्म करता था। कमला पास में थी, धीरे से बोली, “अब घर खाली हो गया। भोला, मालिक चले गए।”
भोला की आंखों से आंसू बह निकले, “कमला, मालिक नहीं गए, वह यही हैं। इस आंगन में, बरगद की छांव में, हर कोने में उनकी आवाज गूंजती है।”
कमला ने उसका हाथ पकड़ लिया, “भगवान ने तुम्हें परीक्षा में डाला था, और तुमने निभाया भी बेटा बनकर।”
भोला कुछ नहीं बोला, बस आंगन की ओर देखता रहा, जहां विश्वनाथ जी शायद तारे बनकर चमक रहे थे।
अगले दिन गांव के मंदिर में श्रद्धांजलि सभा रखी गई। पूरा गांव उमड़ पड़ा।
हर कोई कह रहा था – विश्वनाथ जी ने इंसानियत की मिसाल छोड़ दी, ऐसे मालिक अब कहां मिलते हैं!
अरुण और तरुण भी वहीं बैठे थे, साधारण कपड़ों में, बिना अहंकार के।
चेहरे पर पछतावे की परछाई थी।
सभा के बाद अरुण उठा, सबके सामने बोला, “मेरे पिता ने सिखाया था कि ईमानदारी और सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। हमने बहुत कुछ पाया, लेकिन वो नहीं पाया जो भोला ने पाया – बाबूजी का आशीर्वाद। इसलिए आज मैं और मेरा भाई अपने हिस्से की जमीन भी भोला के नाम करते हैं, ताकि बाबूजी की आत्मा को सच्ची शांति मिले।”
गांव वाले हैरान थे।
भोला रो पड़ा, “साहब, ऐसा मत कीजिए, मालिक ने जो दिया वही बहुत है।”
अरुण ने उसका कंधा पकड़ा, “भोला, यह मालिक की आखिरी सीख है, जिसने सच्चे मन से सेवा की, वही हकदार है।”
दिन बीतते गए।
भोला अब उसी घर में रहता था, जिसमें कभी वह नौकर कहलाता था, अब उस घर का रखवाला था।
कमला सुबह-सुबह तुलसी में दिया जलाती, भोला बरगद के नीचे बैठकर मालिक की फोटो को निहारता, धीरे से कहता, “मालिक, देखिए, आपका आशीर्वाद अब भी मेरे सिर पर है।”
गांव के बच्चे अब उसे भोला बाबू कहने लगे थे। लोग सलाह लेने आते, खेती-बाड़ी की बातें करते।
कभी कोई राहगीर पूछता, “यह बड़ा सा मकान किसका है?”
गांव वाले जवाब देते, “यह मकान उस आदमी का है जिसने खून से नहीं, सेवा से रिश्ता निभाया।”
एक साल बाद, उसी तारीख को भोला ने गांव में एक स्कूल बनवाई, स्कूल में पट्टिका लगवाई –
“विश्वनाथ चौधरी स्मृति सदन – जहां इंसानियत ने रिश्तों से बड़ी जीत हासिल की।”
उस दिन पूरे गांव के बच्चे फूल लेकर आए।
भोला ने बच्चों को देखा, बोला, “बेटा, जब बड़े हो जाओ, तो अपने मां-बाप को कभी अकेला मत छोड़ना। जो उनके साथ आखिरी वक्त में होता है, वही उनका असली बेटा होता है।”
बच्चे ताली बजाने लगे, लेकिन भोला की आंखें भर आईं। वह आकाश की ओर देख रहा था, जैसे वहां कहीं मालिक मुस्कुरा रहे हों।
रात ढल चुकी थी।
भोला बरगद के नीचे बैठा था, वही जगह जहां से सब शुरू हुआ था। हवा में अब सन्नाटा नहीं था, बस शांति थी।
उसने आसमान की ओर देखा, “मालिक, अब मुझे भी सुकून चाहिए। जब बुलाना हो, बुला लेना।”
अगली सुबह, कमला उठी, भोला वही बरगद के नीचे बैठा मिला – आंखें बंद, चेहरा शांत।
जैसे किसी ने उसे नींद में ही मालिक से मिला दिया हो।
गांव में फिर शोक की लहर दौड़ गई।
लोग कहते रहे, “भोला भी अपने मालिक के पीछे चला गया, अब दोनों साथ होंगे, जहां इंसानियत सबसे बड़ा रिश्ता होती है।”
बरगद की छांव में दो छोटी सी समाधियां बनीं –
एक पर लिखा था “विश्वनाथ चौधरी – पिता समान इंसान”
और दूसरी पर “भोला यादव – सेवा में जन्मा सच्चा बेटा”
गांव वाले जब भी उस रास्ते से गुजरते, सिर झुकाते, धीरे से कहते, “देखो, यहां खून नहीं, इंसानियत का रिश्ता दफन है।”
सीख:
रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।
कभी-कभी जो अपने कहलाते हैं, वही अकेला छोड़ देते हैं।
और जो पराए होते हैं, वही अपनेपन की परिभाषा बदल देते हैं।
सेवा, त्याग और निस्वार्थ प्रेम – यही इंसानियत की सच्ची पहचान है।
अगर आपके माता-पिता बुढ़ापे में अकेले पड़ जाएं, तो क्या आप भी शहर की व्यस्त जिंदगी का बहाना बनाकर उन्हें अकेला छोड़ देंगे? या उनका सहारा बनेंगे, जो एक सच्चे बेटे का फर्ज होता है?
कमेंट में जरूर बताइए।
अगर कहानी पसंद आई हो तो लाइक करें, शेयर करें, चैनल सब्सक्राइब करें।
मिलते हैं अगली कहानी में।
याद रखिए – अपने मां-बाप का साथ ही जीवन की सबसे बड़ी कमाई है।
जय हिंद, जय भारत।
News
प्यार के लिए करोड़पति लड़का लड़की के घर का बना नौकर… फिर जो हुआ, दिल रो पड़ा
प्यार के लिए करोड़पति लड़का लड़की के घर का बना नौकर… फिर जो हुआ, दिल रो पड़ा अपने प्यार के…
DM साहब मजदूर बनकर हॉस्पिटल में छापा मारने पहुँचे वहीं तलाकशुदा पत्नी को भर्ती देखकर
DM साहब मजदूर बनकर हॉस्पिटल में छापा मारने पहुँचे वहीं तलाकशुदा पत्नी को भर्ती देखकर एक मजदूर से डीएम तक…
टीचर ने एक बिगड़ैल अमीर लड़के को इंसान बनाया, सालों बाद वो लड़का एक आर्मी अफसर बनकर लौटा , फिर जो
टीचर ने एक बिगड़ैल अमीर लड़के को इंसान बनाया, सालों बाद वो लड़का एक आर्मी अफसर बनकर लौटा , फिर…
Car Mechanic Ny Khrab Ambulance Ko theek Kr Diya Jis mein Millionaire Businessman tha Fir Kya Howa
Car Mechanic Ny Khrab Ambulance Ko theek Kr Diya Jis mein Millionaire Businessman tha Fir Kya Howa अर्जुन कुमार –…
वैष्णो देवी का दर्शन करने गया था पति… फूल बेचती मिली तलाकशुदा पत्नी, फिर जो हुआ…
वैष्णो देवी का दर्शन करने गया था पति… फूल बेचती मिली तलाकशुदा पत्नी, फिर जो हुआ… कटरा की घाटी में…
तुम्हारे पिता के इलाज का मै 1 करोड़ दूंगा पर उसके बदले मेरे साथ चलना होगा 😧 फिर जो उसके साथ हुआ
तुम्हारे पिता के इलाज का मै 1 करोड़ दूंगा पर उसके बदले मेरे साथ चलना होगा 😧 फिर जो उसके…
End of content
No more pages to load