मेरे पिता के बुढ़ापे में अकेलेपन की चिंता में, हमने उनसे 20 साल छोटी एक युवा पत्नी से विवाह किया
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पिता की दूसरी शादी: अकेलेपन से साथ तक – एक नई शुरुआत की कहानी
मेरे पिता, नारायण जी, 65 साल के हैं और जयपुर के एक पुराने मोहल्ले में रहते हैं। उनका जीवन हमेशा संघर्षों और जिम्मेदारियों से भरा रहा है। जब मैं और मेरा छोटा भाई बहुत छोटे थे, तब माँ का अचानक देहांत हो गया था। उस दिन के बाद से, पिताजी ने ही हमारे लिए माँ और पिता दोनों की भूमिका निभाई। उन्होंने कभी दूसरी शादी के बारे में नहीं सोचा, हमेशा यही कहते रहे, “मेरे लिए तुम दोनों ही सब कुछ हो।”
समय बीतता गया। हम दोनों भाई बड़े हुए, पढ़ाई की, नौकरी पाई, शादी की और अपने-अपने परिवार में रम गए। धीरे-धीरे, पिताजी पहले जैसे नहीं रहे। वे कम बोलने लगे, अक्सर खिड़की के पास बैठकर घंटों बाहर देखते रहते। जब भी हम घर आते, तो वे खुश हो जाते, बच्चों के साथ खेलते, मज़ाक करते, लेकिन हमारे जाने के बाद घर फिर से सूना हो जाता। उनकी आंखों में अकेलेपन की झलक साफ़ दिखने लगी थी।
हम दोनों भाइयों ने कई बार सोचा कि पिताजी के लिए क्या कर सकते हैं। एक दिन, छोटे भाई ने कहा, “भैया, पिताजी को अकेले छोड़ना ठीक नहीं है। क्यों न हम उनके लिए एक साथी तलाशें?” पहले तो मुझे यह विचार थोड़ा अजीब लगा, लेकिन जब पिताजी की तन्हाई देखी, तो लगा कि शायद यही सही है।
काफी सोच-विचार के बाद, हमने पिताजी से बात की। वे पहले तो नाराज़ हो गए, बोले, “अब इस उम्र में शादी कैसी? लोग क्या कहेंगे?” हमने उन्हें समझाया कि यह सिर्फ उनके लिए नहीं, हमारे लिए भी जरूरी है। हम अपने पिता को खुश और सुरक्षित देखना चाहते हैं। धीरे-धीरे वे मान गए।
फिर, परिवार और रिश्तेदारों की मदद से, हमारी मुलाकात रेखा से हुई। रेखा पिताजी से 20 साल छोटी थीं, जयपुर के एक किंडरगार्टन स्कूल में पढ़ाती थीं। उनका स्वभाव बहुत सौम्य और ईमानदार था। रेखा ने कभी शादी नहीं की थी, लेकिन वे किसी ऐसे साथी की तलाश में थीं, जिनकी देखभाल कर सकें और जिनके साथ जीवन बांट सकें। दोनों परिवारों की सहमति से शादी तय हो गई।
शादी का दिन बहुत सुंदर था। पिताजी ने नई शेरवानी पहनी थी, चेहरे पर एक अलग ही चमक थी। रेखा ने क्रीम-सफेद साड़ी पहनी थी, जिसमें वे बेहद खूबसूरत लग रही थीं। मंडप में फेरे हुए, सिंदूर और मंगलसूत्र की रस्में हुईं। रिश्तेदारों ने आशीर्वाद दिया, और पिताजी को इतने खुश देखकर सबका दिल भर आया।
शादी के बाद, जैसे ही विदाई की रस्म खत्म हुई, पिताजी उत्साह में रेखा को दुल्हन वाले कमरे में ले गए। हम सब हँस रहे थे, मज़ाक कर रहे थे कि पिताजी आज कितने जवान लग रहे हैं। लेकिन कुछ ही देर बाद, कमरे से रेखा के रोने की आवाज़ आई। पूरा परिवार घबरा गया। दरवाजा खोल कर देखा तो रेखा कमरे के कोने में दुबकी हुई थीं, आँखें लाल थीं, और पिताजी बिस्तर पर बैठे थे, चेहरा घबराया हुआ, कपड़े अस्त-व्यस्त।
मैंने धीरे से पूछा, “क्या हुआ?”
रेखा काँपती आवाज़ में बोलीं, “मुझे इसकी आदत नहीं है… मैं अभी तैयार नहीं हूँ…”
पिताजी ने सिर झुका लिया, बोले, “मेरा कोई बुरा इरादा नहीं था। मैं बस उसे गले लगाना चाहता था। वह अचानक रोने लगी, मैं समझ नहीं पाया।”
हमने रेखा को पानी पिलाया, शांत किया। पिताजी वहीं बैठे रहे, परेशान और शर्मिंदा। मुझे समझ आ गया कि दोनों के लिए यह रात बहुत भारी थी। एक ओर पिताजी, जिन्होंने सालों अकेले रहकर अपनी भावनाओं को दबा लिया था, और दूसरी ओर रेखा, जिनके लिए यह सब बिल्कुल नया था।
अगले दिन सुबह, मैंने दोनों से खुलकर बात की। मैंने कहा, “किसी रिश्ते को समय चाहिए। जबरदस्ती या जल्दबाजी से कुछ नहीं होता। आप दोनों एक-दूसरे को जानने-समझने में वक्त लो। साथ में पार्क में घूमो, बातें करो, खाना बनाओ, टीवी देखो। जब मन हो, हाथ पकड़ो, बातें शेयर करो। शारीरिक संबंध भी तभी, जब दोनों सहज महसूस करें। अगर जरूरत हो, तो हम किसी सलाहकार की मदद भी ले सकते हैं।”
पिताजी की आँखों में आंसू थे, बोले, “मुझे नहीं लगा था कि यह इतना मुश्किल होगा। मैं भूल गया था कि किसी के साथ रहना कैसा होता है।”
रेखा ने सिर झुका कर कहा, “मैं भी डरी हुई हूँ। मुझे और समय चाहिए।”
हमने तय किया कि कुछ दिन दोनों अलग-अलग कमरों में रहेंगे, ताकि एक-दूसरे को समझ सकें और धीरे-धीरे दोस्ती और अपनापन बढ़ा सकें। दोपहर में मैंने देखा, पिताजी और रेखा बालकनी में साथ बैठे थे, चाय पी रहे थे, बगीचे और बच्चों की बातें कर रहे थे। अब कोई रोना-धोना नहीं था, बस हल्की-फुल्की बातें और मुस्कान थी।
समय बीतने के साथ, दोनों के बीच एक नई दोस्ती और समझ विकसित हुई। वे साथ में बाजार जाते, मंदिर जाते, घर के काम मिलकर करते। कभी-कभी दोनों पार्क में बच्चों के साथ खेलते, तो कभी शाम को छत पर बैठकर चाय पीते। धीरे-धीरे, पिताजी के चेहरे पर फिर से रौनक लौट आई। रेखा भी अब परिवार का हिस्सा बन गई थीं, बच्चों से घुलमिल गई थीं।
एक दिन, मैंने पिताजी से पूछा, “अब कैसा लग रहा है?”
पिताजी मुस्कराए, बोले, “अब लगता है, जैसे घर में फिर से रौशनी आ गई है। अकेलापन धीरे-धीरे दूर हो रहा है।”
इस पूरी घटना ने मुझे यह सिखाया कि बुढ़ापे का अकेलापन बहुत गहरा होता है, लेकिन अगर परिवार साथ दे, समझदारी से कदम उठाए, तो हर मुश्किल आसान हो सकती है। रिश्ते सिर्फ शारीरिक नहीं होते, वे भरोसे, सम्मान, और धीरे-धीरे पनपने वाली दोस्ती से बनते हैं। पिताजी और रेखा की शादी ने यह साबित कर दिया कि उम्र चाहे जो भी हो, प्यार, अपनापन और साथ की जरूरत हर किसी को होती है।
आज, पिताजी और रेखा दोनों खुश हैं। वे एक-दूसरे के अच्छे दोस्त बन गए हैं, और हमारे लिए भी यह सुकून की बात है कि पिताजी अब अकेले नहीं हैं। यह कहानी सिर्फ मेरे परिवार की नहीं, बल्कि हर उस परिवार की है, जहाँ बुजुर्गों का अकेलापन देखा जाता है। हमें चाहिए कि हम अपने माता-पिता को सिर्फ जिम्मेदारी न समझें, बल्कि उनके लिए भी खुशियों और साथ का इंतजाम करें।
अंत में, यही कहूँगा:
बुढ़ापे की असली दवा दवाइयाँ नहीं, बल्कि साथ, समझदारी और प्यार है। अगर हम अपने बड़ों को यह दे सकें, तो परिवार हमेशा खुशहाल रहेगा।
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