बच्चा भीख मांग रहा था, करोड़पति ने उसे गुब्बारे लेकर दिए और कहा बेचो और पैसा कमाओ, फिर जो हुआ देख कर

गुब्बारों की उड़ान: मेहनत, अपमान और इंसानियत की असली जीत

मुंबई – सपनों का शहर, जहां एक तरफ आसमान छूती इमारतें हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं इमारतों की परछाईं में सिकुड़ी हजारों बस्तियां। इसी शहर में सिद्धार्थ मेहरा का नाम सफलता का पर्याय था। 40 साल की उम्र में उसने अपनी मेहनत और तेज दिमाग से एक विशाल बिजनेस साम्राज्य खड़ा कर लिया था। लेकिन कामयाबी ने उसके दिल को कठोर बना दिया था। वह मानता था कि गरीबी सिर्फ आलस्य और कामचोरी की वजह से आती है। भीख मांगने वालों से उसे सख्त नफरत थी।

हर सुबह उसकी करोड़ों की बेंटली कार उसी ट्रैफिक सिग्नल से गुजरती थी, जहां राजू नाम का 10 साल का बच्चा फटे कपड़ों में, मायूसी भरी आंखों के साथ हर गाड़ी के शीशे पर दस्तक देता, एक सिक्के की उम्मीद में हाथ फैलाता। सिद्धार्थ रोज उसे देखता और नफरत से मुंह फेर लेता। उसे नहीं पता था कि राजू की मां सरिता दिल की बीमारी से जूझ रही थी, और राजू अपनी मां के इलाज के लिए मजबूरी में भीख मांगने को मजबूर था।

राजू का घर एक गंदी चाल की अंधेरी खोली थी, जहां उसकी मां बिस्तर पर पड़ी थी। सरिता ने लोगों के घरों में काम करके अपने बेटे को पढ़ाने का सपना देखा था, लेकिन बीमारी ने सब छीन लिया। डॉक्टरों ने कहा था कि ऑपरेशन करना पड़ेगा, और खर्चा था ₹50,000। सरिता की जमा पूंजी और गहने इलाज के शुरुआती खर्च में ही खत्म हो गए थे। अब वह बिस्तर से उठ भी नहीं पाती थी। राजू ने अपनी किताबें बंद कीं और सड़क पर हाथ फैलाने निकल गया।

वह दिनभर जो भी ₹10-20 कमाता, उससे मां के लिए दवा और थोड़ी सी खिचड़ी ले आता। हर बचा हुआ सिक्का एक पुराने टीन के डिब्बे में डाल देता, इस उम्मीद में कि एक दिन वह ₹50,000 जमा कर लेगा।

एक दिन सिद्धार्थ एक बड़ी डील कैंसिल हो जाने के कारण बेहद खराब मूड में था। उसकी गाड़ी उसी सिग्नल पर रुकी। राजू हमेशा की तरह उम्मीद लेकर उसकी कार की खिड़की पर आया और शीशे पर धीरे से दस्तक दी। सिद्धार्थ ने गुस्से में शीशा नीचे किया और उस पर चिल्लाने ही वाला था कि उसकी नजर सिग्नल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे बेच रहे एक आदमी पर पड़ी। उसके दिमाग में एक विचार आया। उसने गुब्बारे वाले को बुलाया और सारे गुब्बारे खरीद लिए। फिर वह पूरा गुच्छा राजू को पकड़ा कर बोला, “भीख मांगना बंद करो, इन्हें बेचो और मेहनत से पैसा कमाओ।” राजू के नन्हे हाथ में गुब्बारों का गुच्छा कांप रहा था। उसके चेहरे पर अपमान और उलझन के भाव थे। सिग्नल हरा हुआ, सिद्धार्थ शीशा चढ़ाकर चला गया। राजू अकेला रह गया।

उस दिन राजू को पैसे तो नहीं मिले, लेकिन एक ऐसी चीज मिल गई, जिसने उसके अंदर सोए हुए स्वाभिमान को जगा दिया। अपमान की वो आग उसके दिल में एक लौ बन गई। वह रोता हुआ अपनी खोली में वापस नहीं गया। उसने फैसला किया—वह इन गुब्बारों को बेचेगा। वह उस अमीर आदमी को दिखा देगा कि वह भिखारी नहीं है, वह मेहनत कर सकता है।

लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था जितना लग रहा था। उसने गुब्बारे बेचने की कोशिश की, लेकिन कोई खरीद नहीं रहा था। दूसरे फेरी वाले उसे अपना दुश्मन समझ रहे थे और भगा रहे थे। पूरा दिन बीत गया, लेकिन उसका एक भी गुब्बारा नहीं बिका। शाम को वह थका-हारा अपनी मां के पास पहुंचा, आंखों में आंसू थे। उसने अपनी मां को पूरी बात बताई। मां ने उसे गले से लगा लिया और कहा, “बेटा, उस आदमी ने तुम्हारा अपमान जरूर किया, लेकिन शायद उसकी बात में सच्चाई भी है। मेहनत की रोटी में जो इज्जत है, वो किसी की दी हुई भीख में नहीं। तू कोशिश कर, भगवान तेरे साथ है।”

मां की बातों ने राजू को हिम्मत दी। अगले दिन वह फिर निकला। इस बार वह सिग्नल पर नहीं गया। उसे याद आया पास के पार्क में शाम को बहुत बच्चे खेलते हैं। वह पार्क के गेट पर खड़ा हो गया, बच्चों को देखकर मुस्कुराया, गुब्बारे दिखाए। कुछ ही देर में एक बच्चे ने अपनी मां से गुब्बारे के लिए जिद की और राजू का पहला गुब्बारा बिक गया। पहली कमाई के ₹5 उसकी दुनिया की सबसे बड़ी दौलत थे। उसने पहली बार कमाई का असली मतलब समझा।

अब राजू ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह रोज नए-नए तरीके सीखता। समझ गया था कहां और किस समय क्या चीज बिक सकती है। गुब्बारों से कमाई से उसने पानी की बोतलें खरीदीं और दोपहर में सिग्नल पर बेचने लगा। धीरे-धीरे उसका काम बढ़ने लगा। वह त्योहारों पर फूल, मेलों में खिलौने बेचता। उसने सिग्नल पर रहने वाले दूसरे अनाथ बच्चों को भी अपने साथ काम पर लगा लिया। उन्हें भीख मांगने से रोकता और मेहनत करना सिखाता। वह सब बच्चों का ‘राजू भैया’ बन गया।

दो साल बीत गए। राजू अब 12 साल का हो चुका था। उसकी खोली की हालत थोड़ी सुधर गई थी। मां का इलाज बेहतर दवाओं से चल रहा था, लेकिन डॉक्टर ने कह दिया था कि ऑपरेशन अब और नहीं टाला जा सकता। राजू के टीन के डिब्बे में अब लगभग ₹40,000 जमा हो चुके थे, लेकिन मंजिल अभी दूर थी। वह दिन-रात मेहनत कर रहा था।

इधर सिद्धार्थ मेहरा की दुनिया में तूफान आ गया। उसके सबसे भरोसेमंद पार्टनर ने कंपनी के सारे राज प्रतिद्वंदी को बेच दिए और करोड़ों रुपए लेकर विदेश भाग गया। सिद्धार्थ की कंपनी दिवालिया होने की कगार पर थी। बैंकों ने नोटिस भेजना शुरू कर दिया। सिद्धार्थ, जो कभी बाजार का बादशाह था, अब टूट चुका था।

एक रात सिद्धार्थ शराब के नशे में अपनी गाड़ी लेकर शहर की सुनसान सड़कों पर निकल गया। तेज बारिश हो रही थी। उसकी गाड़ी खराब हो गई, फोन बंद था। तभी चार-पांच गुंडों ने उसकी गाड़ी घेर ली। सिद्धार्थ का दिल दहल गया—आज सबकुछ खत्म हो जाएगा। गुंडे शीशा तोड़ने की कोशिश करने लगे। लेकिन तभी अंधेरे में सीटियों की आवाज आई और 8-10 लड़कों का एक झुंड वहां आ गया। उनके हाथ में डंडे और हॉकी स्टिक्स थीं। सबसे आगे था राजू।

राजू और उसके दोस्तों ने गुंडों को ललकारा। यह राजू का इलाका था, यहां के सब बच्चे उसकी इज्जत करते थे। दोनों गुटों में झड़प हुई, राजू के लड़कों की एकता के सामने गुंडे ज्यादा देर टिक नहीं पाए और भाग खड़े हुए। सिद्धार्थ ने यह सब अपनी गाड़ी से कांपते हुए देखा। बारिश में भीगता हुआ राजू उसकी गाड़ी के पास आया और शीशे पर दस्तक दी। सिद्धार्थ ने डरते-डरते शीशा नीचे किया। राजू ने टॉर्च की रोशनी उसके चेहरे पर मारी और एक पल को चौंक गया। यह वही अमीर आदमी था जिसने दो साल पहले उसे गुब्बारे देकर उसका मजाक उड़ाया था।

सिद्धार्थ ने भी राजू को पहचाना, लेकिन यह वही सहमा हुआ भिखारी नहीं था। यह एक निडर, आत्मविश्वासी लीडर था। सिद्धार्थ को लगा अब यह लड़का बदला लेगा, लेकिन राजू के चेहरे पर नफरत या गुस्सा नहीं था। उसने बहुत ही शांत आवाज में कहा, “साहब, आपकी गाड़ी खराब हो गई है? चिंता मत कीजिए, आप सुरक्षित हैं।”

राजू और उसके दोस्तों ने मिलकर सिद्धार्थ की गाड़ी को मैकेनिक तक पहुंचाया। राजू दौड़कर पास की टपरी से चाय और बिस्कुट ले आया। उसने सिद्धार्थ को छाते के नीचे बिठाया और कहा, “साहब, आप चाय पीजिए, मैकेनिक सुबह तक गाड़ी ठीक कर देगा।”

सिद्धार्थ की जुबान से एक शब्द नहीं निकल रहा था। जिस लड़के को उसने मेहनत का पाठ पढ़ाया था, आज उसी की मेहनत और इंसानियत ने उसकी जान बचाई थी। उसने कांपती आवाज में पूछा, “तुम मुझे जानते हो?” राजू मुस्कुराया, “हां साहब, कैसे भूल सकता हूं? आपने ही तो मुझे जिंदगी की सबसे बड़ी सीख दी थी। अगर उस दिन आपने मुझे गुब्बारे ना दिए होते तो मैं आज भी भीख मांग रहा होता।”

यह सुनकर सिद्धार्थ को लगा जैसे किसी ने उसके ऊपर खौलता पानी डाल दिया हो। उसने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
“राजू, और मैं भीख नहीं मांगता साहब। मैं काम करता हूं।” उसने अपनी जेब से ₹50 का एक नोट निकाला और सिद्धार्थ की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “इसे रख लीजिए, घर जाने के लिए टैक्सी के काम आएगा। मेहनत की कमाई है।”

सिद्धार्थ अंदर तक टूट गया। वह अपनी सीट से उठा और उस 12 साल के बच्चे के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। “मुझे माफ कर दो बेटा। मैं बहुत घमंडी और अंधा था। असली मेहनत और इंसानियत क्या होती है, यह आज तुमने मुझे सिखाया है।”

राजू ने अपनी मां की बीमारी के बारे में बताया। अगली सुबह सिद्धार्थ ने राजू की मां को शहर के सबसे बड़े अस्पताल में भर्ती करवाया और ऑपरेशन का सारा खर्च उठाया। लेकिन वह यहीं नहीं रुका। उस रात ने उसे पूरी तरह बदल दिया था। उसने अपनी बची-खुची हिम्मत और कारोबारी समझ को बटोरा, अपनी डूबती कंपनी को फिर से खड़ा किया। लेकिन इस बार उसका मकसद सिर्फ पैसा कमाना नहीं था। उसने ‘गुब्बारा फाउंडेशन’ के नाम से एक ट्रस्ट शुरू किया, जो राजू जैसे बच्चों को पढ़ाने और हुनर सिखाने का काम करता था। उसने राजू को औपचारिक रूप से गोद ले लिया।

राजू अब सिद्धार्थ के बंगले में रहता था। उसकी मां भी ऑपरेशन के बाद स्वस्थ होकर उनके साथ ही रहती थी। राजू शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ने लगा। लेकिन उसने अपने पुराने दोस्तों और अपनी जड़ों को कभी नहीं भूला। वह आज भी फाउंडेशन का सबसे सक्रिय सदस्य था, जो हजारों बच्चों की जिंदगी में रंग भर रहा था।

एक शाम सिद्धार्थ और राजू उसी पार्क में बैठे थे, जहां राजू ने अपना पहला गुब्बारा बेचा था। सिद्धार्थ ने राजू के हाथ में रंग-बिरंगे गुब्बारों का एक गुच्छा दिया और कहा, “इन्हें आसमान में छोड़ दो, यह तुम्हारी आजादी और जीत के प्रतीक हैं।” राजू मुस्कुराया, “नहीं पापा, इन्हें बेचेंगे और पैसे फाउंडेशन में देंगे। असली आजादी मेहनत में है।”

लोग हैरान थे, लेकिन आज उनकी हैरानी में नफरत नहीं, बल्कि सम्मान और प्रेरणा थी।
यह कहानी सिखाती है—कोई काम छोटा नहीं, कोई इंसान बेकार नहीं। सच्ची मदद किसी को लाचार बनाना नहीं, बल्कि सक्षम बनाना है। मेहनत और स्वाभिमान ही असली दौलत है।

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