रामनिवास की इंसानियत का ठेला

जुलाई की झुलसती दोपहर थी। वाराणसी के चौक नंबर पांच पर हमेशा की तरह दुकानों की भीड़, रिक्शों की आवाज और सड़क किनारे ठेलों की हलचल रहती थी, लेकिन आज कुछ अलग था। आसमान जैसे आग बरसा रहा था। लोग छांव तलाश रहे थे, और कोई सस्ते खाने के लिए इधर-उधर भटक रहा था।

एक पेड़ के नीचे रामनिवास का छोले-चावल का ठेला खड़ा था। उस ठेले पर एक पुराना नीला-पीला छाता था, आधा फटा हुआ। पास में एक प्लास्टिक की कुर्सी और दो टेबल। सजावट कोई खास नहीं, लेकिन स्वाद ऐसा कि एक बार खा लो तो बार-बार आए बिना रह ना सको। रामनिवास की उम्र करीब 52 साल थी। चेहरे पर मेहनत की लकीरें थीं, लेकिन मुस्कान हमेशा बनी रहती।

सुबह पांच बजे उठकर छोले उबालना, चावल पकाना, मसाला तैयार करना—यही उसकी दिनचर्या थी। उसी वक्त एक अधेड़ उम्र का आदमी धीरे-धीरे आया। उसके कपड़े धूल से भरे थे, पसीने से भीगे हुए, पैर घिसटते हुए चल रहे थे। जैसे कई मील पैदल चला हो। उसकी आंखों में शर्म थी, मगर भूख उससे बड़ी थी।

उस आदमी ने धीमे से कहा, “भाई साहब, अगर नाराज न हों तो एक प्लेट खिला दीजिए। जेब में अभी कुछ नहीं है।”
रामनिवास ने मुस्कुराकर कहा, “भैया, भूख के लिए पैसे नहीं लिए जाते। बैठिए, आराम से खाइए।”
रामनिवास ने गरमागरम छोले-चावल परोसे, ऊपर से प्याज, नींबू और मुस्कान भी दी। वह आदमी चुपचाप बैठ गया और हर चावल का दाना जैसे उसकी आत्मा को सुकून दे रहा था, वैसे खाने लगा।

चारों ओर बैठे लोगों ने देखा। कोई बोला, लगता है भिखारी है। कोई फुसफुसाया, कभी अमीर रहा होगा। लेकिन रामनिवास को फर्क नहीं पड़ा। वह अपने काम में लगा रहा। उसके व्यवहार के कारण चौक नंबर पांच पर 35 ठेले थे, लेकिन ठेला नंबर 27—रामनिवास का ठेला—हर किसी को याद रहता। वह हर ग्राहक से नाम पूछकर बात करता, जो पैसे न दे पाए उन्हें भी चुपचाप खाना खिला देता। कभी किसी से पूछता नहीं कि क्यों नहीं दे पाए। वह कहता, “भूख की कोई जात नहीं होती बेटा, और भूखा होना कोई अपराध नहीं।”

उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। उस अधेड़ आदमी को खाना खिलाने के बाद रामनिवास फिर अपने काम में लग गया। पर उसे क्या पता था, उसी आदमी की वजह से अगले दिन पूरा शहर उसके ठेले के सामने भीड़ लगाए खड़ा होगा।

रामनिवास की जिंदगी संघर्षों से भरी रही थी। बीवी का कैंसर से निधन हो गया था। बेटी कविता टीचर बनी थी, जिससे उसे बड़ा गर्व था। कविता अक्सर कहती, “बाबूजी, अब आपका ठेला बंद कर दीजिए। मैं कमा लेती हूं।”
रामनिवास मुस्कुराकर जवाब देता, “बेटी, ठेला अब मेरी पूजा है। लोग केवल खाना नहीं खाते, मेरा प्यार भी खा जाते हैं।”

उसी रात कविता ने देखा कि एक तस्वीर इंटरनेट पर वायरल हो रही थी। तस्वीर में वही अधेड़ आदमी था, जो उसके पिता के ठेले पर दोपहर में बैठा खाना खा रहा था। साथ में कैप्शन था—“अमन वर्मा, 400 करोड़ की कंपनी के मालिक, सड़क किनारे ठेले पर मुफ्त खाना खाते हुए।” कविता ने गूगल किया। अमन वर्मा—टेक फ्लक्स कंपनी के फाउंडर, जो दुनिया की टॉप 100 कंपनियों में शामिल है। अमेरिका, लंदन, जापान—हर जगह उनके ऑफिस हैं। लेकिन बचपन वाराणसी में बीता था।

रामनिवास को यकीन नहीं हुआ। वही आदमी था, उसी ने उनके ठेले का खाना खाया। कविता ने सिर हिलाया, “हां बाबूजी, और अब यह खबर हर न्यूज़ चैनल पर आ गई है।”

अगली सुबह चौक नंबर पांच पर भीड़ जमा थी। रामनिवास के ठेले पर लोग फोटो खींच रहे थे, वीडियो बना रहे थे। हर चैनल का रिपोर्टर वहीं था। यह ठेला अब इंसानियत का प्रतीक बन गया था। किसी ने कहा, “रामनिवास झेम गया।”
रामनिवास बोला, “हम तो रोज यही करते हैं भाई, बस आज कैमरे आ गए हैं।”

जिस तस्वीर ने इंटरनेट को हिला दिया था, वह किसी पत्रकार ने नहीं, बल्कि एक राहगीर अनुराग श्रीवास्तव ने क्लिक की थी, जो अपने कॉलेज का प्रोजेक्ट बना रहा था—‘सड़क किनारे की जिंदगी’। उसे नहीं पता था कि वह एक अरबपति की तस्वीर क्लिक कर रहा है।

जब अमन वर्मा की टीम को यह फोटो दिखी, उन्होंने पुष्टि की कि यह वही हैं। लेकिन उन्होंने अपनी पहचान क्यों नहीं बताई? शहर के लोगों की उत्सुकता बढ़ने लगी। एक अरबपति ने क्यों सड़क किनारे खाना खाया? वह गरीब क्यों बना घूम रहा था? रामनिवास कौन है? क्या अमन उनसे जुड़े हैं?

हर टीवी चैनल, हर वेबसाइट, हर ब्लॉग—रामनिवास और उनके ठेले की कहानियां छाप रहा था। NDTV, BBC हिंदी, द लॉजिकल इंडियन—सब ने उनके ठेले को ‘इंसानियत की रसोई’ नाम दे दिया।

रामनिवास अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि सब हो क्या रहा है। इधर अमन वर्मा की टीम भी परेशान थी। अमन दो दिन से किसी से संपर्क में नहीं थे। फोन बंद, ट्रैकिंग बंद, GPS बंद। उनकी पीए शालिनी ने दिल्ली पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई थी। लेकिन तभी अमन ने खुद ईमेल भेजा—केवल तीन लाइनें:
“मैं ठीक हूं। कुछ दिनों के लिए पुराने शहर की गलियों में हूं। अपने बचपन की भूख ढूंढ रहा हूं।”

कविता को जब इंटरनेट पर अमन वर्मा की तस्वीरें दिखीं तो उसकी आंखें भर आईं। उसने एक पुरानी एल्बम निकाली। उसमें एक तस्वीर थी—तीन बच्चे, एक लड़की, दो लड़के। एक लड़का बहुत शरारती पर होशियार। कविता बोली, “यह तो अमन है!”
रामनिवास ने गौर से देखा, “अरे, यह वही बच्चा है जो मेरी दुकान से अक्सर बासी पूरी चुरा लेता था।”
कविता हंस पड़ी, “और आप उसे डांटते नहीं थे, घी में सेंकी हुई पूरी दे देते थे।”

अमन वर्मा का असली नाम था ‘अमन चाय वाला’। उसके पिता स्टेशन के पास चाय बेचते थे। गरीबी में गुजरे दिन, जब एक वक्त का खाना भी मयस्सर नहीं होता था। अमन अक्सर रामनिवास के ठेले के पीछे से बचा हुआ खाना मांगता। एक दिन रामनिवास ने कहा था, “बेटा, खाना मांगने से अच्छा है मेहनत से खाना खाना। पढ़ो-लिखो, बड़ा बनो।”
अमन ने उसी दिन से ठान लिया था—मुझे बड़ा बनना है, ताकि इस आदमी की बात सच हो सके।

अमन के पिता की मौत के बाद वह शहर छोड़कर दिल्ली चला गया, और फिर एक लंबी यात्रा शुरू हुई। संघर्ष, शिक्षा, विदेशी छात्रवृत्ति, स्टार्टअप और एक दिन करोड़ों का मालिक बन जाना। लेकिन अंदर कहीं भूख वही थी—एक थाली गरम छोले-चावल की।

उसी रात जब पूरा शहर टीवी पर रामनिवास और अमन की चर्चा में डूबा था, रामनिवास अकेले बैठा था। अपने पुराने स्टील के गिलास में चाय लिए, चुपचाप किसी चहल-पहल से दूर। कविता बोली, “बाबूजी, यह सब आपके लिए है। अब आप बदल जाइए, कहीं और चले, बड़ी दुकान खोलें।”
रामनिवास हंस पड़ा, “बेटी, मैं ठेले वाला हूं। इंसानियत की दुकान बड़ी हो सकती है, पर मैं तो अब भी उसी इंसानियत की ईंट पर बैठा हूं।”

रामनिवास के ठेले के पास एक किराना दुकान में CCTV कैमरा लगा था। फुटेज देखा गया तो अमन को वहीं बैठे देखा गया—खाना खा रहे, मुस्कुरा रहे, और जाते वक्त अपना गिलास धोते हुए। दुकानदार बोला, “यह वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो गया। एक अरबपति जिसने गिलास भी खुद धोया ठेले वाले के लिए।”

रामनिवास के पास एक सरकारी चिट्ठी आई—स्थानीय SDM कार्यालय से लिखा था,
“मान्यवर रामनिवास जी, आपकी सेवा और मान्यता के लिए आपको 15 अगस्त को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है। आप तिरंगा फहराने वाले प्रथम व्यक्ति होंगे।”

रामनिवास की आंखें भर आईं। अगले दिन एक और खबर आई—अमन वर्मा ने अपनी कंपनी का एक नया CSR प्रोजेक्ट लॉन्च किया है, नाम—‘रामनिवास भोजालय’। पूरे भारत में 200 जगहों पर जरूरतमंदों के लिए मुफ्त खाना। लोगों को यकीन नहीं हो रहा था, जिस आदमी ने किसी से एक पैसा नहीं लिया, उसके नाम पर अब देश भर में भूखों का पेट भरेगा।

अमन वर्मा वाराणसी लौटे, लेकिन ना गाड़ी, ना सिक्योरिटी, ना सूट-बूट। वही पुरानी पट शर्ट और एक जोड़ी सैंडल में सीधे रामनिवास के ठेले पर पहुंचे। रामनिवास ने देखा तो पहचान ही नहीं पाए। अमन बोले, “बाबूजी, आप ही ने मुझे पहली बार खाना खिलाया था। आज मैं आया हूं दोबारा खाने, आपके हाथ का।”

पूरा शहर सन्न था। अमन वर्मा के ठेले पर बैठने की खबर ने मीडिया को दीवाना बना दिया। NDTV लाइव, टीवी9 भारतवर्ष—हर चैनल पर यही खबर थी। अमन वर्मा बोले, “जो स्वाद इस छोले-चावल में है, वह किसी फाइव स्टार होटल में नहीं।”

रामनिवास के गांव में एक मेला लगा था। उसी मेले में अमन वर्मा पहुंचे। उनके साथ थी पूरी टीम, विदेशी पार्टनर्स, अफसर, पत्रकार। रामनिवास को स्टेज पर बुलाया गया, माइक थमाया गया।
रामनिवास ने बस एक बात कही, “मैंने कभी किसी से नाम नहीं पूछा। भूख देखी, खाना दिया। शायद यही मेरा असली धर्म था।”

प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया—रामनिवास जी को गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री सम्मान से नवाजा जाएगा। कविता की आंखों से आंसू बहने लगे। “बाबूजी, आपने मुझे स्कूल भेजा, अब देश आपको सलाम कर रहा है।”

रामनिवास बोले, “बेटी, यह ठेला बंद नहीं होगा। यही मेरा असली स्कूल है।”

रामनिवास के ठेले को अब एक शीशे की बॉक्स में बंद कर दिया गया। उसका वही पुराना स्टोव, बर्तन, स्टील की थाली। उस पर एक बोर्ड टंगा—‘यही बैठकर एक अरबपति ने खाना खाया था।’ अब रोजाना लोग आते—कोई MLA, कोई DM, कोई विदेशी टूरिस्ट। अमन वर्मा हर महीने आते, रामनिवास के साथ बैठते, वही खाना खाते।

लोगों ने पूछा, “आप तो करोड़पति हैं, क्यों यहां आते हैं?”
अमन बोले, “जब आत्मा भूखी हो, तो शरीर की भूख होटल नहीं भरते, रामनिवास जैसे लोग भरते हैं।”