कहानी: वापसी का सच
चार साल बाद विक्रम अपने देश लौटा था। विदेश की चमक-धमक छोड़कर जब उसने एयरपोर्ट पर कदम रखा, उसकी आंखों में उम्मीद और दिल में बेचैनी थी। टैक्सी स्टैंड पर पहुंचते ही उसने गांव का पता दिया, मन में मां-बाबूजी की मुस्कान देखने की लालसा थी। टैक्सी शहर की भीड़ पार करके गांव की ओर बढ़ी तो हर पेड़, हर खेत उसे अपने बचपन की याद दिला रहा था। चार साल का फासला हर चीज में महसूस हो रहा था।
रास्ते में टैक्सी रुक गई। ड्राइवर सामान लेने गया तो विक्रम खिड़की से बाहर देखने लगा। अचानक उसकी नजर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों पर पड़ी। उनमें से एक चेहरा उसे बहुत पहचाना सा लगा। दिल की धड़कन तेज हो गई। गौर से देखा तो वह कोई और नहीं, उसके पिता राम प्रसाद थे—बिखरे बाल, थकी आंखें, हाथ फैलाए भीख मांगते हुए। विक्रम का दिल कांप उठा। वह दौड़कर पिता के पास गया, घुटनों पर गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा।
पिता ने सिर उठाया, बेटे को देख आंखों से आंसू बहने लगे। विक्रम ने पूछा, “बाबूजी, यह हाल क्यों?” राम प्रसाद ने टूटे स्वर में बताया, “बेटा, हमें घर से निकाल दिया गया। तुम्हारी पत्नी ने हमें बाहर कर दिया।” विक्रम को विश्वास नहीं हुआ। उसकी आंखों के सामने नेहा का चेहरा घूम गया, जो हमेशा कहती थी कि मां-बाबूजी गांव में आराम से हैं। पिता ने बताया कि कैसे सास के आने के बाद घर का माहौल बदल गया, ताने मिले, कमरे से निकाला गया, और अंत में सड़क पर आना पड़ा। मां सावित्री पास की झुग्गी में थी, उदास आंखों से सड़क को ताकती हुई। विक्रम दौड़कर मां के पास गया, गले लगाकर रो पड़ा। “मां, मुझे माफ कर दो। मैं सब ठीक करूंगा।”
विक्रम ने मां-बाप को होटल ले जाकर अच्छे कपड़े, गर्म खाना दिया। दोनों की आंखों में सुकून लौट आया। उसने वादा किया कि अब उनका सम्मान और सुख उसकी जिम्मेदारी है। शाम को विक्रम घर लौटा। नेहा और उसकी मां टीवी देख रही थीं। नेहा चौंकी, बोली, “आप अचानक आ गए!” विक्रम ने मुस्कुराकर कहा, “चलो, मां-बाबूजी से मिलते हैं।” नेहा घबराई, बहाने बनाने लगी। विक्रम ने गंभीरता से पूछा, “तुम्हारी मां यहां क्यों रह रही है?” नेहा की मां बोली, “मेरा बेटा मुझे तंग करता था, यहां आ गई।” विक्रम ने कहा, “बुजुर्गों को तंग करना सबसे बड़ा पाप है।”
विक्रम ने दोनों को शॉपिंग कराने के बहाने बाजार भेजा, खुद होटल लौट आया। मां-बाप को बताया कि अब सच्चाई सामने लानी होगी। पिता बोले, “बेटा, गुस्से में कोई गलती मत करना। हमें बदला नहीं, सम्मान चाहिए।” थोड़ी देर बाद नेहा और उसकी मां होटल पहुंची। नेहा का रंग उड़ गया। विक्रम ने कहा, “अब झूठ मत बोलो। सब कुछ जान चुका हूं।” राम प्रसाद ने सबके सामने अपनी पीड़ा बयां की। नेहा रो पड़ी, हाथ जोड़कर माफी मांगी। विक्रम ने कहा, “गलती नहीं, अपराध था यह। मां-बाप को सड़क पर छोड़ना इंसानियत का सबसे बड़ा पाप है।”
मां सावित्री ने नेहा को गले लगाया, बोली, “अगर दिल से बदलना चाहती हो, तो घर फिर से मंदिर बन सकता है।” राम प्रसाद ने भी कहा, “अगर बहू बदलना चाहती है तो उसे सुधारने का मौका देना चाहिए।” विक्रम ने नेहा को आखिरी मौका दिया, “अगर दोबारा मेरे माता-पिता की आंखों में आंसू आए तो मेरा चेहरा कभी नहीं देखोगी।” नेहा ने कसम खाई, “अब ऐसा कभी नहीं होगा।”
अगले दिन विक्रम ने सबके सामने सच उजागर करने का फैसला किया। मां-बाप को साथ लेकर पुराने घर पहुंचा। मोहल्ले में भीड़ जुट गई। विक्रम ने नेहा को सबके सामने खड़ा किया, बोला, “गलती सबके सामने हुई थी, सुधार भी सबके सामने होगा। अब इस घर के असली मालिक मेरे बाबूजी और मां हैं।” नेहा सास-ससुर के पैरों पर गिर पड़ी, सिसकते हुए बोली, “अब मैं सच में बदलना चाहती हूं।” उसकी मां को भी समझ आ गया कि उसकी चाल अब नहीं चलेगी।
सावित्री ने नेहा को गले लगाया, “अगर दिल से पछता रही हो तो यह घर फिर से मंदिर बन सकता है।” राम प्रसाद ने आशीर्वाद दिया, “इंसान गलती करता है, पर अगर सुधर जाए तो वही सबसे बड़ा धर्म है।” विक्रम ने सबको गले लगाया, “अब हम साथ रहेंगे, चाहे जैसी भी मुश्किल क्यों ना आए।” पड़ोसी तालियां बजाने लगे, “देखो असली बेटा कैसा होता है, जिसने मां-बाप की इज्जत को सबसे ऊपर रखा।”
धीरे-धीरे घर का माहौल बदल गया। नेहा सचमुच सास-ससुर की सेवा करने लगी। सुबह जल्दी उठकर उनके लिए खाना बनाती, पैर दबाती, हर रोज उनसे आशीर्वाद लेती। उसकी मां भी चुप हो गई, समझ गई कि रिश्ते तोड़ने से सुख नहीं मिलता। सावित्री के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। विक्रम ने मां-बाप को शहर घुमाया, अच्छे कपड़े दिलाए, मंदिरों में दर्शन कराया। रिश्तेदारों ने कहा, “विक्रम ने अपने मां-बाप का सम्मान लौटाकर मिसाल दी है।”
मोहल्ले में लोग बच्चों को समझाने लगे, “मां-बाप की सेवा करना ही सबसे बड़ी दौलत है।” विक्रम का घर अब सच में मंदिर जैसा हो गया था। वहां अब ताने नहीं, सिर्फ हंसी और आशीर्वाद की आवाजें गूंजती थीं। चार साल की जुदाई का दर्द धीरे-धीरे भर गया। विक्रम ने महसूस किया कि असली सफलता पैसा नहीं, मां-बाप की मुस्कान है।
नेहा ने सचमुच अपने व्यवहार में बदलाव लाया। सास-ससुर का आदर करती, उनके लिए खाना बनाती, उनके साथ बैठती, पुराने किस्से सुनती। सावित्री की आंखों में संतोष और शांति थी। राम प्रसाद का चेहरा गर्व से उठा हुआ था। विक्रम ने विदेश में कमाए पैसों से एक नया घर खरीदा, कागज पर साफ लिखा—यह घर मां-बाप के नाम होगा। मोहल्ले में जब लोगों ने यह खबर सुनी, सबने तालियां बजाईं। बुजुर्ग कहने लगे, “अगर हर बेटा ऐसा हो जाए, कोई मां-बाप कभी दुखी ना हो।”
नेहा की मां भी अब खामोश हो गई थी। उसने समझ लिया कि रिश्तों को तोड़ने से सिर्फ बर्बादी आती है। उसने घर से दूरी बना ली, बाकी जीवन सादगी से बिताने लगी। नेहा ने पति और सास-ससुर से वादा किया कि वह अपनी हर गलती का प्रायश्चित सेवा और प्यार से करेगी। उसके व्यवहार में इतना परिवर्तन आया कि सावित्री और राम प्रसाद ने उसे अपनी बेटी मान लिया।
विक्रम का घर अब बिल्कुल बदल चुका था। वहां अब न ताने थे, न अपमान की आवाजें। वहां सिर्फ आशीर्वाद, दुआएं और खुशी का माहौल था। विक्रम जब भी ऑफिस से लौटता, सबसे पहले मां-बाप की मुस्कान देखता। वह समझ गया था कि जीवन की सबसे बड़ी सफलता वही है जो माता-पिता के चेहरे पर खुशी लाए।
एक शाम विक्रम छत पर खड़ा था। सामने ढलता सूरज, हवा में शांति थी। उसने मन ही मन कहा, “पैसा कमाना आसान है, लेकिन रिश्तों को बचाना सबसे जरूरी है। अगर मां-बाप की आंखों में आंसू हैं, तो दुनिया की कोई दौलत उस गलती को नहीं छुपा सकती।”
दोस्तों, यह कहानी यहीं खत्म होती है, लेकिन हमें एक गहरी सीख देकर जाती है—मां-बाप का प्यार, सम्मान और आशीर्वाद सबसे बड़ी दौलत है। अगर हम अपनी जिंदगी की रफ्तार में माता-पिता को पीछे छोड़ देंगे, तो हमारी हर खुशी अधूरी रह जाएगी।
सोचिए, क्या हम अपने माता-पिता को उतना सम्मान और प्यार देते हैं, जितना वे हकदार हैं? क्या उनकी मुस्कान ही हमारी सबसे बड़ी कमाई है?
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