दहेज मांगा तो दुल्हन ने लौटाई बारात, फिर जो हुआ इंसानियत हिल गई

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आत्मसम्मान की कहानी

कहते हैं, सोने की चमक उसकी कसौटी से नहीं, बल्कि उसकी शुद्धता से पहचानी जाती है। ठीक उसी तरह, इंसान की असली कीमत उसकी दौलत से नहीं, बल्कि उसके आत्मसम्मान और सच्चाई से होती है। आज की इस कहानी में हम आपको ले चलेंगे एक ऐसे मंडप में, जहां शहनाई की धुन अचानक थम जाती है। जहां दहेज की मांग सामने रखी जाती है और जहां एक लड़की सबके सामने खड़ी होकर कहती है, “मुझे दहेज नहीं, इज्जत चाहिए।”

शादी का मंडप सजा हुआ था। चारों ओर रोशनी, फूल, और शहनाई की मधुर धुन थी। आरती दुल्हन बनी थी, और उसकी मां उसके पास खड़ी थीं। उसके पिता, देवेंद्र, मेहमानों का ध्यान रख रहे थे। तभी दूल्हा रोहन बारात के साथ पहुंचा। पंडित जी ने मंत्र पढ़ना शुरू किया ही था कि दूल्हे के चाचा ने कहा, “एक छोटी सी बात रह गई है। लड़के के लिए कार और कुछ पैसे दे दीजिए। लिस्ट बनी रहेगी।”

दहेज मांगा तो दुल्हन ने लौटाई बारात, फिर जो हुआ इंसानियत हिल गई | Emotional  story

मंडप में सन्नाटा छा गया। देवेंद्र जी ने धीरे से कहा, “हमने पहले ही कहा था कि हम दहेज नहीं देंगे। जितना हमारी क्षमता थी, उतना कर चुके हैं।”

रोहन ने कंधे उचका कर कहा, “डैड, यह तो छोटी सी मदद है। शुरुआत आसान हो जाएगी।”

आरती ने पहली बार सीधे रोहन की ओर देखा और साफ आवाज में बोली, “मेरे पिता की झुकी हुई आंखें यह बताती हैं कि यह छोटी बात नहीं है। अगर शादी दहेज पर टिकती है, तो मुझे ऐसी शादी नहीं चाहिए।”

कुछ लोग फुसफुसाने लगे, “अरे, अब क्या होगा? लड़की ज्यादा बोल रही है।” पंडित जी ने किताब बंद कर दी। मां घबराई और बोली, “बेटा, चुप रहो। बदनामी हो जाएगी।”

आरती ने मां का हाथ पकड़कर धीरे से कहा, “मां, इज्जत बची रहेगी, यही काफी है।” दूल्हे के पिता ने ताना मारते हुए कहा, “यह मंडप है, भाषण का मंच नहीं।”

आरती शांत रही और बोली, “यह मेरी जिंदगी है। मैं सौदे में दुल्हन नहीं बनूंगी।”

देवेंद्र जी की आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उनकी आवाज मजबूत थी। “पंडित जी, मंत्र रोक दीजिए। यह शादी यहीं खत्म होती है।”

रोहन ने सिर झुका लिया और कहा, “सॉरी, आरती,” और चुपचाप एक तरफ हट गया। शहनाई की धुन रुक गई। वरमाला की थाली में फूल जैसे भारी हो गए। आरती ने पल्लू संभाला, मां और पिता का हाथ थामा और सीढ़ियां उतरने लगी। भीड़ चुप थी, बस कैमरों की हल्की आवाजें सुनाई दे रही थीं। आरती ने मन में कहा, “आज शादी नहीं टूटी। आज आत्मसम्मान बच गया।”

वे तीनों मंडप से बाहर आए ही थे कि पीछे से किसी की स्पष्ट और स्थिर आवाज आई, “एक मिनट! अगर इज्जत शर्त है, तो मैं बिना दहेज इस लड़की से शादी करने को तैयार हूं।”

सबने मुड़कर देखा। साधारण कपड़े पहने, कंधे पर पुराना बैग लटकाए, आंखों में भरोसा लिए एक युवक खड़ा था। उसने अपना नाम बताया, “मैं आदित्य हूं।” वह आगे बढ़कर बोला, “मैं दहेज नहीं चाहता। मुझे एक साथी चाहिए जो मेरे साथ बराबरी से चले। अगर आरती तैयार हो, तो मैं यहीं अभी साफ-साफ तरीके से रिश्ता निभाने की बात कर सकता हूं।”

मंडप की हवा बदल गई। किसी ने कहा, “यह कौन है?” किसी ने धीरे से कहा, “सीधा बोल रहा है।” आरती ने आदित्य को देखा। उसका चेहरा साधारण था, लेकिन उसकी बातें सीधी थीं। उसने मां और पिता की ओर देखा। दोनों की आंखों में चिंता भी थी और राहत भी।

आरती ने धीरे से कहा, “जवाब अभी नहीं दूंगी। पहले समझूंगी कि तुम कौन हो और क्या सोचते हो।” आदित्य ने सिर हिलाया, “ठीक है। दबाव में नहीं। इससे फैसला होना चाहिए।”

सड़क पर हवा चल रही थी, और टेंट की रोशनी पीछे छूट रही थी। आरती ने सोचा, “दहेज पर झुकना नहीं है, लेकिन जल्दबाजी भी नहीं करनी है।” वहीं से कहानी का नया मोड़ शुरू हुआ। दहेज से इंकार और सामने एक सीधा प्रस्ताव, बिना शोर, बिना दिखावे।

मंडप का माहौल अब अलग था। बारात वाले चुपचाप पीछे हट चुके थे। लोग अभी भी हैरानी से देख रहे थे। आरती, मां और पापा बाहर निकल ही रहे थे कि आदित्य फिर सामने आ खड़ा हुआ। उसने हाथ जोड़कर कहा, “मुझे पता है आप लोग अभी बहुत आहत हैं। लेकिन मैंने जो कहा, वो मजाक नहीं था। अगर आरती चाहे, तो मैं बिना दहेज शादी करने को तैयार हूं।”

भीड़ में खुसफुसाहट शुरू हो गई। “यह लड़का कौन है? कपड़े देखो, आम आदमी लगता है। पता नहीं सच बोल रहा है या सिर्फ दिखावा कर रहा है।”

देवेंद्र जी ने सीधी नजर से पूछा, “बेटा, तुम हो कौन? तुम्हारा घर परिवार कौन है? क्या करते हो?”

आदित्य ने शांति से जवाब दिया, “मैं पास ही के कॉलेज में लाइब्रेरी असिस्टेंट की नौकरी करता हूं। घर छोटा है, मां-बाप बुजुर्ग हैं। ज्यादा कुछ नहीं है मेरे पास। लेकिन इतना जरूर है कि मैं दहेज की वजह से किसी लड़की को अपमानित नहीं करूंगा।”

मां ने हैरानी से आरती की तरफ देखा। “बिटिया, यह सब अचानक हो रहा है। हमें सोचने का वक्त चाहिए।”

आरती ने भी सीधे आदित्य से पूछा, “तुम मुझे जानते तक नहीं। फिर क्यों कहना चाहते हो कि मुझसे शादी करोगे?”

आदित्य ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “मैंने आज तुम्हें मंडप में बोलते सुना। तुम्हारी हिम्मत देखी। एक लड़की अपने पापा की इज्जत बचाने के लिए सबके सामने खड़ी हो गई। इससे बड़ा गुण और क्या चाहिए? ऐसे इंसान के साथ अगर जिंदगी गुजरेगी, तो गलत कैसे हो सकती है?”

भीड़ में फिर से हलचल हुई। किसी ने कहा, “लड़की की किस्मत अच्छी है। वरना आजकल कौन बिना दहेज बोलता है?” तो किसी ने ताना मारा, “गरीब लड़का है। बेटी की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।”

देवेंद्र जी चुप हो गए। उनके चेहरे पर उलझन साफ थी। मां धीरे से बोली, “आरती, फैसला तुम्हें करना है। हम दबाव नहीं डालेंगे।”

आरती ने गहरी सांस ली। उसने आदित्य की तरफ देखा और बोली, “तुम्हारी बात साफ है। लेकिन शादी मजाक नहीं है। मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहती हूं। तुम्हारा घर, तुम्हारे सपने, तुम्हारा सोच।”

आदित्य ने सिर हिलाया। “सही कह रही हो। मैं कल तुम्हें अपने घर ले जाऊंगा। सब कुछ साफ-साफ दिखा दूंगा। फिर तुम और तुम्हारे पापा-मां मिलकर सोच लेना। दबाव नहीं, सिर्फ इज्जत।”

आरती ने पहली बार हल्की मुस्कान दी। उसने सोचा, “शायद यही सच्चा रिश्ता है। जहां किसी को मनाने या झुकाने की जरूरत नहीं पड़ती।”

अगले दिन सुबह, आरती, मां और पापा आदित्य के साथ उसके घर पहुंचे। छोटा सा मोहल्ला, संकरी गली, सामने नीली पेंट की उखड़ी दीवारें। घर की छत तीन की थी और आंगन में पुरानी चारपाई पड़ी थी।

आदित्य की मां बाहर ही खड़ी थीं। सफेद सूती साड़ी, झुर्रियों से भरा चेहरा, लेकिन आंखों में सच्चाई की चमक। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “आइए, अंदर आइए। आप लोग हमारे घर आए, हमें बहुत खुशी है।”

अंदर जाते ही आरती ने देखा, कमरा साधारण था। लकड़ी की पुरानी अलमारी, एक मेज जिस पर किताबें ढेर लगी थीं, और दीवार पर भगवान की छोटी सी तस्वीर। पापा देवेंद्र ने चारों तरफ देखा और गहरी सांस ली। “बेटा, तुम्हारे पास बहुत कुछ नहीं है, लेकिन कम से कम साफ-सफाई और ईमानदारी साफ दिखती है।”

आदित्य ने हंसते हुए कहा, “अंकल, मेरे पास दौलत नहीं है, लेकिन मेहनत है। मैं चाहता हूं कि जिंदगी इसी से गुजरे।”

आरती चुपचाप सब देख रही थी। उसके मन में सवालों की भीड़ थी। “क्या मैं इस साधारण घर में रह पाऊंगी? क्या मैं इतनी मुश्किल जिंदगी झेल पाऊंगी?” तभी आदित्य की मां ने उसके हाथ पर हाथ रखा और धीरे से कहा, “बिटिया, हमारे पास ज्यादा नहीं है, लेकिन हम तुम्हें बहू नहीं, बेटी मानेंगे। तुम्हें कभी अकेला महसूस नहीं होने देंगे।”

आरती की आंखें भर आईं। वह सोच रही थी, “कल मंडप में मुझे खरीदा जा रहा था। आज यहां मुझे अपनाया जा रहा है।” लेकिन बाहर मोहल्ले में फिर से बातें चलने लगीं। “देखो, आरती अब गरीब घर में जाएगी। कल तक जिसके लिए कार मांगी जा रही थी, अब वह रिक्शे में चलेगी। यह रिश्ता चलेगा भी या नहीं?”

मां ने यह सब सुना और परेशान हो गईं। “बिटिया, समाज की बातें तो सुननी पड़ेंगी। हमें सोच-समझकर फैसला लेना होगा।”

आरती ने मां की तरफ देखा और शांत आवाज में कहा, “मां, कल समाज के डर से अगर मैं चुप रहती, तो मेरी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाती। आज मैं अपने दिल की सुनना चाहती हूं। अगर यह रिश्ता इज्जत और भरोसे पर टिकता है, तो यही सही है।”

देवेंद्र ने बेटी की तरफ देखा। उनकी आंखों में अब डर नहीं था। उन्होंने गहरी आवाज में कहा, “बिटिया, अगर तूने फैसला कर लिया है, तो मैं तेरे साथ हूं। इस बार हम किसी के दबाव में नहीं आएंगे।”

आरती ने आदित्य की तरफ देखा। वह मुस्कुरा रहा था, लेकिन उसकी आंखों में सच्चाई थी। आरती ने मन ही मन सोचा, “शायद यही मेरा असली साथी है।”

कुछ ही दिनों बाद आरती और आदित्य की शादी का दिन तय हो गया। ना कोई बैंड-बाजा, ना बड़ी बारात। बस मोहल्ले के मंदिर में दो-तीन रिश्तेदार, कुछ पड़ोसी और परिवार वाले। मंदिर की सीढ़ियों पर आरती बैठी थी। साधारण लाल साड़ी, माथे पर हल्का सिंदूर, गले में छोटी सी माला। आदित्य सफेद कुर्ता-पायजामा पहने बिना किसी दिखावे के वहां मौजूद था।

पंडित जी ने मंत्र शुरू किए। आरती के पापा देवेंद्र और मां बगल में बैठे थे। उनकी आंखों में आंसू थे, लेकिन इस बार वह आंसू दर्द के नहीं, बल्कि राहत और गर्व के थे। मोहल्ले के लोग भी देखने आए थे। कोई ताने मार रहा था, “इतनी बड़ी बारात को ठुकराया और अब मंदिर में छोटी सी शादी कर रही है।” कोई हंसकर कह रहा था, “देखो, कार छोड़कर अब रिक्शे वाला जीवन चुना है।”

लेकिन कुछ लोग चुपचाप खड़े होकर सिर्फ आरती की हिम्मत को देख रहे थे। एक बूढ़े चाचा ने धीरे से कहा, “आजकल कौन इतनी हिम्मत करता है? लड़की सही काम कर रही है।”

मंत्र पूरे हुए। सात फेरे पूरे होने के बाद आदित्य ने आरती की मां के सामने हाथ जोड़कर कहा, “आज से आपकी बेटी मेरी भी जिम्मेदारी है। मैं उसे कभी अकेला नहीं छोड़ूंगा।”

मां की आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने बेटे की तरह आदित्य का माथा छू लिया। देवेंद्र ने भी आदित्य के कंधे पर हाथ रखा और कहा, “बेटा, दहेज तो हम नहीं दे सकते, लेकिन अपनी दुआएं जरूर देंगे।”

आरती ने पहली बार दिल से मुस्कुराकर आदित्य की तरफ देखा। उसे लगा, “यह शादी दिखावे की नहीं है। यह शादी इज्जत और भरोसे पर टिकी है।”

मंदिर की घंटी बजी, फूल बरसे। समाज चाहे कुछ भी कहे, लेकिन उस पल आरती को लगा कि उसने सही रास्ता चुना है। शादी के बाद आरती आदित्य के छोटे से घर आ गई। घर में बस दो कमरे थे। एक में मां-बाप रहते थे और दूसरा आदित्य और आरती का था। छत तीन की थी, गर्मी में तपती और बरसात में टपकती।

पर आरती को यह घर अपने पुराने मंडप से भी बड़ा और सच्चा लगा क्योंकि यहां दिखावा नहीं था। सुबह-सुबह आदित्य दफ्तर चला जाता। वह लाइब्रेरी में काम करता था। तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, लेकिन ईमानदारी से नौकरी करता था। आरती घर संभालती, सास-ससुर की सेवा करती और मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।

शुरुआत में सब आसान नहीं था। पैसे कम थे, जरूरतें ज्यादा थीं। कभी दूध आधा लेना पड़ता, कभी सब्जी सस्ती वाली। बरसात में घर की दीवारें सीलन से भीग जातीं। मोहल्ले वाले भी ताने मारते, “देखो, बड़ी शादी छोड़कर अब यहां झोपड़ी में रह रही है। यह कैसी किस्मत चुनी है इसने?”

आरती सब सुनती, लेकिन मुस्कुरा कर चुप रहती। वह सोचती, “दिखावे वाला सुख क्या करूंगी? मुझे तो सच्चा साथी चाहिए और वह मुझे मिल चुका है।”

शाम को जब आदित्य काम से लौटता, तो दोनों बरामदे में बैठकर बातें करते। आदित्य हंसकर कहता, “आरती, लोग चाहे जो कहें, पर एक दिन मैं अपनी मेहनत से सबको दिखाऊंगा कि हमने सही फैसला लिया है।” आरती उसकी आंखों में देखती और कहती, “मुझे तुम्हारे वादे से ज्यादा तुम्हारे साथ होने पर भरोसा है। यही सबसे बड़ा दहेज है।”

धीरे-धीरे आरती को भी महसूस हुआ कि मुश्किलें कम नहीं होंगी। लेकिन आदित्य के साथ होने से हर बोझ हल्का हो जाता है और यही उनके रिश्ते की असली ताकत थी। दिन गुजरते गए। आदित्य हर रोज सुबह साइकिल से लाइब्रेरी जाता। शाम को थका हुआ लौटता, लेकिन उसके चेहरे पर कभी शिकायत नहीं होती। आरती उसका इंतजार करती और उसके लिए गर्म चाय बनाकर रखती।

धीरे-धीरे आरती की ट्यूशन भी बढ़ने लगी। पहले पांच बच्चे आते थे, अब 10-15 आने लगे। उसकी पढ़ाने की लगन और धैर्य ने बच्चों के माता-पिता का दिल जीत लिया। एक दिन आदित्य थका हुआ लौटा और बोला, “आरती, आज बॉस ने कहा कि मेरी मेहनत देखकर मुझे प्रमोशन मिलेगा। तनख्वाह भी बढ़ेगी।”

आरती की आंखों में चमक आ गई। उसने कहा, “देखा, मैंने कहा था ना, ईमानदारी और मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।” लेकिन समाज अभी भी चुप नहीं था। कुछ लोग अब भी कहते, “कितना कमा लेगा? यह लड़की की जिंदगी तो बर्बाद हो गई।”

आरती सब सुनती और मन ही मन सोचती, “बर्बादी तो उस दिन होती अगर मैंने अपने आत्मसम्मान को बेच दिया होता।” आदित्य की तरक्की धीरे-धीरे आगे बढ़ी। उसने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी। रात देर तक पढ़ाई करता, किताबों में डूबा रहता। आरती उसके लिए खाना और चाय रख देती और कहती, “मैं तुम्हारे साथ हूं। थकना मत।”

आदित्य की मां भी अब आरती को बेटी की तरह मानने लगी थीं। घर छोटा था, लेकिन उसमें अपनापन बड़ा था। धीरे-धीरे मोहल्ले के लोग भी अपने ताने कम करने लगे। कई औरतें आकर कहतीं, “बिटिया, हमें भी अपनी बेटियों को तुम्हारी जैसी हिम्मत देना है।” आरती मुस्कुरा कर कहती, “बस एक बात याद रखिए, इससे बड़ा कोई दहेज नहीं।”

उस रात जब सब सो गए, आदित्य किताब बंद करके बोला, “आरती, मुझे लगता है अब वक्त आ रहा है जब हमारी मेहनत रंग लाएगी।” आरती ने उसकी तरफ देखा और कहा, “हां, और उस दिन पूरे समाज को जवाब मिलेगा।”

साल गुजरते गए। आदित्य ने पढ़ाई जारी रखी। रात-रात जागकर मेहनत की। आरती ने उसका पूरा साथ दिया, कभी चाय बनाकर, कभी हौसला देकर। आखिर वह दिन आ ही गया जिसका इंतजार दोनों को था। सुबह-सुबह डाकिया एक बड़ा लिफाफा लेकर आया। आदित्य ने हाथ कांपते हुए लिफाफा खोला। उसकी आंखें चमक उठीं। “आरती, मैं परीक्षा पास कर गया हूं। मेरा अफसर के तौर पर चयन हो गया है।”

आरती की आंखें नम हो गईं। उसने हाथ जोड़कर भगवान को धन्यवाद किया। “देखा, आदित्य, मेहनत और सच्चाई का फल हमेशा मिलता है।” अब मोहल्ले का नजरिया बदल गया। वह लोग जो कभी ताने मारते थे, वही लोग दरवाजे पर आकर कहते, “हमें माफ कर दो, बिटिया, हम गलत थे। तुम्हारा फैसला सही था।”

कोई कहता, “आरती, तूने सच में मिसाल कायम की है।” कोई कहता, “ऐसा दामाद हर किसी को मिले।” देवेंद्र और उनकी पत्नी की आंखों में गर्व था। वे सोच भी नहीं सकते थे कि जिस समाज ने कभी ताने दिए थे, वही आज उनकी बेटी की तारीफ कर रहा है।

शहर के अखबार में भी खबर छपी, “गरीब परिवार का बेटा अफसर बना। पत्नी ने मुश्किल हालात में दिया साथ।” आरती ने वह अखबार हाथ में लिया और मुस्कुराकर कहा, “आदित्य, अब लोगों को समझ आ गया होगा कि शादी दहेज से नहीं, भरोसे से टिकती है।”

आदित्य ने आरती का हाथ थामा और बोला, “अगर तुम उस दिन हिम्मत ना दिखाती, तो यह सब कभी नहीं होता।” दोनों की आंखों में खुशी के आंसू थे। लेकिन उन आंसुओं में एक बात साफ थी। अब उनकी जिंदगी सिर्फ उनकी नहीं रही, बल्कि एक मिसाल बन चुकी थी।

आदित्य अब बड़ा अफसर बन चुका था। सरकारी गाड़ी दरवाजे पर आती, लोग सलाम करते और मोहल्ले में उसका नाम गर्व से लिया जाता। लेकिन उसके घर का माहौल वही सादा था, जहां मेहनत, सच्चाई और अपनापन सबसे ऊपर था।

आरती अब भी मोहल्ले के बच्चों को पढ़ाती थी। वह चाहती थी कि हर बच्ची पढ़े, समझे और अपनी जिंदगी का फैसला खुद ले। लड़कियां उससे कहतीं, “दीदी, हम भी आपकी तरह अपनी इज्जत के लिए खड़े होंगे।” आरती मुस्कुरा कर कहती, “याद रखना, दहेज से बड़ा दान कोई नहीं। और आत्मसम्मान से बड़ा दहेज कोई नहीं।”

जब देवेंद्र जी बाजार जाते, तो लोग उन्हें सलाम करते। “देखिए, यही है आरती के पिताजी, जिनकी बेटी ने मंडप में हिम्मत दिखाई थी।” उनकी आंखों में गर्व था, जैसे जिंदगी का सबसे बड़ा इनाम मिल गया हो।

मां अक्सर आंगन में बैठकर सोचतीं, “उस दिन अगर आरती डर जाती, तो शायद आज यह दिन कभी नहीं देख पाते।” एक शाम आदित्य अपनी ऑफिस की ड्रेस में घर लौटा। गेट पर आरती खड़ी थी। उसने हंसते हुए कहा, “याद है आदित्य? उस दिन मंडप में सब लोग मुझे ताने मार रहे थे। और आज वही लोग हमारी मिसाल देते हैं।”

आदित्य ने उसकी आंखों में देखा और बोला, “हां आरती, क्योंकि तुमने उस दिन इज्जत की राह चुनी थी। और इस पर बना रिश्ता कभी हारता नहीं।”

आरती ने आसमान की तरफ देखा। सितारे चमक रहे थे। उसके मन में एक ही बात गूंज रही थी, “शादी का असली आधार दहेज नहीं, भरोसा और आत्मसम्मान है।”

अब आपसे एक सवाल: अगर आपकी बेटी, बहन या खुद आप ऐसी स्थिति में हों और मंडप के बीच दहेज की मांग सामने आ जाए, तो क्या आप भी आरती की तरह खड़े होकर शादी तोड़ने की हिम्मत करेंगे? अपना जवाब हमें कमेंट में जरूर लिखें। आपके शब्द किसी और को हिम्मत दे सकते हैं।