महिला,डॉक्टर रोज मंदिर जाती, और भिखारी को रोज पैसा देती,भिखारी ने कहा मुझे पैसे नही, मुझे आप चाहिए,,

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मंदिर, महिला डॉक्टर और भिखारी की कहानी

छोटे से शहर के एक प्रसिद्ध मंदिर के बाहर हर सुबह एक महिला डॉक्टर दिखती थी। उसका नाम था डॉ. स्नेहा। वह शहर के सबसे बड़े अस्पताल में कार्यरत थी और अपने पेशे के साथ-साथ इंसानियत के लिए भी जानी जाती थी। स्नेहा का रोज़ का नियम था—सुबह जल्दी उठकर मंदिर जाना, पूजा करना और फिर अस्पताल के लिए निकलना।

मंदिर के बाहर एक बूढ़ा भिखारी बैठा रहता था, जिसका नाम था रघु। उसके कपड़े फटे-पुराने थे, बाल बिखरे हुए और चेहरा धूप में झुलसा हुआ। लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी मासूमियत थी। स्नेहा जब भी मंदिर जाती, वह हमेशा रघु को देखकर मुस्कुराती और हर दिन उसे कुछ पैसे या खाने का सामान देती। रघु भी उसे देख मुस्कुरा देता और सिर झुका कर आशीर्वाद देता।

दिन बीतते गए। यह रोज़ का सिलसिला बन गया। स्नेहा के लिए यह महज दया का भाव था, लेकिन रघु के लिए यह उम्मीद की किरण थी। उसे लगता था कि इस दुनिया में अब भी कोई उसके बारे में सोचता है। धीरे-धीरे, रघु की आंखों में स्नेहा के लिए सम्मान से कुछ ज्यादा ही भाव आने लगे। वह उसकी राह देखने लगा, उसके आने का इंतजार करने लगा।

एक दिन जब स्नेहा मंदिर से बाहर निकली और हमेशा की तरह रघु को पैसे देने के लिए बढ़ी, तो रघु ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। स्नेहा हैरान रह गई। उसने पूछा, “क्या हुआ रघु, आज पैसे क्यों नहीं ले रहे?”

रघु की आंखों में आंसू थे। उसने कांपती आवाज़ में कहा, “मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए, मुझे आप चाहिए।” यह सुनकर स्नेहा सन्न रह गई। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि रघु ऐसा कुछ कह सकता है। वह कुछ पल तक चुप रही, फिर बोली, “रघु, तुम क्या कह रहे हो? मैं तुम्हारी मदद इंसानियत के नाते करती हूं।”

रघु ने सिर झुका लिया। उसने अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश की, “मालकिन, आपने जो दया और अपनापन मुझे दिया, वो मुझे कभी अपने परिवार से भी नहीं मिला। मैं जानता हूं, आप मेरे लिए बहुत ऊपर हैं, लेकिन दिल को कैसे समझाऊं? आपसे मिलने के बाद ही मुझे जीने की चाह मिली है।”

स्नेहा को समझ नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। उसकी आंखों में करुणा थी, पर वह असहज भी महसूस कर रही थी। उसने रघु को समझाया, “रघु, मैं तुम्हारी बहन या बेटी जैसी हूं। तुम्हारी हालत देखकर मैं सिर्फ मदद करती हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं तुम्हारे लिए कुछ और हूं।”

रघु ने सिर झुका लिया, लेकिन उसकी आंखों में दर्द साफ झलक रहा था। वह जानता था कि उसकी भावनाएं गलत हैं, पर दिल को कौन समझाए?

उस दिन के बाद स्नेहा का मन अशांत रहने लगा। वह सोचने लगी कि क्या उसकी दया ने किसी के मन में गलत भावना पैदा कर दी? क्या हर अच्छे काम का यही नतीजा होता है? लेकिन उसने खुद को समझाया कि इंसानियत कभी गलत नहीं हो सकती। उसने फैसला किया कि वह रघु की मदद करना बंद नहीं करेगी, लेकिन उसे और स्पष्टता से समझाएगी।

अगले दिन स्नेहा मंदिर गई। रघु पहले से ही उसके इंतजार में बैठा था, लेकिन उसकी आंखों में अब अपराधबोध था। स्नेहा ने उसके पास बैठकर कहा, “रघु, तुम्हें समझना होगा कि दुनिया में हर औरत की इज्जत करनी चाहिए। तुम्हारे मन में जो भाव आ गए, वो गलत हैं। मैं तुम्हारी मदद करूंगी, लेकिन अगर फिर कभी तुमने ऐसी बात की, तो मुझे मजबूरी में पुलिस को बताना पड़ेगा।”

रघु ने हाथ जोड़ लिए और बोला, “माफ कर दो मालकिन, मुझसे गलती हो गई। मैं वादा करता हूं, आगे से कभी ऐसी बात नहीं करूंगा। आप जैसी नेक इंसान को दुखी नहीं करूंगा।”

स्नेहा ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, “इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है, लेकिन उसका गलत मतलब मत निकालो। मैं चाहती हूं कि तुम अपनी जिंदगी को बदलो, मेहनत करो और खुद पर गर्व करो।”

उस दिन के बाद रघु ने सच में बदलने की ठानी। उसने पास के मंदिर में सफाई का काम पकड़ लिया। धीरे-धीरे उसकी हालत सुधरने लगी। स्नेहा ने भी उसकी मदद की, उसे नशा छुड़वाया, नए कपड़े दिलवाए और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया।

समाज में भी इस घटना की चर्चा होने लगी। कुछ लोगों ने स्नेहा की आलोचना की, तो कुछ ने उसकी हिम्मत की सराहना की। लेकिन स्नेहा ने किसी की बात की परवाह नहीं की। वह जानती थी कि अच्छाई का रास्ता आसान नहीं होता, लेकिन अगर नीयत साफ हो तो मंजिल जरूर मिलती है।

समय बीतने के साथ रघु अब भिखारी नहीं रहा। उसने मेहनत से अपनी पहचान बनाई। मंदिर के पुजारी और अन्य लोग भी उसकी ईमानदारी की तारीफ करने लगे। रघु अब हर किसी से यही कहता, “जो लोग आपकी मदद करते हैं, उनका सम्मान करो, उनके बारे में गलत मत सोचो।”

डॉ. स्नेहा की दया, समझदारी और दृढ़ता ने न सिर्फ रघु की जिंदगी बदली, बल्कि समाज को भी एक नई सोच दी—कि दया और इंसानियत को कमजोरी मत समझो, और हर अच्छे काम का सही अर्थ समझो।

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