सिर्फ़ एक रात की पनाह मांगी थी… युवक ने जो किया, इंसानियत हिल गई

शाम का धुंधलका धीरे-धीरे आसमान पर छा रहा था। घर के भीतर अरुण अकेला बैठा था। उसका चेहरा थका हुआ और आंखें गहरी उदासी में डूबी हुई थीं। कई वर्षों से वह इस घर में अकेले रह रहा था। पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी दुनिया सूनी हो गई थी। बाहर से लौटकर जब भी वह अपने आंगन में कदम रखता, सन्नाटे की गूंज उसकी आत्मा को चीर जाती। इसी उदासी में डूबे उस शाम अचानक उसके दरवाजे पर दस्तक हुई।

अरुण ने चौंककर दरवाजा खोला। सामने उसका परिचित, गांव के बुजुर्ग रामनाथ खड़े थे। उनके साथ एक अजनबी महिला और एक छोटा बच्चा था, जिसकी उम्र चार साल से ज़्यादा नहीं होगी। अरुण हैरान होकर बोला, “चाचा, आप इस समय?”

रामनाथ ने धीमी आवाज़ में कहा, “बेटा, यह महिला बेसहारा है। यह आज रात मेरी दुकान पर रुकने की बात कह रही थी, मगर वहां सुरक्षित नहीं है। मैंने सोचा इसे तेरे यहां छोड़ दूं। एक रात गुजार लेगी और सुबह अपने बच्चे को लेकर निकल जाएगी।”

अरुण असमंजस में पड़ गया। वह अकेला आदमी था और जानता था कि लोग बातें बनाएंगे। “चाचा, लोग क्या कहेंगे? मैं तो यहां अकेला रहता हूं…”

रामनाथ ने गहरी सांस लेकर कहा, “बेटा, मजबूरी बड़ी चीज़ होती है। किसी का सहारा बनना ही असली इंसानियत है। तू चिंता मत कर। सुबह यह चली जाएगी।”

चाचा की बात सुनकर अरुण ने हामी भर दी और महिला व उसके बेटे को घर के भीतर बुला लिया। उसने उन्हें एक कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा, “तुम यहां आराम से रह सकती हो। किसी चीज़ की चिंता मत करना।” महिला चुपचाप सिर झुकाकर भीतर चली गई।

रात धीरे-धीरे गहराने लगी। बाहर अंधेरे और सन्नाटे का राज था। अरुण अपने कमरे की ओर बढ़ ही रहा था कि अचानक ख्याल आया—शायद यह औरत और उसका बच्चा भूखे होंगे। उसने किचन में जाकर बचा हुआ दूध गर्म किया और दो कप चाय बना ली। ट्रे में कप रखकर वह उस कमरे की ओर गया जहां महिला अपने बच्चे के साथ थी। दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर महिला कोने में बैठी थी और बच्चा उसकी गोद में सिर टिकाकर सोने की कोशिश कर रहा था। दोनों के चेहरे पर थकान और उदासी साफ झलक रही थी।

अरुण ने दरवाजे पर दस्तक दी और मुस्कुराकर कहा, “डरने की कोई ज़रूरत नहीं। यह चाय पी लीजिए, इससे थोड़ी राहत मिलेगी।” महिला ने धीरे से ट्रे ले ली। उसके चेहरे पर कृतज्ञता तो थी, लेकिन आंखों में गहरा डर भी। उसने दरवाज़ा बंद कर लिया मानो खुद को सुरक्षित करना चाहती हो। अरुण सब समझ गया—यह औरत हालात की मारी हुई है। उसने मन में ठान लिया कि इसे कोई तकलीफ़ नहीं देगा।

सुबह जब अरुण उठा तो उसका घर बदला-बदला लगा। महीनों से जमी धूल गायब थी। आंगन चमक रहा था। बर्तन धोकर करीने से रखे थे। रसोई साफ-सुथरी थी जैसे किसी ने प्यार से नया जीवन दे दिया हो। अरुण अपनी आंखों पर यकीन नहीं कर पा रहा था। इतने सालों बाद उसका घर मानो सांस ले रहा था। तभी महिला चाय लेकर आई और बोली, “यह लीजिए, आपके लिए चाय। अब मैं अपने बेटे के साथ निकल जाऊंगी।”

अरुण ने आश्चर्य से कहा, “यह सब तुमने किया है? घर तो जैसे फिर से जी उठा है।” महिला ने सिर झुकाकर जवाब दिया, “आपने शरण दी, तो मेरा भी फर्ज था कि घर को संभाल दूं। गंदगी देखी तो हाथ रुक नहीं पाए।”

उस पल अरुण की आंखें भर आईं। उसे अपनी पत्नी याद आ गई, जब घर में रौनक थी। मानो बीते दिनों की झलक फिर लौट आई हो। महिला अपने बेटे को जगाने लगी और बोली, “बेटा, उठो। हमें काम ढूंढना है। अगर काम नहीं मिला तो सिर पर छत भी नहीं रहेगी।” यह सुनकर अरुण का दिल पिघल गया। उसने सोचा—यह औरत मजबूरी में है, मगर हिम्मत नहीं हारी। वहीं मैं सब कुछ होते हुए भी अकेलेपन से टूटा हुआ हूं। शायद यही औरत और उसका बच्चा मेरी सूनी जिंदगी को रोशनी दे सकते हैं।

अरुण ने हिम्मत करके कहा, “अगर तुम चाहो तो यहीं रह सकती हो। घर बड़ा है, अकेले मेरे लिए संभालना मुश्किल है। काम करोगी तो रहने की जगह और मेहनताना भी मिलेगा। बाहर भटकने की ज़रूरत नहीं होगी।” महिला हिचकिचाई, “लेकिन लोग क्या कहेंगे?” अरुण मुस्कुराया, “लोग तो हमेशा कुछ न कुछ कहते हैं। मुझे तुम पर भरोसा है।”

आखिरकार महिला मान गई। उसने धीरे से कहा, “अगर आपको आपत्ति नहीं है तो मैं यहीं काम कर लूंगी।” अरुण संतुष्ट हो गया। दिन बीतने लगे। महिला घर संभालने लगी, बच्चा खेलते-खेलते अरुण से घुलमिल गया और चाचा कहने लगा। अरुण का अकेलापन धीरे-धीरे कम होने लगा।

छह महीने बीत गए। घर अब हंसी-खुशी से गूंजने लगा था। मगर एक सवाल अरुण के दिल में हमेशा उठता—यह औरत कौन है? किस मजबूरी ने इसे बेसहारा बना दिया? एक शाम उसने हिम्मत जुटाकर पूछा। महिला की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा, “मेरी भी कभी खुशहाल जिंदगी थी। पति मुझे बहुत प्यार करते थे। मगर एक हादसे में उनकी मौत हो गई। हमने घरवालों की मर्जी के खिलाफ शादी की थी, इसलिए पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने मुझे और मेरे बेटे को घर से निकाल दिया। तब से मैं दर-दर भटक रही हूं।”

उसकी आवाज़ में दर्द था। अरुण भी भावुक हो गया। उसने कहा, “तुम्हारा दर्द मैं समझ सकता हूं। मेरा भी घर टूटा था। मैं भी अकेला हो गया था।” महिला ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “आपने मेरा दर्द सुना, इससे मेरा मन हल्का हो गया। अब लगता है मैं अकेली नहीं हूं।”

धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे के करीब आने लगे। मगर गांव में बातें फैल गईं। लोग कानाफूसी करने लगे कि एक जवान औरत अकेले आदमी के घर में रह रही है। एक दिन गांव के बुजुर्गों ने आकर अरुण पर दबाव बनाया कि वह महिला को घर से निकाल दे। महिला आंसुओं में डूबकर सामान समेटने लगी और बोली, “इस आदमी ने मुझे कभी बुरा नहीं कहा। लेकिन अगर मेरी वजह से इसका नाम खराब हो रहा है तो मैं चली जाती हूं।”

यह सुनकर उसका बेटा रोता हुआ अरुण से लिपट गया और बोला, “अंकल, हमें मत छोड़ो।” अरुण की आंखें भर आईं। उसने भीड़ की ओर देखा और ऊंची आवाज़ में कहा, “अगर तुम लोगों को ऐतराज है तो मैं अभी फैसला करता हूं। यह औरत अब मेरी जिम्मेदारी है और इसका बेटा मेरा बेटा।” इतना कहकर वह भीतर गया और पूजा घर से सिंदूर लाकर सबके सामने महिला की मांग में भर दिया।

गांव वाले चुप हो गए। महिला की आंखों से आंसू बह निकले। उसने कांपते स्वर में कहा, “आपने मुझे इज्ज़त दी, नया जीवन दिया। मैं इसे कभी नहीं भूलूंगी।” अरुण ने उसका हाथ थामते हुए कहा, “नहीं, तुमने मेरे घर को फिर से रौनक दी है। तुम्हारे और तुम्हारे बेटे ने मुझे जीने का असली मतलब सिखाया है।”

उस दिन से अरुण, महिला और उसका बेटा एक परिवार बन गए। घर में फिर से खुशियां लौट आईं। समाज जिसने शुरुआत में ताने दिए थे, वही अब इस नए परिवार की इज्ज़त करने लगा।

कभी-कभी जिंदगी हमें तोड़ देती है, लेकिन उसी टूटन से नए रिश्ते जन्म लेते हैं। अरुण और उस महिला की कहानी इस बात की गवाही है कि इंसानियत और सच्चा सहारा किसी भी इंसान की जिंदगी बदल सकता है।

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