प्लेन में बिजनेसमैन को आया हार्ट अटैक, लड़के ने अपनी सूझबूझ से बचाई जान, जो…

दो दुनिया, दो सफ़र

लखनऊ की तंग गलियों में बसी एक पुरानी बस्ती। वहीं एक छोटे से मकान में रहता था राहुल मिश्रा, 24 साल का नौजवान। आँखों में सपने बड़े थे, मगर हालात उनसे कहीं छोटे। बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन में गोल्ड मेडल के साथ ग्रेजुएशन किया, पर डिग्री उसके लिए रद्दी से ज़्यादा कुछ साबित न हुई।

पिता अशोक जी गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे। पेंशन तो आती थी, पर इलाज और घर का ख़र्च उस पर भारी पड़ जाता। माँ सरला जी ने अपने गहने बेच दिए, फिर भी साहूकारों का क़र्ज़ सिर पर चढ़ गया। राहुल हर रोज़ इंटरव्यू देता, तारीफ़ें सुनता, पर नौकरी की जगह “अनुभव नहीं है” का बहाना पाता। धीरे-धीरे हिम्मत टूटने लगी।

आख़िरकार उसने एक कड़वा फ़ैसला लिया—दुबई जाकर मजदूरी करने का। उसने घरवालों से झूठ कहा कि उसे बड़ी कंपनी में सुपरवाइज़र की नौकरी मिली है। लेकिन सच्चाई यह थी कि वह पत्थर तोड़ने जा रहा था, ताकि कम से कम घर में दवा और रोटी की कमी न हो।

दूसरी ओर, उसी दिन दिल्ली एयरपोर्ट पर खड़ा था राजवीर सिंघानिया। 50 साल का बिज़नेस टाइकून, करोड़ों की कंपनी का मालिक। पैसा, ताक़त, शोहरत—सब कुछ उसके पास था। मगर रिश्ते, मोहब्बत और इंसानियत उसके लिए केवल किताबों की बातें थीं। उसका मंत्र था—“समय ही पैसा है।”

दोनों की मंज़िल एक ही—दुबई। लेकिन उनके रास्ते, उनकी दुनिया, उनके हालात—आसमान और ज़मीन जितने अलग।

 उड़ान और तूफ़ान

प्लेन ने उड़ान भरी। राहुल इकोनॉमी क्लास की खिड़की से अपना शहर छूटते देख रहा था। आँखें नम थीं—क्या वह कभी लौट पाएगा? उधर फ़र्स्ट क्लास में राजवीर अपने लैपटॉप में बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन देख रहा था। सीने में हल्का दर्द था, पर उसने अनदेखा किया। उसके लिए डील ज़्यादा अहम थी।

दो घंटे बाद प्लेन अरब सागर के ऊपर था। तभी फ़र्स्ट क्लास में हड़कंप मच गया। राजवीर को ज़ोर का दिल का दौरा पड़ा। साँसें रुक रहीं थीं, चेहरा नीला पड़ गया। एयर होस्टेस ने पुकारा—“क्या कोई डॉक्टर है?” पर उस फ्लाइट में डॉक्टर नहीं था।

क्रू ने फर्स्ट-एड दी, पर हालत बिगड़ती गई। इमरजेंसी लैंडिंग में 40 मिनट थे, जबकि मरीज के पास 40 सेकंड भी नहीं।

यह ख़बर इकोनॉमी क्लास तक पहुँची। राहुल का दिल धड़क उठा। उसे याद आया—कभी NCC कैंप में उसने CPR (कार्डियोपल्मोनरी रेसुसिटेशन) सीखी थी। वह डॉक्टर नहीं था, पर जानता था कि वक्त रहते CPR किसी को मौत के मुहाने से लौटा सकती है।

एक पल के लिए झिझका—क्या होगा अगर नाकाम रहा? लेकिन अगले ही क्षण उसने तय किया—“कम से कम कोशिश तो करनी ही होगी।”

 मौत से जंग

राहुल भागकर फ़र्स्ट क्लास पहुँचा। एयर होस्टेस ने रोका—“आप यहाँ नहीं आ सकते।”
उसने घबराई पर दृढ़ आवाज़ में कहा—“मैं डॉक्टर नहीं हूँ, पर CPR आता है। प्लीज़ एक मौका दीजिए।”

उसकी आँखों की सच्चाई देखकर क्रू ने रास्ता दे दिया। राहुल घुटनों के बल राजवीर के पास बैठा। नब्ज़ लगभग गायब थी। उसने अपने हाथों से लयबद्ध दबाव देना शुरू किया—एक, दो, तीन… हर धक्का मानो ज़िंदगी और मौत के बीच पुल बना रहा था।

पसीना बह रहा था, साँसें तेज़ थीं, पर वह रुका नहीं। पूरा प्लेन सन्न था। सबकी निगाहें उस नौजवान पर थीं जो अपने पूरे दम से एक अजनबी की जान खींच रहा था।

दस मिनट की जद्दोजहद के बाद चमत्कार हुआ—राजवीर ने गहरी साँस ली, आँखें खोलीं। केबिन तालियों से गूंज उठा। एयर होस्टेस की आँखों में आँसू थे। राहुल थककर वहीं बैठ गया—जैसे उसने जिंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई जीत ली हो।

 गुमनाम फ़रिश्ता

प्लेन दुबई में उतरा। एम्बुलेंस राजवीर को अस्पताल ले गई। राहुल किसी ने पूछा तक नहीं। वह चुपचाप इमीग्रेशन की लाइन में लग गया। उसके लिए यह घटना एक फर्ज़ थी, कोई उपकार नहीं।

अस्पताल में डॉक्टरों ने कहा—“अगर CPR न मिला होता, तो बचना नामुमकिन था।” राजवीर को होश आया, तो सबसे पहला सवाल यही था—“मुझे बचाया किसने?”

एयरलाइन ने बताया—नाम है राहुल मिश्रा। मगर पता लगाना आसान न था। दुबई में लाखों मजदूर थे, उनमें से एक राहुल मिश्रा को ढूँढना समुद्र में मोती खोजने जैसा।

 खोज और मुलाक़ात

राजवीर की टीम ने लेबर कैंपों में तलाश शुरू की। एक हफ्ते बाद सुराग मिला—“हाँ, यह लड़का हमारे कैंप में है, लखनऊ से आया है।”

और फिर एक दिन, चमचमाती रोल्स-रॉयस उस धूल-भरे कैंप के बाहर आकर रुकी। राजवीर ख़ुद उतरे। राहुल मिट्टी और पसीने से लथपथ उनके सामने आया। दोनों की नज़रें मिलीं—एक वो जिसे उसने मौत से खींचकर लौटाया था, दूसरा वो जिसने अनजाने में एक फ़रिश्ता पाया था।

राजवीर की आँखों से आँसू छलक पड़े। वह आगे बढ़े और राहुल को गले लगा लिया—“मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा बेटा।”

 नया सफ़र

राजवीर ने राहुल को अपने होटल बुलाया। उसकी कहानी सुनी। पिता की बीमारी, माँ का बलिदान, कर्ज़, बेरोजगारी—सब सुनकर उनका दिल पसीज गया। उन्होंने कहा—“बेटा, तुम्हारी जगह पत्थर तोड़ने में नहीं है। तुम्हारी जगह मेरे साथ है।”

उन्होंने राहुल का कॉन्ट्रैक्ट कैंसिल करवाया, कर्ज़ चुकाया और अगले ही दिन प्राइवेट जेट से भारत ले आए।

लखनऊ में राहुल के माता-पिता हैरान रह गए। राजवीर ने हाथ जोड़कर कहा—“आपकी अमानत लौटाने आया हूँ। आज से राहुल सिर्फ आपका नहीं, मेरा भी बेटा है।”

मेहनत का इनाम

राजवीर ने राहुल को मुंबई बुलाकर अपनी कंपनी की एक ब्रांच का जनरल मैनेजर बना दिया। शुरुआत में लोग हँसे—“मालिक की जान बचाई, तो बड़ी कुर्सी मिल गई।”

पर राहुल ने सबको ग़लत साबित कर दिया। उसने मजदूरों की समस्याएँ सुनीं, नए आइडियाज लागू किए, और कुछ ही सालों में कंपनी का मुनाफ़ा दोगुना कर दिया।

राजवीर भी बदल गए। वह अब सिर्फ “बेरहम बिजनेसमैन” नहीं, बल्कि समाज सेवा में जुटे इंसान बन गए। अक्सर कहते—“मैंने हज़ारों डील की हैं, पर सबसे बड़ा सौदा उस दिन हुआ जब मैंने अपनी जिंदगी के बदले राहुल जैसा हीरा पाया।”

 शिक्षा

यह कहानी बताती है कि नेकी कभी व्यर्थ नहीं जाती। राहुल ने बिना स्वार्थ एक जान बचाई, और वही उसकी किस्मत बदलने की कुंजी बन गई।

सच्ची काबिलियत डिग्रियों से नहीं, इंसानियत और साहस से साबित होती है। इंसान की पहचान उसके पद से नहीं, बल्कि उसके दिल से होती है।

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