रामकिशन का ढाबा – इंसानियत और सम्मान की कहानी
कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ले आती है, जहाँ लगता है कि हमारी छोटी-सी नेकी शायद किसी को याद भी नहीं रहेगी। लेकिन सच यह है कि जब हम दिल से कुछ करते हैं, उसका असर बहुत गहरा और बहुत दूर तक जाता है।
रात का वक्त था, घड़ी करीब 11 बज रही थी। हाईवे पर दूर-दूर तक सन्नाटा था, बस ट्रकों की गड़गड़ाहट और हवा में घुली धूल। उसी हाईवे के किनारे एक छोटा-सा ढाबा था, टीन की छत, टूटी-फूटी लकड़ी की कुर्सियाँ और मिट्टी के चूल्हे से उठता धुआँ। उस ढाबे का मालिक रामकिशन, पचास-पचपन साल का साधारण आदमी, वहीं बैठा था। पसीने से तर-बतर, लेकिन चेहरे पर एक संतुष्टि थी।
उसका ढाबा बहुत मशहूर नहीं था, लेकिन उसकी गरमागरम रोटियाँ और सस्ती थाली अक्सर यात्रियों को खींच लाती थी।
अचानक सड़क पर गाड़ियों का शोर गूंजा। कुछ आर्मी के ट्रक धीरे-धीरे रुकते हुए ढाबे के सामने आकर खड़े हो गए।
थके-हारे, धूल से ढके जवान उनमें से उतरने लगे। किसी के कंधे पर भारी बैग, किसी की आँखों में कई रातों की जागी हुई थकान।
रामकिशन दौड़कर खड़ा हुआ – “आइए फौजी भाइयों, बैठिए। थक गए होंगे। गर्म चाय बनाता हूँ।”
जवानों ने एक-दूसरे को देखा, उनके चेहरे पर थकान के बीच मुस्कान भी थी। वे चुपचाप कुर्सियों पर बैठ गए।
कुछ ही देर में मिट्टी के तंदूर से रोटियों की खुशबू, कढ़ाई में छौंकती दाल और प्याज-टमाटर की चटनी की महक चारों ओर फैल गई।
जवानों की आँखें चमक उठीं।
रामकिशन अपने हाथों से खाना परोसता जा रहा था – गरम रोटियाँ, कटोरियों में दाल, हरी मिर्च, प्याज और साथ में दिल से बनाई हुई चाय।
जवान खाते-खाते हँसने लगे – “वाह काका, मजा आ गया। ऐसा खाना तो महीनों बाद नसीब हुआ है।”
रामकिशन ने मुस्कुरा कर कहा – “बेटा, तुम्हें खिलाना मेरा सौभाग्य है। जो देश की सरहद पर खड़े होकर हमारी नींद की रखवाली करते हैं, उनके लिए यह ढाबा हमेशा मुफ्त रहेगा। चाहे दस बार आओ, चाहे सौ बार, पैसे का नाम मत लेना।”
जवानों के हाथ रुक गए।
एक ने धीरे से कहा – “काका, हम लोग पैसे देंगे। यह आपकी रोजीरोटी है।”
रामकिशन ने हाथ जोड़ दिए, आँखों में नमी थी – “पैसे तो मैं यहाँ बैठे हर मुसाफिर से ले लेता हूँ, लेकिन तुमसे नहीं। तुम पर मेरा कर्ज है, हमारा कर्ज है। यह खाना मेरे लिए तुम्हें धन्यवाद कहने का तरीका है।”
जवान खड़े हो गए और एक साथ सलामी दी – “जय हिंद काका! आपकी यह दावत हम कभी भूल नहीं पाएंगे।”
उस रात ढाबे के चूल्हे से उठता धुआँ सिर्फ खाने की खुशबू नहीं थी, बल्कि उस इंसानियत की गवाही थी जो धीरे-धीरे इस दुनिया से गुम होती जा रही है।

लेकिन ज़िंदगी आसान नहीं थी।
रामकिशन का ढाबा छोटा था, आमदनी भी कम।
महीनों बाद छत से पानी टपकने लगा, बच्चे लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करते।
कभी-कभी राशन का हिसाब बिगड़ जाता।
उसकी पत्नी पूछती – “हर बार फौजी आ जाए तो तुम मुफ्त में खिला देते हो। कभी सोचा है, कल के दिन अगर ढाबा ही बंद हो गया तो?”
रामकिशन बस मुस्कुरा देता – “अरे, सब भगवान की मर्जी है। लेकिन अगर मेरी दो रोटियाँ किसी जवान का पेट भर दें, तो समझो मेरा जीवन सफल है।”
उसकी बातें सच्चाई थीं, लेकिन दिल में कहीं चिंता भी थी – क्या वो अपने बच्चों का भविष्य संभाल पाएगा?
क्या उसका ढाबा चलते-चलते बंद हो जाएगा?
इन्हीं सवालों के बीच दिन गुजरते रहे।
फिर एक दोपहर कुछ ऐसा हुआ, जिसने सब बदल दिया।
गर्मी का दिन था, सूरज सिर पर आग बरसा रहा था।
रामकिशन का ढाबा अब शांत पड़ा रहता।
रोज़ आने-जाने वाले मुसाफिर तो थे, लेकिन आमदनी उतनी नहीं कि घर का खर्च ठीक से चल सके।
छत से टपकते पानी को ठीक करवाने के लिए पैसे नहीं थे।
बच्चों की किताबें पुरानी हो चुकी थीं।
रात को ढाबे के बाहर लालटेन जलाकर बच्चे पढ़ाई करते और रामकिशन चुपचाप बैठा देखता।
कभी दिल भारी हो जाता, लेकिन शिकायत नहीं करता।
उसकी पत्नी अक्सर कहती – “तुम भी दूसरों जैसे हो जाओ। जवान आए तो उनसे पैसे ले लो। आखिर सबको अपनी-अपनी ज़िंदगी चलानी पड़ती है।”
रामकिशन हल्की सी हंसी हंस देता – “नहीं, यह मेरे लिए सौदा नहीं, आशीर्वाद है। जब तक दम है, जवानों को मुफ्त में खिलाऊंगा। बाकी ऊपर वाला देखेगा।”
लेकिन मन ही मन उसे भी डर सताता था – कहीं यह ढाबा बंद ना हो जाए, बच्चों का भविष्य अंधेरे में ना डूब जाए।
**इन्हीं चिंताओं के बीच एक दिन दोपहर को अचानक जमीन हिलने लगी।**
लोगों को लगा कोई ट्रक तेजी से गुजर रहा है।
फिर आवाज़ और तेज़ होती गई – गड़गड़… गड़गड़…
रामकिशन ने बाहर झांका, उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं।
सड़क पर लंबा काफिला आता दिखा – दर्जनों आर्मी ट्रक, जीपें, बड़ी गाड़ियाँ।
पूरा इलाका जैसे थम सा गया।
गांव वाले अपने घरों से बाहर निकल आए, बच्चे दौड़ते हुए सड़क के किनारे खड़े हो गए।
काफिला सीधे रामकिशन के ढाबे के सामने आकर रुका।
जवान उतरने लगे, वही चेहरे, वही लोग जिनको उसने महीनों पहले मुफ्त में खिलाया था।
लेकिन इस बार उनके हाथ खाली नहीं थे।
एक ट्रक से राशन के बोरे उतारे जा रहे थे – आटा, चावल, दाल, चीनी।
दूसरे ट्रक से लकड़ी की नई कुर्सियाँ और मेजें निकाली जा रही थीं।
तीसरे ट्रक से पंखे, बर्तन और ढाबे की छत बदलने के लिए टीन की चादरें।
गांव वाले दंग रह गए, सबकी नजरें रामकिशन पर टिक गईं।
तभी एक जवान आगे बढ़ा – वही जिसने उस रात रोटियाँ खाते हुए कहा था “काका, मजा आ गया।”
उसने सलामी दी और मुस्कुराते हुए बोला – “काका, आपने कहा था जवानों पर आपका कर्ज है। आज हम अपना कर्ज उतारने आए हैं।”
रामकिशन की आँखें छलक पड़ीं, वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा था।
भीड़ चुप थी, जैसे सबने साँसें रोक ली हों।
तभी काफिले से एक गाड़ी का दरवाजा खुला, सफेद यूनिफार्म पहने कमांडिंग ऑफिसर बाहर आए।
ऊँचा कद, सख्त चेहरा लेकिन आँखों में गहरी इज्जत।
वह सीधे रामकिशन के पास आए, सलामी दी और बोले –
“रामकिशन जी, आपकी दो रोटियों ने हमें वह ताकत दी थी जो किसी पुरस्कार से भी बड़ी है। आप भूखे रहकर भी हमें खिलाते रहे। आज यह हमारा फर्ज़ है कि आपके ढाबे को नया रूप दें।”
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