एक अरबपति मर रहा है – उसे बचाने वाला एकमात्र व्यक्ति वह भिखारी है जिसे उसने 10 साल पहले फंसाया था।
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“आख़िरी दान”
मुंबई की ठंडी सुबह थी।
समुद्र की लहरें मंद आवाज़ में किनारे से टकरा रही थीं, लेकिन शहर की दूसरी तरफ़, “मेट्रो हॉस्पिटल” के आईसीयू में, मौत और ज़िंदगी की खामोश जंग चल रही थी।
बिस्तर पर पड़ा था राजीव कपूर — देश के सबसे बड़े निर्माण साम्राज्य कपूर इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड का मालिक।
वो आदमी जिसके साइन से अरबों के सौदे तय होते थे, आज अपनी ही सांसों के लिए मशीनों का मोहताज था।
डॉक्टर अरोड़ा ने मॉनिटर की तरफ देखा —
ब्लड प्रेशर गिर रहा था, हार्ट रेट अस्थिर।
उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा,
“हमें तुरंत बोन मैरो डोनर चाहिए। इनके शरीर में कैंसर बहुत तेजी से फैल रहा है।”
राजीव की बेटी, अनन्या, जो सिर्फ़ 23 साल की थी, फूट पड़ी।
“डॉक्टर, प्लीज़ कुछ कीजिए। पापा किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे…”
डॉक्टर ने उसकी ओर देखा —
“बीमारी किसी के कर्म नहीं देखती बेटी, बस शरीर का जवाब मिल गया है। हमें AB- नेगेटिव बोन मैरो चाहिए। यह बहुत दुर्लभ टाइप है।”
अनन्या ने काँपती आवाज़ में कहा —
“पैसे की कोई कमी नहीं है। ढूंढिए… दुनिया के किसी कोने से भी लाकर दे दीजिए।”
डॉक्टर ने एक लंबी सांस ली।
“हम कोशिश कर रहे हैं। लेकिन आपको यह समझना होगा — कुछ चीज़ें पैसों से नहीं खरीदी जा सकतीं।”
शहर के दूसरे छोर पर, बांद्रा की पुरानी गलियों में एक जर्जर इमारत थी — गोकुल चॉल।
यहीं रहता था इमरान खान, एक पुराना स्कूल टीचर, जिसने पाँच साल पहले नौकरी छोड़ दी थी।
उसके बाल सफ़ेद हो चुके थे, मगर आँखों में वही ईमानदारी चमकती थी जो किसी सच्चे शिक्षक की पहचान होती है।

आज भी वह सुबह-सुबह मोहल्ले के बच्चों को मुफ्त में पढ़ाने निकलता था।
सड़क किनारे बैठा, टूटी स्लेट पर गणित के सवाल लिखते हुए, उसने हँसकर कहा,
“भविष्य किताबों में नहीं, सोच में होता है बच्चों — यही याद रखना।”
लेकिन इमरान की अपनी जिंदगी अब सवाल बन चुकी थी।
उसकी बीवी रुबीना को तीन साल पहले कैंसर हुआ था।
इलाज के लिए उसने सब कुछ बेच दिया — घर, ज़ेवर, किताबें तक।
लेकिन फिर भी रुबीना बच न सकी।
वह अब बस एक पुरानी फ़ोटो के साथ ज़िंदगी काट रहा था।
दोपहर को जब इमरान अपने झोपड़े में लौटा, तो मोहल्ले का लड़का भागता हुआ आया —
“इमरान अंकल! टीवी पर खबर आई है — कपूर साहब मरने वाले हैं! डोनर चाहिए… बहुत बड़ा इनाम रख रहे हैं!”
इमरान ने रुबीना की तस्वीर की तरफ देखा, फिर धीमे से बोला,
“हर दिन कोई न कोई अमीर मरता है, बेटा। हमारी बस्ती में तो रोज़ कोई जीते-जी मर जाता है।”
लेकिन तभी लड़के ने जोड़ा,
“कह रहे हैं AB- नेगेटिव ब्लड ग्रुप चाहिए। बहुत दुर्लभ है…”
इमरान चुप हो गया।
उसे याद आया — जब वह कॉलेज में था, रक्तदान शिविर में उसका ब्लड टेस्ट हुआ था।
डॉक्टर ने तब कहा था,
“वाह! तुम बहुत कीमती इंसान हो, तुम्हारा ब्लड ग्रुप बहुत दुर्लभ है — AB नेगेटिव।”
वह बात मज़ाक सी लगती थी तब।
लेकिन आज वही बात किसी और की ज़िंदगी का फैसला कर सकती थी।
इमरान की आंखों में संघर्ष था।
जिस आदमी का नाम वह सुन रहा था — राजीव कपूर — वही था जिसने उसकी ज़िंदगी उजाड़ दी थी।
पंद्रह साल पहले, इमरान जिस स्कूल में पढ़ाता था, वह जमीन कपूर ग्रुप ने खरीदी थी।
स्कूल गिरा दिया गया, ताकि वहाँ शॉपिंग मॉल बन सके।
इमरान और बाकी शिक्षकों ने विरोध किया —
लेकिन राजीव कपूर के आदमी आए, धमकाया, और एक झूठा केस डाल दिया कि शिक्षक रिश्वत लेते थे।
स्कूल बंद हुआ, और इमरान की नौकरी भी चली गई।
रुबीना तब बोली थी —
“इमरान, कभी बदला मत लेना। किसी का बुरा करने से इंसानियत मरती है।”
लेकिन आज, तकदीर ने वही आदमी उसके सामने रख दिया था — मरने के कगार पर।
शाम को जब सूरज ढलने लगा, इमरान ने अपनी पुरानी किताबों के बगल में रखी फटी जैकेट उठाई।
उसके भीतर कुछ टूट रहा था, और कुछ जाग रहा था।
वह बोला,
“रुबीना, तुम कहती थी इंसानियत सबसे बड़ी दौलत है।
शायद अब वक़्त आ गया है उसे साबित करने का।”
वह अस्पताल की ओर चल पड़ा।
मेट्रो हॉस्पिटल की चमकदार लॉबी में लोग इमरान को देखकर ठिठक गए।
उसके कपड़े मैले थे, पैर में टूटी चप्पलें, और बाल बिखरे हुए।
गार्ड ने घृणा से कहा,
“अरे! यहां क्यों आया है तू? यह कोई चैरिटी हॉस्पिटल नहीं है!”
इमरान ने धीरे से कहा,
“मुझे डॉ. अरोड़ा से मिलना है। मेरे पास वक्त नहीं है…”
गार्ड ने धक्का देने ही वाला था कि पीछे से अनन्या आई।
उसने पूछा,
“क्या हुआ?”
“मैडम, यह आदमी अंदर घुसने की ज़िद कर रहा है।”
इमरान ने कांपती आवाज़ में कहा,
“आपके पिता को AB- नेगेटिव डोनर चाहिए… मेरा वही ग्रुप है।”
अनन्या की आंखें फैल गईं।
“क्या… आप सच कह रहे हैं?”
डॉक्टर अरोड़ा भी आ गए।
उन्होंने जल्दी से टेस्ट करवाया।
दस मिनट बाद रिपोर्ट आई —
“पॉज़िटिव मैच! बिल्कुल सटीक!”
कमरे में सन्नाटा छा गया।
अनन्या की आंखों में आंसू थे।
“आप भगवान का रूप हैं…” उसने कहा।
इमरान ने सिर हिलाया —
“भगवान नहीं हूं, बेटी। बस एक इंसान हूं।”
डॉक्टर ने कहा, “ऑपरेशन तुरंत शुरू करना होगा।”
लेकिन इमरान ने हाथ उठाया,
“एक शर्त है।”
डॉक्टर और अनन्या दोनों हैरान।
“क्या शर्त?”
“मैं राजीव कपूर से मिलना चाहता हूं — होश में।
मैं चाहता हूं कि उसे पता हो, उसे जीवन कौन दे रहा है।”
डॉक्टर अरोड़ा ने गंभीर चेहरा बनाया —
“वह बहुत कमजोर हैं… पर हम कोशिश करेंगे।”
15 मिनट बाद राजीव कपूर की आंखें खुलीं।
ऑक्सीजन मास्क लगा था, लेकिन चेतना लौट आई थी।
डॉक्टर ने धीमे से कहा,
“सर, आपको एक डोनर मिल गया है। और वह आपसे मिलना चाहता है।”
राजीव ने कमजोर स्वर में कहा,
“जो भी है, उससे कहो — मैं उसे जो चाहे दूंगा… पैसा, बंगला, गाड़ी… बस मुझे जिंदा रखो।”
दरवाजा खुला।
इमरान अंदर आया।
उसकी आंखों में थकान नहीं, दृढ़ता थी।
राजीव ने उसे देखा और भौंहें सिकोड़ लीं —
“तुम… तुम कौन हो?”
इमरान मुस्कुराया —
“आपके पुराने मॉल के नीचे जो स्कूल था, याद है?
वही स्कूल जहाँ आपने बच्चों का भविष्य मिटा दिया था — मैं वहीं का मास्टर इमरान हूं।”
राजीव का चेहरा पीला पड़ गया।
“तुम… तुम अभी भी जिंदा हो?”
“हाँ,” इमरान बोला, “और आज आपको जिंदगी देने आया हूं।”
कमरे में सन्नाटा छा गया।
राजीव ने कांपते हुए कहा,
“क्यों? क्यों मुझे बचाना चाहते हो तुम? मैंने तुम्हारा सब कुछ छीन लिया था।”
इमरान की आंखों में दर्द नहीं था, सिर्फ़ शांति थी।
“क्योंकि अगर मैं आपको मरने दूं, तो आपसे बेहतर नहीं रहूंगा।
मैं इंसान हूं, सौदागर नहीं।”
राजीव की आंखों से आंसू बह निकले।
“मुझे माफ कर दो… मैं बस दौलत के पीछे भागता रहा।”
इमरान ने कहा,
“माफी से ज्यादा जरूरी है, पछतावा जिंदा रखना।
मेरे खून की हर बूंद आपको यह याद दिलाएगी कि इंसानियत किसी बैंक अकाउंट से बड़ी होती है।”
ऑपरेशन शुरू हुआ।
घंटों चले इस जंग में दो शरीरों ने एक-दूसरे से वजूद का लेनदेन किया।
राजीव कपूर का शरीर फिर सांस लेने लगा,
और इमरान की रगों से जीवन धीरे-धीरे फिसलता गया।
जब ऑपरेशन खत्म हुआ, डॉक्टर बाहर आए।
अनन्या दौड़ी — “कैसे हैं पापा?”
डॉक्टर ने कहा,
“आपके पिता अब खतरे से बाहर हैं… लेकिन इमरान…”
वह रुक गए।
अनन्या ने कांपते हुए पूछा,
“क्या हुआ?”
“इमरान खान अब हमारे बीच नहीं हैं।”
उस रात मुंबई की बारिश फिर बरसी।
राजीव कपूर की खिड़की के पास एक नर्स आई —
“सर, यह आपके डोनर की चीज़ें थीं।”
एक फटी पुरानी नोटबुक, और उसके बीच एक तस्वीर —
इमरान और उसकी पत्नी रुबीना, मुस्कुराते हुए, बच्चों के बीच।
पीछे लिखा था —
“अगर मेरी एक बूंद किसी की सांस बन सके,
तो समझो, मैंने फिर से पढ़ाना शुरू किया है।”
राजीव ने तस्वीर को सीने से लगा लिया।
उसकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली।
एक महीने बाद, कपूर फाउंडेशन ने मुंबई में एक नई इमारत खोली —
“रुबीना-इमरान पब्लिक स्कूल”।
प्रवेश द्वार पर पत्थर पर खुदा था:
“यह इमारत उस अध्यापक के नाम है
जिसने सिखाया कि सबसे बड़ा सबक इंसानियत है।”
राजीव कपूर अब हर सुबह बच्चों के बीच बैठता था।
कभी-कभी किसी बच्चे के हाथ में किताब देखकर कहता,
“इसे अच्छे से पढ़ो बेटा, इस पर एक शिक्षक की आखिरी दुआ है।”
और जब कोई पूछता कि “सर, ये स्कूल क्यों बनवाया?”
तो वह बस मुस्कुराकर जवाब देता,
“क्योंकि एक गरीब आदमी ने मुझे सिखाया —
जिंदगी बांटने से छोटी नहीं होती, बड़ी हो जाती है।”
समापन वाक्य:
जब इंसान अपने कर्मों से ऊपर उठकर किसी और की जान बचाता है,
तो वह ईश्वर नहीं बनता — बल्कि इंसानियत का सबूत बन जाता है।
यही है “आख़िरी दान” — जहाँ एक मौत, किसी और की ज़िंदगी बन जाती है।
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