सड़क पर पड़े बुजुर्ग को देखकर सब आगे बढ़ गए लेकिन जब पुलिस ने उनकी पॉकेट से चिट्ठी…

“एक चिट्ठी, एक बेंच और एक बेटे का इंतजार”

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शहर के एक व्यस्त चौराहे के पास, ट्रैफिक का शोर दिन-रात गूंजता रहता था। उसी शोर के बीच एक फुटपाथ पर एक बुजुर्ग व्यक्ति बेसुध पड़ा था। बाल बिखरे हुए, कपड़े गंदे और फटे, पैरों में टूटी चप्पलें, शरीर पर खरोंचों के निशान। लोग आते-जाते रहे—कुछ ने देखा, कुछ ने नहीं। किसी ने मुंह बनाकर कहा, “नशेड़ी होगा, बेघर है, पड़े रहने दो।” किसी ने नहीं पूछा—अगर यह मेरे पिता होते, तो क्या मैं भी यूं ही निकल जाता?

दोपहर की गर्मी बढ़ती जा रही थी, लेकिन उस आदमी का शरीर अब भी ठंडा था। तभी वहां से गुजर रहा था नया-नया भर्ती हुआ सिपाही, कांस्टेबल अर्जुन। उसने बुजुर्ग की हालत देखी, पल भर को रुका, फिर आगे बढ़ गया। लेकिन दो कदम बाद जैसे दिल ने आवाज दी—वापस आया। धीरे से झुका, बुजुर्ग की नब्ज़ टटोली, “सर, सुन पा रहे हैं?” हल्के से आवाज दी। कोई जवाब नहीं। भीड़ अब भी गुजर रही थी, लेकिन अर्जुन अब वहां अकेला खड़ा था।

उसने तुरंत वायरलेस पर मैसेज किया, “कंट्रोल, एक अनजान बेहोश पुरुष मिला है, सिग्नल 17 के पास, कोई आईडी नहीं, एंबुलेंस चाहिए।” थोड़ी देर में अर्जुन, एक ऑटो की मदद से, उस बुजुर्ग को थाने ले आया। पुलिस स्टेशन के पुराने कमरे में उसे तख्त पर लिटाया गया। एसओ ने देखा और मुस्कराते हुए कहा, “अर्जुन, तू हर बार किसी को उठा लाता है, कभी कोई झगड़े का केस भी लाया कर।” अर्जुन बोला, “सर, इसे नजरअंदाज नहीं कर पाया।”

बुजुर्ग की जेबें टटोली गईं—कोई पहचान पत्र नहीं, न मोबाइल, न बटुआ। बस एक पुराना थैला और कुर्ते की जेब में एक मुड़ा-तुड़ा कागज। अर्जुन ने वह कागज खोला, पढ़ा, और उसका चेहरा बदल गया।
कागज पर लिखा था—

“बेटा, अगर तू यह पढ़ रहा है, तो उम्मीद है तू खुश है। मैं कभी तेरे लिए बोझ नहीं बनना चाहता था, इसलिए खुद ही चला गया। याद है, बारिश में तू भीगता था, तो मैं तुझे शॉल में लपेटता था। अब जब भी बारिश होती है, मैं ऊपर देखता हूं और दुआ करता हूं कि तू कहीं सूखा बैठा हो।
मैं वहीं बैठा हूं, स्टेशन के उसी पुराने बेंच पर, जहां तू बचपन में मुझे खाने का डब्बा देने आता था।

पापा”

कमरे में सन्नाटा छा गया। एसओ ने चश्मा उतारा, आंखें नम थीं। वह बोले, “यह आदमी कोई भिखारी नहीं है, यह बाप है, जो अपने बेटे का इंतजार कर रहा है।” अर्जुन कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “सर, मैं उस बेंच पर जाता हूं, जो उसने चिट्ठी में लिखा है।” एसओ ने सिर हिलाया, “जा बेटा, कभी-कभी एक चिट्ठी पूरी जिंदगी की कहानी बयां कर देती है।”

बारिश अब तेज हो चुकी थी। स्टेशन के पीछे पुराने लोहे के बेंच थे, अब वीरान। वहीं एक बेंच पर वह बुजुर्ग बैठा था—कमजोर शरीर, भीगे फटे कपड़े, गीली दाढ़ी से टपकती बूंदें, हाथों में एक पुराना, हल्का सा भीग चुका फोटो। अर्जुन ने फोटो देखी—एक बच्चा अपने पिता की गोद में मुस्कुरा रहा था। कौन था वह बच्चा? पता नहीं। लेकिन पापा का चेहरा वही था, जो उस बेंच पर बैठा था।

अर्जुन पास गया, जमीन पर बैठ गया, “बाबा, आप यहीं रहते हो क्या?” बुजुर्ग ने नजर उठाई, मुस्कुराए, “नहीं बेटा, मैं तो बस अपने बेटे का इंतजार कर रहा हूं, वो कभी तो आएगा।” अर्जुन का गला भर आया, “आपका नाम क्या है बाबा?” बुजुर्ग बोले, “नाम क्या बताऊं बेटा, अब तो लोग बस भिखारी कहकर आगे निकल जाते हैं।” अर्जुन ने जेब से वही चिट्ठी निकाली, “बाबा, यह चिट्ठी आपने ही लिखी है ना?” बुजुर्ग की आंखें फैल गईं, “यह कहां से मिली बेटा? यह तो मैंने सालों पहले रख दी थी।”

अर्जुन ने उनका हाथ पकड़ा, “बाबा, आप मेरे साथ चलो, सब ठीक होगा।” बुजुर्ग कांपते हाथों से फोटो जेब में रखते हुए बोले, “पर बेटा, अगर मेरा बेटा मुझे पहचान ही ना पाए तो?” अर्जुन ने उनकी पीठ पर हाथ रखा, “सब ठीक होगा।”

थाने में लाया गया। एसओ ने खुद कुर्सी पर बैठाया, चाय मंगवाई। अर्जुन से पूछा, “अब क्या करें अर्जुन? ना आईडी, ना नंबर, ना नाम।” अर्जुन बोला, “सर, मैं इस चिट्ठी और फोटो की कॉपी सोशल मीडिया पर डालता हूं, शायद कोई पहचान ले।”
पोस्ट तैयार हुई—”क्या आप इस आदमी को पहचानते हैं? एक बूढ़ा बाप अपने बेटे के इंतजार में स्टेशन के उसी बेंच पर बैठा है, जिसे वह सालों पहले छोड़ आया था।”

कुछ ही देर में पोस्ट वायरल हो गई। कमेंट्स आने लगे—”दिल तोड़ देने वाली कहानी”, “काश मैं अपने पापा से ऐसा ना करूं”… और फिर एक कमेंट—
“यह मेरे पापा हैं। मैं रास्ते में हूं। मुझे माफ कर दीजिए।”

थाने में सन्नाटा छा गया। अर्जुन ने नंबर ट्रेस किया—”सर, यह रोहित वर्मा है, शहर का बड़ा बिजनेसमैन, एमजी रोड पर उसका ऑफिस है।”
सब हैरान। “जिसे हम सुबह भिखारी समझ रहे थे, वह एक नामी बिजनेसमैन का बाप है!”

करीब 40 मिनट बाद थाने के बाहर एक चमचमाती SUV रुकी। सूट में एक युवक, कांपते हाथ, आंखों में आंसू, भागता हुआ अंदर आया—”पापा!”
बुजुर्ग ने जैसे ही आवाज सुनी, चाय का कप गिर गया। “रोहित?”
“हां पापा, मैं हूं, मैं आ गया हूं!”
लड़का उनके पैरों में गिर गया, फूट-फूट कर रोने लगा—”माफ कर दो पापा, मैं समझा ही नहीं, आपको ढूंढा… बहुत ढूंढा… आपने क्यों छोड़ दिया मुझे?”
बुजुर्ग की आंखों से भी आंसू बह निकले, “क्योंकि मैं बोझ नहीं बनना चाहता था बेटा, तेरा करियर शुरू हो रहा था, तेरे ससुराल वाले मुझे पसंद नहीं करते थे, सोचा चला जाऊं, तू खुश रहेगा।”

पूरा थाना चुप था। कुछ कांस्टेबल चुपचाप मुंह फेरकर आंसू पोंछ रहे थे।
रोहित ने अपने पापा का हाथ थाम लिया—”बोझ नहीं थे आप, मेरी जान थे। आज मैं जो भी हूं, आपकी वजह से हूं। आपको खुद से अलग करके मैं अधूरा हो गया था पापा।”

बुजुर्ग हँसे, रोते हुए बोले, “तू अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है, लेकिन तू अब भी वही मेरा रोताधोता रोहित है।”
फिर अचानक बुजुर्ग थोड़ा बेहोश से लगे, डॉक्टर को बुलाया गया, अस्पताल ले जाया गया।
डॉक्टर ने कहा, “डिहाइड्रेशन और कमजोरी है, लेकिन अब खतरे से बाहर हैं।”
बुजुर्ग की आंखें खुली, पास बैठा रोहित उनका हाथ पकड़ चुका था—”अब कभी मत छोड़ना मुझे पापा।”

यह कहानी हमें सिखाती है—कभी किसी को उसके कपड़ों, हालात या मजबूरी से मत आंकिए। हर बुजुर्ग के पास एक कहानी है, हर पिता अपने बेटे का इंतजार करता है। और कभी—कभी एक चिट्ठी पूरी जिंदगी बदल देती है।