SP ऑफिस में जैसे ही बुजुर्ग महिला पहुंची। साहब कुर्सी छोड़ खड़े हो गए|
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एसपी ऑफिस में जैसे ही बुजुर्ग महिला पहुंची, साहब कुर्सी छोड़ खड़े हो गए – एक भावुक कहानी
सुबह के 10 बजे थे। शहर के एसपी ऑफिस के बाहर रोज़ की तरह हलचल थी। पुलिसकर्मी ड्यूटी पर तैनात थे, और लोग अपनी-अपनी शिकायतें लेकर लाइन में लगे हुए थे। इसी भीड़ में एक बुजुर्ग महिला नंगे पांव, फटे पुराने कपड़ों में, कांपती चाल से ऑफिस की सीढ़ियां चढ़ रही थी। उसकी उम्र साठ के पार थी, चेहरा झुर्रियों से भरा, आंखों में गहरी उदासी, और एक हाथ में फटा हुआ थैला था। दूसरे हाथ से वह दीवार का सहारा लेकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। हर कदम पर उसकी थकान साफ झलक रही थी।
ऑफिस के गेट पर पहुंचकर उसने एक युवा कांस्टेबल से कांपती आवाज़ में कहा, “बेटा, मुझे एक रिपोर्ट लिखवानी है।” कांस्टेबल ने बिना उसकी ओर देखे रूखेपन से जवाब दिया, “माताजी, यहां रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, नजदीकी थाने जाइए।” यह सुनकर महिला की आंखों में जो थोड़ी सी उम्मीद थी, वह बुझ गई। वह वहीं ज़मीन पर बैठ गई, उसके आंसू बहने लगे। वह फूट-फूट कर रोने लगी, “कोई मेरी सुनता नहीं, मैं कहां जाऊं?” उसकी बेबसी देख वहां मौजूद कुछ लोग भी भावुक हो गए।
इसी बीच, एसपी विक्रम सिंह अपने केबिन में बैठे फाइलें देख रहे थे। वह 35 साल के एक संवेदनशील और ईमानदार अधिकारी थे। अचानक उनकी नजर खिड़की से बाहर पड़ी। उन्होंने देखा कि एक बुजुर्ग महिला जमीन पर बैठी रो रही है। विक्रम का दिल पसीज गया। उन्हें अपनी मां की याद आ गई। उन्होंने तुरंत अपनी डेस्क पर घंटी बजाई। असिस्टेंट आया तो विक्रम ने पूछा, “बाहर वो महिला कौन है? क्यों रो रही है?” असिस्टेंट ने बताया, “साहब, रिपोर्ट लिखवाने आई थी, कांस्टेबल ने मना कर दिया, अब रो रही है।”
विक्रम ने तुरंत आदेश दिया, “उसे मेरे केबिन में लाओ।” कांस्टेबल महिला को लेकर केबिन में आया। महिला सहमी हुई थी, उसकी आंखों में डर और संकोच था। विक्रम अपनी कुर्सी छोड़कर तेजी से उसकी ओर बढ़े, उनके चेहरे पर अधिकारी का रौब नहीं, बल्कि बेटे जैसा अपनापन था। उन्होंने महिला को सहारा देकर सोफे पर बैठाया और नरम आवाज़ में पूछा, “मां जी, आप इतनी परेशान क्यों हैं? क्या हुआ?” असिस्टेंट ने पानी लाकर दिया। महिला ने कांपते हाथों से पानी पिया, फिर हिम्मत जुटाकर बोली, “बेटा, बाजार गई थी, किसी ने मेरा थैला चुरा लिया। उसमें मेरे बीमार पति की दवाइयां और कुछ पैसे थे। थाने गई थी, दरोगा ने भगा दिया। अब यहां आई हूं, शायद कोई मेरी सुन ले।”
विक्रम का चेहरा गंभीर हो गया। उन्हें उस दरोगा पर गुस्सा आया जिसने महिला की मदद नहीं की। उन्होंने पूछा, “आपके पति कहां हैं?” महिला की आंखों में फिर उदासी छा गई, “वृद्धाश्रम में रहते हैं, बहुत बीमार हैं, पैसे की कमी है, इलाज नहीं हो पा रहा।” उसने अपना नाम बताया, “मेरा नाम शांता है, पति का नाम रामकिशन।” शांता का नाम सुनते ही विक्रम के शरीर में एक अजीब सी बेचैनी दौड़ गई। उन्होंने कांपती आवाज़ में पूछा, “मां जी, आपके पैर में बचपन में कोई चोट लगी थी?” शांता हैरान रह गई, “हां बेटा, लेकिन तुम्हें कैसे पता?”
विक्रम की आंखों में आंसू आ गए। उन्हें अपने बचपन की याद आ गई, जब उनकी मां के पैर में चोट लगी थी। उन्होंने खुद को संभाला और पूछा, “मां जी, आपका कोई बेटा है?” शांता की आंखें नम हो गई, “था बेटा, बहुत साल पहले एक रेल हादसे में बिछड़ गए।” विक्रम की आंखों में आंसू छलक आए, वह धीरे-धीरे आगे बढ़े और बोले, “मां जी, आप मुझे पहचानती हैं?” शांता ने विक्रम की आंखों में देखा, समय जैसे थम गया। “तू मेरा विक्रम है?” विक्रम ने आगे बढ़कर शांता के हाथ थाम लिए, “हां मां, मैं ही हूं, आपका बेटा।”
शांता का शरीर कांपने लगा, दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। कमरे में मौजूद सभी लोग भावुक हो गए। बरसों की जुदाई के बाद मां-बेटा फिर मिले थे। विक्रम ने मां को गले लगाया, “मां, आप कहां चली गई थीं? उस रात के बाद आप कभी नहीं मिलीं।” शांता ने कांपती आवाज़ में बताया, “रेल हादसे की रात हम बिछड़ गए, मैं घायल हो गई, अस्पताल में रही, फिर वृद्धाश्रम चली गई। तुम्हारे चाचा ने हमारी सारी संपत्ति हड़प ली, हमें घर से निकाल दिया। तुम्हारे बाबा बीमार हो गए, मजबूरी में वृद्धाश्रम जाना पड़ा।”
विक्रम का खून खौल उठा। उसने मां को भरोसा दिलाया, “अब सबका हिसाब होगा, जिसने भी आपको तकलीफ दी, उसे कानून के कटघरे में खड़ा करूंगा। अब आप अकेली नहीं हैं, आपका बेटा आपके साथ है।” विक्रम ने मां को अपने सरकारी बंगले पर लाने का फैसला किया। वह मां को वृद्धाश्रम ले गए, पिता रामकिशन बेहद बीमार थे। विक्रम ने पिता के पैर छुए, “बाबा, मैं विक्रम, आपका बेटा।” रामकिशन की आंखों में आंसू आ गए, “मेरा बेटा जिंदा है।” तीनों एक-दूसरे से लिपट कर रोने लगे।
विक्रम ने मां-पिता को अपने घर ले आया। पत्नी मीरा ने दोनों का स्वागत किया, पूरे सम्मान से पैर छुए। घर में खुशियों की लहर दौड़ गई। अब विक्रम का अगला कदम था, उन लोगों को सजा दिलाना जिन्होंने उनके परिवार के साथ अन्याय किया। उन्होंने दरोगा रमेश कुमार को सस्पेंड कर विभागीय जांच शुरू करवाई। चाचा राम प्रसाद के खिलाफ धोखाधड़ी और जालसाजी का मुकदमा दर्ज करवाया, सारी संपत्ति वापस दिलाई। राम प्रसाद को जेल हुई, रमेश कुमार की नौकरी छिन गई।
विक्रम की ईमानदारी और न्यायप्रियता की चर्चा पूरे राज्य में होने लगी। मुख्यमंत्री ने उन्हें सम्मानित किया। विक्रम ने समाज के बुजुर्गों के लिए अभियान शुरू किया—“सम्मान सबके लिए।” उन्होंने वृद्धाश्रमों का दौरा किया, बुजुर्गों की समस्याएं सुनीं, और सरकार से सख्त कानूनों की मांग की। उनकी पहल से कई परिवार फिर से जुड़े, समाज में बुजुर्गों के प्रति जागरूकता बढ़ी।
एक रात विक्रम अपने मां-बाप और पत्नी के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठा था। शांता ने विक्रम के सिर पर हाथ फेरा, “बेटा, तूने हमें फिर से जिंदगी दी।” विक्रम की आंखों में सुकून था। अब उनका परिवार पूरा था। बरसों का दर्द खत्म हो चुका था। विक्रम ने साबित किया कि न्याय की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती, और मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि प्यार, उम्मीद और इंसाफ की ताकत से हर अंधेरा मिटाया जा सकता है।
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