शेर की गवाही: किसान अब्दुल्लाह की दास्तान

रहमतपुर की सुबह

रहमतपुर गांव की सुबहें हमेशा धीमी होती थीं। सूरज की किरणें जैसे धीरे-धीरे खेतों की मिट्टी पर रेंगती थीं, मानो दिन भी इस गांव में आने से डरता हो। गांव के एक कोने में कच्चा सा घर था, जिसके आंगन में मिट्टी की खुशबू हर वक्त बसी रहती थी। यही घर था किसान अब्दुल्लाह का—उसकी पत्नी फातिमा और दस साल के बेटे यूसुफ का।

अब्दुल्लाह का दिन खेतों में हल चलाते गुजरता, फातिमा घर के कामों में लगी रहती। लेकिन उनके दिलों में हमेशा एक नाखुशी की लहर रहती। फातिमा को शिकायत थी कि जितनी मेहनत अब्दुल्लाह करता है, उतनी ही गरीबी बढ़ती जाती है। पैसों की कमी उनके घर की फिजा में एक बोझ की तरह लटकती रहती। हर शाम अब्दुल्लाह पसीने में भीगा, थकन से चूर घर लौटता, मगर फातिमा की आंखों में हमेशा खफा सी चमक होती।

एक सुबह, फज्र की नमाज के बाद अब्दुल्लाह ने फातिमा से कहा, “आज दोपहर का खाना खेत में ही ले आना, काम बहुत है, शायद मैं शाम तक वापस ना आ सकूं।” फातिमा ने गुस्से से जवाब दिया, “हां, बस यही रह गया है मेरी जिंदगी में। सारा दिन घर में काम करूं, फिर खेतों में जाकर नखरे भी उठाऊं। ना सुकून है, ना आराम।”

अब्दुल्लाह चुपचाप कंधे पर पुरानी कुदाल रखकर बाहर निकल गया। गांव के सुनसान रास्ते से गुजरते हुए उसके कदम जैसे हर जर्रे को पहचानते थे। वो अपने खेत की तरफ बढ़ रहा था।

भूख, बेबसी और पड़ोस की मदद

फातिमा ने जैसे ही हांडी चढ़ाने का इरादा किया, हाथ रुक गए। मिट्टी के बर्तन में झांका तो अनाज का आखिरी दाना भी खत्म हो चुका था। दिल डूब गया। पेट की आग और खाली बर्तन की ठंडक ने मिलकर एक अजीब सा बोझ उसके दिल पर रख दिया। यूसुफ की मासूम आवाज आई, “अम्मा, भूख लग रही है। खाना दो ना।”

फातिमा ने बासी रोटी का टुकड़ा पानी में भिगोकर बेटे के सामने रख दिया। बच्चा भूखा था, उसने चुपचाप खाना शुरू कर दिया। फातिमा का दिल आंसुओं से भर गया। “क्या जिंदगी है?” वो सोचने लगी। लेकिन शौहर के लिए खाना तो लेकर जाना ही है, वरना शाम तक खाली पेट काम करेगा।

वो पड़ोस के दरवाजे पर गई। पड़ोसी महिला ने मुस्कुरा कर कहा, “आओ बहन, अंदर आ जाओ।” फातिमा ने आंसू भरी आवाज में कहा, “तुम कितनी खुशकिस्मत हो। तुम्हारे घर में सब कुछ है। और एक मैं हूं, एक वक्त की रोटी के लिए तरसना पड़ता है। बेटे का पेट बासी रोटी और पानी से भरना पड़ा। लगता है सारी जिंदगी ऐसे ही गुजर जाएगी।”

महिला ने नरमी से कहा, “बहन, परेशान ना हो। यह भी तुम्हारा ही घर है। जो चाहिए, बिला झिझक ले लो।” फातिमा ने अनाज लेते हुए कहा, “इस बार जो बारिशें हुईं, हमारी पूरी फसल खराब हो गई। बस गुजारा मुश्किल से हो रहा है।”

महिला ने समझाया, “हमने फसल के साथ सब्जियां भी लगानी शुरू की है। अब गांव के बहुत से किसान यही कर रहे हैं, सब्जी में ज्यादा मुनाफा है।” फातिमा ने तल्खी से कहा, “देखो ना, सब लोग अपने खेत में सब्जियां लगा रहे हैं, मगर मेरा शौहर बस एक बुद्धू और नासमझ है। उसे तो पता ही नहीं कि आसपास क्या हो रहा है।”

अनाज लेकर फातिमा घर लौटी, खाना पकाया और खेतों की ओर चल दी।

खेत, सब्जी और बारिश का कहर

खेत पहुंची तो अब्दुल्लाह मिट्टी उलट रहा था। फातिमा ने तेज आवाज में कहा, “ओए, तुझे कुछ मालूम भी है? पूरा गांव सब्जियां उगा रहा है, और तुम अभी भी पुरानी फसल में लगे हो।”

अब्दुल्लाह ने प्यार से कहा, “हर किसी का रास्ता एक जैसा नहीं होता। अगर सभी सब्जियां उगाने लगेंगे, तो फसल कौन उगाएगा?”

फातिमा ने गुस्से से कहा, “मुझे नहीं मालूम, मुझे हर हाल में इस बार सब्जी ही चाहिए। सुबह शहर से जाकर बीज लेकर आओ।” गुस्से में वापस चली गई। अब्दुल्लाह दिल ही दिल में टूटता जा रहा था।

कुछ दिनों में उसने दूसरों के खेतों में पानी लगाया, मजदूरी की, थोड़े पैसे जमा किए। पैसे बीवी को दिए, मगर फातिमा बोली, “मुझे नहीं चाहिए राशन, भूखी रह लूंगी। लेकिन सब्जी के बीज लेकर आओ।”

अब्दुल्लाह खामोशी से बात मान गया। अगले दिन शहर गया, बीज खरीदे, खेत में लगाया। दिन गुजरने लगे, पौधे बढ़ने लगे, उम्मीद जागी कि शायद इस बार किस्मत बदल जाए। लेकिन जब सब्जियां तैयार होने में बस चंद दिन बाकी थे, अचानक आसमान पर स्याह बादल छा गए। जोरदार बारिश शुरू हो गई।

बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। जब बादल हटे, दोनों खेत पहुंचे, तो सब्जियां पानी में डूब कर सड़ चुकी थीं। फातिमा बोली, “अरे यह बारिश भी अभी बरसनी थी। हमारी सारी मेहनत बर्बाद हो गई।” अब्दुल्लाह ने दुखी होकर कहा, “मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था कि सब्जी के बजाय फसल रहने देते। अब देख लो, खाने के लाले पड़ गए हैं।”

हार, हिम्मत और शहर की मजदूरी

अब्दुल्लाह की हालत बिगड़ती जा रही थी। बीवी किसी के घर काम करके रोटी लाती, बच्चा चुपचाप खा लेता। अब्दुल्लाह मगर चुप रहने वाला आदमी नहीं था, मगर इस बार उसकी खामोशी उसकी हिम्मत को खाए जा रही थी।

एक दिन वह खेत के सामने मिट्टी पर बैठा था। नजरें बर्बाद जमीन पर जमी थीं। तभी एक आदमी आया, “यार, परेशान होने से कुछ नहीं बनेगा। मैं तुम्हें रोज यहां आते देखता हूं। बस खेत को घूरते रहते हो। हिम्मत करो, कुछ और करने की कोशिश करो।”

अब्दुल्लाह ने कहा, “बारिश के बाद नुकसान हुआ, अब गांव के हर एक का मोहताज हूं। कर्जे इतने हैं कि गिनती भूल गया हूं। घर में एक वक्त का खाना भी नहीं। ऊपर से लोग कर्ज वापस मांगने आते हैं।”

आदमी ने कहा, “कुछ दिन के लिए शहर चले जाओ। मजदूरी करो, मेहनत से पैसे जमा करो। जब जेब में कुछ आ जाए, तब वापस आकर खेत संभाल लेना। अल्लाह इंसान को आजमाता है, सब्र और कोशिश करो, कामयाब हो जाओगे।”

अब्दुल्लाह ने सर हिलाया, “शायद तुम ठीक कह रहे हो।”

शहर की मेहनत, उम्मीद का उजाला

अगले ही दिन अब्दुल्लाह शहर चला गया। एक दुकान पर काम मिला। ईमानदारी से दिन-रात काम करने लगा। हर पैसा संभाल कर रखता। दो महीने गुजर गए। एक दिन दुकान का मालिक बोला, “तुम्हें दो महीने हो गए हैं, क्या घर जाने को दिल नहीं करता?”

अब्दुल्लाह ने कहा, “दिल तो बहुत करता है, मेरा दस साल का बेटा है, उसे देखने को तरस गया हूं। मगर मजबूरी है, पैसा जोड़ रहा हूं ताकि खेतों में दोबारा काम कर सकूं।”

मालिक ने एक थैले में रकम दी, “यह लो, वापस जाओ और अपने खेतों में काम शुरू करो।”

अब्दुल्लाह ने बाजार से बीवी-बेटे के लिए सामान खरीदा। मालिक ने समझाया, “ध्यान से जाना, रास्ते में डाकू और लुटेरे बहुत खतरा है।”

जंगल, शेर और डाकुओं का मुकाबला

रास्ते में जंगल से गुजरते हुए अचानक एक जोर की दहाड़ सुनाई दी। अब्दुल्लाह आवाज का पीछा करता हुआ जंगल के अंदर गया। एक बड़े दरख्त के पास उसकी नजर एक शेर पर पड़ी, जिसकी टांग घायल थी और वह लंगड़ाते हुए चल रहा था। खून बह रहा था, मगर आंखों में वही बादशाहत।

शेर आगे बढ़ा, जैसे किसी तरफ ले जाना चाहता हो। अब्दुल्लाह उसके पीछे चला। जंगल के बीचोंबीच एक बुजुर्ग को डाकुओं ने घेर रखा था। उनके हाथों में तलवारें थीं। डाकू बोले, “पैसे कहां हैं?”

बुजुर्ग ने कहा, “मेरे पास कुछ नहीं। मैं जंगल में इबादत करता हूं।”

डाकुओं ने वार करने की कोशिश की। अब्दुल्लाह ने दहाड़ मारी, “क्या तुम इंसान हो? एक नेक बुजुर्ग की जान लेने पर तुले हो?”

डाकू बोले, “हम जंगल के सबसे खूंखार डाकू हैं, तेरी जान की फिक्र नहीं।”

अब्दुल्लाह ने कहा, “तुम ताकत का गलत इस्तेमाल करते हो, कमजोरों पर जुल्म ढाते हो।”

डाकू बोले, “पहले इसी को ठिकाने लगाते हैं।”

तभी वही जख्मी शेर दहाड़ता हुआ आया। उसकी दहाड़ ने जंगल की खामोशी चीर दी। शेर ने एक डाकू को पंजा मारकर गिरा दिया, बाकी डाकू भागने लगे। शेर ने सरदार डाकू को भी गिरा दिया। चंद लम्हों में डाकू भाग गए।

बुजुर्ग ने अब्दुल्लाह को सहारा देकर उठाया, “बेटा, डाकू तुमसे सब कुछ छीन कर ले गए।”

अब्दुल्लाह ने मुस्कुराकर कहा, “पैसों का क्या है? जिंदगी बाकी हो तो रज़्क फिर आ ही जाता है। मगर आपकी जान पैसे से कहीं ज्यादा कीमती थी।”

बुजुर्ग की रहमत, पोटली और बरकत

बुजुर्ग ने गहरी सांस ली, “बेटा, थोड़ी देर पहले एक शख्स यहां आया था, उसके पास बहुत सारी दौलत थी। उसने कहा, मेरे पीछे खतरनाक लोग लगे हैं, यह पैसा आपके पास अमानत रखता हूं। मेरी चार बेटियां हैं, मैं इन पैसों से उनकी शादियां करना चाहता हूं।”

बुजुर्ग बोले, “वो पैसा मेरा नहीं, एक गरीब बाप की अमानत है। डाकुओं को शायद पता चल गया था, इसीलिए मेरे पीछे पड़े थे। मैं अपनी जान दे सकता था, मगर अमानत में खयानत नहीं कर सकता।”

फिर बुजुर्ग ने अपनी झोली से एक छोटी सी पोटली निकाली, अब्दुल्लाह के हाथ में दी, “इसे अपने गांव ले जाओ, खेत में दबा दो। अल्लाह के हुक्म से उस जमीन में ऐसी बरकत उतरेगी कि फसल कभी खराब ना होगी।”

अब्दुल्लाह ने पोटली को माथे से लगाया, जख्मी शेर को प्यार किया, “अगर जिंदगी रही तो फिर मुलाकात होगी।”

घर वापसी, बरकत और खुशहाली

गांव पहुंचकर अब्दुल्लाह ने फातिमा को सारा वाकया सुनाया। फातिमा मुस्कुराई, “अच्छा, इसका मतलब हमारे अच्छे दिन आने वाले हैं।”

अब्दुल्लाह ने इत्मीनान से कहा, “अब हमें अल्लाह की रहमत का इंतजार है।” अगले दिन बाजार गया, ताजा सब्जियों के बीज खरीदे, खेत में बो दिए। पोटली को खेत के बीचोंबीच दबा दिया।

चंद महीनों में खेत में जिंदगी की बहार आ गई। फसल इतनी ज्यादा हुई कि अब्दुल्लाह ने सारा कर्ज चुका दिया। घर में खुशियां लौट आईं। फातिमा ने कहा, “अब हमारे पास पैसा है, क्यों ना कच्चा मकान तोड़कर पक्का घर बना लें?” अब्दुल्लाह ने बात मान ली, शानदार घर बन गया।

अब्दुल्लाह गांव के गरीबों, यतीमों और जरूरतमंदों की मदद करने लगा। उसकी शोहरत दूर-दूर तक फैल गई।

बादशाह की ईर्ष्या, दरबार और राज का खुलासा

एक दिन बादशाह ने सिपाहियों को भेजा, “उस किसान को दरबार में हाजिर करो।”

अब्दुल्लाह दरबार पहुंचा, बादशाह ने कहा, “तुम्हारे पास ऐसा क्या है कि इतना खजाना आ गया? कैसे मेरे बराबर आ खड़ा हुआ?”

अब्दुल्लाह ने नजरें झुका ली। वजीर बोला, “इसके पास कोई चीज है जो खेत में छुपाई हुई है।”

बादशाह ने कहा, “अगर सच ना बताया, तो बीवी-बच्चे को कैद कर लूंगा।”

अब्दुल्लाह बोला, “आपको मेरे खेत तक आना होगा।”

शाही काफिला खेत पहुंचा, पोटली बरामद हुई। बादशाह ने पोटली अपने पास रख ली, “अब यह मेरे पास रहेगी, ताकि मेरा खजाना बढ़ जाए।”

फातिमा ने कहा, “यह पोटली तो हमारे लिए अल्लाह की नेमत थी। अब हम फिर से गरीब हो जाएंगे।”

अब्दुल्लाह ने तसल्ली दी, “सब कुछ अल्लाह के हाथ में है।”

बादशाह का नुकसान, इंसाफ की तलाश

अगले ही दिन बादशाह के महल में हलचल मच गई। खजाने का कमरा खाली था। सोने के सिक्कों की बोरियां गायब, हीरे-जवाहरात का कोई निशान ना था। वजीर बोला, “जहांपनाह, सारा खजाना लूट लिया गया।”

अब्दुल्लाह के घर खबर पहुंची, फातिमा ने कहा, “देखा अल्लाह की कुदरत, बादशाह ने हमसे पोटली छीन ली थी, मगर अल्लाह ने उससे जो अपना था वो भी छीन लिया।”

अब्दुल्लाह बोला, “किसी के नुकसान पर खुश नहीं होना चाहिए, चाहे बादशाह ही क्यों ना हो।”

बादशाह ने सिपाहियों को भेजा, “किसान को पकड़ कर लाओ।” अब्दुल्लाह महल पहुंचा, बादशाह ने पूछा, “इस पोटली की हकीकत क्या है? इसमें क्या जादू है?”

अब्दुल्लाह ने सब सच बता दिया, मगर बादशाह को यकीन ना आया। उसने सिपाहियों से कहा, “इसके सारे खेत अपने कब्जे में कर लो।”

अब्दुल्लाह रोता हुआ घर लौटा, फातिमा से कहा, “मैं फिर शहर जाकर मजदूरी करूंगा। तुम अपना ख्याल रखना।”

शहर, बूढ़िया और नए संघर्ष

कई दिनों के सफर के बाद अब्दुल्लाह शहर पहुंचा। दुकान नहीं थी, मालिक गायब। जगह सुनसान थी। हिम्मत ना हारी। चंद दिन काम की तलाश में लगा रहा। एक दिन किस्मत ने मेहरबानी की। एक गली में बूढ़िया मिली, जिसके पास बेशुमार गाय-भैंस थीं। उसने अब्दुल्लाह को काम पर रख लिया।

अब्दुल्लाह ने साल भर मेहनत की, अच्छी रकम जमा कर ली। बूढ़िया ने कहा, “अगर बादशाह ने फिर सजा दी, तो बीवी-बच्चे को यहीं ले आना।” अब्दुल्लाह बोला, “गांव को हमेशा के लिए नहीं छोड़ सकता।”

जंगल का डर, डाकू बिलाल खान और शेर की गवाही

एक दिन जंगल से गुजरते हुए, डाकू बिलाल खान ने अब्दुल्लाह को लूट लिया, रकम छीन ली, मारने लगा। अब्दुल्लाह ने मदद के लिए चीखा, मगर आवाज जंगल में गुम हो गई। बिलाल खान ने छुरा उसकी गर्दन पर रखा, “जो कुछ है, दे दे।”

अब्दुल्लाह ने थैला आगे बढ़ाया, “बस मुझे जाने दो। मेरी बीवी-बच्चे एक साल से मेरा इंतजार कर रहे हैं।”

बिलाल खान ने रकम ले ली, मगर रहम ना आया। जमीन पर पटका, छुरा उठाया ही था कि जख्मी शेर दहाड़ता हुआ आया। शेर ने बिलाल खान को गिरा दिया।

अब्दुल्लाह ने खून भरी आंखों से शेर की तरफ देखा, “शेर, तुम गवाह रहना। इस जालिम ने मुझ पर बहुत जुल्म किया है।”

बिलाल खान हंसा, “अल्लाह की मखलूक तू भी गवाही दे लेना।”

फिर बिलाल खान ने छुरा उठाया, अब्दुल्लाह के सीने पर वार करने लगा। अब्दुल्लाह वही जमीन पर ढेर हो गया। बिलाल खान रकम लेकर भाग गया।

यूसुफ की तलाश, मां की दुआ और गवाही का चमत्कार

अब्दुल्लाह की बीवी फातिमा और बेटा यूसुफ बाप के आने का इंतजार करते। महीने गुजर गए। एक दिन यूसुफ ने कहा, “अम्मा, मैं खुद जाकर देखूंगा कि अब्बा कहां रुक गए हैं।” मां ने रोका, मगर यूसुफ ना माना।

सफर करते-करते वह शहर पहुंचा। बूढ़िया के बेटे से मिला, जिसने बताया कि अब्दुल्लाह को डाकू बिलाल खान ने लूट कर कत्ल कर दिया था। यूसुफ बाप की कब्र पर पहुंचा, रोते-रोते वादा किया, “अब्बा जान, मैं आपके खून का हिसाब जरूर लूंगा।”

वो महल गया, बादशाह के सामने गिर पड़ा, रोते हुए सारा वाकया सुनाया। बादशाह बोला, “बेटा, गवाह के बिना कानून कुछ नहीं कर सकता।” यूसुफ मायूस घर लौटा।

मां ने दोनों हाथ उठाकर दुआ मांगी, “हे अल्लाह, जिस संगदिल ने मेरे शौहर की मेहनत छीनी और उसे नाहक मारा, तू खुद उसका हिसाब ले।”

शेर की गवाही, इंसाफ और सच्चाई की जीत

अगले दिन यूसुफ फिर शहर गया, मस्जिद में रो रहा था। इमाम साहब ने तसल्ली दी, “जंगल में एक अल्लाह वाले बुजुर्ग हैं, उनकी दुआ में तासीर है।” यूसुफ बुजुर्ग के पास पहुंचा। बुजुर्ग बोले, “जालिम ने गवाह ना छोड़ा हो, मगर अल्लाह ने एक गवाह जरूर छोड़ा है। सब्र कर, वो दिन दूर नहीं जब जालिम पकड़ा जाएगा।”

उधर बिलाल खान दौलत के नशे में मस्त था। एक दिन उसे बादशाह की दावत का पैगाम मिला। दावत में जब खाना खोला गया, तो एक जख्मी शेर का बच्चा मौजूद था। बिलाल खान ने देखा, पसीना छूट गया। उसे लगा जैसे वही शेर उसे घूर रहा हो।

अल्लाह की कुदरत से शेर बोल उठा, “मैंने अपनी आंखों से देखा, यही बिलाल खान ने एक बेबस किसान को लूटा, उसकी मेहनत छीनी और बेदर्दी से कत्ल कर डाला। मरते वक्त उस किसान ने कहा था, ‘शेर, तुम गवाह रहना।’ आज मैं सबके सामने गवाही देता हूं कि यही उसका कातिल है।”

बुजुर्ग बोले, “अल्लाह की कुदरत कामिल है। उसने एक जानवर को जुबान देकर जुल्म का पर्दा चाक कर दिया। अब बादशाह पर लाजिम है कि इंसाफ करें।”

यूसुफ की आंखों से सुकून के आंसू बह निकले। बादशाह ने हुक्म दिया, “बिलाल खान को गिरफ्तार करो। कल शहर के चौराहे पर उसे फांसी दी जाएगी। उसकी सारी दौलत यूसुफ और उसकी मां को दे दी जाए, क्योंकि असल हकदार यही हैं।”

इंसाफ, सब्र और अल्लाह की रहमत

अगले दिन चौक लोगों से भरा था। बिलाल खान जंजीरों में जकड़ा लाया गया। बादशाह ने ऐलान किया, “यह है अंजाम उस शख्स का जो मासूम का खून बहाए और रज़्क लूटे।”

सजा के बाद यूसुफ और उसकी मां गांव वापस आए। मां ने बेटे को गले लगाया। दोनों की आंखों में आंसू थे, मगर अब यह सुकून के आंसू थे।

इस कहानी से सबक मिला कि जुल्म कभी देर पा नहीं होता। सच्चाई एक दिन जरूर सामने आती है। सब्र, हिम्मत और नेक नियत इंसान को मंजिल तक पहुंचा देती है, जबकि लालच और हिरस इंसान को बर्बादी में गिरा देती है। अल्लाह के फैसले बेहतरीन होते हैं, और वह अपने बंदों का हक जरूर दिलाता है।