पुलिस ने डीएम मैडम को एक स्कूल की लड़की समझकर यहाँ ले आई, फिर क्या हुआ…
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डीएम प्रिया सिंह की आंखों के नीचे मुक्कमल नींद की कमी के गहरे घेरे थे, लेकिन उनके भीतर जो आग जल रही थी, वह किसी को भी बुझा नहीं सकती थी। केंद्रीय बाजार का तंग-सा रास्ता धूप में चमक रहा था और दुकानों के कपाट खुलने की खटखट सुनाई दे रही थी। आज का दिन उनके लिए किसी जांच से कम नहीं था, इसलिए उन्होंने चाय का घूंट भरते हुए तय कर लिया कि वे अब और इंतजार नहीं करेंगी। वह कॉलेज स्टूडेंट की सादगी भरी पोशाक में थीं, हाथ में किताबें, कंधे पर बैग, चेहरा बिलकुल नीरस—लेकिन भीतर उनके इरादे लोहे के थे।
पान की दुकान के पास वह पहले से खड़े थानादार विक्रम, होमगार्ड राकेश और सिपाही दीपक को देखती हैं। तीनों आदमियों ने जैसे ही उनकी उपस्थिति महसूस की, चेहरे पर भोला-भाला आकर्षण लाकर मुस्कुराए। विक्रम ने घुबराहट न दिखाते हुए कहा, “कहां इतनी जल्दबाजी, बिटिया?” उसकी आवाज़ में जो ताना था, वह दूर तक गूंज गया। राकेश बगल में खड़े होकर गीली सिगरेट फूंक रहा था और दीपक ताली बजाकर हँसी उड़ाने की कोशिश कर रहा था।
प्रिया ने चुपचाप कदम बढ़ाए, अंदर तक ठनकती हुई, पर आवाज़ में मजबूती बनाए रखी, “मुझे स्कूल पहुंचना है।” विक्रम ने उस हाथ की ओर देखा जिसमें स्कूल की किताबें थीं, फिर वर्दी की ऊँचाई पर निगाह गड़ाई। “तुझे पता भी है ये वर्दी क्या है?” उसकी धौंस ने वातावरण भारी कर दिया। राकेश ने मुस्कुरा कर कहा, “हम यहाँ के मालिक हैं, बिटिया। हमारी मर्जी चलती है।” दीपक बीच में बोल पड़ा, “तू नंबर दे, व्हाट्सएप पर बात करेंगे। पढ़ाई-लिखाई से क्या होगा?”
प्रिया सिंह ने गहरी साँस भरी और आंखों में आग भरते हुए अचानक थप्पड़ जड़ दिया। हवा में तानती हुई आवाज़ गूँजी, “अपनी औकात समझो। एक लड़की को तंग करने का तुम्हें इतना हक़ नहीं!” थप्पड़ की गूँज इतनी तेज थी कि आसपास खड़े दुकानदार, राहगीर, बच्चों ने एक पल के लिए अपना काम रोक दिया और छककर देख लिया। विक्रम का गाल लाल हो गया, वह तिलमिला उठा। “तू जानती क्या है, तू कौन है?” उसने गरजकर पूछा। तवज्जो मिटने का नाम नहीं ले रही थी।
भीड़ बढ़ने लगी। कुछ बुजुर्ग पीछे हट गए तो कुछ दूर-से टिप्पणी करने बैठे कि कोई लड़ाई-झगड़ा हुआ है। प्रिया सिंह ने पर्स से इमरजेंसी अलर्ट बटन दबाया और फिर क़दम पीछे खींच कर शांत मुद्रा बना ली। चारों तरफ़ कराहते बिजली के तारों की तरह रेड अलर्ट चीफ विजय कुमार के रूम में गूंज उठा। विजय ने तुरंत रजनी को फोन लगाया, “रजनी, आमने-सामने इमरजेंसी अलर्ट—केंद्रीय बाजार—डीएम का सिग्नल मिला!”
पंद्रह मिनट में सुरक्षा बल बाजार की तंग गली में दाखिल हुआ। थानेदार विक्रम ने प्रिया को जबरन जीप में धकेलना शुरू कर दिया, लेकिन उनकी बांह के आसपास हाथ की मरोड़ से एक चीख निकल गई। दीपक ने पीछे से थप्पड़ मारे जाने की कहानियाँ तो सुन रखी थीं पर इस तरह के जज़्बे ने उसे चौका दिया। भीड़ मूकदर्शक बनकर खड़ी रह गई, किसी के भीतर उठ रहे सवालों पर कोई आवाज़ न कर पाया क्योंकि हाथ में वर्दी थी और वर्दी के आगे इंसान अक्सर गायब हो जाते हैं।
थाना पहुँचकर प्रिया को एक गंदी, संकरी जेलकक्ष में फेंक दिया गया। वहीं पर दीपक-राकेश-विक्रम ने चाय पीकर मेज पर पैरों को टेका हुआ जश्न मनाया कि “भाग्यशाली थे कि सिपाही से पंगा लिया।” पर न तो उन्हें पता था कि चाय की उस हँसी के बाद कितनी भीषण अग्नि छिपी थी, न ही समझ पाया कि जो लड़की पहने तो स्कूल जैसी पोशाक, पर आत्मबल किसी बहादुर योद्धा से कम नहीं, उसी कक्ष में बंद थी।
एसपी अरविंद कुमार घटनास्थल पर तेज़ी से पहुँचे तो केंद्रीय बाजार थाने की हालत देखकर हैरान रह गए। शोर था, ख़बर पढ़ने को भड़की हुई भीड़, मोबाइल पर वीडियो बनाते नवयुवक, सवाल पूछते बुजुर्ग। इस बीच रजनी ने कलेक्टर राजपाल को अपडेट कर दिया, तो उन्होंने खुद एसपी के साथ वहाँ आकर देखा—डीएम सिंह को गंदी छतरी के नीचे धूल-मिट्टी में खड़ी, चारो ओर पुलिसकर्मी खामोश, कोई भी उनकी मदद को आगे न आया।
जब जेलकक्ष का दरवाज़ा खोलकर एसपी ने भीतर झाँका, तो कनपटी पर तमाशा देखी—डीएम जी बिल्कुल शांत बैठी थीं, ऊपर से सफेद सलवार-चोली में कल्पनाहीन चेहरे के साथ, नीचे चड्डियों जूते भी धुल-धूसरित, पर बगैर किसी शिकन के। अरविंद कुमार ने कांपते कदमों से पूछा, “मॅडम, आप यहां!?” प्रिया ने ब्लैकरी लहजे में उत्तर दिया, “मैं वहीं हूँ जहाँ मेरी लड़कियाँ डरकर नहीं रुक सकती थीं।”
वानर-सी ठिठकी वहाँ तसल्ली सबके भीतर फैल गई। सब कुछ खोलकर सच सामने आ गया—थ्रू हाईकोर्ट शेयर-आर्डर नहीं, सामूहिक दमन का सीधा सबूत था। एसपी ने ताला तोड़कर उन्हें बाहर निकाला, एक गुलज़ार सी राहत थी हर कोण में। उन्होंने तुरंत विक्रम, राकेश, दीपक की पोजीशन बदल दी—निलंबन के जरीये, जेल के कोने से अदालत तक। लिखित में एफआईआर दर्ज हुई, अभियोजन—यौन शोषण, अवैध धमकी, पद का दुरुपयोग।
अगले दिन प्रसाद साहेब की अदालत में पेशी लगी। पुलिस की उस तीनों पर चला आरोप-पुकार का सिलसिला जिस तरह टीवी पर लाइव दिखा, उसे देखकर लोगों की आस्था भी हिल गई—कैसे वर्दी भी किसी की हिम्मत पर से पर्दा नहीं हटा पाती। दलीलें चलीं, गवाही आईं; विक्रम ने बचते हुए कहा कि “ठप कर देता था इजी लालन-पालन वाली, पर थप्पड़ मारने वाली दावा ले आई कि सरकारी अफसर है।” बच्चियाँ, जिनके परिवारों की आवाज दबती रही, एक-एक करके आईं, रोती हुईं, लेकिन सीधा अदालत में बोल गईं कि वे थानेदार की धौंस से लड़कर नहीं डरीं क्योंकि अब सब त्रैलोक्य को पता चल जाएगा।

अंत में जज ने तीनों पर दोषसिद्धि कर दी। विक्रम को दो साल कैद, जुर्माने के साथ सेवा-निलंबन; राकेश और दीपक को एक-एक साल की सजा। कोर्ट ने नोट किया कि पुलिस सिस्टम में जिस भय का वातावरण बना था, वह नए अध्याय लिखने के लिए डीएम सिंह के जज़्बे का ही फल था। मीडिया ने इसे ‘ब्रेव डीएम अंडर कवर’ की मिसाल बताया, सोशल मीडिया पर #JusticeForGirls ट्रेंड हुआ, लोग पैदल-तालियाँ बटोरने लगे।
केंद्रीय बाजार का दृश्य बदल गया। जो दुकानें कभी लड़कियों को तंग करनेवालों ने पगडंडी समझी थीं, आज वहां लड़कियाँ मुस्कुरा कर निकलती हैं। लोग अब शक से नहीं, सम्मान से देखते हैं। डीएम प्रिया सिंह ने बाद में कहा, “वर्दी का मतलब इन्साफ होता है, सत्ता नहीं। हम सबकी ज़िम्मेदारी बनती है कि डर के आगे चुप्पी से खड़े न हों।”
उस लड़ाई ने साबित कर दिया कि असली ताक़त वर्दी की पेपरी पर नहीं, इन्सानियत और हिम्मत में होती है। एक थप्पड़ ने न सिर्फ तीन भ्रष्ट पुलिसकर्मियों को बेनकाब किया, बल्कि पूरे समाज को सिखा दिया कि जब कोई चुपी हुई आवाज़ रोते हुए बोल उठती है, तो उसके पीछे एक लहर होती है, जो दीवारें तोड़ देती है। आज केंद्रीय बाजार वही है जहाँ हर लड़की खुद को सुरक्षित समझती है, क्योंकि वहाँ आखिरकार इन्साफ़ की सुनामी आई—और उसके आगे किसी की डोली नहीं चल सकी।
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